‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून- 2014’ जनसंघर्षों को कुचलने की नापाक कोशिश

लखविन्दर

repressionगुज़री 22 जुलाई को पंजाब की विधानसभा में एक बेहद ख़तरनाक काला क़ानून पारित किया गया है। इस काले क़ानून का नाम है – ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून- 2104’। यह क़ानून अपने नाम से तो बहुत लुभावना है लेकिन यह मेहनतकश जनता के लिए बेहद ख़तरनाक है। पंजाब सरकार ने जनसंघर्षों को बर्बर ढंग से कुचलने की कोशिशें तेज़ कर दी है। यह काला क़ानून इन्हीं नापाक कोशिशों का हिस्सा है। पंजाब सरकार ने सन् 2010 में भी दो काले क़ानून ‘पंजाब सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान (रोकथाम) क़ानून-2010’ व ‘पंजाब विशेष सुरक्षा ग्रुप क़ानून-2010’ बनाये थे। क्रान्तिकारी-जनवादी संगठनों के नेतृत्व में पंजाब की जनता द्वारा लड़े गये जुझारू संघर्ष के दबाव में सन् 2011 में सरकार को दोनों काले क़ानून रद्द करने पड़े थे। उस समय रद्द किए गये पहले क़ानून की तर्ज़ पर अब ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून-2104’ बनाया गया है। सरकार ने कुछ आपत्तिजनक धाराएँ हटाने के नाम पर इस क़ानून को ‘जनपक्षधर’ बनाने का नाटक किया है (जैसे रैली, धरना, प्रदर्शन करने के लिए लिखित आज्ञा लेने की शर्त हटा ली गयी है) लेकिन काफ़ी कुछ ऐसा जोड़ दिया गया है कि नया क़ानून पहले वाले से भी अधिक ख़तरनाक हो गया है। अगर यह क़ानून लागू हो जाता है तो पंजाब के क्रान्तिकारी-जनवादी आन्दोलनों को बेहद दमनात्मक परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। इस बार सरकार पूरी सख़्ती से यह क़ानून लागू करने की तैयारी में दिखायी पड़ रही है। इसलिए लड़ाई भी अधिक सख़्त होगी।

यह क़ानून भारत के बेहद ख़तरनाक जनविरोधी काले क़ानूनों में से एक है। इस क़ानून में कहा गया है कि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह, संगठन, या कोई पार्टी द्वारा की गयी कार्रवाई जैसे “ऐजीटेशन, स्ट्राइक, हड़ताल, धरना, बन्द, प्रदर्शन, मार्च, जुलूस”, रेल या सड़क परिवहन रोकने आदि से अगर सरकारी या निजी जायदाद को कोई नुकसान, घाटा, या तबाही हुई हो तो उस कार्रवाई को नुकसान करने वाली कार्रवाई माना जायेगा। किसी संगठन, यूनियन या पार्टी के एक या अधिक पदाधिकारी जो इस नुकसान करने वाली कार्रवाई को उकसाने, साजिश करने, सलाह देने, या मार्गदर्शन, में शामिल होंगे उन्हें इस नुकसान करने वाली कार्रवाई का प्रबन्धक माना जायेगा। सरकार द्वारा तय किया गया अधिकारी अपने तय किए गये तरीक़े से देखेगा कि कितना नुकसान हुआ है। नुकसान की भरपाई दोषी माने गये व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा अगर नहीं की जाती तो उनकी ज़मीन जब्त की जायेगी। सरकार उपरोक्त जनकार्रवाइयों की वीडियोग्राफ़ी करवायेगी। पहले भी जनकार्रवाइयों की वीडियोग्राफ़ी करवायी जाती रही है लेकिन ऐसा करना ग़ैरक़ानूनी था। अब यह काम क़ानूनी तौर पर जायेगा। इस क़ानून के अन्तर्गत वीडियो को नुकसान होने के सबूत पर पूर्ण मान्यता दी गयी है। यानि अगर कोई और सबूत न भी हो सिर्फ़ वीडियो के आधार पर ही लोगों को दोषी माना जा सकेगा। अन्य क़ानूनों में वीडियो या तस्वीरों को पूर्ण तो दूर की बात, प्राथमिक सबूत की मान्यता भी हासिल नहीं है। वीडियो के साथ आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती है इसलिए वीडियो को इस तरह सबूत का दर्जा दिया जाना बेहद ख़तरनाक बात है।

