जयराम रमेश को गुस्सा क्यों आता है?

प्रेमप्रकाश

इस देश के भद्रलोक के ज्ञानवान सुसाक्षर केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश ने दीक्षान्त समारोहों में पहने जाने वाले पारम्परिक गाउन को उतार फेंकने की बात कहकर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। भोपाल के इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ फॅारेस्ट मैनेजमेण्ट के 17 वें दीक्षान्त समारोह को सम्बोधित करने के अवसर पर माननीय मंत्री जी की तर्कशीलता और राष्ट्रप्रेम जाग उठा। रमेश ने कहा कि समारोह में पहना जाने वाला पारम्परिक गाउन उपनिवेशवाद का बर्बर अवशेष चिन्ह है, आज़ादी के छः दशक बाद भी पता नहीं हम क्यों इससे चिपके हुए हैं। प्रथमदृष्टया ऐसा लगता है कि पर्यावरण मंत्री की इस बात के लिए प्रशंसा करनी चाहिए कि उनके अन्दर तमाम औपनिवेशिक बर्बरता और सामन्ती अवशेषों के प्रति इतनी घृणा है। लेकिन क्या मंत्री महोदय का यह क्रोध वास्तव में ऐसे तमाम अतार्किक अवशेषों के ख़ात्मे के सकारात्मक सरोकार के लिए हैं या सुर्खि़यों में बने रहने एवं प्रमुख सवालों के बजाय हाशिये के सवालों को प्रमुख बनाने की पूँजीवादी राजनीतिक चालबाज़ी है जिससे इस देश की जनता  के बीच जिन्दगी के मुख्य मुद्दों पर पर्दा पड़ जाए। औपनिवेशिक गाउन की परम्परा का ख़ात्मा करना या उतारना ही था तो प्रश्न उठाता है कि मंत्री महोदय ने यह गाउन पहना ही क्यों? क्या इस औपनिवेशिक बर्बर गाउन की खि़लाफत के लिए इसको उतारने का नाटक जरुरी था? इसके खिलाफ तार्किक बहस चलाकर भी इसको हटाने की बात कही जा सकती थी। फिर इतना नाटक क्यों?

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इस देश की जनता की धुर विरोधी, प्रगतिशीलता एवं उदारवाद का छद्म चोला पहनने वाली संसदीय पार्टियों एवं उनके पतित नेताओं की न तो औपनिवेशिक अवशेषों से कोई दुश्मनी है और न ही सामन्ती बर्बर देशी मानव विरोधी परम्पराओं से। जयराम रमेश जिस औपनिवेशिक प्रतीक चिन्ह गाउन का विरोध कर उतार फेंकने की बात करते हैं उसी औपनिवेशिक शासन की दी हुई शिक्षा व्यवस्था व न्यायपालिका को ढो रहे हैं। आज भी भारत में उसी लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को सुधारों के पैबन्दों और जालसाज़ी से लागू किया गया है। मैकाले की शिक्षा पद्धति का प्रमुख मक़सद ऐसे भारतीय मस्तिष्क का निर्माण करना था जो देखने में देशी लगे लेकिन दिमाग से पूर्णतया लुटेरे अंग्रेजों का पक्षधर हो। पिछले साठ सालों में शिक्षा को हाशिये पर रखा गया। आज़ादी के समय सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा देना राज्य का कर्तव्य बताया गया था। आज उसी शिक्षा को नित नये कानूनों द्वारा बाज़ार की वस्तु बनाया जा रहा है। अंग्रेजियत को थोपा गया और रोज़गार के तमाम क्षेत्रों को अंग्रेज़ी भाषा से जोड़े रखने की साजिश जारी रही। देश के अन्दर ही बर्बरता और असमानता को दीर्घकालिक बनाये रखने का एक कुचक्र रचा गया जो आज भी जारी है। शिक्षा के उसी औपनिवेशिक खाद से पली-बढ़ी आज की शिक्षा और उसमें प्रशिक्षित उच्च मध्यवर्गीय शिक्षित समुदाय अपने ही देश के ग़रीब मज़दूरों व अशिक्षितों से नफरत करता है, उसे गँवार समझता है और अपनी मेधा, ज्ञान और शिक्षा का प्रयोग ठीक  उन्हीं औपनिवेशिक शासकों की तरह ग़रीबों के शरीर के खून का एक-एक क़तरा निचोड़ने के लिये करता है। तब जयराम रमेश को गुस्सा नहीं आता। जाहिर है, जब वे नुमाइन्दगी ही इसी खाए-पिये अघाए मध्यवर्ग की कर रहे हैं, तो उससे गुस्सा कैसा?

