पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था का घिनौना सच

प्रदीप

भूतों के झुण्ड गुज़रते हैं

कुत्तों-भैंसों पर हो सवार

जीवन जलता है कण्डों-सा

है गगन उगलता अन्धकार।

यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का

उन्माद जगाया जाता है

नरमेध यज्ञ में लाशों का

यूँ ढेर लगाया जाता है।

यूँ संसद में आता बसन्त

यूँ सत्ता गाती है मल्हार

यूँ फासीवाद मचलता है

करता है जीवन पर प्रहार।

इतिहास यूँ रचा जाता है

ज्यों हो हिटलर का अट्टहास

यूँ धर्म चाकरी करता है

पूँजी करती वैभव विलास।

कात्यायनी

गुजरात में हज़ारों बेगुनाहों के कत्लेआम के करीब 9 वर्ष बीतने के बाद भी इसके दोषियों को सज़ा नहीं मिल पायी है। इसकी उम्मीद भी कम ही है कि इसकी सज़ा मिलेगी। बीच-बीच में कुछ खुलासे, अलग-अलग न्यायालयों के कुछ फैसले और टिप्पणियाँ आती रहेंगी, और हर बार गुजरात के नीरो नरेन्द्र मोदी पर उँगलियाँ उठेंगी। लेकिन पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था से इस पूरे मामले में मोदी को कभी सज़ा मिलेगी, इसकी उम्मीद कम ही है। भारत की पूँजीवादी न्याय व्यवस्था ऐसा करके भारत के फासीवादियों के समक्ष कोई बुरा उदाहरण नहीं पेश करेगी, जिसका इस्तेमाल संकट के समय हमेशा इसको करना पड़ता है। तमाम साक्ष्यों और प्रमाणों को सामने रख देने के बाद भी क्या उमा भारती, जोशी और आडवाणी समेत अन्य संघी धर्मध्वजाधारियों को बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में सज़ा मिली? क्या अमित शाह को सोहराबुद्दीन और कौसर बी के मामले में सज़ा मिली? दूसरी ओर, एक भी साक्ष्य न होने के बावजूद बिनायक सेन, सुधीर धवले और असित सेन जैसे लोग अरसे तक जेलों में सड़ते रहते हैं। अति-सम्मानित भारतीय न्याय-व्यवस्था का चरित्र आज साफ तौर पर उजागर हो चुका है। यह फासीवादियों को कभी सज़ा नहीं देगी। न्याय को ढोंग रचने के लिए यह मुद्दे को जिन्दा रखती है और उन्हें दोषमुक्त भी देर से ही करती है। लेकिन न्याय की उम्मीद करना यहाँ आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान है। गुजरात के दंगों के मामले में भी इंसाफ की कहानी ऐसी है।

आज तक गुजरात नरसंहार के मामले में विभिन्न अदालतों और जाँच एजेंसियों ने न्याय और जाँच के नाम पर केवल खानापूर्ति की है और अल्पसंख्यकों के घावों पर नमक लगाते हुए बहुसंख्यकों के हितों की पैरवी की। गुजरात दंगों में अल्पसंख्यकों को न्याय देने के लिए ऐसी ही कई अदालतों और जाँच एजेंसियों का गठन हुआ और उनमें कार्यवाही भी चली, लेकिन आज तक किसी भी साम्प्रदायिक फासीवादी को दोषी नहीं ठहराया जा सका है, जबकि उनके खि़लाफ ढेरों सबूत और गवाह थे। लेकिन कानून अपनी ही दलील देते हुए सबको रिहा करता रहा।

आइये देखते हैं अब तक की विभिन्न अदालतों के फैसले और उनकी पक्षपाती दलीलें, जिनकी अपनी ही भाषा है, अपना ही राग है।

1. सत्र न्यायालय (ट्रायल कोर्ट)

