क्यों ज़रूरी है रूढ़िवादी कर्मकाण्डों और अन्धविश्वासी मान्यताओं के विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष?

राजकुमार

“रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं। लोगों को इस ख़्याल का ज़ोर से प्रचार करना चाहिए कि मज़हब और ख़ुदा ग़रीबों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।” – राहुल सांकृत्यायन

यूँ तो भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का हर दिन घर-घर में धार्मिक कर्मकाण्डों से आमना-सामना होता है, और गाय को रोटी खिलाकर या पैसे चढ़ाकर सीधे स्वर्ग में ले जाने वाले रथ यहाँ के महानगरों में भी देखे जा सकते हैं, लेकिन चुनावों के दौरान हिन्दुत्व का प्रचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। कोई खुद को “सच्चा” हिन्दू कहता है और कोई “असली” हिन्दू, और आर.एस.एस. जैसे हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थी संगठन तो हिन्दू धर्म और उसके माध्यम से पूरी जनता की मुक्ति का ठेका ले लेते हैं, कभी राम मन्दिर के निर्माण के लिये, तो कभी राम सेतु को बचाने के लिए। विश्व हिन्दू परिषद् ने भाजपा की कट्टरपन्थी राजनीति को आक्सीजन देने के लिए “चौरासी कोस यात्रा” के नाम से अयोध्या में परिक्रमा का कर्मकाण्ड किया जिसका उद्देश्य धर्म के नाम पर जनता को ध्रुवीकृत करना और मुख्य मुद्दों से उसका ध्यान भटकाना ही था।

राजनीति के लिए “यात्राओं” जैसे धार्मिक कर्मकाण्डों के अलावा भारत में रहने वाले लोगों की अच्छी-ख़ासी तादाद अपने पूरे जीवन में बच्चों के जन्म पर जन्पपत्री, उनके बड़े होने पर मुण्डन, फिर और बड़े होने पर शादी होने से लेकर नये घरों में जाने और मरने तक अनेक कर्मकाण्ड करते हैं। यहाँ तक कि नया कम्प्यूटर या कार खरीदने पर भी पूजा-अनुष्ठान करने वाले लोग मिल जाते हैं। ज़्यादातर ऋतुओं के आधार पर मनाए जाने वाले कई त्योहारों में भी मूर्ति-पूजा या यज्ञ जैसे धार्मिक कर्मकाण्ड ज़बर्दस्ती घुसा दिये गये हैं। यहाँ हम सिर्फ़ हिन्दू धर्म की रूढ़ियों की ही बात करेंगे, क्योंकि भारत में ज़्यादातर हमारा सामना इनसे ही होता है, लेकिन वास्तव में हर धर्म और हर सम्प्रदाय में ऐसी रूढ़ियों की भरमार है जिनके पीछे छुपी सच्चाई को सामने लाना चाहिए, फिर चाहे वह इस्लाम में नमाज़ पढ़ने और महिलाओं को बुर्के में कैद रखने की की प्रथा हो, या ईसाइयत में चर्च में जाकर प्रार्थना करने और पाप-स्वीकृति की प्रथा।