इस देश की राज्य व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ न्यायपालिका की स्थापना अंग्रेज़ों द्वारा की गयी थी। उसकी सारी प्रथाएँ और प्रतीक आज भी बर्बरों के राज्य द्वारा दिये गये औपनिवेशिक न्याय की याद दिलाते हैं। जिस न्याय व्यवस्था द्वारा देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले शहीदों को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया वही आई.पी.सी., वही क्रिमिनल प्रोसीजर कोड जो अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय उपनिवेश को ध्यान में रख कर बनाया गया था मामूली फेरबदल के साथ लागू हैं। अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा बनाया गया पब्लिक सेफ्टी एक्ट स्पेशल पावर्स आर्म्ड फोर्स एक्ट के रूप में पूर्वातर राज्यों में व कश्मीर में रोज़ आतंक का ताण्डव रच रहा है। पूरे देश मे पुलिस का दमनकारी ढाँचा आज भी न केवल उसी ढंग-ढर्रे से काम कर रहा है बल्कि और ज्यादा क्रूर होता जा रहा है।

आज़ादी के 60 साल बाद भी न्याय के लिए तरसता व्यक्ति वकीलों और जजों के काले लबादे के बीच यह तक नहीं समझ सकता कि उसके ऊपर चल रहे मुकदमे की जो बहस हो रही है उसमें क्या कहा जा रहा है। आज भी न्यायालयों की भाषा अंग्रेज़ी है। इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है कि देश के न्यायालय और संसद की कार्यवाही की भाषा इस देश की जनता की अपनी भाषा नहीं है। लेकिन जयराम रमेश को व उनकी सरकार को इस बात के लिए गुस्सा नहीं आता! न ही देशभर में इसके लिए सार्थक बहस व व्यावहारिक फेरबदल के लिए वह व उनकी  सरकार कुछ करना चाहती है।

जयराम रमेश को औपनिवेशिक ढाँचा व गाउन से चिढ़ है लेकिन वे खुद अंग्रेज़ी में काम करते हैं। यहाँ हमारा किसी भाषा को जानने और भाषा ज्ञान से विरोध नहीं हैं परन्तु एक औपनिवेशिक भाषा के थोपे जाने और उससे जुड़े देशी और विदेशी साम्राज्यवादी शोषण के कुचक्र का मुखर विरोध आज बेहद जरूरी है। जाहिर है कि जयराम रमेश को इसकी ज़रूरत नहीं समझ आती।

अभी हाल में आन्ध्र प्रदेश के एक स्कूल में दो विद्यार्थियों को मात्रा इस लिए दण्डित किया गया कि वे आपस में तेलुगु में बात कर रहे थे। मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै खण्डपीठ में वकीलों को तमिल में बहस करने की माँग को लेकर धरने पर बैठना पड़ा। इन सबसे अधिक शर्म की बात क्या हो सकती है। न्याय की वह भाषा भला न्यायसंगत कैसे हो सकती है जिसे मुवक्किल तक न समझ सके? ज्ञान की भाषा आज वह नहीं है जिसमें अवधारणा व विचार अँखुआ सकें, जिसमें देश के बच्चे अपने स्वप्नों अपने परिवेश की चीज़ों से सहज सरोकार रखते हुए अपने ज्ञान का विकास कर सकें। लेकिन जयराम रमेश को इस पर गुस्सा नहीं आता!

