यूनान के चुनाव और वैश्विक संकट

सुजय

यूनान में सार्वभौम ऋण संकट के विकराल होने के बाद पापैण्ड्रू सरकार गिर गयी थी। उसके बाद मई में पहली बार चुनाव हुए जिसमें न्यू डेमोक्रेसी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और दूसरे स्थान पर सिरिज़ा पार्टी (यह कई किस्म के वामपन्थी संगठनों का गठजोड़ है) आयी, जो कि सार्वजनिक मदों में कटौती करने का विरोध कर रही है। लेकिन इन चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत (151 सीटें) नहीं मिला। दूसरा चुनाव तय हुआ जो कि 17 जून को हुआ। इस चुनाव में न्यू डेमोक्रेसी और सिरिज़ा, दोनों को ही पहले से ज़्यादा वोट मिले। सबसे ज़्यादा फ़ायदा सिरिज़ा को हुआ क्योंकि वह सरकार द्वारा जनता को दी जाने वाली सरकारी सेवाओं के मद में की जाने वाली कटौती का विरोध कर रही है। लेकिन इस बार भी स्पष्ट बहुमत किसी को नहीं मिला। न्यू डेमोक्रेसी पार्टी का मानना था कि एक बीच का रास्ता अपनाया जाना चाहिए और यूरोज़ोन में बने रहने के लिए आई.एम.एफ़., यूरोपियन कमिशन और यूरोपीय मौद्रिक संघ को इस बात के लिए मनाया जाना चाहिए कि वह देश की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक मदों में कटौती की शर्तों को हल्का कर दे और यूनान को दिये जाने वाले बचाव पैकेज को बढ़ाये। सिरिज़ा ने गठबन्धन सरकार में किसी भी ऐसी पार्टी के साथ रहने से इंकार कर दिया जो कि किसी भी रूप मे सार्वजनिक मदों में कटौती के लिए यूरोपीय संघ के समृद्ध देशों द्वारा डाले जा रहे दबाव के समक्ष समर्पण करती हो। ऐसे में, न्यू डेमोक्रेसी को दो अन्य छोटी पार्टियों की ओर मुड़ना पड़ा – पासोक (पैन हेलेनिक सोशलिस्ट मूवमेण्ट) और डिमार (डेमोक्रेटिक लेफ्रट)। लम्बी बातचीत और चर्चाओं के बाद अन्त में इन तीन पार्टियों ने गठबन्धन सरकार बनायी। इन तीनों पार्टियों का ज़ोर इस बात पर है कि किसी भी कीमत पर यूनान को यूरोज़ोन को न छोड़ना पड़े। लेकिन वास्तव में, ऐसा अब सम्भव नहीं दिख रहा है। इस गठबन्धन सरकार बनने से सिर्फ इतना हुआ है कि यूनान का यूरोज़ोन से बाहर जाना थोड़ा टल गया है।

इस समय अगर सार्वजनिक मदों में ज़रा भी कटौती की नीतियों को जारी रखा गया तो आने वाले एक-डेढ़ वर्षों में ही जनता फिर से सड़कों पर होगी और इस बार हालात विद्रोह के भी हो सकते हैं। नयी गठबन्धन सरकार एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही है। मौजूदा नीतियों के लागू रहते हुए यूनान के पास यूरोज़ोन से बाहर जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है। और दिक्कत यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में रहते हुए यूनान और कोई नीति अपना नहीं सकता है। अगर वह यूरोज़ोन से बाहर जाता है जो कि यूनानी सरकार को अपनी मुद्रा द्राख्मा का उपयोग करने और मौद्रिक लचीलापन का अधिकार मुहैया करायेगा, तो भी कुछ समय में संकट किसी और रूप में वापस लौटेगा। मौद्रिक संघ में बने रहते हुए यूनान अपने सार्वभौम ऋण संकट से नहीं निपट सकता है और सरकार दीवालियापन की कगार पर जा पहुँचेगी, जैसा कि कुछ महीने पहले यूनान में हो चुका है, और आगे भी होने की पूरी सम्भावना है, जब उसके पास अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन देने तक के पैसे नहीं बचे थे। जनता ने चुनावों में दिखलाया कि वह सार्वजनिक मदों में कटौती करने वाली पार्टियों को नकार रही है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उसके पास अभी और कोई विकल्प भी नहीं है।