कोर्ट ने माना – ‘27-02-2002 को अयोध्या रामजन्मभूमि से लौट रही साबरमती एक्सप्रेस के कोच 5-6 को जलाये जाने, जिसमें कारसेवक यात्रा कर रहे थे, के कारण हुए हत्याकाण्ड के फौरन बाद गोधरा की रेलवे सीमा के अन्दर 01-03-2002 की शाम 5:30 बजे, पुलिस कमिश्नर, बड़ोदरा की निषेध आज्ञा कि सशस्त्र हथियारों से लैस जमघट लगाना मना है, के बावजूद अभियुक्तों ने 1000 से 2000 लोगों की भीड़ के साथ आदेश का उल्लंघन किया और मुस्लिम समुदाय के लोगों की जान और सम्पत्ति को नष्ट करने के अपने सामूहिक उद्देश्य से, सभी अभियुक्त, जो कि घातक हथियारों और ज्वलनशील पदार्थ से लैस थे, एक ग़ैरकानूनी जमघट बनाते हुए गजरावाडी, शिवनगर, गणेश नगर और हनुमान टेकरी इलाके में आये, वे भड़काऊ भाषा बोल रहे थे जैसे ‘मारो, काटो, मुसलमानों को भगाओ’, ‘मुसलमानों के घरों को आग लगाओ’। उन्होंने निम्नलिखित के घरों को लूटा, आग लगायी और नुकसान पहुँचाया – 1- ज़हीर अहमद रशीद अहमद आसमीना के रिहायशी घर को, 20,000 रु. 2- अब्दुलवहाब अब्दुल हसन शेख़ के घर को, 40,000 रु. 3- राहत अली आसुश मोहम्मद के गोदाम को, 75,000 रु. 4- श्री रईस हबीव शेख़ के गोदाम को, 1,50,000 रु. 5- श्री इम्तयाज़ख़ान बसीख़ान पठान के रिहायशी घर को, 1 लाख रुपये 6- श्री लियाकत गुलाम हुसैन शेख के घर और गोदाम को, 3 लाख रु. 7- श्री इम्तयाज़ अहमद शमशाद अहमद शेख़ के रिहारशी घर को, 50,000 रु।

इसके बाद अभियुक्तों ने बेस्ट बेकरी की बिल्डिंग पर हमला किया, पत्थर बरसाये और उसके सामने स्थित लाल मोहम्मद ख़ुदाबाज के गोदाम को आग लगायी जिससे 1,30,000 रु. का नुकसान हुआ और असलम भाई शेख के घर को भी नुकसान पहुँचाया, उसकी घरेलू चीज़ों को आग लगा दी जिसमें 1,55,000 रु. तक का नुकसान हुआ और अभियुक्तों ने पूरी रात बेस्ट बेकरी की बिल्डिंग को घेरे रखा और बहुत से लोगों को नज़रबन्द रखा।

सुबह इन नज़रबन्द व्यक्तियों में से जब लोग नीचे आये तो सहराबेन के गले की सोने की चेन लूट ली गयी और यास्मीन बानो के गले की चाँदी की चेन लूट ली गयी और उस वक़्त फिरोज़ अख़्तर ख़ान व नसरु पठान जो वहाँ से भागना चाहते थे और जो नज़दीक खेत में आ गये थे, वे घातक हथियारों से घायल हो गये और उन्हें आग लगा दी गयी तथा हत्या कर दी गयी। इसी तरह जो लोग बेस्ट बेकरी के घर से बाहर आये उन पर घातक हथियारों द्वारा अभियुक्तों समेत भीड़ ने हमला किया और उन पर लकड़ी के तख़्त तथा झाड़ आदि फेंके गये और उन्हें जलाकर मारने का प्रयास किया गया। और इस तरह नसीबुल्ला, तुफैल, रईस व शहजादख़ान को गम्भीर चोटें आयीं और प्रकाश धोबी, बलीराम वर्मा व राजू उर्फ रमेश बढ़ई को आग लगा कर हत्या की। उस समय उन्होंने कौसर भाई शेख़, लूला उर्फ असरत शेख़, सुभान (बच्चा), मेतर (बच्चा), बच्ची सिपाली व बच्ची बबली को भी आग लगाकर मार डाला और इस तरह अभियुक्तों ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148, 149, 188, 504, 342, 427, 436, 395, 307, 302, और बम्बई पुलिस एक्ट की धारा 135 के तहत अपराध किये हैं और इस पुलिस केस में अभियुक्तों के खि़लाफ चार्ज निर्धारित किया गया है।

