फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास का विकृतीकरण
विराट
मोदी सरकार के आते ही संघ ने इतिहास को विकृत करने की मुहिम तेज़ कर दी है। वैसे पहले से ही इतिहास को विकृत करने का संघ का अपना लम्बा और “गौरवशाली” इतिहास रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड’ में भारत का “ऐतिहासिक विश्लेषण” करते हुए कहते हैं कि आर्य भारत में बाहर से नहीं आये बल्कि भारत से विश्व के दूसरे स्थानों पर गये। वैज्ञानिक तथ्य जब बताते हैं कि आर्यों की उत्पत्ति उत्तरी ध्रुव के आस-पास हुई तो गोलवलकर वैज्ञानिक तथ्यों से “बिना कोई छेड़छाड़ किये” उत्तरी ध्रुव को ही भारत में उठा लाते हैं और बताते हैं कि असल में उत्तरी ध्रुव भारत में ही उड़ीसा के आस-पास कहीं था और वह यहाँ से खिसककर वहाँ जा पहुँचा जहाँ वह आज है। ये सब बातें सुनकर आपका सिर चकरा सकता है कि कोई इतने हद दर्ज़े की मूर्खता भरी बातें कैसे कर सकता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन अगर यह पढ़ते तो वह भी एक बार और यह दोहराने के लिए मजबूर हो जाते – “दो चीज़ों की कोई सीमा नहीं होतीः मानवीय मूर्खता और ब्रह्माण्ड। मैं ब्रह्माण्ड के बारे में पक्का नहीं हूँ।”
यह तो संघ की इतिहास दृष्टि का मात्र एक उदाहरण है। ऐसे सैकडों “ऐतिहासिक तथ्य” संघ द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में पढ़ने को मिल सकते हैं। अब यह सवाल उठता है कि आख़िर गोलवलकर ने ऐसी गोल-गोल बातें क्यों की हैं और इतिहास को विकृत करने से संघ को क्या हासिल होगा। इस बात की जाँच-पड़ताल हम आगे करेंगे। फ़िलहाल संघीय मूर्खता (धूर्तता!) के कुछ और उदाहरण देखते हैं। संघ के अनुसार आज आधुनिक विज्ञान जहाँ तक पहुँचा है, प्राचीन भारत का विज्ञान उससे मीलों आगे निकल चुका था। इसकी मिसाल जनवरी के प्रथम सप्ताह में सम्पन्न हुई 102वीं इण्डियन साइंस कांग्रेस के दूसरे दिन देखने को मिली। 8 वक्ताओं ने प्राचीन भारत में विज्ञान की प्रगति पर अपनी बात रखी। किसी तर्कशील व्यक्ति ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि विज्ञान के ऐसे मंच पर इस तरह की अनाप-शनाप बातें सुनने को मिलेंगी जैसी कि इन वक्ताओं के मुँह से सुनने को मिलीं। आनन्द बोडसे, इन्हीं वक्ताओं में से एक, के अनुसार प्राचीन भारत में ऐसे विमान थे जो एक देश से दूसरे देश, एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप व एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक भी जा सकते थे! (खोज करने पर शायद आज भी कुछ पूर्वज अन्तरिक्ष में विचरण करते हुए मिल जायें!) ये विमान केवल आगे की ओर ही नहीं बल्कि पीछे की ओर भी उड़ सकते थे। भारद्वाज और अगस्त्य जैसे ऋषियों ने 7000 वर्ष पहले वैदिक काल में इस तरह के विमानों का निर्माण किया था! आनन्द बोडसे अपने इस शोध का आधार ‘वैमानिक शास्त्र’ नामक पुस्तक को बताते हैं जो कि उनके अनुसार हज़ारों साल पहले ऋषि भारद्वाज ने लिखी थी। इन मूर्खतापूर्ण तर्कों का खण्डन 40 साल पहले ही आईआईएससी बंग्लौर के प्रोफ़ेसर मुकुन्द, एसएस देशपाण्डे व अन्य की टीम कर चुकी है। अपने शोध पत्र में वो दिखाते हैं कि ‘वैमानिक शास्त्र’ की रचना हज़ारों साल पहले नहीं बल्कि 1900 से 1922 के बीच हुई और जिस तरह के मॉडल इस पुस्तक में दिये गये हैं वो बेहद हास्यास्पद हैं और उनके उड़ने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