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भारतीय समाज के विकास पर अब तक किये गये शोधों पर एक नज़र डालें तो प्राचीन भारतीय समाज में हिन्दू कर्मकाण्डों का प्रचार मुख्य रूप से इसलिये किया जाता था जिससे समाज में शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम करने वाली आबादी के बीच भेद को सही ठहराया जा सके और दलितों और शूद्रों की आबादी को सवर्णों के अधीन श्रेणी में रखा जा सके, जो कि मुख्यतः खेती में लगी हुई थी या मज़दूरी में। कर्मकाण्डों के आवरण में लिपटा शासक वर्गों का यह रूढ़िवादी विश्व-दृष्टिकोण समाज में गहराई तक बैठा दिया गया। परिणामस्वरूप समाज की सवर्ण जातियों के धनिकों को सदियों तक बिना हाथ-पैर चलाए सारी सुख-सुविधाएँ मुहैया होती रहीं और वह समस्त सम्पदा के मालिक बन गये। धर्म का इस्तेमाल कर समाज के मुश्किल से 20-25 फीसद उच्च जाति के लोग बाकी बचे 70-75 फीसद निम्न मध्य और निम्न जातियों और दलितों पर शासन चलाते रहे। हिन्दू समाज में शूद्रों व दलितों को सम्पत्ति रखने, कई प्रकार के काम करने या पढ़ने का अधिकार नहीं था, और सारे शारीरिक मेहनत वाले काम दलितों व शूद्रों से करवाए जाते थे, जबकि उच्च जातियाँ पण्डे-पुजारियों, राजाओं, ज़मींदारों, व्यापारियों आदि के रूप में सारी सामाजिक सम्पदा की मालिक बन चुकी थीं और ख़ुद सभी प्रकार के शारीरिक श्रम से मुक्त, निम्न जातियों के श्रमिकों के श्रम पर पलती थीं। दलितों के छूने भर से अछूत हो जाने जैसी भयानक प्रथाएँ भी सवर्ण जातियों के हित में प्रचारित की गयी थीं। कुछ लोग कह सकते हैं कि ‘यह तो ठीक है, लेकिन जातियाँ पैदा ही कैसे हुईं और इसका क्या प्रमाण है कि जातियाँ हमेशा से नहीं मौजूद थीं?’ ऐतिहासिक व पुरातात्विक स्रोत आज इस बात के लिए पर्याप्त प्रमाण देते हैं कि वर्ण-जाति व्यवस्था इतिहास के के दौर में श्रम विभाजन के फलस्वरूप पैदा हुई थी और शासक वर्गों ने अपने प्रभुत्व को कायम रखने के लिए इस श्रम विभाजन को जन्म-आधारित कठोर श्रम विभाजन में तब्दील किया और उसे दिव्य वैधीकरण प्रदान करने के लिए धार्मिक व कर्मकाण्डीय रूप से संहिताबद्ध और संरचनाबद्ध कर दिया। यही कारण है वर्ण-जाति व्यवस्था आज तक कायम है, हालाँकि बदलते वर्ग सम्बन्धों के साथ और इसके देश के अलग-अलग हिस्सों में फैलने के साथ इसमें तमाम परिवर्तन आये; मसलन, कई जातियाँ जो पहले निम्न मानी जाती थीं, वे पदानुक्रम में ऊपर चली आयीं, जैसे कि वैश्य, जो कि द्विज माने जाने के बावजूद तब तक जाति पदानुक्रम में नीचे खड़े थे, जब तक कि उनका मुख्य पेशा खेती था। लेकिन सामन्तवाद के उदय होने, खेती के प्रमुख आर्थिक गतिविधि और अधिशेष विनियोजन का प्रमुख आधार बनने, शूद्रों के प्रमुख मेहनतकश कृषक जाति के रूप में उभरने और दलित आबादी के भूमिहीन मज़दूरों के रूप में उभरने के साथ वैश्य जाति का प्रमुख पेशा व्यापार बन गया। जो वैश्य खेती में ही रह गये, कुछ पीढ़ियों के बाद वे भी शूद्र घोषित कर दिये गये। इस पूरी प्रक्रिया की विस्तृत जानकारी सुवीरा जायसवाल और रामशरण शर्मा ने अपने उत्कृष्ट शोध में प्रस्तुत की हैं। जाति-वर्ण व्यवस्था के भीतर मौजूद इस आन्तरिक गतिशीलता के बावजूद जाति की विचारधारा का प्रयोग हर युग के शासक वर्गों ने अपने अनुसार किया। सामन्तवाद (पहली से सोलहवीं सदी तक) के युग में, सामन्तवाद और उपनिवेशवाद के बीच आर्टिकुलेशन (सत्रहवीं से बीसवीं सदी के मध्य तक) के युग में, और पूँजीवाद (बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से वर्तमान तक) के युग में विभिन्न शोषक-शासक वर्गों ने अलग-अलग तरह से जाति की विचारधारा का इस्तेमाल किया है। आज भी जातिगत कर्मकाण्डों का इस्तेमाल जनता के दिलो-दिमाग़ में पैठा हुआ है जो कि उसके भीतर तर्कपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा होने की प्रक्रिया को बाधित करता है।