अन्तिम फैसला – इस सुसंस्कृत शहर के निवासियों से उम्मीद की जाती है कि यह घटना उन्हें सीख देगी कि वे सतर्क रहें, ताकि भविष्य में ऐसी शर्मनाक घटना दुबारा न हो और इस मुकदमे में इस केस के रिकार्ड में प्रमाणों और योग्यता के आधार पर निम्न आदेश पास किया जाता है कि –

– अभियुक्तों को रिहा करने का आदेश दिया जाता है क्योंकि अभियुक्तों के विरुद्ध केस सिद्ध नहीं हुआ।

– अभियुक्त रवि राजाराम चौहान जमानत पर है, उसकी जमानत-राशि रद्द की जाती है।

– बाकी अभियुक्तों को भी जेल से रिहा कर दिया जाये अगर किसी और मामले में उनकी ज़रूरत न हो।

– अपील की समय-सीमा ख़त्म होने पर इस केस में जो भी चीज़ें प्रस्तुत की गयी हैं, उन्हें नष्ट कर दिया जाये। (27 जून, 2003 खुली अदालत में जारी)

2. गुजरात हाईकोर्ट

कोर्ट की दलीलें – 26 दिसम्बर, 2003 को गुजरात हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति सेठना और न्यायमूर्ति जे-आर- वोरा ने गुजरात सरकार की आपराधिक अपील (न- 956, 2003) तथा दो आपराधिक विविध याचिकाओं को रद्द कर दिया। सभी अभियुक्तों को बरी करने वाले ट्रायल कोर्ट के फैसले पर गुजरात सरकार ने बड़े भारी मन से यह अपील और यचिकाएँ दायर की थीं। इन्हें रद्द करते हुए जो कारण हाईकोर्ट ने दिये हैं, उनसे साफ पता चलता है कि वह किसकी पक्षधर है। हाईकोर्ट के अनुसार 37 गवाहों, जो अपने पूर्व बयान में मुकर गये, में से 7 गवाह ऐसे थे जो कि न केवल पीड़ित थे, बल्कि “उनमें से कुछ घायल थे और इस दुर्घटना में उन्होंने अपने नज़दीकी रिश्तेदारों को खोया था। अगर उन्होने 1000-1500 की भीड़ में से अभियुक्तों को देखा होता तो यह उनके लिए उत्तम अवसर था कि वे अभियुक्तों के खि़लाफ बोलते क्योंकि वे अभियुक्त कोर्ट में मौजूद थे और कोर्ट में धमकी या ज़बरदस्ती नहीं थी।”

एक और हास्यास्पद मुद्दा हाईकोर्ट ने उठाया। उसके अनुसार, “अगर बयान दर्ज करने से पहले उन्हें सचमुच धमकी दी गयी थी तो इसके बारे में उन्होंने किसी एक को बताया होता, परन्तु ऐसा नहीं था।”

ज़ाहिरा बीबी के इस बयान पर कि वह अपने बयान से इसलिए मुकर गयी क्योंकि उसे ख़तरा था, कोर्ट का मानना था, ‘’हमें गम्भीर शक है। अगर वह फैसले के दिन के अगले दिन यह बयान दे सकती है कि उसे धमकाया गया था, तो सवाल यह है कि उसने 27-6-2003 तक यह बयान क्यों नहीं दिया?” कोर्ट का मानना है, “ऐसा प्रतीत होता है कि गवाह ज़ाहिरा बीबी, जो कि केवल 19 वर्ष की है, का इस्तेमाल करने की एक ख़ास योजना और साजिश है जिससे लोगों को बदनाम किया जा सके। वह आसानी से किसी का शिकार बन सकती है और असामाजिक और राष्ट्रविरोधी तत्वों के गन्दे हाथों में खेल सकती है।” एक मुसलमान ग़रीब औरत हिन्दुस्तान में रहकर क्या कर सकती है सिवाय राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने के? कुछ चश्मदीद गवाहों के बयान यह कहकर दर्ज नहीं किये गये थे कि उनकी मानसिक हालत ठीक नहीं। सवाल यह था कि जज ने बिना किसी डाक्टरी जाँच के कैसे मान लिया कि अभी उनकी मानसिक हालत ठीक नहीं है।

