वे इतिहास से इतना क्यों भयाक्रान्त हैं!

शमीम

जार्ज दिमित्रेव ने कहा था – “फ़ासीवाद साम्राज्यवाद की चरम सीमा के हितों का पोषक होता है। हालाँकि जनता के सामने वह स्वयं को ऐसे राष्ट्र के रूप में पेश करता है जिसके साथ दुर्व्यवहार किया गया हो और वह जनता से अपमानित राष्ट्रीय भावनाओं की शब्दावली में अपील करता है।” विश्व के समस्त फासीवादी अतीत का आर्दशीकरण करते हुए समाज के पीले चेहरे वाले युवाओं का इस्तेमाल करते हुए कथित जनभावनाओं का उभार पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं! जहाँ सच्चाई उन्हें अपनी आदर्शीकृत दुनिया से अलग नज़र आती है उसे वे विचलन बताते हैं तथा अतीत का महिमामण्डन करते हुए उसे षड्यन्त्र, मार्क्सवादी षड्यन्त्र या मुस्लिम षड्यन्त्र का नाम देने लगते हैं। “मिथकों को समाज के सामान्य बोध के तौर पर स्थापित करना” फासीवादियों के सिद्धान्त का आधार रहा है। यूँ तो भारतीय फासीवादियों की इतिहास से दुश्मनी का पुराना इतिहास रहा है। जहाँ कहीं भी उन्हें अपने कथित आदर्श हिन्दू राज्य से कुछ अलग दृष्टिगोचर होता रहा है उसके खिलाफ वे लामबन्द होते रहे हैं।

ताज़ा विवाद का केन्द्र जेम्स लेन की शिवाजी पर लिखी किताब ‘शिवाजी: इस्लामी भारत में एक हिन्दू राजा’ थी। उक्त किताब का प्रकाशन 2003 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने सबसे पहले किया था (पाठकों को स्मरण होगा कि ‘आह्नान’ के मार्च 2004 के अंक में हमने उक्त घटना पर एक लेख प्रकाशित किया था)।

उस वक़्त देश के कथित राष्ट्रवादी व अस्मितावादी राजनीति के पैरोकार बाल ठाकरे की शिवसेना से सम्बद्ध मराठा सेवा संघ की सम्भाजी बिग्रेड ने किताब का विरोध करते हुए देश के जाने-माने शोध संस्थान पुणे स्थित भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान को तहस-नहस कर डाला था। भण्डारकर शोध संस्थान की स्थापना 1924 में की गयी थी जिसमें देश-विदेश के शोधार्थी शोध हेतु आते थे। उक्त संस्थान में कुल 18,000 पुस्तकों तथा 30 हज़ार दुर्लभ पाण्डुलिपियों, शोध पत्रें को या तो जला दिया गया या नष्ट कर दिया गया।

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राष्ट्र की उक्त सेवा करने के बाद भी इन लम्पट तत्त्वों की राष्ट्र सेवा पिपासा शान्त नहीं हुई तो उन्होंने संस्कृत विद्वान व इतिहासकार श्रीकान्त बहुलकर पर हमला करके उनके मुँह पर कालिख पोत दी थी। कारण उक्त किताब के लेखक जेम्स लेन ने पुस्तक की भूमिका में बहुलकर व दिलीप चैत्रे द्वारा उपलब्ध करवाई गयी सामग्री (लेखन सम्बन्धी) के लिए आभार प्रकट किया था, जबकि उनका जेम्स लेन की शिवाजी सम्बन्धी प्रतिस्थापनाओं से कोई लेना देना नहीं था। उक्त पुस्तक-सम्बन्धी विवाद को लेकर पुस्तक के प्रतिबन्धन के लिए भगवा ब्रिगेड ने बाम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी। बाम्बे हाईकोर्ट ने उक्त पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने से इनकार किया था जिसके बाद महाराष्ट्र सरकार व अन्य हिन्दूवादी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में प्रतिबन्ध सम्बन्धी याचिका दायर की जिसका फैसला 6 वर्षों बाद जुलाई 2010 में आया था। उक्त फैसले में भी किताब को प्रतिबन्धित करने की माँग ख़ारिज कर दी गयी है। परन्तु महाराष्ट्र की कांग्रेसी सरकार इस पुस्तक को प्रचारित करने के पक्ष में नहीं है। उनके मुताबिक किसी भी रूप में “जनभावनाओं” से खिलवाड़ नहीं करने दिया जायेगा। जैसे ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया भारतीय राष्ट्रवादियों की आत्मा बेचैन हो उठी तथा उन्होंने राष्ट्रवाद के दलदल में गोते लगाते हुए मुम्बई से लेकर दिल्ली की सड़कों तक झुण्डपौरूष का प्रदर्शन किया।

