विकास पुरुष नीतीश कुमार का ऐतिहासिक जनादेश और सुशासन का सच!

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‘बिहार में नीतीश सरकार को ऐतिहासिक जनादेश’, ‘नये दौर में लिखी नयी कहानी’, ‘ज़िम्मेदारी कोई भी हो, सफल रहे हैं नीतीश’, ‘हर क्षेत्र में हुआ विकास, नीतीश ने किया भ्रष्टाचार के ख़िलाफ जंग का ऐलान’ ये सब कुछ वाक्य हैं जो पिछले कई महीनों से मीडिया में बिहार के बारे में आ रहे हैं। किसी बिहार के मित्र या परिचित से बातचित करते हुए भी यह बात सामने आ जायेगी कि नीतीश के कार्यकाल में बिहार में विकास हुआ है। अगर आँकड़ों पर नज़र डालें तो राज्य में विकास हुआ है, इस पर सहमति बनती नज़र आयेगी। 1990-2001 में प्रति व्यक्ति आय 3209 रुपये थी जो 2008-09 में 13,663 रुपये हो गयी। इस दौरान बिहार में 1.08 करोड़ लोग मोबाइल उपभोक्ता बने जो देश में सबसे ज़्यादा है। 2008-09 के दौरान बिहार में सीमेण्ट की बिक्री में 22 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। यह निर्माण-कार्य में आये उछाल का साफ संकेत है। नीतीश के कार्यकाल में 1 लाख स्कूली शिक्षकों की नियुक्ति की गयी और अब तक 23,606 किलोमीटर सड़कें बनी हैं जो बिहार के इतिहास में नहीं हुआ था।

अब इन तमाम ख़बरों का गहराई से अध्ययन करने के बाद ज़मीनी हक़ीकत को जाना जाये। क्योंकि हमेशा से शासक वर्ग जनता में भ्रम पैदा करता है। एकदम उल्टी चीज़ों का गुणगान करता है और करवाता है, ताकि उसका स्वर्ग कायम रहे और लूट और शोषण बदस्तूर जारी रहे। अंग्रेज़ों ने भी रेल, सड़क, पुल आदि बनवाये और जनता को बताया वे विकास का काम कर रहे हैं। सच्चाई यह थी कि वे अपने मालों की ढुलाई तेज़ गति से कर सके और ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सके, इसके लिए परिवहन के साधनों का विकास कर रहे थे। साम्राज्य का विस्तार और राज्यसत्ता को मज़बूत करने के लिए टेलीफ़ोन, रेडियो, न्यायालय, पुलिस चौकी, स्कूल, कॉलेज आदि को स्थापित किया गया। इस पूरे विकासक्रम में अंग्रेज़ और उनके टुकड़े पर पलने वाले मुट्ठीभर धनिक तो विकास कर रहे थे, मगर 90 फ़ीसदी से ज़्यादा आम जनता घनघोर अत्याचार के नीचे पिस रही थी। धीरे-धीरे जनता का भ्रम टूटा और आज़ादी का बिगुल देशभर में बजने लगा। 1947 के बाद भारतीय शासक वर्ग ने भी आज़ादी और विकास का भ्रम बख़ूबी फैलाया, जो अब तक जारी है। 63 साल की आज़ादी में भारत में ऊपर के 15 फ़ीसदी तबके का विकास हुआ। बिहार जो इस विकास से वंचित रह गया था, अब वहाँ यह काम नीतीश कुमार ने सँभाल लिया है। बिहार में सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है, ताकि पूँजीपतियों का माल फ़ैक्टरी तक और फिर वहाँ से बाज़ार तक आसानी से और तेज़ी से पहुँच सके। स्कूल, आईटीआई, पॉलीटेक्नीक खोले जायेंगे, क्योंकि टाटा, बिड़ला, अम्बानी जैसों को पढ़े-लिखे मज़दूरों की ज़रूरत है जिनके श्रम का ठीक से दोहन किया जा सकेगा। अगर जनता इस लूट के ख़िलाफ आवाज़ उठाती है तो उसके लिए पुलिस, फ़ौज और संचार व्यवस्था को मजबूत किया जा रहा है।