1इस क़ानून के तहत हेडकांस्टेबल स्तर के पुलिस मुलाजिम को गिरफ्तारी करने के अधिकार दे दिये गये हैं और जुर्म ग़ैरज़मानती होगा। तीन साल तक की सज़ा और एक लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। आगज़नी या विस्फोट से नुकसान होने पर एक वर्ष से लेकर पाँच साल तक की फ़ैद और तीन लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। इस मामले में अदालत किसी विशेष कारण से फ़ैद की सजा एक वर्ष से कम भी कर सकती है।

‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून-2014’ के इस ब्यौरे के बाद पाठक इस क़ानून के घोर जनविरोधी फासीवादी चरित्र का एक अन्दाज़ा लगा सकते हैं। आगज़नी, तोड़फोड़, विस्फोट आदि जैसी कार्रवाईयों के बारे में यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि ऐसी कार्रवाइयाँ सरकार, प्रशासन, पुलिस, राजनीतिक नेता, पूँजीपति आदि जिनके ख़िलाफ़ संघर्ष लड़ा जा रहा होता है ख़ुद ही करवाते हैं और इन कार्रवाइयों का दोष लोगों पर लगा दिया जाता है। अब इस क़ानून के लागू हो जाने से इस नुकसान की भरपाई संघर्ष कर रहे लोगों से ही की जायेगी और साथ ही जेल और जुर्माने की सजा भी की जायेगी।

सरकार का यह कहना एकदम झूठ है कि यह क़ानून आगजनी, तोड़फोड़, रेल व सड़क यातायात आदि रोकने से होने वाले नुक़सान को रोकने के लिए है। इसका प्रत्यक्ष सबूत यह भी है कि जहाँ इस क़ानून में ‘स्ट्राइक, हड़ताल’ को नुकसान करने वाले कार्रवाई में शामिल किया गया है वहीं नुकसान को परिभाषित करते हुए ‘घाटे’ को भी नुकसान में गिना गया है। यानि अब अगर मज़दूर श्रम क़ानून लागू करवाने के लिए, वेतन वृद्धि या अन्य सुविधाओं के लिए, मालिक, पुलिस-प्रशासन, सरकार की गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़, महँगाई के विरुद्ध या अन्य किसी मुद्दे पर हड़ताल करते हैं तो हड़ताली मज़दूरों और उनके नेता, हड़ताल में साथ देने वाले अन्य लोग, आदि इस क़ानून के मुताबिक़ यकीनन तौर पर दोषी माने जायेंगे। हड़ताल होगी तो ‘घाटा’ तो पड़ेगा ही। इस तरह पंजाब सरकार हड़ताल करने को अप्रत्यक्ष ढंग से क़ैद और जुर्माने योग्य अपराध ऐलान कर चुकी है। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का हड़ताल का रूप मज़दूरों के लिए एक अति महत्त्वपूर्ण हथियार है। देश की उच्च अदालतें पहले ही हड़ताल के अधिकार पर हमला बोल चुकी हैं। 6 अगस्त, 2003 के एक फ़ैसले में भारत की सर्वोच्च अदालत ने सरकारी मुलाजिमों द्वारा हड़ताल को ग़ैरक़ानूनी करार दिया था। पंजाब सरकार इससे भी आगे बढ़कर सरकारी व निजी क्षेत्र में हड़ताल करने वालों, इसके लिए प्रेरित करने वालों, मार्गदर्शन करने वालों आदि के लिए सख्त सज़ाएँ लेकर आयी है। इस काले क़ानून का यह पहलू भी इसकी स्पष्ट गवाही है कि सरकार का मकसद मज़दूरों व अन्य मेहनतकश लोगों के संघर्षों को कुचलना है।

यह क़ानून कितना ख़तरनाक है इसका अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ‘नुकसानदेह कार्रवाई’ के आयोजन में मदद करने के बहाने से टेण्ट वालों, लाऊड स्पीकर वालों, पानी के टैंकर देने वालों, प्रचार सामग्री छापकर देने वालों आदि को भी आसानी से दोषी करार दिया जा सकेगा। अगर एक-दो बार इनमें से किसी को इस क़ानून में घसीटा गया तो संघर्षों के लिए इन चीजों की व्यवस्था करनी बहुत मुश्किल हो जायेगी। इससे रैली, धरना, प्रदर्शन, जुलूस आदि जनकार्रवाइयाँ आयोजित करने में बड़ी मुश्किल खड़ी हो जायेगी।