भारत के इतिहास में शिवाजी की जो भूमिका है उससे इन्कार नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इतिहास कोई स्तुतिगान नहीं है। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही महान क्यों न हो वह प्रश्नों के दायरे से बाहर नहीं जा सकता है। किसी किताब पर सरकारी प्रतिबन्ध लगाना अभिव्यक्ति की आज़ादी के खि़लाफ है। अकादमिक क्षेत्र में उठे किसी विवाद का निपटारा विचार-विमर्श और बहस के द्वारा हल किया जाना चाहिए। धार्मिक विषयों के अमेरिकी अध्येता जेम्स लेन की स्थापनाओं और उनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर किसी की भी असहमति या मतभेद हो सकते हैं। एक तार्किक नज़रिये द्वारा उसकी आलोचना की जाये, उस पर बहस चलायी जाये, जिससे कि सच्चाई सामने लायी जा सके। असल में शासक वर्ग “आहत भावनाओं” की आड़ लेकर अपने मोहरे ही सेट करना चाहता है। महाराष्ट्र सरकार द्वारा इस घटना कि की जा रही लीपा-पोती इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

जेम्स लेन की किताब में कुछ ऐसी बातों का जिक्र किया गया था जो मराठा अस्मितावादी तथा संघियों के आदर्श हिन्दू राज्य के खोखले तथा तर्कविहीन आदर्शों से कतई मेल नहीं खाती थी। तब ज़ाहिर सी बात है कि जैसा हमेशा होता आया है कि राष्ट्रवादियों का राष्ट्रप्रेम जागे तथा वे प्रतिरोध करने वालों को दैहिक व दैविक ताप से मुक्ति का अभियान शुरू करें। यह फासीवाद की कार्यनीति का अभिन्न अंग है कि वह अपने सांगठनिक व राजनीतिक हितों की पूर्ति हेतु आतंक का सहारा लेता है।

इतिहास बनाम संघ

भारत में संघ व उसके अनुष्ठानिक संगठनों का तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक व विवेक-आधारित इतिहास के विरोध का इतिहास काफी पुराना रहा है। इसका पहला प्रयास 1977 में केन्द्र की सत्ता पर काबिज़ होने के बाद भगवा ब्रिगेड ने शुरू किया था जब एक गुमनाम ख़त के आधार पर एनसीईआरटी की किताबों को हटाते हुए यह तर्क दिया गया कि उक्त किताबों में कुछ ऐसी सामग्री दी गयी है जिससे कुछ समुदायों की भावनाएँ आहत हुई हैं। उसके बाद देश के तमाम सरस्वती मन्दिरों में जो पढ़ाया जा रहा है हकीकतन तो वह इतिहास के नाम पर एक गल्प है। 21वीं सदी के बच्चे को मनुस्मृति को सन्दर्भित करके बताया जाता है कि सामाजिक एकता के लिए जातियों का बने रहना ज़रूरी है! गणेश के हाथी के सिर को अंग-प्रत्यारोपण का उदाहरण बताया जा रहा है! तब समझा जा सकता है कि भगवा ब्रिगेड कैसा इतिहास इस देश को पढ़ाना चाहती है। राजस्थान के सरस्वती मन्दिरों में कक्षा 3 की ‘संस्कार सौरभ’ नामक किताब में बाबरी मस्जिद के विध्वंसकारियों को शहीद का दर्जा देते हुए अभ्यास प्रश्नों में पूछा गया है कि 6 दिसम्बर 1992 का इतिहास में क्या महत्त्व है? कारसेवा क्या है? तथा दो कारसेवकों की शहादत का वर्णन करो? पाठक अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि यह इतिहास है या ‘पाञचजन्य’ का लेख। इसके अलावा देश के तमाम शिक्षण संस्थानों में भी संघी ब्रिगेड कथित इतिहासकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों की एक जमात खड़ी कर चुकी है जो इतिहास के नाम पर ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ को बाँचते रहते हैं। देवेन्द्र स्वरूप से लेकर, एस. राजाराम जैसे लोग जो इतिहास लेखन के नाम पर ‘पाञचजन्य’ के अलावा शायद ही कहीं लिख पाये हों, स्वयं को इतिहासकार घोषित कर रहे हैं।