नीतीश कुमार के इस विकास से पूँजीपतियों, नौकरशाहों, नेता-मन्त्रियों, ठेकादारों और खाये-पिये मध्यवर्ग का विकास होगा। इसका केवल जूठन ही आम ग़रीब आबादी तक पहुँच पायेगा, या शायद वह भी नहीं। नीचे की 80 प्रतिशत आबादी की तबाही-बर्बादी बदस्तूर जारी रहेगी। बिहार में प्रत्येक साल बाढ़ से करोड़ों लोग बेघर हो जाते हैं। यह भीषण तबाही-बर्बादी सबसे ज़्यादा मज़दूर, ग़रीब किसान और निम्न मध्यवर्ग झेलता है। सरकार इसे चाहे तो रोक सकती है, लेकिन इसमें पूँजीपतियों का फ़ायदा नहीं है। बिहार की एक तिहाई आबादी भूखे पेट सोती है, रोज़ाना हज़ारों बच्चे भूख और कुपोषण के कारण दम तोड़ देते हैं और दूसरी तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ जाता है। सरकार गोदामों में सड़ रहा अनाज भूख से मरते लोगों को मुफ़्त में नहीं देगी, क्योंकि अनाज मुफ़्त में लोगों के पास चला जायेगा तो पूँजीपतियों और व्यापारियों का मुनाफ़ा कम हो जायेगा। यही हाल शिक्षा और चिकित्सा का भी है। बिहार का सकल घरेलू उत्पाद बढ़ जाने और प्रतिव्यक्ति आय 13,990 रुपये हो जाने से जनता की ख़ुशहाली नापना धोखाधड़ी है। प्रश्न यह है कि सकल घरेलू उत्पाद का वितरण कैसे होता है और आम आदमी को हासिल क्या होता है? जहाँ तक औसत आय की बात है तो अरबपतियों और 20 रुपये रोज़ाना की आय वालों का औसत निकालने से तरक्‍़क़ी की भ्रामक तस्वीर ही सामने आती है।

असल में नीतीश कुमार जिस विकास का काम कर रहे हैं, देश के पैमाने पर उसकी शुरुआत 1991 में की गयी। जब नेहरूवादी, ‘समाजवाद’ का गुब्बारा एकदम फुस्स हो गया और देशी पूँजीवादी ढाँचे का चौतरफ़ा संकट लाइलाज हो गया, तो फिर 1991 में भारतीय पूँजीपतियों ने साम्राज्यवादियों के सहकार-सहयोग से उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत की। नरसिंह राव की सरकार ने जब इन नीतियों की शुरुआत की थी, तब मनमोहन सिंह वित्तमन्त्री थे। उस समय मनमोहन-मोण्टेक-चिदम्बरम ने ‘ट्रिकल डाउन थियरी’ की बात करते हुए कहा था कि समाज के शिखरों पर जब समृद्धि आयेगी तो वह रिसकर नीचे तक पहुँच जायेगी। बीस साल होने को है। समृद्धि रिस-रिसकर किनके ख़ज़ानों को बढ़ा रही, किन्हें कंगाल कर रही है, साफ-साफ दिख रहा है। अगर यह कहें कि नीचे वालों की हड्डियाँ निचोड़कर शिखरों पर समृद्धि का उजाला फैल रहा है, तो कोई ग़लत नहीं होगा। नीतीश सरकार भी इसी नीति को लागू कर रही है। पूँजीपतियों को लूटने के लिए खुला मैदान मुहैया करा रही है। वैसे इस समय कोई दूसरी चुनावी पार्टी सत्ता में आती तो उसे ऐसा करना ही पड़ता, क्योंकि पूँजीपतियों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए सस्ता श्रम और नये बाज़ार की तलाश रहती है जो उसे बिहार में दिखायी दे रहे हैं। ऐसे में सभी चुनावी पार्टियों को ऐसी नीतियों बनानी ही पड़तीं, नहीं तो उसका करोड़ों का चन्दा जो इन पूँजीपतियों के यहाँ से आता है, बन्द हो जायेगा। नीतीश सरकार इन कामों को अच्छी तरह कर रही है इसलिए तमाम पूँजीपतियों के अख़बार और मीडिया इनका भरपूर सहयोग भी दे रही है।

