भगतसिंह और अम्बेडकर को मिलाने की कीमियागिरी: किसके रास्ते और किसके वास्ते

रमेश
मिलावट के इस दौर में तरह-तरह की मिलावटें हमारे सामने आ रही हैं। वैचारिक मिलावटें थोड़ा बारीकी से की जाती हैं और ये खाद्य पदार्थों में मिलावट से ज्यादा ख़तरनाक होती हैं। अभी पिछले दिनों अम्बेडकर जयन्ती के अवसर पर काफ़ी मज़ेदार परिदृश्य उपस्थित हुआ। दक्षिणपन्थियों से लेकर तथाकथित वामपन्थियों तक की विभिन्न सतरंगी धाराएँ नीले रंग से सारोबार होती हुई दिखीं। कहने को इन दोनों से जुड़े लोग विचारधारा के आधार पर आपस में 36 का आँकड़ा बताते हैं लेकिन इस मुद्दे पर लगता है इन्होंने न्यूनतम साझा समझदारी पर सहमति बना ली है। जाहिर सी बात है ज़रूर दाल में कुछ काला है। अम्बेडकर के प्रति इन सभी के दीवानेपन के पीछे कारण भले ही अलग-अलग रहे हों पर दीवानापन कमोबेश एक जैसा ही था। किसी को आने वाले समय में होने वाले 4 राज्यों के चुनाव की फिकर है, कोई अपने अतीत के ‘‘पापों’’ को धो रहा है, कोई दलित आबादी का दिल जीतने के चक्कर में है (लेकिन किसलिए?) तो कोई तर्क की बज़ाय भावनात्मक मासूमियत को अपना प्रस्थान बिन्दु बना रहा है और जय भीम – लाल सलाम के उद्घोष के साथ द्रवित हुआ जा रहा है। बहरहाल हम सीधे मिलावट की बात पर आते हैं। पहले यह स्पष्ट कर दें कि बेशक अम्बेडकर भी जाति उत्पीड़न के सवाल को ऐजेण्डे पर लाने वालों में से एक थे और अपने तौर पर जाति व्यवस्था के सवाल से जूझते भी रहे, इस तौर पर इन्हें याद करने में कोई हर्ज भी क्या हो सकता है लेकिन दिक्कत तब आती है जब अम्बेडकर और भगतसिंह के रास्ते पर चलने की बात की जाती है जैसे कि दोनों के रास्ते एक ही हों! कोई व्यक्ति एक साथ पूर्व और पश्चिम दिशा में कैसे जा सकता है या फ़िर विपरीत दिशा में जा रही दो नावों पर एक साथ सवारी कैसे की जा सकती है? भगतसिंह जिस साम्यवादी विचारधारा और दर्शन के आलोक में भारतीय मेहनतकश जनता की सच्ची आज़ादी के रास्ते के सन्धान का प्रयास कर रहे थे अम्बेडकर उसी साम्यवादी या मार्क्सवादी दर्शन को सुअरों का दर्शन करार दे रहे थे! ऐसे में इस मिलावट पर सवाल उठना लाज़िमी है।
अछूत सवाल नामक अपने लेख में भगतसिंह कहते हैं, ‘‘उठो, अछूत कहलाने वाले असली जन-सेवकों तथा भाइयो उठो! … संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे  अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुँह की ओर न ताको। लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है। यही पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और ग़रीबी का असली कारण है। इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना। उसकी चालों से बचना। तब सबकुछ ठीक हो जायेगा। तुम असली सर्वहारा हो! संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जायेंगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरो! उठो, और बगावत खड़ी कर दो।’’