दक्षिण के कुछ मन्दिरों में अभी मडई स्‍नान की परम्‍परा है जिसमें ब्राह्मणों की जुठन पर नीची जाति के लोगो को लोट लगानी होती है

दक्षिण के कुछ मन्दिरों में अभी मडई स्‍नान की परम्‍परा है जिसमें ब्राह्मणों की जुठन पर नीची जाति के लोगो को लोट लगानी होती है

कर्मकाण्डों को मानने वाले आम लोगों को सिर्फ़ इतना पता है कि धर्म-ग्रन्थों में जो लिखा है वह ईश्वर ने लिखा है, और उसपर ज़्यादा सोचना या तर्क करना उनका काम नहीं है। ऐसा व्यक्ति सोचता है कि पण्डे-पुजारियों द्वारा बताये गये सभी धार्मिक कर्मकाण्डों को आँख मूँद कर मानना चाहिए। आज भी बिना किसी वैज्ञानिक समझ के कुछ उल्टे-सीधे कुतर्क देकर अर्धशिक्षित पण्डे-पुजारी लोगों को धर्म के नाम पर डराते-धमकाते हैं, और उन्हें यह समझाते हैं कि यदि वे कर्मकाण्ड नहीं करेंगे तो उनपर विपत्ति टूट पड़ेगी! देश की व्यापक मेहनतकश जनता वैसे ही जीने के लिए आवश्यक संसाधनों के अभाव तथा मुँह बाये खड़ी बेरोज़गारी-महँगाई के कारण विपत्ति में फँसी है, इसलिए लोग बिना सोचे समझे इन अन्धाविश्वासों पर भी आँखें मूद कर विश्वास कर लेते हैं। ये अन्धविश्वास व्यवस्था की उम्र बढ़ाने में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं क्योंकि ये जनता को अपनी बदहाली के असली कारणों पर सोचने नहीं देते। इस तरह लोगों के सामने इस सच्चाई को धुँधला कर दिया जाता है कि उनकी बर्बादी का कारण कोई पाप या धर्म नहीं बल्कि वर्तमान पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था है। यह अकारण नहीं है कि पूँजीवादी कारपोरेट मीडिया आज अपने समाचार चैनलों से लेकर मनोरंजन चैनलों तक इन अन्धविश्वासों, ढकोसलों, आदि को बढ़ावा दे रहा है।

वैसे तो उन्नत पूँजीवादी देशों, जहाँ कि तर्क और विज्ञान आदि की बात करते हुए पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियाँ सम्पन्न हुई थीं, में स्थिति भारत व कुछ अन्य पिछड़े पूँजीवादी देशों से बेहतर है, लेकिन पूँजीवाद जितना अधिक सड़ता-गलता जा रहा है, जितना विकृत होता जा रहा है, उतना ही वह अपने सभी प्रगतिशील गुणों को भी खोता जा रहा है। नतीजतन, आज विदेशों में भी ‘आस्था’, ‘जागरण’ आदि जैसे अन्धविश्वास प्रसारक चैनल और भूतों-प्रेतों पर बनने वाली फिल्में छा गये हैं। यह भी अकारण नहीं है, बल्कि बताता है कि पूँजीवाद हरेक गुज़रते दिन के साथ ज़्यादा ढकोसलेबाज़, पाखण्डी, अन्धविश्वासी और तर्क व विज्ञान-विरोधी होता जा रहा है।

