देश में नये फासीवादी उभार की तैयारी
सम्पादकीय
“इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
खून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की।”
2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों और पाँच राज्यों में से कुछ में चल रहे और कुछ में होनेवाले विधानसभा चुनावों के करीब आने के साथ ही देश भर में दंगों की राजनीति शुरू हो चुकी है। अगस्त के आख़िरी सप्ताह में मुज़फ़्फ़रनगर से शुरू होकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में फैले दंगे अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतें अब भी लगातार अफ़वाहों और ज़हरीले झूठे प्रचार के ज़रिये तनाव और नफ़रत बढ़ाने में लगी हुई है। हाल ही में आगरा में नरेन्द्र मोदी की रैली के दौरान मुज़फ़्फ़रनगर के मुख्य दंगाइयों, संगीत सोम और सुरेश राणा को भाजपा द्वारा सम्मानित किया जाना इसी कड़ी का हिस्सा है। दूसरी ओर, 27 अक्टूबर को पटना में नरेन्द्र मोदी की रैली के दिन हुए बम धमाकों में मारे गये लोगों की मौत का फ़ायदा उठाने से भी ये ताकतें नहीं चूकीं। भारतीय जनता पार्टी की राज्य इकाई ने साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ाने की मंशा से “अस्थि कलश यात्रा” नाम से पूरे पटना में जुलूस निकाला। 2002 में गोधरा काण्ड के बाद गुजरात में भी ऐसा ही किया गया था। उसका परिणाम क्या हुआ था उसे याद करना भर ही किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आत्मा को झकझोर देगा। अगर पिछले साल की बात करें तो सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में नौ दंगे हुए- कोसीकला, प्रतापगढ़, सीतापुर, बरेली व बिजनौर में और फ़ैज़ाबाद व ग़ाज़ियाबाद में दो-दो बार। महाराष्ट्र में पछोरा, बुलढ़ाना, रावेट (जलगाँव) व आकोट में दंगे हुए। आन्ध्रप्रदेश में रंगारेड्डी और हैदराबाद में साम्प्रदायिक हिंसा हुई। गुजरात में बड़ौदा और दामनगर (अमरेली) में दंगे हुए। इस साल भी दंगों में कोई कमी नहीं आयी। धुले (महाराष्ट्र), नवादा (बिहार), किश्तवाड़ (जम्मू-कश्मीर) व उत्तर प्रदेश में दंगे हो चुके हैं।
जहाँ तक मुज़फ़्फ़रनगर और उसके आसपास के इलाकों में भड़के दंगों का सवाल है तो तमाम तथ्य अन्वेषण रिपोर्टों में यह बात सामने आ चुकी है कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों ने नकली वीडियो दिखलाकर और अफ़वाहें फैलाकर योजनाबद्ध ढंग से दंगों की शुरुआत की। वैसे यह बात सिर्फ़ मुज़फ़्फ़रनगर दंगों पर ही नहीं बल्कि हर दंगे पर लागू होती है। कोई भी दंगा स्वतःस्फूर्त नहीं होता। योजनाबद्ध, संगठित और सुविचारित तरीके से पूरी तैयारी के साथ दंगा “मैन्युफैक्चर” किया जाता है। इसलिए दंगों को दंगा कहना ही ग़लत है; यह संगठित क़त्लेआम और लूट होती है। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के एक महीने पहले, स्वयं उत्तर प्रदेश गृह विभाग के एक आंकलन ने पूरे राज्य में ऐसे लगभग 12 से ज़्यादा जगहों की शिनाख्त की थी जहाँ कभी भी साम्प्रदायिक हिंसा भड़क सकती थी। ऐसे में एक सवाल सहज ही दिमाग में आता हैः फिर सरकार और राज्य मशीनरी दंगाइयों को रोक क्यों नहीं पायी? इसका जवाब बस यही है क्योंकि सरकार की ऐसी मंशा थी ही नहीं। पूँजीवादी राजनीतिक हलकों में एक कहावत चलती हैः ‘हर कोई एक अच्छा दंगा पसन्द करता है!’ जिस तरह संघ परिवार और उसके आनुषंगिक संगठन मुसलमानों का हौव्वा दिखाकर हिन्दुओं में असुरक्षा की भावना पैदा करते हैं औ उसका इस्तेमाल करते हैं उसी प्रकार काँग्रेस, सपा, संसदीय वामपंथी पार्टियों जैसी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ मुसलमानों के बीच हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के कारण पैदा होने वाली असुरक्षा का फ़ायदा उठाती हैं। ऐसी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें दंगों में या तो निष्क्रिय रहती हैं या फिर साम्प्रदायिक हिंसा में इनकी खुद आपराधिक मिलीभगत होती है।