इसके अलावा निम्नलिखित नमूना देखिये जो आज़ाद भारत में अभियुक्तों को बचाने का सबसे शर्मनाक ढंग का प्रयास है – “अगर अभियुक्त ही वास्तविक अपराधी हैं तो उन्होंने बेस्ट बेकरी में रहने वालों को मारने और हमला करने के लिए पूरी रात यानी 1-3-2002, शाम 7 बजे से लेकर 2-3-2002 सुबह 10 बजे तक इन्तज़ार क्यों किया? पूरी रात उनके पास थी और अगर वे बेस्ट बेकरी के रिहायशियों को मारना चाहते थे तो वे रात के अँधेरे का फायदा उठाकर ऐसा कर सकते थे ताकि हमले से बच निकलने वाला उन्हें पहचान न सके। उन पर यह भी दोष लगाया गया है कि मृत व्यक्तियों और घायल समेत कुछ चश्मदीद गवाहों को अभियुक्तों तथा भीड़ के अन्य सदस्यों ने बाँध दिया था, ताकि उन्हें जिन्दा जलाया जाये और उन्हें लाठियों, तलवारों इत्यादि से मारा गया। अगर ऐसा हुआ था तो यह कैसे हो गया कि सात चश्मदीद गवाहों में से चार पूरी तरह बिना एक भी चोट के बच निकले?” कोर्ट का ध्यान इस पर गया कि कुछ बच क्यों गये, इस पर नहीं कि इतने सारे सचमुच जिन्दा जलाये गये!

कोर्ट का फैसला – अन्त में हाईकोर्ट ने एफएसएल रिपोर्ट का हवाला दिया कि किसी भी हथियार पर ख़ून के निशान नहीं थे, इसलिए ट्रायल कोर्ट के अभियुक्तों को बरी करने के फैसले को सही ठहराया।

3. सुप्रीम कोर्ट

कोर्ट ने माना – मौजूदा अपीलों में अनेक असामान्य बातें हैं और उनमें से कुछ दूरगामी परिणामों वाले गम्भीर सवाल खड़ा करती है। यह मामला आमतौर पर ‘’बेस्ट बेकरी केस” के रूप में जाना जाता है। इन अपीलों में एक ज़ाहिरा बीबी की है जिसका दावा है कि वह साम्प्रदायिक उन्माद के कथित परिमाण के रूप में हुई वीभत्स हत्याओं की चश्मदीद गवाह है। उसने निचली अदालत में सुनवायी ख़त्म होने और फैसला सुनाये जाने के बाद बयान दिया और हलफनामा दाखि़ल किया। उसने आरोप लगाया कि सुनवायी के दौरान धमकियों और दबावों से उसे ग़लत बयान देने तथा मुकर जाने के लिए मजबूर किया गया। इसने अदालत के समक्ष पेश गवाही की गुणवत्ता और विश्वसनीयता के अलावा गवाहों की सुरक्षा का महत्त्वपूर्ण सवाल खड़ा कर दिया है।