कितना साफ़-साफ़ सन्देश है भगतसिंह का इस देश की आम मेहनतकश दलित आबादी के लिए। उनका साफ़ कहना था की छोटी-छोटी रियायतों या सुधारों से इस देश की आम मेहनतकश आबादी को कुछ खास हासिल नहीं होगा। जब तक ये औपनिवेशिक शासन, ये राज्य मशीनरी रहेगी तब तक कोई भी सरकार या इसके नुमाइन्दों में कोई भी आये; इससे जनता के हालात नहीं बदलने वाले। भगतसिंह ने चेताया था की अगर आज़ादी किसी समझौते से आयेगी तो इस देश के मज़दूरों, किसानों, छात्रों, नौजवानों और मेहनतकशों यानी कि पूरी आम जनता को कुछ भी हासिल नहीं होगा। बल्कि देश में जाति-धर्म के नाम पर वह आग लगेगी जिससे आने वाली पीढ़ियों का सिर शर्म से झुक जायेगा। क्या आज के हालात भगतसिंह के शब्दों को हुबहू सही साबित नहीं कर रहे हैं। वे किसी भी नज़रिये से संविधानवादी नहीं थे उनका सन्देश साफ़ है कि सर्वहारा क्रान्ति से ही सबकी मुक्ति हो सकती है। जबकि अम्बेडकर का क्रान्ति में कोई विश्वास ही नहीं था बल्कि वे तो ताउम्र अपने ड्यूईअन व्यवहारवाद के प्रयोग ही करते रहे। ये शासन-सत्ता के नज़दीक रहकर ही दलित समस्या का समाधान तलाशते रहे और टुकड़ों में कुछ छूट और रियायत दिलाकर ही समस्या का समाधान करने में प्रयासरत रहे।
लेकिन हमारे देश के तमाम तथाकथित वामपन्थी बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए एक ही सुरताल पर जय भीम और इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे उठा रहे हैं। आज पूरे देश के स्तर पर ऐसे आनेकों संगठन हैं जो या तो भगतसिंह और अम्बेडकर दोनों को ही नहीं जानते या फ़िर दोनों को जानते हुए किसी प्रकार की ठगी करने के प्रयास में हैं। तर्क की बजाय भावना से प्रस्थान करने वाले और भक्ति भाव में लीन भोले लोगों को फ़िलहाल हम उनके हाल पर छोड़ देते हैं। क्या इस बात को समझने के लिए किसी आकाशवाणी की ज़रूरत पड़ेगी कि अम्बेडकर और भगतसिंह दोनों की राजनीति, दर्शन और इतिहास की समझदारी भिन्न थी। इन दोनों के विचारों और रास्ते में समानता की तलाश करना या तो हद दर्जे की मूर्खता है या फ़िर अव्वल दर्जे का पाखण्ड है जिसके पीछे असल मकसद कुछ और ही छिपा है और हो सकता है दोनों भी हों।
आज संसदीय वामपन्थी तथा और भी ब्राण्डों के लोग खूब जय भीम – जय भीम कर रहे हैं और साथ में इंक़लाब ज़िंदाबाद भी कह देते हैं असल में बहुतों के लिए इंक़लाब का मतलब सरकार बनाने से है। इसी इंक़लाब का नमूना ये शूरवीर बंगाल और केरल में दिखा ही चुके हैं। सिंगुर और नन्दीग्राम के काण्डों को हुए अभी इतना समय भी नहीं हुआ कि लोग इन्हें भूल जायें। एक पार्टी के विधायकों को किन्हीं दिनों लालू जी ने खरीद लिया था वरना तो ये भी सरकार की पूँछ-वूँछ कुछ बन ही जाते इनके छात्रा  संगठन की एक नेत्री पिछले दिनों सतरंगी सलाम (!!??) कहते हुए भी पकड़ी गयी थी। असल में इन चुनावी भाण्डों को न तो भगतसिंह से कोई मतलब और न ही अम्बेडकर से; इनकी चुनावी गोट लाल होनी चाहिए, बस। भगतसिंह का और अम्बेडकर का नाम लेते हुए ये वोट बैंक को मज़बूत करने की फ़िराक में ही रहते हैं। अम्बेडकर के नाम को जहाँ ये दलित वोट बैंक के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं वहीं भगतसिंह का नाम भर लेना इनकी मज़बूरी है वरना तो भगतसिंह के विचार इनके लिए भी खतरनाक हैं। कुछ अतिवामपन्थी जन भी अम्बेडकर और भगतसिंह का नाम एक साथ लेकर अपनी वैचारिक कंगाली का ही परिचय दे रहे हैं। ये श्रीमान अपने अधकचरे अध्ययन के चलते नये-नये निष्कर्षों का सन्धान तो करते ही रहते हैं तो यह भी नयी बात नहीं है।