पूँजीवादी सरकारें काले क़ानून शान्ति व्यवस्था क़ायम रखने, सुप्रशासन, आम लोगों के जान-माल की सुरक्षा जैसे बहानों से बनाया करती हैं लेकिन इनका वास्तविक मकसद पूँजीपति वर्ग के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हितों की सुरक्षा व मेहनतकश जनता के हितों को कुचलना होता है। पंजाब सरकार द्वारा पारित इस दमनकारी क़ानून से इस बात का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि देश के हुक़्मरान आने वाले दिनों से कितने भयभीत हैं। व्यापक जनाक्रोश, जनान्दोलनों का भय! पूँजीवादी व्यवस्था जनता की हालत दिन-ब-दिन अधिक से अधिक बिगाड़ती जा रही है। वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण की नयी आर्थिक नीतियाँ लागू होने से लोगों की हालत पहले से भी बहुत ज़्यादा गिरी है। मज़दूरों-मेहनतकशों को जो कुछ अधिकार, सहूलियतें हासिल थीं भी, वे भी इन नीतियों के तहत बड़े स्तर पर छीन ली गयी हैं, और यह हमला लगातार जारी है। मज़दूरों के श्रम अधिकारों पर बड़े स्तर पर हमला हुआ है। रिहायश, भोजन, इलाज, शिक्षा आदि बुनियादी ज़रूरतों से सम्बन्धित कुछ हद तक हासिल अधिकारों से भी जनता लगातार वंचित होती गयी है। अमीरी और ग़रीबी की खाई लगातार और चौड़ी व गहरी होती गयी है। बेरोज़़गारी तेज़ी से बढ़ी है। पूँजीपति हुक़्मरान जानते हैं कि जनता में रोष इतना अधिक बढ़ चुका है कि कभी भी ज्वालामुखी की तरह फट सकता है। हुक़्मरान सबसे अधिक डरते हैं इस गुस्से को संगठित रूप मिलने से। इसे क्रान्तिकारी दिशा मिलने से। कोई और समझे न समझे लेकिन पूँजीपति हुक़्मरान यह अच्छी तरह जानते हैं कि आज जो हालात बने हैं वे जनवादी और क्रान्तिकारी प्रचार, संगठन, जनान्दोलनों व क्रान्तिकारी बदलाव के लिए कितने उपजाऊ हैं।

आज़ाद भारत की राज्यसत्ता – जो अपने जन्म से ही बेहद सीमित जनवादी चरित्र वाली, ज़ालिम व दमनकारी थी – का चरित्र निरन्तर अधिक से अधिक जनविरोधी होता आया है। आज़ाद भारत में असंख्य जलियाँवाला काण्ड हुए हैं, जनता को यहाँ भी खूँखार जनरल डायरों का सामना करना पड़ा है। देश के शहरों में, गाँवों व आदिवासी इलाकों में मेहनतकश जनता के ख़िलाफ़ पूँजीपति वर्ग निरन्तर एक जंग छेड़े हुए है। आज़ादी से पहले कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जायेगा। आज़ादी के बाद यह इस वायदे से भाग खड़ी हुई। आज तक कश्मीर और उत्तर-पूर्व की राष्ट्रीयताएँ भारतीय राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई लड़ती रही हैं। इन राष्ट्रीयताओं को भारतीय राज्यसत्ता दमन-ज़ुल्म के हर रूप से कुचलने की कोशिश करती रही है।

देशद्रोह, आपातकाल लगाने जैसे क़ानूनों से लैस भारतीय संविधान अपने जन्म से ही एक दमनकारी संविधान है। इसे निरन्तर काले क़ानूनों से “समृद्ध” किया जाता रहा है। टाडा, पोटा, यू.ए.पी.ए., ए.एफ.एस.पी.ए, छत्तीसगढ़ विशेष सुरक्षा क़ानून तो ऐसे क़ानूनों की सिर्फ़ कुछ मिसालें हैं। विचार व्यक्त करने, विरोध और संघर्ष करने की आज़ादी जैसे जनवादी अधिकारों का दायरा जो पहले ही बहुत संकीर्ण था, और भी संकीर्ण किया जाता रहा है। लोगों को विचार व्यक्त करने पर आतंकवादी कह कर जेलों में ठूँसा जाता रहा है और यह जारी है। भारत में रॉ, आई.बी., एन.आई.ए., सी.बी.आई., डी.आई.ए., जे.सी.आई., एन.टी.आर.ओ. समेत एक दर्जन से अधिक केन्द्रीय खुफिया एजेंसियाँ हैं। हर राज्य में खुफिया विभाग और विशेष पुलिस, आतंकवाद विरोधी दस्ते (ए.टी.एस.) आदि आधुनिक दमनकारी औज़ारों से लैस विशाल ढाँचा है। लेकिन भारत की पूँजीवादी हुक्मरान इसे नाकाफ़ी मान रहे हैं। जनाधिकारों की आवाज़ कुचलने के लिए इस दमनकारी ढाँचे को आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अधिक दमनकारी बनाया जा रहा है। दो वर्ष पहले केन्द्र सरकार एन.सी.टी.सी. नाम की एक बेहद दमनकारी खुफ़िया एजेंसी का गठन करने जा रही थी। उस समय सरकार को हुक़्मरान वर्ग के अन्तर्विरोधों के चलते अपने क़दम पीछे हटाने पड़े थे लेकिन यह तय है कि सरकार उस या उस जैसी एजेन्सी का गठन फिर से करेगी। पंजाब सरकार सन् 2010 में जो ‘पंजाब विशेष सुरक्षा क़ानून-2010’ लेकर आयी थी वह ए.एफ.एस.पी.ए. से भी ख़तरनाक था। यह क़ानून उस समय तो व्यापक जनसंघर्ष के दबाव में रद्द कर दिया गया था लेकिन यह भी यकीनन कहा जा सकता है कि यह क़ानून भी नजदीक भविष्य में उसी या किसी अन्य रूप में लाया जायेगा। दमनकारी ढाँचे को और दमनकारी बनाना हुक़्मरानों के लुटेरे हितों की न टालने योग्य ज़रूरत है।