दिलचस्प बात यह है कि ख़ुद गुजरात सरकार ने जो एक असामान्य सा सवाल खड़ा किया कि वह सरकारी वकील द्वारा मुकदमे की अनुचित कार्यवाही से जुड़ा है। आखि़र में, लेकिन यह काम महत्त्वपूर्ण नहीं कि ख़ुद जाँच करने वाली एजेंसी की भूमिका लापरवाह और यान्त्रिक है तथा निष्पक्ष नहीं है, हालाँकि विभिन्न पक्ष उसकी भूमिका को अलग-अलग तरह से देखते हैं, उनके रुख़ में इस बात पर सहमति है कि यह दूषित और पक्षपातपूर्ण है तथा निष्पक्ष नहीं है। जहाँ आरोपी उस पर कथित रूप से फर्जी मामलों में फँसाने का आरोप लगाते है, ज़ाहिरा जैसे पीड़ित के परिजनों का दावा है कि उसके सारे प्रयत्नों का मकसद मात्र आरोपियों को संरक्षण देना था। संक्षेप में अभियोग पक्ष के जिस विवरण के आधार पर आरोपियों पर मुकदमा चलाया गया, वह इस प्रकार है:

एक मार्च 2002 के 8:30 बजे रात और दो मार्च 2002 की सुबह बड़ोदरा में बड़ी संख्या में लोगों की एक उपद्रवी भीड़ ने बेस्ट बेकरी के नाम से मशूहूर एक व्यापार संस्था जला दी। इन हमलों को साबरमती एक्सप्रेस में 56 लोगों को जलाकर मारने का बदला लेने के लिए की गयी कार्यवाही बताया गया। ज़ाहिरा मुख्य चश्मदीद गवाह थी जिसने इस वीभत्स काण्ड में लाचार औरतों और मासूम बच्चों समेत परिजन खोये। ज़ाहिरा के अलावा कई और लोग चश्मदीद गवाह हैं। आरोपी अपराध के कर्ताधर्ता थे। जाँच के बाद जून 2002 में आरोप पत्र दाखि़ल किया गया।

अन्तिम फैसला – बेस्ट बेकरी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि सभी अभियुक्तों के खि़लाफ मुकदमे गुजरात के बाहर महाराष्ट्र में चलाये जायें।

उपरोक्त अदालतों की दलीलों और कार्यवाहियों से साफ पता चलता है कि किस तरह मुकदमे को विभिन्न कानूनी तिकड़मों और लेटलतीफी से लगातार कमज़ोर किया जाता रहा।

इसी तरह गुजरात दंगों के सन्दर्भ में गुजरात सरकार और नरेन्द्र मोदी की भूमिका पर भी धूल डालने का काम किया गया। आइये देखते हैं सुप्रीम कोर्ट में जमा की गयी एसआईटी की रिपोर्ट (तहलका से साभार) जिसकी जाँच तो नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार को दोषी मानती है पर अन्त में उन्हें दोषमुक्त करार देती है। एसआईटी का गठन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद हुआ था और इसकी रिपोर्ट में मोदी को क्लीन चिट देने की बात तो दूर उन्हें कई तरह से दोषी पाया गया है, उन पर साम्प्रदायिक मानसिकता का होने, भड़काऊ भाषण देने, अहम सबूतों को नष्ट करने, सरकारी वकीलों के रूप में संघ परिवार के सदस्यों की नियुक्ति करने, दंगों के दौरान पुलिस कण्ट्रोल रूम में मन्त्रियों की ग़ैरकानूनी उपस्थिति सुनिश्चित करने और तटस्थ अधिकारियों का उत्पीड़न करने जैसे आरोप हैं।

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एसआईटी की रिपोर्ट में मोदी और उसकी सरकार के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकरियाँ इस प्रकार हैं:

1- रिपोर्ट में कहा गया है, यह तथ्य सामने आने के बावजूद कि गुलबर्ग सोसायटी और दूसरी जगहों पर मुसलमानों पर भयावह और हिंसक हमले हुए हैं, सरकार की प्रतिक्रिया जैसी होनी चाहिए वैसी नहीं थी। मुख्यमन्त्री ने गुलबर्ग सोसायटी, नरोदा पाटिया और दूसरी जगहों पर हुई वारदातों की गम्भीरता यह कहकर कम कर दी कि हर क्रिया की बराबर और उल्टी प्रतिक्रिया होती है। एसआईटी के चेयरमैन आर-के- राघवन आगे यह कहते हैं कि मोदी का वह बयान जिसमें उन्होंने गोधरा और उसके आसपास के कुछ लोगों में आपराधिक प्रवृत्ति होने के आरोप लगाये थे, किसी मुख्यमन्त्री के बयान के लिहाज़ से ग़लत और बेहद भड़काऊ था, ख़ासकर तब जब हिन्दू-मुसलमानों के बीच तनाव बहुत ज़्यादा था।