बिहार सरकार भ्रष्टाचार ख़त्म करने की बात करती है और कहने को तो कुछ कदम भी उठाये हैं। लेकिन इस दिखावे की असलियत बहुत जल्द सामने आ जायेगी। अभी हाल में नीतीश कुमार सरकार ने जब विधायक फण्ड ख़त्म किया तो मीडिया ने ख़ूब शोर मचाया कि अब भ्रष्टाचार पर एक ज़ोरदार चोट हुई है और विधायक कार्यालय के स्तर पर भ्रष्टाचार में कमी आ जायेगी। लेकिन सच्चाई क्या है? पहले कोई नागरिक सूचना के अधिकार के जरिये विधायक से उसके फण्ड का हिसाब माँग सकता था, लेकिन अब करोड़ों रुपये के वारे-न्यारे ऊपर ही हो जायेंगे और जनता के प्रति सरकार की कोई जवाबदेही नहीं होगी। इसको कहते हैं कि साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। एक और चीज़ जो चर्चा का विषय होती है, वह है मुख्यमन्त्री द्वारा चलाये जा रहे जनता दरबार की बात। पहली बात तो यह शब्द ही राजे-रजवाड़ों के ज़माने का है। दरबार राजाओं और बादशाहों का लगता है। जनतन्त्र में तो जनता का दरबार लगना चाहिए और शासकों की उसमें पेशी होनी चाहिए। लेकिन शब्दों का फेर छोड़कर मुद्दे की बात करते हैं। दरबार के नाम पर अलग-अलग प्रदेशों के मुख्यमन्त्री अच्छी नौटंकी कर रहे हैं। सस्ती लोकप्रियता का यह प्रहसन है तो काबिलेतारीफ कि जिसमें ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो’। अव्वलन इन दरबारों तक आम आदमी न तो आता है न ही उसे ज़्यादा भरोसा ही है। अगर आ भी जाता है तो उसके साथ क्या होता है! चलो उसका भी जायज़ा ले लेते हैं। इस जनता दरबार में पटना से दूर रहने वाली ग़रीब जनता आ ही नहीं सकती, क्योंकि वह आने-जाने का किराया नहीं जुटा सकती और एक रात ठहरने की बात हो तो कतई नहीं। दूसरी बात, जनता जानती है कि पुलिस, अफसर और नेता के ख़िलाफ बोलने का मतलब क्या हो सकता है। इस तरह तो बहुसंख्यक आबादी जनता दरबार आ ही नहीं सकती। अब गणित के हिसाब से जोड़ते हैं, कितने आदमी जनता दरबार में पाँच साल में आते होंगे। मान लीजिये अगर 100 आदमी एक सप्ताह में मुख्यमन्त्री से मिलते हैं, तो इस प्रकार एक साल में 5200 और पाँच साल में 26,000 होता है और यह तब सम्भव है जब पूरे पाँच वर्ष दरबार लगाया जाये। यह 26,000 की संख्या राज्य की कुल जनसंख्या का 1 प्रतिशत से भी कम है। जनता दरबार में पहुँचे बहुतों को लम्बे इन्तज़ार के बाद भी कोई राहत नहीं मिली और ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्हें मुख्यमन्त्री की सभा में चप्पलें फेंकनी पड़ रही हैं। सुशासन और कानून राज की बात करने वाले नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी के राज में उनकी पार्टियों के विधायकों की असलियत महिला अध्यापक रूपक पाठक के साथ हुए दुर्व्यवहार में सबके सामने आ जाती है। हद तो तब हो जाती है जब आदर्श, संस्कृति की दुहाई देने वाली पार्टी भाजपा के सुशील कुमार मोदी, जो कि बिहार के उपमुख्यमन्त्री भी हैं, अपने विधायक को ‘सच्चरित्र’ साबित करने के लिए पीड़ित महिला पर ही लांछन मढ़ने का काम करते हैं। वहीं आदर्श मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ‘चरित्रवान’ विधायकों की सुरक्षा-व्यवस्था बढ़ाने के लिए चिन्तातुर हो उठते हैं। अब उन्हें दो बॉडीगार्ड की जगह तीन बॉडीगार्ड मिलेंगे। मुख्यमन्त्री जी ने ठीक ही किया क्योंकि उनकी पार्टी का प्रत्येक चौथा विधायक आपराधिक छवि का है। बाक़ी बचे हुए भी वैसे ही हैं, बस उनका कच्चा-चिट्ठा अभी नहीं खुला है।

नीतीश कुमार की सरकार की जनपक्षधरता अभी हाल के ही एक और मसले में भी सामने आ गयी। अभी चैनपुर-बिशुनपुर इलाक़े में एक पूँजीपति एस्बेस्टस का कारख़ाना लगाने वाला है। इस इलाक़े की पूरी जनता इसके ख़िलाफ है और सड़कों पर उतर रही है। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार इन पर लाठियाँ बरसाने और इन्हें गिरफ़्तार करने का काम कर रही है। इसी से पता चलता है कि नीतीश कुमार की सरकार किनके लिए विकास करना चाहती है। यह विकास पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है और इसकी सच्चाई आने वाले पाँच वर्षों में और अच्छी तरह से उजागर हो जायेगी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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