आज जब विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहरे आर्थिक संकट का शिकार है। पूरी दुनिया में जनता के जनवादी अधिकारों पर हमला तेज़ हो गया है। यूरोप में कम्युनिस्ट विचारों पर पाबन्दी लगाने की तैयारियों की ख़बरें आ रही हैं। भारत का पूँजीवादी ढाँचा विश्व पूँजीवादी ढाँचे के साथ नाभिनालबद्ध है और ख़ुद भी गहरे आर्थिक संकट का शिकार है। आर्थिक संकट का सारा बोझ मज़दूरों-मेहनतकशों पर डाला जा रहा है। जन विरोध को कुचलने के लिए लोगों को हासिल जनवादी-संवैधानिक अधिकारों कुचलने की साजिशें हो रही हैं। ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई के सताये मज़दूरों-मेहनतकश लोगों को लूट, शोषण, दमन के ख़िलाफ़ एकजुट होकर अपने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक अधिकारों के लिए लड़ने से रोकने के लिए काले क़ानूनों में वृद्धि हो रही है। पंजाब सरकार का यह काला क़ानून भी इन हालातों की पैदायश है।

केन्द्र में मोदी सरकार आने से जनता पर पूँजीपति वर्ग का हमला और तेज़ हो गया है। श्रम अधिकारों पर हमला तेज़ हुआ है। महँगाई तेज़ी से बढ़ी है। करों का बोझ लोगों पर और भी अधिक लाद दिया गया है। इन हालात में ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून’ जैसे भयानक काले क़ानूनों के बिना हाकिमों का लूट-दमन का बुलडोज़र और आगे नहीं बढ़ सकता। आने वाले दिनों में अन्य राज्यों और केन्द्र में ऐसा क़ानून बनना कोई हैरानी की बात नहीं होगी।

लेकिन हाकिमों को किसी भी सूरत में जनान्दोलनों से पीछा छुड़ाने में दमनकारी काले क़ानूनों से कोई मदद नहीं मिल सकेगी। यह क़ानून जनता की राह थोड़ी मुश्किल ज़रूर बना सकते हैं लेकिन रोक नहीं सकते। इतिहास जनता के गौरवशाली संघर्षों के असंख्य उदाहरणों से भरा पड़ा है। जनता पहले भी बर्बर राजे-रजवाड़ों, सामन्तों, दमनकारी पूँजीवादी हाकिमों, उपनिवेशवादियों, खूँखार साम्राज्यावादियों के अजेय दिखायी पड़ने वाले किलों को मिट्टी में मिलाती रही है और आगे भी ऐसा ही होगा। इतिहास की इस गति को कोई नहीं रोक सकता। दमनकारी काले क़ानून, जेल, दमन क्या दुनिया की किसी भी ताक़त से जनता के हक, सच, इंसाफ़ के लिए संघर्ष हमेशा के लिए कुचला नहीं जा सकता। पंजाब की जुझारू जनता दमनकारी हाकिमों के ख़िलापफ़ डटकर लड़ाई लड़ेगी और हाकिमों को थूक कर चाटने के लिए मजबूर करेंगी। पंजाब की जुझारू जनता अपने अन्य आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर एकजुट संघर्ष के दौरान राज्य सरकार के नए काले क़ानून को न सिर्फ़ पैरों तले मसलकर रख देगी बल्कि इस क़ानून के खिलापफ़ व्यापक जनान्दोलन खड़ा करके इसे ख़त्म करवाकर ही दम लेगी। आज जो हालात बन चुके हैं उनमें लड़ना जीने की शर्त बन चुका है। पंजाब की जुझारू जनता इस शर्त को ज़रूर पूरा करेगी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2014

 

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