सार्वजनिक मदों में कटौती की नीति, जिसे अंग्रेज़ी में ‘ऑस्टियरिटी’ की नीति कहा जा रहा है, का अर्थ वास्तव में यह है कि पहले बैंकों को जनता के पैसे से बेल आउट पैकेज देकर बचाओ (जो कि अपने ही लोभ-लालच की गतिकी के कारण तबाह हुए हैं), और उसके बाद जब सरकारी ख़ज़ाना कम पड़ जाये तो भारी ब्याज़ दरों पर उन्हीं बैंकों से ऋण लो (जो कि वास्तव में जनता का ही पैसा है), और फिर जब सरकारी ख़ज़ाने में ब्याज़ भरने लायक भी पैसा न बचे तो सरकारी वित्तीय घाटा घटाने के लिए ग़रीब जनता पर करों का बोझ बढ़ाओ और सार्वजनिक मदों, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, सामाजिक सुरक्षा आदि पर ख़र्च में कटौती करो। यानी कि परजीवी वित्तीय पूँजी के लोभ-लालच और धोखाधड़ी से पैदा हुए संकट की कीमत जनता से वसूल करो। अब यूनानी जनता भी इस गोरखधन्धे को समझ रही है और इसलिए कोई भी ऐसी पार्टी उसका समर्थन नहीं पा सकती जो कि खुले तौर पर और नंगे शब्दों में इन “किफ़ायतसारी” की नीतियों का समर्थन करे। लेकिन कोई भी पूँजीवादी (जिसमें कि भारत के सीपीआई-सीपीएम मार्का पार्टियों के यूनानी संस्करण शामिल हैं) पार्टी इन नीतियों के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकती। कोई पार्टी यूरोज़ोन से बाहर जाकर अपने कर्जों की देनदारी की समस्या को मौद्रिक लचीलापन प्राप्त करके हल करने के बारे में सोच सकती है, लेकिन इससे भी समस्या का स्थायी समाधान सम्भव नहीं है। और मौजूदा नीतियों के दायरे में रहते हुए तो तबाही टलने की बजाय पहले ही घटित हो जायेगी। मौजूदा ख़र्च कटौती (मतलब जनता पर होने वाले ख़र्च में कटौती) की नीतियों के कारण यूनान का सकल घरेलू उत्पाद संकट शुरू होने के बाद से एक-तिहाई के करीब पहुँच गया है; राष्ट्रीय आय में पिछले चार वर्षों में 30 प्रतिशत की कटौती हो चुकी है। यूनान की स्थिति विस्फोटक हो चुकी है। लेकिन सच यह है कि ज़्यादातर दक्षिण यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की हालत इसी नियति की ओर बढ़ रही है। मिसाल के तौर पर स्पेन, पुर्तगाल, इटली आदि की स्थिति लगातार ख़राब हो रही है। इनके कर्जों का प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद में अधिकांशतः 70 फीसदी के स्तर को पार कर गया है, जो कि कभी भी संकट को यूनान जैसा ही गम्भीर बना सकता है।

इस सूरत में यूनान में जल्द ही, और अन्य परिधिगत अर्थव्यवस्थाओं के सामने एक ही विकल्प है – भविष्य में वे अपने पूरे कर्ज़ या कर्ज़ के एक हिस्से की देनदारी निपटाने में अक्षम घोषित हो जायेंगी, और फिर उनमें से कुछ यूरोपीय मौद्रिक संघ को छोड़ देंगी। इसको रोकने के कुछ कींसियाई नुस्खे सुझाने के लिए जयति घोष, सी.पी.चन्द्रशेखर और प्रभात पटनायक जैसे लोग रोज़ ढेरों पन्ने काले कर रहे हैं। उनका सुझाव है कि यूरोपीय संघ एक साझा बैंक डिपॉजिट बनाये जिससे कि जिस भी क्षेत्र पर अधिक दबाव हो, उसकी ऊपर से सहायता करके मदद की जा सके। लेकिन वे इतनी बात नहीं समझ पा रहे हैं कि ऐसा तभी सम्भव है जब जर्मनी यूरोपीय संघ में अपनी वर्चस्वकारी स्थिति को छोड़ने के लिए तैयार हो। सभी जानते हैं कि यूरोपीय संघ जैसे पूँजीवादी संघ से भाईचारे की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इस यूरोपीय संघ से सबसे ज़्यादा फायदा जर्मनी और फ्रांस और उत्तर यूरोपीय देशों को हुआ है, जबकि अन्य परिधिगत यूरोपीय देश इसमें लगातार लुटे हैं। अन्ततः, यही होना था जो हो रहा है।