मुज़फ़्फ़रनगर की हिंसा दो मायनों में अप्रत्याशित है। पहली इसलिए कि पहली बार मुसलमानों और जाटों के बीच साम्प्रदायिक तनाव फैला और दूसरा इसलिए कि शहरी आबादी का एक हद तक ध्रुवीकरण कर देने के बाद साम्प्रदायिक ताकतों ने अपना ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों पर केन्द्रित किया है। दो युवकों के बीच मोटरसाइकिल को लेकर झगड़े से शुरू हुई हिंसा की घटना को पहले तो लड़की के साथ छेड़छाड़ के मामले के तौर पर प्रचारित किया गया। इसके बाद किसी अन्य घटना के एक फर्ज़ी वीडियो को, जो कि पुलिस के अनुसार दो साल पुराना है और पाकिस्तान में हुई एक घटना का है, सोशल नेटवर्किंग साइटों और मोबाइल फोनों के ज़रिये बड़े पैमाने पर प्रसारित किया गया। भाजपा विधायक संगीत सोम द्वारा अपलोड किये गये इस नकली वीडियो से इलाके में मुसलमानों के खिलाफ नफ़रत भड़कायी गयी। इसके बाद भाजपा के पारम्परिक समर्थकों ने दो युवकों की हत्या का बदला लेने के लिए और अपनी बहू-बेटियों की सुरक्षा के लिए जाटों को उकसाना शुरू किया। भाजपा विधायकों द्वारा जाट महापंचायतों का आयोजन किया गया जिनमें निहायत भड़काऊ भाषण दिये गये। इन महापंचायतों में बन्दूकों, तलवारों और हथियारों से लैस करीब एक लाख जाटों ने भाग लिया।
मुज़फ़्फ़रनगर और आसपास के इलाकों में पिछले लम्बे समय से हिन्दुत्ववादी ताकतों द्वारा यह प्रचार किया गया था कि “हमारी बेटियाँ और बहुएँ सुरक्षित नहीं हैं।” यह प्रचार हिन्दू फासीवादियों के “लव जिहाद” नामक दुष्प्रचार का हिस्सा है जिसके अनुसार मुसलमान युवक, सोचे-समझे तरीके से हिन्दू लड़कियों को प्रेम के जाल में फँसाते है और उनसे शादी करके अपनी आबादी बढ़ाते हैं। इस दुष्प्रचार ने अपना असर मुज़फ़्फ़रनगर में दिखलाया। जाटों को मुसलमानों से अपनी बहू-बेटियों की रक्षा करने के लिए ललकारा गया। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार ने गति पकड़ी और बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा भड़क गयी। भाजपा की वैसे जाटों में पैठ नहीं है लेकिन इस घटना के जरिये उसने जाटों के बीच अपने सामाजिक आधार को विस्तारित और सुदृढ़ करने की कवायद शुरू कर दी है। नरेन्द्र मोदी को हिन्दुओं के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और जाटों को अपनी जातिगत पहचान त्यागकर, हिन्दू पहचान पर ज़ोर देने के लिए कहा जा रहा है। साथ ही, जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं, इन दंगों का केन्द्र मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाके रहे। ऐसा नहीं है कि गाँवों में साम्प्रदायिक हिंसा का इतिहास नहीं है, इससे पहले भी भागलपुर, नेल्ली, गुजरात और असम के बोडो इलाके में हुए दंगों में ग्रामीण क्षेत्रों में साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी लेकिन यह मूलतः शहरी क्षेत्रों में होने वाली हिंसा का आसपास के गाँवों में विस्तार भर था। मगर मुज़फ़्फ़रनगर, शामली और मेरठ में हिंसा मुख्यतया ग्रामीण क्षेत्रों में हुई। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में बेघर हुई मुसलमान आबादी अब कभी अपने गाँवों में वापस नहीं जा पायेगी। हज़ारों की तादाद में दंगों से विस्थापित मुसलमान आबादी अभी भी राहत शिविरों में रह रही है जहाँ खाने से लेकर चिकित्सा तक का कोई इन्तज़ाम नहीं हैं, जिसके कारण पिछले एक महीने में ही इन शिविरों में कई दर्जन बच्चों की मौत हो चुकी है। राहत शिविरों के भीतर अराजकता और अपराध का माहौल है। लेकिन इसके बावजूद डर का यह आलम है कि राहत शिविर की यह परेशानहाल आबादी अभी भी अपने गाँवों में लौटना नहीं चाहती है। न ही गाँवों की जाट आबादी चाहती है कि बरसों से उनके पड़ोसी रहे मुसलमान वापस लौटें। जिस इलाके में साम्प्रदायिक दंगों का कोई इतिहास ही नहीं था वहाँ इस कदर अलगाव और नफ़रत का पैदा होना दिखलाता है कि संघ गिरोह की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें कितने योजनाबद्ध ढंग से पूरे भारत को फ़ासीवाद की प्रयोगशाला में तब्दील करने में संलग्न हैं। मुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगे स्पष्ट रूप से इस बात का संकेत दे रहे हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र संघ परिवार एक बार फिर धार्मिक उन्माद फैलाकर देश स्तर पर साम्प्रदायिक माहौल तैयार कर रहा है। साम्प्रदायिक फ़ासीवादी यह अच्छी तरह समझ चुके है कि अगले लोकसभा चुनावों में 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करके ही वे केन्द्र की सत्ता तक पहुँचने की अपनी राह को थोड़ा सुगम बना सकते हैं। यह अनायास ही नहीं है कि 2002 गुजरात नरसंहार के एक प्रमुख आयोजक और नरेन्द्र मोदी के दाहिने हाथ कहे जाने वाले अमित शाह को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई है। कुछ समय पहले विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा शुरू की गयी 84 कोसी परिक्रमा भी इसी उद्देश्य से निकाली गई थी। संघी गिरोह साम्प्रदायिक हिंसा का उपयोग अपने आधार को विस्तारित करके अगले साल चुनावों में वोटों की अच्छी फसल पाने के उद्देश्य से कर रहा है। इसमें उसे कुछ हद तक सफलता भी हासिल होने लगी है। हाल ही में, चार प्रदेशों में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत का एक कारण जहाँ भयंकर महँगाई और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जनता का गुस्सा था वहीं नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार बनाना भी एक प्रमुख कारण था। नरेन्द्र मोदी की छवि को एक निर्णायक नेता के तौर पर पेश किया जा रहा है जो कि सभी समस्याओं का जादू की छड़ी घुमाकर समाधान कर देगा। जनता के बीच राजनीतिक चेतना की कमी का नतीजा यह होता है कि लोग इस बारे में नहीं सोचते कि समस्याओं का कारण कौन सी व्यवस्था और कौन-सी नीतियाँ हैं, और महँगाई, भ्रष्टाचार और असुरक्षा से उकतायी उसी देश की विशालकाय टुटपुँजिया आबादी और साथ ही मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा भी फ़ासीवादी उभार के पक्ष में खड़ा हो जाता है। तर्कणा, इतिहास और विवेक को कुचलकर एक प्रतिक्रियावादी उन्माद खड़ा किया जाता है। भारत में फासीवाद को इस उन्माद को खड़ा करने के लिए जिस फेटिश या मिथक की ज़रूरत है वह मुसलमानों के रूप में फासीवादी ताक़तों को मिलता है; ठीक उसी प्रकार जैसे कि पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी तमाम समस्याओं के “ज़िम्मेदार” के तौर पर हिटलर ने जर्मनी के टुटपुँजिया वर्गों और मज़दूरों के एक हिस्से के लिए यहूदियों को एक काल्पनिक शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया था। जब लोग समस्या के असली कारणों को नहीं देख पाते तो उन्हें एक शत्रु की आवश्यकता होती है; वास्तविक या काल्पनिक। क्रान्तिकारी ताक़तें उन्हें असली शत्रु यानी पूँजीपति वर्ग से परिचित कराती हैं, और फ़ासीवादी ताक़तें असली शत्रु की रक्षा करने के लिए उनके सामने किसी काल्पनिक शत्रु को पेश करती हैं। इसके लिए अतीत के “गौरव”, कल्पित “सांस्कृतिक वैभव” का सहारा लिया जाता है; अफवाहों और मिथकों का सहारा लिया जाता है और राजनीतिक चेतना के अभाव से पीड़ित, पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी महँगाई, बेरोज़गारी, बेघरी, भूख से त्रस्त जनता इस लहर में बह चलती है। यही फासीवाद की कार्यपद्धति है, इसी पर भारतीय फासीवादी ताक़तें अमल कर रही हैं और मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे इसी कवायद का एक हिस्सा थे।
वहीं दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाली तमाम पार्टियाँ इस साम्प्रदायिक हिंसा से उभरे ध्रुवीकरण का इस्तेमाल अपने चुनावी हितों को साधने के लिए कर रही हैं। जहाँ तक सामाजिक जनवादियों और संशोधनवादियों का प्रश्न है तो उनके बारे में जितना कम कहा जाए, उतना बेहतर है। ऐतिहासिक तौर पर भी देखा जाय तो फ़ासीवाद के उभार में सामाजिक जनवादियों और संशोधनवादियों को ग़द्दारी ने अहम भूमिका निभायी थी और एक रोके जा सकने वाले फ़ासीवादी उभार को न रोके जा सकने वाले फ़ासीवादी उभार में तब्दील कर दिया था। भारत के सामाजिक जनवादी भी अपने इसी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी का बखूबी निर्वाह करते हैं। तमाम संशोधनवादी ताकतें साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का रस्मी विरोध करने से अधिक कुछ नहीं करती है।
इतिहास गवाह है कि बुर्जुआ मानवतावादी अपीलों और धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने से साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुकाबला न तो किया जा सका है और न ही किया जा सकता है। फ़ासीवादी ताकतों और फ़ासीवाद की असलियत को बेपर्दा करके जनता के बीच लाना होगा और जनता की फौलादी एकजुटता कायम करनी होगी। फ़ासीवाद का मुकाबला हमेशा मज़दूर वर्ग ने किया है। क्रान्तिकारी ताक़तों को मज़दूर वर्ग को उनकी आर्थिक माँगों पर तो संगठित करना ही होगा, साथ ही उनके सामने इस पूरी व्यवस्था की सच्चाई को बेपर्द करना होगा और राजनीतिक तौर पर उन्हें जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। हम अपनी आँखों के सामने नये सिरे से फासीवादी उभार देख रहे हैं। न सिर्फ़ भारत में बल्कि वैश्विक पूँजीवादी संकट के इस दौर में यूनान, पुर्तगाल, फ्रांस और स्पेन से लेकर अमेरिका और इंग्लैण्ड तक में। हमारे देश में यह उभार शायद सर्वाधिक वर्चस्वकारी और ताक़तवर ढंग से आ रहा है। जनता के बीच शासन से मोहभंग की स्थिति को पूरी व्यवस्था से मोहभंग में तब्दील किया जा सकता है और हमें करना ही होगा। मौजूदा संकट ने जो दोहरी सम्भावना (क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी) पैदा की है, उसका लाभ उठाने में क्रान्तिकारी ताक़तें फिलहाल बहुत पीछे हैं, जबकि फासीवादी ताक़तें योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रही हैं। हमें अभी इसी वक़्त इस स्थिति से निपटने की तैयारी युद्धस्तर पर करनी होगी, नहीं तो बहुत देर हो जायेगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2013
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