भारत में समाज के बड़े हिस्से को कभी पढ़ने का ज़्यादा मौका नहीं मिला था। इसलिए उन्हें ब्राह्मणों द्वारा बतायी गयीं बातें ही पता हैं। इन लोगों ने कभी धर्म ग्रन्थों को न तो खुद पढ़ा है और न ही अपने विवेक से इन्हें समझने की कोशिश की है। ऐसे जनपक्षधर बुद्धिजीवी भी कम ही रहे जो कि इन धर्मग्रन्थों को ऐतिहासिक सन्दर्भ में रखते हुए उनका एक वैज्ञानिक विश्लेषण जनता के सामने रख सकें। ऐसे में ज़्यादातर लोगों की जानकारी काफ़ी सीमित है। धार्मिक विचारों की उत्पत्ति, कर्मकाण्डों की उत्पत्ति और समाज की वर्गीय संरचना तथा जातियों की उत्पत्ति जैसे सवालों पर सामान्य डिग्री धारक पढ़े-लिखे लोगों की एक बड़ी संख्या भी कोई जानकारी नहीं रखती और ये लोग भी अन्धविश्वासों और असमानता-सूचक रूढ़िवादी कर्मकाण्डों का उसी प्रकार पालन करते हैं जैसे एक बिना पढ़ा-लिखा किसान करता है। इस मामले में इनकी सामाजिक चेतना का स्तर एक समान नज़र आता है। ऐसे में समाज का यह हिस्सा स्वतःस्फूर्त ढंग से कोई भी बदलाव लागू करने की पहल नहीं कर सकता। इसके लिए ज़रूरी है कि युवाओं और छात्रों के क्रान्तिकारी जनसंगठन बनाये जायें जो कि जनता की मूलभूत माँगों पर लड़ने के साथ तर्कप्रसार और वैज्ञानिक दृष्टि के प्रसार के काम को भी अपने एजेण्डे पर प्रमुख तौर पर रखते हों।

यह सच है कि भारत में हुए रुग्ण किस्म के पूँजीवादी विकास ने भी जाति व्यवस्था के उन आयामों को एक हद तक भंग किया है जो कि पूँजीपतियों की लूट और हवस को अमल में लाने में बाधक बनते थे। मिसाल के तौर पर, आनुवांशिक तौर पर निर्धारित कठोर श्रम विभाजन काफ़ी हद तक टूटा है; साथ खान-पान को लेकर भी कठोर जातिगत नियमों का पालन करना भी अब मुश्किल होता जा रहा है, और काफ़ी हद तक टूटा है; लेकिन जाति के भीतर विवाह करने की प्रवृत्ति को पूँजीवाद ने भंग नहीं किया है क्योंकि इस जातिगत प्रवृत्ति का पूँजीवाद से कोई अन्तरविरोध नहीं है। साथ ही, एक राजनीतिक उपकरण के तौर पर पूँजीवादी शासक वर्ग अभी भी जाति का इस्तेमाल करता है और यह बात पूँजीवादी चुनावों में स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है। इसलिए निश्चित तौर पर जाति-वर्ण व्यवस्था ख़त्म नहीं हो रही है (वास्तव में, पूँजीपति वर्ग ऐसा चाहेगा भी नहीं!), लेकिन यह भी सच है कि पूँजीवादी शासक वर्ग के अनुरूप वह अपना स्वरूप और चरित्र बदल रही है। इस प्रकार हर वर्ग के शासक वर्गों को जनता को बाँटने, उसे दबाकर रखने और कुचलने के एक उत्कृष्ट औज़ार के रूप में जाति-वर्ण व्यवस्था पूँजीपति वर्ग और उसके टट्टुओं के भी काम आ रही है।

यही कारण है कि समाज आज भी एक अलग रूप में इन धार्मिक आडम्बरों से गहराई से ग्रस्त है। इसका अन्दाज समय-समय पर होने वाली जातीय हिंसा, धार्मिक हिंसा, और धार्मिक स्थानों पर भगदड़ की वजह से होने वाली मौतों के आँकड़े देख कर लगाया जा सकता है।