इसके अलावा प्राचीन भारत के सम्बन्ध में वही दावे पेश किये गये जो कि संघ दशकों से करता आ रहा है, जैसे कि- सर्जरी के ज़रिये इंसान के धड़ पर हाथी का सिर लगाया जा सकता था! जेनेटिक इंजिनियरिंग भी की जाती थी! गुरुत्वाकर्षण के नियम न्यूटन से पहले भारत के ऋषि-मुनियों ने खोज लिये थे! भारत के पास परमाणु बम से भी ख़तरनाक हथियार थे! आदि-आदि। यह सारा ज्ञान कहाँ विलुप्त हो गया? इसका ज़िम्मेदार संघ विदेशी आक्रमणों को ठहराता है। संघ यह प्रचार करता है कि विदेशी आक्रमणों ने मन्दिरों, विश्वविद्यालयों आदि को नष्ट कर दिया और यह सारा ज्ञान भी स्वाहा हो गया। यह बेहद हास्यास्पद है। विदेशी शासक घोड़ों पर बैठकर हाथ में तलवार और भाले लिये आये और सबकुछ तबाह कर दिया! ब्रह्मास्त्र धरे के धरे रह गये, विमान घोड़ों का मुकाबला न कर सके! कोई भी तार्किक व्यक्ति संघ के इतिहास बोध पर केवल हँस ही सकता है। रामायण और महाभारत भी संघ के अनुसार पूर्णतः वास्तविक हैं। लेकिन इन महाकाव्यों के किस संस्करण को वास्तविक माना जाये? यह सच है कि ये महाकाव्य हमें प्राचीन भारत के इतिहास को समझने के लिए महत्वपूर्ण सामग्री देते हैं लेकिन इन्हें ऐतिहासिक स्रोत नहीं बल्कि साहित्यिक-ऐतिहासिक स्रोतों के तौर पर लिया जाना चाहिए और उनका विकूटीकरण और विनिर्माण करके ही उनसे इतिहास के विषय में अहम जानकारियाँ ग्रहण की जा सकती हैं। साथ ही, क्या उसी समय के आस-पास रचित इन महाकाव्यों के अन्य संस्करणों की भी अच्छे से जाँच-पड़ताल नहीं की जानी चाहिए? इन महाकाव्यों के बौद्ध व जैन संस्करण भी उपलब्ध हैं जिनकी अभी तक पूरी तरह से जाँच-पड़ताल नहीं की जा सकी है। रामायण के बौद्ध संस्करण जिसे ‘दशरत जातक’ के नाम से जाना जाता है और जिसका रचना काल वाल्मीकि रामायण के ही आस-पास है, के अनुसार राम व सीता भाई-बहन थे। इन ग्रन्थों से भी विनिर्मित करने के बाद हमें इतिहास से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हो सकती है। लेकिन संघ से इतिहास का वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन करने की माँग वैसी ही है जैसे किसी गधे से गाना गवाना।
इसी तरह के इतिहास को स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाये जाने के लिए नरेन्द्र मोदी की सरकार सभी रास्ते साफ़ करती जा रही है। मोदी ख़ुद कितने “गम्भीर इतिहासकार” हैं यह उनकी रैलियों में पहले ही देखा जा चुका है। (बिहार के लोगों की सिकन्दर के साथ जंग, तक्षशिला विश्वविद्यालय के बिहार में होने और गणेश की प्लास्टिक सर्जरी होने जैसे अनेकों उदाहरण गिने जा सकते हैं जो दिखाते हैं कि मोदी का इतिहास के सम्बन्ध में ज्ञान कितना हास्यास्पद है।) दीनानाथ बत्रा जैसे “इतिहासकारों” की लिखी हुई किताबें स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं। (संघ की विचारधारा के विपरीत लिखी किताबों को प्रतिबन्धित करवाने का कीर्तिमान इनके नाम है!) ज़ाहिर है कि इस तरह की किताबें जिनमें इतिहास के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, बच्चों की तर्कणा को समाप्त कर देंगी। यही संघ चाहता भी है। संघ आज अपनी विचारधारा और राजनीति के अनुसार इतिहास को गढ़ रहा है।
संघ एक फ़ासीवादी संगठन है जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि हिन्दुओं का यहाँ के मूलनिवासी होने का झूठ गढ़ा जाये। इसी वजह से गोलवलकर यह कहते हैं कि आर्य बाहर से नहीं आये बल्कि यहाँ से बाहर गये। इसी कारण से संघ सिन्धु घाटी सभ्यता को आर्य सभ्यता साबित करने पर तुला हुआ है। अब अन्य धर्मों के विरुद्ध अपने एजेण्डे को हवा देने के लिए यह झूठ गढ़ना भी आवश्यक है कि प्राचीन भारत में अन्य धर्मों के आने से पहले सबकुछ बहुत गौरवशाली था और भारत में वह स्वर्ण युग था। इसीलिए संघ प्राचीन भारत के इतिहास को महिमामण्डित करने में लगा है और कभी प्राचीन भारत में विमान उड़ने, तो कभी प्लास्टिक सर्जरी जैसी तमाम बातें करता है। एक बार जब व्यापक आबादी के बीच इस तरह का झूठा प्रचार कर दिया जाता है तो फ़ासीवादियों के लिए यह आसान हो जाता है कि जनता की सारी दिक्कतों-परेशानियों का ज़िम्मेदार जनता के ही एक छोटे हिस्से को ठहरा दिया जाये। भारत में संघ मुख्य तौर पर मुस्लिम आबादी को जनता की सारी