वन एवं पर्यावरण मंत्री को बाघ बचाने की चिन्ता खाये जा रही है। वह प्रकृति के व जंगलों के नुकसान से परेशान हैं। लेकिन भारतीय सरकारी तन्त्र के घूसखोर होने, और परभक्षी-परजीवी पूँजीपतियों के हाथों बिके देश के कानूनों, पर्यावरण प्रभाव योजनाओं (Environ-ment Impact Assessment Plan) को रुपयों के द्वारा तोड़ने-मरोड़ने की प्रक्रिया के बारे में जानते हुए भी वह चुप रहते हैं। इस देश में जारी शोषणकारी व्यवस्था के, जिसमें मज़दूर अधिकारों के हनन व श्रम कानूनों की अनदेखी बदस्तूर जारी है, फलने-फूलने पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। विशेष आर्थिक क्षेत्र के वे समर्थक हैं जहाँ मज़दूरों की कमाई से पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने की खुली छूट दी जाती है और सारे श्रम कानूनों की अनदेखी करने की वैधानिक मान्यता दी जाती है। इसमें जयराम रमेश को इसमें कुछ भी बर्बर नज़र नहीं आता।

1935 के गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट की पैबन्दसाजी और गैरजनतान्त्रिक प्रतिनिधियों द्वारा बनाया गया भारतीय संविधान जिसके तमाम अलंकृत शब्द (‘‘समाजवाद’‘, जनवाद और धर्मनिरपेक्षता) आज आम जनता के लिए उपहास योग्य बन चुके हैं। जब एक थाने का हवलदार और फौज के कारकून सारे संविधान और कानून को अपनी जेब में रखकर घूमते हैं और आम नागरिकों में सुरक्षा की बजाय निरंकुश आतंक की भावना पैदा करते हैं, तब उनको निरंकुश मध्ययुगीन अत्याचार और बर्बरता नज़र नहीं आती।

पर्यावरण को बचाने के लिए ढोंगी बिल्ले की भाँति साधुता दिखाने वाले जयराम रमेश को यह नहीं दिखायी देता कि महेश्वर बाँध परियोजना में पर्यावरणीय मंजूरी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है। 61 गाँवों के 70 हजार प्रभावितों को पुनर्वास,  मुआवज़ा और अनुदान नहीं मिला तो ऐसे बर्बर कृत्यों में जयराम को सभ्यता नज़र आती है!

भारतीय संसदीय धन कुबेरों, धन पशुओं द्वारा जब मध्ययुगीन अवशेषों के रूप में ताज़पोशी और तलवार धारण की जाती है, सोने चांदी  के मुकुट और नोटों की माला पहनी जाती है तब ऐसे सामन्ती अवशेषों के बारे में जयराम रमेश जैसे लोगों को मध्ययुगीन कूपमण्डूकता और बर्बरता की बू नहीं आती!

आज भी मुल्क जाति, धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर ढोंगी बाबाओं, मुल्लों और मौलवियों के जाल में फँसकर  तबाह हो रहा है। टी.वी. व अन्य प्रचार साधनों द्वारा पहले से ही पर्याप्त अतार्किक भारतीय समाज को अवैज्ञानिकता और अतार्किकता की खुराक दी जा रही है। वहीं दूसरी ओर, पाश्चात्स संस्कृति में जो कुछ भी सड़ा-गला है उसे देश के युवाओं के सामने परोसा जा रहा है। पुरानी कूपमण्डूकताएँ आधुनिक तकनोलॉजी की पीठ पर सवार हो घर-घर में घुस रही हैं।