भारतीय समाज में हिन्दू कर्मकाण्डों का सबसे बड़ा दिखावा शादियों के समय देखा जा सकता है। प्रचार किया जाता है कि हिन्दू कर्मकाण्डों के बिना पूरी दुनिया में होने वाली शादियाँ सफल नहीं होतीं। जिन लोगों का मानना है कि हिन्दू कर्मकाण्डों के आधार पर होने वाली शादियाँ ज़्यादा “सफल” होती हैं और जो इन कर्मकाण्डों पर गर्व करते हैं (जिनपर वास्तव में शर्म करनी चाहिए!), उन्हें सरकारी आँकड़ों को उठाकर देखना चाहिए कि महिलाओं की स्थिति आज भारत में एक घरेलू बंधुआ गुलाम से कम नहीं है, और महिलाओं के प्रति असमानता तथा घरेलू हिंसा, हत्या, बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या के मामले में भारत पूरी दुनिया के ज़्यादातर देशों को पीछे छोड़ चुका है। और विवाह के सफल होने की परिभाषा यह बना दी गयी है कि औरत पूरा जीवन अगर पुरुष की जूती तले दबकर रहे, कोई आवाज़ न उठाये और सबकुछ चुपचाप सहन करे, तो वह शादी सफल मानी जाती है। लेकिन अगर एक जनवादी रिश्ते के तहत अपने मतभेदों के कारण स्त्री और पुरुष अलग होने का निर्णय करते हैं, तो उसे असफल विवाह की संज्ञा दी जाती है। तलाक होना या न होना असफल विवाह या सफल विवाह की निशानी कैसे हो सकता है? सफल विवाह की निशानी तो यह ही हो सकती है कि स्त्री और पुरुष जीवन भर साथ रहें या न रहें, वे जितने समय भी साथ रहें, खुशी के साथ, परस्पर सम्मान और समानता के साथ रहें। यही सफलता का एकमात्र सही पैमाना हो सकता है।

शादियों में होने वाले कर्मकाण्डों की बात करें तो यह सभी महिला-विरोधी और पितृसत्तात्मक मूल्यों को लागू करने वाले कर्मकाण्ड हैं। यहाँ तक कि हवनकुण्ड के चारों ओर सात फेरे और शपथों जैसे दकियानूसी कर्मकाण्ड सीधे तौर पर महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहने की सहमति दिलवाते हैं (देखें स्रोत सूची बिन्दु 14, लिंक – seven vows)। इन शपथों का भावार्थ यह है कि एक सम्पत्ति का मालिक अपनी सम्पत्ति के वारिस के लिये शादी कर एक महिला को परिवार में ला आ रहा है, जो उसकी हर बात का समर्थन करेगी और उसके कहने के अनुरूप हर काम करेगी। इन शपथों में महिलाओं के स्वतन्त्र व्यक्तित्व की कोई झलक नहीं मिलती और उसकी स्थिति परिवार की सम्पत्ति को बढ़ाने के लिए अपने पति के अधीन रहने तक निर्धारित की गई है। यहाँ तक कि पुरुष के जीवन का उद्देश्य भी “सम्पत्ति इकठ्ठा” करने वाले और उसे बढ़ाने वाले परिवार के एक सदस्य के रूप में निर्धारित है। चूँकि पितृसत्तात्मक परिवार में सारी सम्पत्ति का मालिक पुरुष होता है इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इन कर्मकाण्डों के माध्यम से महिलाओं को धर्म के नाम पर उसके अधीन रहने के लिए बाध्य किया जाए।

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निष्कर्ष के रूप में कहें तो सम्पत्ति-आधारित समाज में सभी मानवीय मूल्य सम्पत्ति-सम्बन्धों के अधीन होते हैं। पूँजीवादी समाज में भी पारिवारिक सम्बन्ध महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने की बात नहीं करते क्योंकि यह सम्पत्ति सम्बन्धों के हितों के अनुरूप नहीं है, जो पितृसत्तात्मक पारिवारिक सम्बन्धों ने पुरुष वर्ग की झोली में डाला हुआ है। मनुष्यों ने अपने श्रम से सम्पत्ति का सृजन किया और सम्पत्ति आधारित परिवार और सामाजिक सम्बन्धों की उत्पत्ति के एक लम्बे दौर में सम्पत्ति ने सामाजिक चेतना पर अपनी प्रधानता स्थापित की और पारिवारिक मूल्य सम्पत्ति के हितों के अनुरूप ढलते गये। इसलिए व्यवहार में पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के रहते महिलाओं को पूरी समानता नहीं मिल सकती। यह समाजवादी क्रान्ति के बाद सम्पत्ति-आधारित सामाजिक ढाँचे को ध्वस्त करके ही सम्भव है। जब पारिवारिक सम्बन्ध मानवीय सम्बन्धों के आधार पर बनेंगे न कि सम्पत्ति-सम्बन्धों के आधार पर। जब समाज के हर नागरिक को आजीविका की पूरी गारण्टी मिलेगी और आर्थिक रूप से समानता का अधिकार होगा, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष (देखें स्रोत सूची बिन्दु 8)।

