पैदा हुई पुलीस तो इबलीस ने कहा, लो आज हम भी साहिबे-औलाद हो गये!
कैम्पस के अन्दर भावी पुलिसकर्मियों का ताण्डव

कुणाल

राजधानी दिल्ली में कदम रखते ही सब कुछ व्यवस्थित, खूबसूरत और साफ़ सुथरा दिखता है। चौड़ी सड़के, ऊँची इमारतें, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, तेज रफ्तार से चलती गाड़ियाँ और चमचमाती मेट्रो रेलें-यह सब चीजे़ं किसी को भी प्रभावशाली लग सकती हैं। और इस प्रभाव में हम यह भी मान लेते हैं की राजधानी में हर चीज बहुत व्यवस्थित है-चाहे यहाँ का न्याय-तंत्र हो, पुलिस हो या कोई सरकारी द”तर हो, सब लोग अपना काम बेहद ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता से करते हैं। चलिए तो फ़िर भारत की राजधानी दिल्ली में राज-काज के कितने व्यवस्थित ढंग से किये जाते है, इस पर एक नज़र डालते हैं।

15 और 16 सितम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैम्पस के इस्द्रप्रस्थ कॉलेज की छात्राओं के साथ दिनदहाड़े छेड़छाड़ व यौन उत्पीड़न की कई घटनाएँ सामने आई। अकेली जा रही छात्राओं को रास्ते में रोक दो-दो सौ लड़कों ने घेरकर, उनके साथ बदतमीजी की, अश्लील फ़िकरे कसी और गालियाँ दीं। इन लड़को का पशुवत् व्यवहार इस हद तक जा पहुंचा की इन्होंने कुछ लड़कियों के कपड़े तक फ़ाड़ दिये। कुछ ने रिक्शों को रोक, उनमें बैठी लड़कियों के सामने अपने जंगलीपन और असभ्यता का उदाहरण पेश किया तो कुछ ने बस स्टॉप व दुकानों पर खड़ी लड़कियों को अपनी कुण्ठा का शिकार बनाया।

इन तमाम नीच और अमानवीय कार्यों को अन्जाम देने वाले और कोई नहीं बल्कि इस देश की ‘स्कॉटलैन्ड यार्ड’ कही जाने वाली दिल्ली पुलिस में भर्ती की परीक्षा देने आये लड़के थे। ये वही लोग हैं जिनमें से कुछ की छँटनी करके, बाकी को जनता की ‘रक्षा’ के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। शर्मनाक बात यह है की जब दिन–दहाड़े यह बर्बरता की जा रही थी तो उस इलाके में तैनात दिल्ली पुलिस के कर्तव्यपरायण पुलिसवाले नपुन्सकों की तरह पूरा तमाशा देखते रहे।

घटना के बाद जब कुछ छात्राएँ रिपोर्ट दर्ज कराने कैम्पस स्थित मुखर्जी नगर थाने गयीं तो वहाँ उनकी बात सुनने के कोई भी महिला पुलिसकर्मी मौजूद नहीं थी। बाकी बैठे पुरुष पुलिसकर्मियों ने भी पहले छात्राओं की शिकायत को अनसुना कर दिया और बाद में बात को टालने के लिये छात्राओं के छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न के वर्णन देने के लिए उन्हें बाध्य किया और उनसे अश्लील सवाल पूछे। इस सब से आश्चर्यचकित होने की कोई ज़रूरत नहीं है।

