क्रान्तिकारी छात्र राजनीति से घबराये हुक़्मरान
अजय, दिल्ली
छात्रसंघ का अधिकार काफ़ी संघर्ष के बाद और कुर्बानी के बाद नेहरू काल में छात्रों को हासिल हुआ। एक समय में इसे मंच बनाकर छात्रों ने कई जगह शानदार आन्दोलन भी खड़े किए। दुर्भाग्य से आज कैम्पसों में क्रान्तिकारी शक्तियाँ बेहद कमज़ोर हैं और छात्रसंघ पर चुनावबाज़ पार्टियों के लग्गू-भग्गुओं का कब्ज़ा हो गया है। छात्रसंघ बोतल-अण्डे-डण्डे-झण्डे की राजनीति का अखाड़ा बन गया है।
लेकिन बढ़ती बेरोज़गारी, बढ़ती फ़ीसों और घटती सीटों के कारण इस बात की गुंजाइश है कि कैम्पसों में क्रान्तिकारी शक्तियाँ फ़िर से जड़ जमा लें। इसी भय से पिछले चार–पाँच वर्षों में जगह-जगह छात्रसंघ का अधिकार छीने जाने की घटनाएँ हुईं हैं। पहले उत्तर प्रदेश में भाजपा के राज में छात्रसंघ चुनाव बन्द करवा दिये गए। मुलायम सिंह ने अपनी समाजवादी छात्र सभा लांच करते हुए छात्रों का समर्थन जीतने के लिए और छात्र राजनीति को अपना भर्ती केंद्र बनाने के लिए यह प्रतिबंध ख़त्म कर दिया।
इसी तरह का अलोकतांत्रिक आदेश पिछले दिनों राजस्थान हाईकोर्ट से आया। राजस्थान हाईकोर्ट की डिवीज़न ब्रांच ने सरकार को आदेश दिया कि शैक्षिक संस्थानों में छात्र और शिक्षक राजनीति को ख़त्म कर दिया जाय। आदेश में छात्रसंघ को “राजनीति का अखाड़ा” कहा गया है और शिक्षकों की राजनीति को शिक्षा के गिरते स्तर का कारण बताया गया है। राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति ने हाईकोर्ट के साथ अच्छी जुगलबंदी करते हुए निर्णय को सही ठहराया।
अगर छात्रसंघ को ख़त्म किया जाता है तो यह एक फ़ासिस्ट और अलोकतांत्रिक कदम होगा। छात्र कहीं भी आवाज़ उठाएँगे तो उन्हें कुचला जाएगा और चुनावबाज पार्टियों के लग्गुओं-भग्गुओं का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, मगर कैम्पसों में एक मुर्दा शान्ति छा जाएगी। छात्रसंघ की गन्दी राजनीति का इलाज छात्रसंघ को ख़त्म करके करना वैसा ही है जैसे कि बीमार की बीमारी का इलाज करने की बजाय बीमार को ही ख़त्म कर दिया जाय। कोशिश यह होनी चाहिए कि कैम्पस में मौजूद क्रान्तिकारी ताकतें आगे बढ़कर छात्रसंघ की कमान अपने हाथ में ले लें।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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