पारिवारिक और मानवीय सम्बन्धों में गुणात्मक बदलाव का सबसे अच्छा उदाहरण 1917 के रूस की क्रान्ति के बाद समाजवादी सोवियत यूनियन में देखा जा सकता है (देखें स्रोत सूची बिन्दु 15, साम्यवाद में परिवार)। यह हर समाज का दूरगामी लक्ष्य है, लेकिन तुरन्त व्यवहार में लाने के लिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति, स्त्री या पुरुष, जो समाज में समानता के विचारों को मानता है, वह रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक तथा सवर्णवादी मूल्यों और कर्मकाण्डों का विरोध सिर्फ़ शब्दों में ही नहीं बल्कि व्यवहार में भी करे। आज भी समाज की माँग यह नहीं है कि पुरुष महिलाओं के एक भले मालिक बने रहें, या कुछ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के हितों के पोषण के लिये जातियों में बँटे सामाजिक ढाँचे को पाला-पोसा जाए। सिर्फ़ शब्दों में किसी बात को मान लेने और व्यवहार में उससे उलटा काम करने से कोई बदलाव नहीं हो सकता और यह एक भ्रामक शब्दाडम्बर मात्र रह जाता है।

भारत जैसे पिछड़े समाज में पिछली कई सदियों से रूढ़िवादी परम्पराओं को शासक वर्ग द्वारा शोषित-उत्पीड़ित जनता के कन्धों पर रखकर ढोया जा रहा है, क्योंकि यहाँ जनवादी क्रान्ति के रास्ते नहीं बल्कि क्रमिक विकास के ज़रिये पूँजीवाद प्रमुख उत्पादन पद्धति बना।

कुछ हद तक कई प्रकार की रूढ़ियाँ पूरे देश के स्तर पर टूट रही हैं, लेकिन इनके टूटने की गति उतनी नहीं है जितनी तेज़ी से विज्ञान का विकास हो रहा है, और जितनी तेज़ी से वैज्ञानिक खोजें एक-एक कर हर अन्धविश्वास के पीछे छिपी सच्चाई को बेपर्दा कर उसकी कूपमण्डूकता को तहस-नहस कर रही हैं। 16वीं शताब्दी में जब गैलीलियो ने ईसाई धर्म की उस आम मान्यता को चुनौती दी थी जिसके अनुसार पृथ्वी को पूरे ब्रह्माण्ड का केन्द्र माना जाता था तो लोगों ने उसपर सहज रूप से विश्वास नहीं किया था। लेकिन विज्ञान सदैव धार्मिक मान्यताओं को छिन्न-भिन्न कर प्रकृति को समझने की मानवीय चेतना को उन्नत करता रहा है। वर्तमान समय में जनता का बड़ा हिस्सा बेरोज़गारी और ग़रीबी में रहने के लिए मजबूर है और जनता का मुख्य अन्तरविरोध पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध है। ऐसे में भारत जैसे पिछड़े देश में जनता की रूढ़िवादी मान्यताओं का फायदा उठाकर उसे मूर्खता के दलदल में फँसाकर रखने वाले शासक वर्ग के लोग नये वैज्ञानिक विचारों का प्रचार करने से काफ़ी भयभीत रहते हैं।