लेकिन यूरोज़ोन के टूटने की प्रक्रिया किसी भी रूप में सहज नहीं होगी। इसके कई कारण हैं। एक कारण तो यह है कि यूरोज़ोन से बाहर जाने की कोई स्पष्ट संवैधानिक प्रक्रिया नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई देश इससे बाहर नहीं जा सकता है, लेकिन निश्चित रूप से यह प्रक्रिया राजनीतिक और आर्थिक रूप से काफ़ी तनावपूर्ण होगी। दूसरा कारण प्रमुख है और वह आर्थिक कारण है। अगर कोई एक देश भी यूरोज़ोन से बाहर जाता है तो वह पूरे यूरोज़ोन के अस्तित्व को अनिश्चितता में डाल देगा। इसका कारण यह है कि किसी भी एक देश के बाहर जाने के साथ यूरोज़ोन के लिए आर्थिक साख का संकट पैदा हो जायेगा। यूरोज़ोन के भीतर मौजूद देशों से भी वित्तीय पूँजी उड़न-छू होने लगेगी, जिसे अंग्रेज़ी में ‘बैंक रन’ कहा जाता है। वित्तीय बाज़ार अपना मुँह यूरोज़ोन से मोड़ना शुरू कर देंगे और यह फिर से पूँजी प्रवाह को यूरोज़ोन से बाहर की दिशा में मोड़ेगा। कुल मिलाकर, यह एक अन्योन्याश्रित क्रिया होगी, जो लगातार बढ़ती जायेगी। वास्तव में, यूरोज़ोन में वित्तीय पूँजी का भागना छोटे और माध्यमिक पैमाने पर शुरू भी हो चुका है। संकट के शुरू होने के बाद से यूनानी बैंकों में कुल बचत एक तिहाई तक गिर चुकी है। मई में हुए पहले चुनाव के बाद एक लटकी हुई संसद अस्तित्व में आयी थी, और इसके दो दिनों के भीतर ही बैंकों से 1.2 अरब यूरो निकाल लिये गये थे। इतने नुकसान के बावजूद यूनानी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से धराशायी होने से सिर्फ इसलिए बच गयी क्योंकि उसे यूरोपीय सेण्ट्रल बैंक से थोड़ी मदद मिली। लेकिन हर मदद के साथ यूनान पर ख़र्च कटौती की नीतियों को जारी रखने का दबाव बढ़ता गया। 2012 की शुरुआत से अभी तक स्पेन और इटली के बैंकों से 300 अरब डॉलर निकाले जा चुके हैं। लेकिन यह ख़तरा सिर्फ इन देशों पर नहीं गिरने वाला है। इसका कारण यह है कि यूरोपीय संघ के धनी देशों के बैंकों और सरकारों को अन्त में इन्हीं देशों को ऋण देना है, क्योंकि अन्य जगहों पर ऋण बाज़ार सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँच रहा है। ये देश इन्हीं नीतियों के साथ अन्ततः दीवालिया ही होने हैं। ऐसे में, इन देशों के कर्ज देने में पूर्ण अक्षमता की स्थिति में पहुँचने के साथ ही धनी देशों के बैंकों के लिए भी असमाधेयता का संकट पैदा हो जायेगा। कोई भी अर्थशास्त्र समझने वाला और विवेक रखने वाला व्यक्ति इस प्रक्रिया का पूर्वानुमान सटीकता से लगा सकता है। लेकिन क्या इज़ारेदार वित्तीय पूँजी इन चीज़ों को नहीं समझ रही है? बिल्कुल समझ रही है! फिर वह इन नीतियों को क्यों लागू कर रही है? क्योंकि वह लम्बा सोचने की क्षमता नहीं रखती। भयंकर मौद्रिक युद्धों और वित्तीय प्रतिस्पर्द्धा के दौर में हर कोई तुरत-फुरत मुनाफ़ा कमाने की जुगत भिड़ाता रहता है, क्योंकि वह और कुछ कर ही नहीं सकता है। इसलिए अन्त में प्रतियोगिता इस बात की होती है कि पहले किसकी साँस टूटने वाली है। जाहिर है कि अन्त में सभी की साँस टूटेगी! यहाँ यूनान की साँस पहले टूटते हुए नज़र आ रही है!

अगर दूरदृष्टि के साथ सोचा जाये तो साफ है यूरोज़ोन के ख़त्म होने का अर्थ सिर्फ यूनान या परिधिगत अर्थव्यवस्थाओं की तबाही नहीं है। वास्तव में, यह यूरोप के हरेक देश के लिए संकट को और गहरा बनायेगा। और आज वैश्विक अर्थव्यवस्था समेकन के जिस स्तर पर है, उसमें यह संकट और भी अधिक विकराल रूप में आने वाला है, और भी अधिक तेज़ी से पूरी दुनिया में फैलने वाला है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था जिसमें सुधार होने की बात आजकल की जा रही है, वह भी भ्रामक है। अगर आँकड़ों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि वास्तव में उसकी वृद्धि दर अभी भी मन्दी वाले स्तरों के करीब बनी हुई है – करीब 2-2 प्रतिशत। लेकिन सिर्फ आँकड़ों से ही पूरी तस्वीर साफ नहीं होती है। आँकड़ों के अनुसार इस तिमाही में अमेरिका में बेरोज़गारी की दर नीचे आयी है। क्योंकि आँकड़े आपको यह नहीं बताते कि बेरोज़गारी की दर रोज़गार दर बढ़ने या अधिक लोगों को नौकरी मुहैया कराये जाने से नहीं बल्कि बड़ी संख्या में लोगों के कार्यशक्ति से स्वैच्छिक तौर पर बाहर होने से आयी है, जिसे अंग्रेज़ी में ‘डिस्करेज्ड वर्कर्स इफेक्ट’ कहा जाता है। अगर बेरोज़गार लोगों की निरपेक्ष तादाद पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ही उनकी संख्या 50 लाख है। नौकरियों के पैदा होने की दर में कमी अभी भी जारी है। इसके कारण घरेलू उपभोक्ता ख़र्च में कमी आ रही है और वास्तविक अर्थव्यवस्था संकट के भँवर में और गहरायी से फँसती जा रही है। ऐसे में, अगर आने वाले कुछ वर्षों के दौरान यूरोपीय संघ की गाड़ी पूरी तरह से पटरी से उतरती है, तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी भयंकर मन्दी में फँसने से रोका नहीं जा सकेगा।