2- रिपोर्ट के एक हिस्से में कहा गया है कि एक बेहद विवादास्पद फैसले के तहत दंगों के दौरान गुजरात सरकार के दो वरिष्ठ मन्त्रियों अशोक भट्ट और आई.के. जडेजा को अहमदाबाद के सिटी पुलिस कण्ट्रोल रूम और स्टेट पुलिस कण्ट्रोल रूम में तैनात किया था।

3- रिपोर्ट इस बात की पुष्टि भी करती है कि जो पुलिस अधिकारी दंगों के दौरान तटस्थ थे या दंगे रोकने की कोशिश कर रहे थे, सरकार द्वारा उनका स्थानान्तरण मामूली से पदों पर कर दिया गया।

4- रिपोर्ट कहती है, गुजरात सरकार ने कथित रूप से दंगों के दौरान वायरलेस पर हुई बातचीत के रिकॉर्ड नष्ट कर दिये है। इस सन्दर्भ में आगे कहा गया है कि दंगों के दौरान सरकार द्वारा कानून और प्रशासन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बैठकों का कोई भी रिकार्ड दस्तावेज़ और मिनट्स सुरक्षित नहीं रखे गये थे।

5- रिपोर्ट बताती है कि मोदी ने अहमदाबाद के दंगा प्रभावित क्षेत्र, जहाँ काफी संख्या में मुसलमान मारे गये थे, का दौरा न करके भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जबकि वे 300 कि.मी. दूर स्थित गोधरा उसी दिन पहुँच गये थे।

6- रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि सरकार ने विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध वकीलों को दंगे से जुड़े संवेदनशील मामलों में सरकारी अधिवक्ता नियुक्त किया। रिपोर्ट कहती है, ऐसा लगता है कि सरकारी अधिवक्ता के रूप में नियुक्ति के लिए वकीलों के राजनीतिक झुकाव को सरकार ने ध्यान में रखा। एसआईटी के चैयरमैन का कहना है कि पहले नियुक्त किये गये लोगों में से कुछ या तो सत्ताधारी पार्टी या उससे सम्बद्ध संगठनों से जुड़े हुए थे।

7- रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात सरकार ने 28 फरवरी 2002 को विश्व हिन्दू परिषद के ग़ैरकानूनी बन्द को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। बल्कि भाजपा ने इसका समर्थन किया था।

8- रिपोर्ट के मुताबिक यह हैरानी वाली बात थी कि पुलिस प्रशासन ने 28 फरवरी, 2002 को नरोदा में दोपहर 12 बजे और अहमदाबाद के मेघनी नगर में दोपहर दो बजे से पहले कफ्र्यू नहीं लगाया। तब तक दोनों जगहों पर हालात काफी ख़राब हो चुके थे।

9- एसआईटी की रिपोर्ट कहती है कि स्टेट इण्टेलीजेंस ब्यूरो के फील्ड अधिकारियों ने मोदी को यह रिपोर्ट दी थी कि राज्य में प्रिण्ट मीडिया का एक तबका साम्प्रदायिकता और भावनाओं को भड़काने वाली ख़बरें प्रकाशित कर रहा है, लेकिन मोदी इस पर कार्रवाई करने में असफल रहे। इससे राज्य में साम्प्रदायिक तनाव और बढ़ गया।