चूँकि संसार सतत् विकासमान है, इसलिए समाज भी उन्हीं विचारों को अपनाता है जो प्रगतिशील हों और उसके हित के अनुकूल हों। समाज के हित वैज्ञानिक प्रगति तथा उत्पादन की नयी-नयी खोजों के साथ नयी आवश्यकताओं को जन्म दे रहे हैं, इसलिए पुरानी कई मान्यताएँ, अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड तथा सामाजिक सम्बन्धों के बारे में प्रचलित सामाजिक धारणाएँ आज टूट रही हैं। इस गति को बढ़ाने के लिये समय-समय पर एक धक्के की आवश्यकता होती है, जो उस समय सत्ता को नियन्त्रित करने वाला वर्ग नहीं दे सकता। इसके लिए जनता के बीच से ही लोग आगे आते हैं। आज आम मेहनतकश जनता को यह समझने की ज़रूरत है कि वर्तमान पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक ढाँचा समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं रह गया है। इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि लोगों को ऐतिहासिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं के बारे में शिक्षित करते हुए यह बताया जाये कि पुरानी रूढ़िवादी मान्यताएँ और कर्मकाण्ड कैसे पैदा हुए और यह किस तरह वर्तमान ह्रासमान आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक ढाँचे के प्रति लोगों के दिमाग और व्यवहार में एक भ्रम को अध्यारोपित करने का काम कर रहे हैं। और किस तरह लोगों को अन्धविश्वास में धकेलकर उनके आलोचनात्मक विवेक को कुन्द किया जा रहा है जो समाज के तथा व्यक्तियों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है।

ग़ौर करने वाली बात यह है कि पूरी दुनिया के हर धर्म में जो रूढ़िवादी परम्पराएँ प्रचिलित हैं उनमें से ज़्यादातर असमानता को सही ठहराती हैं। यही कारण है कि शासक वर्ग शोषित उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने के लिए इन कर्मकाण्डों और रूढ़ियों का प्रचार करते हैं। टीवी में, अखबारों में और पत्रिकाओं में इन मूर्खताओं के लिए चलाए जा रहे कई कूपमण्डूक विज्ञापन देखे जा सकते हैं, और साथ ही धर्म गुरुओं के आश्रम भी इन्हीं रूढ़ियों के प्रचार के अड्डे बने हुए हैं जो लोगों को गुमराह करके करोड़ों का धन्धा चला रहे हैं। इन परिस्थितियों में धार्मिक कर्मकाण्डों को मानना और पण्डे-पुजारियों (या मुल्ला-मौलवियों) तथा पितृसत्तात्मक मूल्यों को बढ़ावा देना समाज-विरोधी, प्रगति-विरोधी काम है, जिसे हर व्यक्ति को सचेतन रूप से समझना चाहिए और इनके विरुद्ध वैचारिक रूप से तथा व्यवहारिक रूप में प्रचार करना चाहिए।

सन्दर्भ सूचीः

1. Social Changes in Early Mediaval India – Prof- R-S- Sharma

2. Exasperating Essays – D-D- Kosambi

3. Science Society and Peace – D-D- Kosambi

4. भारतीय समाज में जाति और मुद्रा – इरफान हबीब

5. प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति और सामाजिक संरचनाएँ – रामशरण शर्मा

6. सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या – रामशरण शर्मा

7. भारत में राज्य की उत्पत्ति – रामशरण शर्मा

8. “Full freedom of marriage can therefore only be generally established when the abolition of capitalist production and of the property relations created by it has removed all the accompanying economic
considerations which still exert such a powerful influence on the choice of a marriage partner. For then there is no other motive left except mutual inclination.”  – Frederick Engels (Origin of Family, Private
Property and State
)

9. जाति प्रश्न के समाधान के लिए – रंगनायकम्मा

10. जाति और वर्ग – रंगनायकम्मा

11. दर्शन-दिग्दर्शन – राहुल सांकृत्यायन

12. The Grand Design – Stephen Hawking

13. जनसत्ता, 20 अगस्त 2013

14. http://www.culturalindia.net/weddings/wedding-traditions/seven-vows.html

 15. http://www.marxists.org/archive/kollontai/1920/communism-family.htm
 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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