तथाकथित “उभरती अर्थव्यवस्थाएँ” जो कि संकट के पहले दौर में अपेक्षाकृत कम प्रभावित रही थीं, अब बुरी तरह प्रभावित होने की कगार पर पहुँच चुकी हैं। संकट अपनी शुरुआत से ही पूर्व की ओर खिसक रहा है। और अब वह दक्षिण-पूर्व और सुदूर पूर्व के दरवाज़ों पर दस्तक दे रहा है। और उसे कोई रोक भी नहीं पायेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट से हम सभी वाकिफ हैं। चीन में भी संकट बढ़ रहा है और सरकार नया स्टिम्युलस पैकेज देने की बातें कर रही है।

लाख प्रयासों के बावजूद पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट से मुक्त नहीं हो पा रही है। इस संकट का बोझ निश्चित रूप से हर सूरत में जनता के ऊपर ही डाला जाता है। इसके कारण इस संकट के कुछ राजनीतिक और सामाजिक परिणाम भी सामने आने ही हैं। ऐसे में, दुनिया भर की सरकारें और ख़ास तौर पर विकासशील देशों की सरकारें अपने काले कानूनों के संकलन को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने में लगी हुई हैं; अपने सशस्त्र बलों को अधिक से अधिक चाक-चौबन्द कर रही हैं; हर प्रकार की नागरिक, राजनीतिक और बौद्धिक स्वतन्त्रताओं को छीन रही हैं; राजसत्ता को अधिक से अधिक दमनकारी बनाने में लगी हुई हैं। कारण स्पष्ट है। व्यवस्था के दूरदर्शी पहरेदार भी समझ रहे हैं कि इस संकट के दो ही सम्भावित परिणाम हो सकते हैं। एक, यह संकट क्रान्तियों के नये संस्करणों को पैदा करेगा; और दो, क्रान्तियों की भ्रूण हत्या कर दी जाये और फिर युद्धों को जन्म देकर उत्पादक शक्तियों का बड़े पैमाने पर विनाश किया जाये और अतिउत्पादन और पूँजी की प्रचुरता के इस संकट से निजात पायी जाये। क्रान्तियों को भ्रूण में ही ख़त्म करने के लिए इनके सम्भावित नेतृत्व और सम्भावित विचारधारा पर हमलों को बढ़ा दिया गया है। मार्क्सवाद पर नये तरह के और नये तरीक़े से हमले किये जा रहे हैं, समाजवाद के प्रयोगों पर नये सिरे से हमले किये जा रहे हैं। विडम्बना की बात यह है कि मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु और समाजवाद के प्रयोगों की उपलब्धियों की हिफ़ाज़त करने की बजाय क्रान्तिकारियों का भी एक हिस्सा इस कृत्रिम तौर पर पैदा किये जा रहे संशयवाद का शिकार है, और समाजवाद के प्रयोगों की ठीक उन चीज़ों को ठुकरा रहा है, जो कि उसकी सबसे ज़रूरी और सबसे क्रान्तिकारी चीज़ें थीं। आने वाले समय में जनता को एक सही क्रान्तिकारी विचारधारा का मार्गदर्शन दिया जा सके, इसके लिए यह ज़रूरी है कि मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु की हमेशा से ज़्यादा संकल्पबद्ध ढंग से हिफ़ाज़त की जाये, और जनता को राजनीतिक नेतृत्व देने के लिए बोल्शेविक उसूलों पर खड़ी एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का नये सिरे से निर्माण किया जाये। समाजवाद की घड़ी फिर से आयेगी। सवाल यह है कि हम उसके लिए तैयार हैं या नहीं। अगर वह घड़ी बीत गयी तो हमारी सज़ा होगी – फासीवाद।’

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

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