देश के तमाम हिस्सों में खाप पंचायतों के रूप में तथा दलितों पर अत्याचार के रूप में देशी मध्ययुगीन ब्राह्मणवादी सामन्तवादी संस्कृति के अत्याचारी और अमानवीय उभार पर अपने वोट और राजनीति की रोटियाँ सेंकते हुए इन जयरामों, जिन्दलों, मित्तलों और चौटालाओं तथा जोशियों को बर्बरता नहीं दिखायी देती। जिस व्यवस्था के आर्थिक ढाँचे में 18 करोड़ लोग बेघर 18 करोड़ फुटपातो पर सोते हैं; जहाँ हर 73 मिनट में एक महिला दहेज के लिए जलायी जाती है; जहाँ ग़रीबों के आँकड़ों से ज्ञान के मनीषी, राजनेता  और सरकारी आयोग खिलवाड़ करते हैं और आकड़ों की बाज़ीगरी से देश की बदहाल स्थिति की सुधरती तस्वीर पेश करते हैं; जो व्यवस्था देश के लगभग 10,000 बच्चों को रोज़ भूख और कुपोषण से निगल जाती है; तब पढ़े-लिखे मंत्री जयराम रमेश को गुस्सा नहीं आता। तब जयराम की आँखों को इस शासन की बर्बरता दिखायी नहीं देती। तब इन सबको उतार फेंकने का केाई कृत्य वे क्यों नहीं करते?

दरअसल, जयराम जैसे नेता-मंत्रियों के इस हवाई राष्ट्रवादी देश प्रेम के एजेण्डे की मुख्य वजह है औपनिवेशिक इतिहास, शासकों और संस्कृति के प्रति इस देश की आम जनता की गहरी नफरत को भुनाना। इसके जरिये एक तीर से कई निशाने लग जाते हैं। एक तरफ तो जयराम रमेश ने अपनी एक प्रगतिशील छवि पेश करने का प्रयास किया और वहीं ऐसे सभी ‘मीडिया गिमिक’ बुनियादी और हमारे जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों से कुछ देर के लिए ही सही, लेकिन ध्यान हटा देते हैं। कुछ समय के लिए चाय के अड्डों से लेकर मध्यवर्ग के ड्राइंग रूम तक यह चर्चा का विषय बन जाता है। ऐसे कुछ करतब नेता-मन्त्री बीच-बीच में करते रहते हैं। जयराम रमेश का गाउन उतारना एक ऐसी ही हरकत थी। ऐसे  मुद्दे उठाना जो आज के समय के परिधिगत मुद्दे हों या जिनसे व्यापक जनता के जीवन का कोई लेना-देना न हो तथा जो राष्ट्रवाद की छौंक का काम करें इन पूँजीवादी संसदीय भाड़े के टट्टुओं की फितरत होती है। अगर आज जयराम रमेश को सामन्ती, मध्ययुगीन और बर्बर अवशेषों से छुटकारा पाने की इतनी ही ज़रूरत समझ में आ रही है तो ब्रिटिश परम्परा से आने वाले गाउन से ज़्यादा विनाशकारी ऐसे तमाम अवशेष हैं जिनके तले दबे आज भारतीय जनमानस कराह रहा है। बेहतर होता कि मन्त्री महोदय उनके बारे में कुछ सोचते! लेकिन हम सभी जानते हैं इरादा ही यह नहीं है, तो इस पर और बात करने की ज़रूरत ही नहीं है। जयराम रमेश को उनके गाउन के साथ छोड़ दिया जाय!

लेनिन ने कहा है, ‘’लोग राजनीति में सदा छल और आत्मप्रवंचना के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेगें जब तक वे नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कथनों, घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नही सीखेंगे।’‘

आज भी लेनिन का उपरोक्त कथन पूँजीवादी राज्य के प्रत्येक व्यवहार और वाक्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसकी तह तक जाकर असल मन्तव्य को उजागर करने में समर्थ है। जिस व्यवस्था के पैरोकर जयराम रमेश हैं वही बर्बर व्यवस्था आज देश के 80 फीसदी लोगों की जिन्दगी की बदहाली के लिए जिम्मेदार है। बर्बरता के प्रत्येक चिन्ह और बर्बर परम्परा का उन्मूलन एक अमानवीय और शोषण पर टिकी व्यवस्था द्वारा नहीं हो सकता। बर्बर मध्ययुगीन परम्पराओं और औपनिवेशिक अमानवीय व्यवस्था के प्रतीकों से छुटकारा तभी सम्भव है जब एक ऐसे मानव आधारित समाज का निर्माण हो जहाँ उत्पादन के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्ग का कब्ज़ा हो और फैसला लेने की ताक़त उनके हाथ में हो।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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