दिल्ली पुलिस में भर्ती के लिए आये लड़कों में से एक भारी मात्रा दिल्ली के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में से आती हैं। इन इलाकों से धनी किसानों के लड़के पुलिस में भर्ती होने के लिए आते हैं। इनमें से अधिकांश लड़के खाते-पीते घरों की बिगड़ी हुई औलादें होती है जिन्हें पैसे का नशा होता है। वे समाज को अपनी जागीर समझते हैं और बेहद स्त्री विरोधी होते हैं। उनके लिए स्त्रियाँ भोग की वस्तु से अधिक और कुछ भी नहीं होतीं। जनवादी चेतना से इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे में समाज में अपनी लम्पटई को खुले तौर पर करने के लिए अगर कोई बेहतरीन लाईसेंस हो सकता है, तो वह पुलिस की नौकरी ही हो सकती है। इसके अतिरिक्त नवधनाढ्यों के ये लड़के पैसे की संस्कृति के बुरी तरह गुलाम होते हैं। पैसा बनाने का भी तेज़ जरिया इन्हें पुलिस की नौकरी में मिलता है। यही कारण है कि हर वर्ष दिल्ली पुलिस में शामिल होने के लिए आने वाले इन नवधनपतियों की बिगड़ी औलादों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है। दिल्ली में पुलिस में शामिल होने के लिए लिखित परीक्षा की तैयारी करवाने वाले कोचिंग सेण्टरों की भरमार हो गयी है।

इसके अलावा, सोची-समझी साज़िश के तहत, पुलिस की प्रशिक्षण-प्रक्रिया को अमानवीय रूप से कठिन बनाया जाता है और बची-खुची इन्सानियत भी इस प्रशिक्षण के दौरान निचोड़ ली जाती है। और इस प्रकार, कुछ साल बाद, पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र से कुण्ठित पशुओं का एक झुण्ड निकलकर बाहर आता है, जिसे शहर के अलग-अलग हिस्सों में ‘‘गुण्डागर्दी के लाईसेन्स’’ का अधिक से अधिक उपयोग करने लिये तैनात कर दिया जाता है। परन्तु इस ‘लाईसेन्स’ के बदले यह व्यवस्था, पुलिसवालों से कादारी की मांग करती है। और इस कसौटी पर पुलिस एकदम खरी उतरती है। ये बात रोज़ाना की ख़बरों और तजुर्बो से एकदम साफ़ हो जाती है। चाहे छात्रों और मज़दूरों के आन्दोलनों की फ़ैलती आग को अपनी बर्बता से बुझाना हो या फ़िर कोई इमारत, मॉल या विशेष आर्थिक क्षेत्र बनवाने के लिये बस्तियाँ और गाँव उजाड़ने हों। चाहे किसी धन्नासेठ के लड़के द्वारा किये गये अपराध में झूठा केस बनाकर किसी गरीब को फ़ँसाना हो या फ़िर किसी मंत्री की ब्लू लाइन बस के नीचे कुचले गये मासूमों के खून के धब्बों को मिट्टी डाल छुपाना हो, पुलिस इन कामों को पूरी ‘सतर्कता’ और ‘ईमानदारी’ से करती है।

कुछ ऐसी ही हालत भारत के बाकी पुलिस बलों की है। इन पुलिस बलों ने ही नोएडा से सालों-साल ग़रीब बच्चों के गायब होने की घटनाओं को अनदेखा कर मोनिन्दर सिंह पन्धेर को उसकी हवस मिटाने में मदद की। नन्दीग्राम में जब मेहनतकश जनता हकों के लिए उतरती है तो ये पुलिस उनपर गोलियां बरसाती है, महिलाओं के साथ बलात्कार करती है और अपने कुकर्मों को छुपाने के लिए शवों पर नमक डाल कर दफ़ना देती है।

इस प्रकार की हजारों घटनाएँ रोज़ाना देश के अलग-अलग कोनों में घटती हैं। यह घटनाएँ आम जनता के प्रति पुलिस के रवैये को दर्शाती है। दूसरी तरफ़, ये पुलिस पूँजीपतियों , मंत्रियों, फ़िल्मी हस्तियों के तलवे चाटने में भी अव्वल होती है। असल में पुलिस सबसे संगठित गुण्डा फ़ोर्स के समान है जिसे रखा ही इसलिए जाता है कि पूँजीपतियों और अमीरों के हितों की रक्षा की जा सके और पूँजीवादी व्यवस्था को बर्बर बल का उपयोग करके “व्यवस्थित ढंग” से चलाया जा सके।

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008

 

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