आज रियायतों, टुकड़ों, पहचान और अस्मिता की राजनीति करने वाले तमाम अम्बेडकरवादी संगठन भी भगतसिंह का नाम तो लेते हैं लेकिन उनके विचारों को दबाने में भारतीय शासक वर्ग को भी शर्मसार करते हैं। सभी किसी न किसी चुनावी पार्टी के वोट बैंक को बढ़ाने का ही काम करते हैं। आज जब व्यापक दलित आबादी खेत मज़दूर से लेकर कल-कारखानों तक में खट रही है और आये दिन उनके हक़-अधिकारों को कुचला जाता है तो सभी पहचान की राजनीति करने वाले अपने एक ही ठिकाने पर मिलेंगे और वो है इनका बिल। हालाँकि अम्बेडकर के कार्टून पर ये लोग खूब उछल कूद मचाते हैं। जबकि मज़दूरों के मुद्दों पर इन्हें साँप सूंघ जाता है जबमि दलितों का बहुसंख्यक हिस्सा मज़दूर है।
इन तमाम अवसरवादियों की बेशर्मी तब और खुलकर नग्न रूप में सामने आती है जब ये महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन का नाम तक नहीं लेते जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी जातिवादी और मानवद्रोही ताकतों के ख़िलाफ़ संघर्ष में स्वाहा कर दी। पहचान की राजनीति करने वाले अम्बेडकरवादियों को तो राहुल जी का नाम लेना ही कहाँ था किन्तु अपने आपको वामपन्थी कहने वाले लोग राहुल जी के प्रति यह रवैय्या अपनाकर अपने अवसरवाद और संशोधनवाद की खुद ही कलई खोल रहे हैं।
दलित आबादी में से निकल कर ऊपर उठा 7-8 फीसदी हिस्से का हित ही इसी व्यवस्था में है। अब इनको व्यापक दलित मुक्ति से कोई लेना-देना नहीं है इनकी मुक्ति तो इसी व्यवस्था के भीतर हो ही चुकी है। पूँजीवादी व्यवस्था के ही हितपोषक अम्बेडकर के विचार इन्हें ठीक ही रास आते हैं जबकि भगतसिंह के विचार पूरी दलित आबादी की मुक्ति के द्वार खोलते हैं। भगतसिंह के रास्ते पर चलने से इन्हें अपने स्वर्ग के खोने का डर है। ये अपने वर्ग से यारी और जाति से गद्दारी कर चुके हैं। व्यापक मेहनतकश दलित आबादी इनकी चालों को अच्छी तरह से जानती है और विकल्प के इन्तजार में है। आज गाँवों में आम दलित आबादी के जब यह बात साझा की जाती है कि उनकी मुक्ति का रास्ता अम्बेडकर नहीं बल्कि भगतसिंह है तो उन्हें पूरी बात सुनने में काई गुरेज़ नहीं होता। बहुत से साथी बातों से सहमत भी होते हैं किन्तु वहाँ भी दिक्कत होती है तो तमाम छुटभैय्ये नेताओं को जिन्हें केवल दलित वोट बैंक की ही चिन्ता होती है न कि व्यापक दलित आबादी की इस शोषणकारी व्यवस्था से मुक्ति की।
यह एकदम दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि सभी तरह की पहचान की राजनीति के साथ भगतसिंह के विचारों का कोई मेल नहीं हो सकता। दूसरे अपने चुनावी गोट लाल करने के लिए इनका नाम लेते हैं। अम्बेडकर की छवि का इस्तेमाल भी दलित वोट बैंक सुरक्षित करने के लिए ही हो रहा है। भगतसिंह और अम्बेडकर की राजनीति में कोई साम्य नहीं है। इन दोनों के रास्तों को एक रास्ता बताने वाले घोर अवसरवादिता और वैचारिक दरिद्रता का ही परिचय दे रहे हैं।


मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016

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