फीकी केसरिया लाइन व इतिहास

पूँजीवादी देशों की राज्यसत्ताएँ इतिहास को एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करती हैं तथा अपने एजेण्डे और आग्रहों पर अमल का ज़रिया बना देती हैं तथा वे सामाजिक विकास को बाधित करने व समाज को प्रतिगामी बनाने का काम करती हैं। उक्त किताब पर महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री अशोक चह्नाण ने यह कहते हुए प्रतिबन्ध को सही बताया कि “मैं यह साफ कर देना चाहता हूँ कि मेरी भावनाएँ राज्य के लोगों की भावनाओं से अलग नहीं हैं। एक प्रशासक होने के नाते कानून व्यवस्था बनाये रखना हमारी जिम्मेदारी है।” या कहा जाये कि वोट बैंक बनाये रखने की मजबूरी है! जिस देश के नेताओं को महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी जैसी गम्भीर समस्याओं पर पिछले 63 सालों में कर्तव्य-भावना का बोध नहीं होता उनके मुँह से ऐसी बातें सुनकर हँसी ही आ सकती है। कांग्रेस की नरम केसरिया लाइन की यह प्रतीकात्मक घटना है। इससे पहले मुक्तिबोध की किताब ‘भारतीय संस्कृति व सभ्यता’ पर 60 के दशक में प्रतिबन्ध से लेकर फिल्म “किस्सा कुर्सी का” पर प्रतिबन्ध व सलमान रुश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेस’ पर प्रतिबन्ध इत्यादि घटनाएँ उनके इतिहास के फासिस्टीकरण को ज़ाहिर करती है।

आस्था बनाम इतिहास

ऐसे धार्मिक निकाय जो कि अपने को पूरे धार्मिक समुदाय की ओर से बोलने का दावा कर रहे हैं, क्या वाकई वे उस समुदाय की जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? या फिर यह इतिहास की हिन्दुत्ववादी धारा को थोपने का प्रयास है?

संघी ब्रिगेड के इतर तमाम लोग हैं जो इतिहास को आस्था का प्रश्न बनाने की कोशिश करते हैं तथा तर्क देते हैं कि अमुक किताब या अमुक लेख से किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँची है। यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि इतिहास व्यक्तियों या समुदायों की आस्थाओं के अनुरूप नहीं लिखा जाता तथा वह जैसा है वैसा ही लिखा जाता है। अगर इतिहास आस्थाओं के अनुरूप होगा तो वह इतिहास न होकर स्तुतिगान होगा। यदि आस्था को इतिहास का प्रश्न बनाया जाये तो बहुसंख्यक आबादी की आस्थाओं को ठेस पहुँचाने वाली तमाम सामग्री स्वयं धर्मग्रन्थों में भी मिल जाती है। इसके सन्दर्भों के लिए आप डी.एन. झा की पुस्तक ‘पवित्र गाय’ और आर.एस. शर्मा की पुस्तक ‘मटीरियल कल्चर एण्ड सोशल फॉर्मेशंस इन एंशण्ट इण्डिया’ का अध्ययन कर सकते हैं।

वस्तुतः तो उनका (फासीवादियों का) अभिप्राय इतिहास की ऐसी कट्टरपन्थी धारणाओं से है जहाँ विवेकशील विमर्श की कोई गुंजाइश नहीं होगी। सामाजिक आर्थिक विषमताओं व पूँजीवादी शोषण से त्रस्त भारत की व्यापक आबादी को अतीत का मायालोक दिखाकर संघी ब्रिगेड वास्तव में जनता को वास्तविक समस्याओं को पहचानने की प्रक्रिया से दूर करती रही है। किसी समाज या देश को समाज-विकास की उस अवस्था में पहुँचाने के लिए जहाँ उत्पादन, राजकाज तथा सामाजिक ढाँचे पर उत्पादक वर्गों का कब्ज़ा हो, विवेक-आधारित विमर्श की आवश्यकता तथा इतिहास के मिथकीकरण का विरोध आवश्यक है। यह विरोध बौद्धिक जगत के साथ आम जनता के बीच से भी होना चाहिए। विवेक- आधारित विमर्श को दबाया जाना सिर्फ बुद्धिजीवियों से जुड़ा मामला नहीं है, यह जनता के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाला मामला है क्योंकि विवेक का फलना-फूलना स्वतन्त्रता की दिशा में जनता के आगे बढ़ने की ज़रूरी शर्त है और जब तक उनका लेखन जनता से कटा रहेगा उसकी कोई उपयोगिता नहीं होगी सिवाय कुछ ज्ञानपिपासु लोगों की भूख शान्त करने के।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्‍टूबर 2010

 

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