दिक्कतों-परेशानियों का ज़िम्मेदार ठहराता है। इसीलिए अक्सर संघी नेताओं के ऐसे भद्दे बयान आते रहते हैं – “17 करोड़ मुसलमान यानी कि 17 करोड़ हिन्दू बेरोज़़गार।” ताजमहल, कुतुब मीनार और यहाँ तक कि मक्का स्थित मदीना को भी प्राचीन हिन्दु इमारतें बताना इसी रणनीति का हिस्सा हैं। पहले भारत के गौरवशाली अतीत का मिथक तैयार किया जाता है और फिर मुस्लिम शासकों द्वारा इस अतीत को नष्ट कर दिये जाने का झूठ गढ़ा जाता है। इस तरह संघ अन्य धर्मों के विरुद्ध व्यापक हिन्दू आबादी को खड़ा करने की ज़मीन तैयार करता है और व्यापक आबादी को आपस में बाँट देता है।
यह समझना बेहद ज़रूरी है कि आख़िर फ़ासीवाद किसकी सेवा करता है। मोदी सरकार ने आते ही जिस गति से बड़े पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के लिए नीतियाँ बनानी शुरू की है, उसने सिद्ध कर दिया है कि फ़ासीवादी ताक़तें हर-हमेशा बड़े पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती हैं। जिस आर्थिक संकट से पूरा विश्व जूझ रहा है और पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा कम हो रहा है, ऐसे में पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े को कायम रखने के लिए आज फ़ासीवाद का सहारा ले रहा है। यह याद रखना चाहिए कि फ़ासीवाद पूँजीपति वर्ग का ज़ंजीर से बँधा कुत्ता होता है जिसकी ज़ंजीर पूँजीपति वर्ग संकट के समय खोल देता है। यही कारण है कि आज विश्व भर के पूँजीपति अपने-अपने देशों में धुर दक्षिणपन्थी ताक़तों को सत्ता में लाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं जो कि डण्डे की ताक़त से मेहनतकश जनता को लूटकर उसके मुनाफ़े को बरकरार रखे। मोदी का भारत में सत्ता में आना भी इसी की एक कड़ी है।
भाजपा सरकार के सत्ता में आते ही संघ ने अपने फ़ासीवादी प्रचार और अधिक तीव्रता से करना शुरू कर दिया है। इसका कारण यह है कि सत्ता में आने के बाद जब सरकार लगातार जनविरोधी नीतियों को अमल में लायेगी तो यह निश्चित है कि जन-विद्रोह की स्थितियाँ पैदा होंगी और नये-नये जनान्दोलन सिर उठायेंगे। ऐसे में उसके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि आम जनता को आपस में बाँट दिया जाये तभी वह निर्बाध रूप से पूँजी की चाकरी कर सकेगी। यही कारण है कि जब से भाजपा सत्ता में आयी है तब से घर-वापसी, लव जिहाद, हिन्दू-राष्ट्र निर्माण जैसे साम्प्रदायिकता को हवा देने वाले मुद्दे उछाले जा रहे हैं ताकि जो जनविरोधी आर्थिक नीतियाँ सरकार लागू कर रही है, उनसे जनता का ध्यान हटाया जा सके।
हिटलर के प्रचार मन्त्री गोएबल्स की नीति, कि एक झूठ को सौ बार दोहराने से वह सच हो जाता है, को हमें याद रखना चाहिए। यही नीति सभी देश के फ़ासीवादियों की होती है। अगर जनता के सामने वर्ग अन्तरविरोध साफ़ नहीं होते और उनमें वर्ग चेतना की कमी होती है तो इतिहास का विकृतिकरण करके व अन्य दुष्प्रचारों के ज़रिये उनके भीतर किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लोगों के प्रति अतार्किक प्रतिक्रियावादी गुस्सा भरा जा सकता है और उन्हें इस भ्रम का शिकार बनाया जा सकता है कि उनकी दिक्कतों का कारण उस विशेष सम्प्रदाय, जाति या धर्म के लोग हैं। क्रान्तिकारी शक्तियों को फ़ासीवादियों की इस साज़िश का पर्दाफ़ाश करना होगा और सतत प्रचार के ज़रिये जनता के भीतर वर्ग चेतना पैदा करनी होगी। इतिहास को विकृत करना फ़ासीवादियों का इतिहास रहा है। और यह भी इतिहास रहा है कि फ़ासीवाद को मुँहतोड़ जवाब देने का माद्दा केवल क्रान्तिकारी ताक़तें ही रखती हैं। फ़ासीवाद को इतिहास की कचरा पेटी में पहुँचाने का काम भी क्रान्तिकारी शक्तियाँ ही करेंगी। और तब इतिहास को विकृत करने वाला कोई न बचेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015
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