10- एसआईटी ने अहमदाबाद के पूर्व संयुक्त पुलिस आयुक्त एम.के. टण्डन, जिनके इलाके में 200 निर्दोष मुसलमान मारे गये थे, को लापरवाही बरतने का दोषी पाया। दंगों के बाद, टण्डन पर कार्रवाई की बजाय उन्हें कई पदोन्नतियाँ दी गयीं और वे 2007 में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। उनके अधीनस्थ पूर्व पुलिस उपायुक्त पी.के. गोदिया को भी दंगे जानबूझकर न रोकने का दोषी माना गया है। एसआईटी का कहना है कि यदि इन दोनों ने अपना कर्तव्य निभाया होता तो सैकड़ों लोगों की जान बचायी जा सकती थी। इनमें से किसी को भी मोदी सरकार ने जिम्मेदार नहीं ठहराया।

यह फासिस्ट और सत्ताधारी लोगों के खि़लाफ सोच में आने वाली मुश्किलों का संकेत है कि इतनी चौंकाने वाली जानकारियों के बावजूद भी एसआईटी ने जहाँ टण्डन और गोदिया जैसे पुलिस अधिकारियों और कभी राज्य की राजनीति में बेहद ताकतवर रहे झड़किया के खि़लाफ जाँच की इच्छा जतायी है तो वहीं मोदी के खि़लाफ जाँच को लेकर उसमें एक किस्म की अनिच्छा दिखायी पड़ती है। अपने समापन निष्कर्ष में एसआईटी के आर.के. राघवन कहते हैं कि इस प्राथमिक जाँच के दौरान 32 आरोपों की पड़ताल की गयी। ये आरोप राज्य सरकार और इसके अंगों की चूक से सम्बन्धित थे जिनमें मुख्यमन्त्री भी शामिल हैं। इनमें से कुछ आरोपों की ही पुष्टि हो पायी। आगे कहते हैं कि इन आरोपों के समर्थन में भी ऐसी सामग्री नहीं मिल पायी जिसके आधार पर कानून के तहत आगे कार्रवाई का औचित्य बनता हो। यह निष्कर्ष पक्षपाती और मामलों को दबाने वाला है। सवाल उठता है कि जब गवाहों के बयान, मीडिया रिपोर्ट और अब एसआईटी की अपनी पड़ताल भी साफ-साफ यह कह रही है कि कई मामलों में दंगाइयों को खुली छूट दी गयी थी, उन्हें सीधे-सीधे मदद पहुँचायी गयी तो कर्त्तव्य का इससे ज़्यादा क्या उल्लंघन हो सकता है? यह भी साफ है कि दंगे रुकने के बाद अन्याय का दूसरा दौर शुरू हुआ। जिन अधिकारियों को सज़ा मिलनी चाहिए थी, उन्हें ईनाम मिले। जिन्होंने अपना कर्तव्य निभाया, उन्हें इसकी सज़ा मिली। अधिकारिक दस्तावेज़ नष्ट किये गये। एक निष्पक्ष और न्यायपूर्ण व्यवस्था को ढहाने की यह प्रक्रिया मोदी के सामने ही सम्पन्न हुई। राज्य के गृहमन्त्री का प्रभार उनके पास होने के चलते पुलिस और ख़ुफिया विभाग की कमान भी उनके हाथ में थी। सवाल उठता है कि भारत के संविधान के तहत निर्वाचित किसी प्रतिनिधि को कितना और दोषी दिखाने की ज़रूरत है कि उसके खि़लाफ कोई कार्रवाई हो? आखि़र मोदी ख़ुद तो खुलकर उन्मादी भीड़ के साथ मार-काट नहीं मचा सकते थे। उनका परदे के पीछे से भूमिका निभाना ही काफी था।

यह पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था का घिनौना सच और दोगलापन ही है कि गोधरा काण्ड में पकड़े गये अभियुक्तों को बड़ी त्वरित गति और बहुसंख्यकों के हितों की चिन्ता करते हुए फाँसी की सज़ा सुना दी गयी, जबकि इन अभियुक्तों को लेकर और इस घटना को लेकर विभिन्न जाँच एजेंसियों में भारी मतभेद थे, जैसे कि गोधरा की घटना में जहाँ नानावती रिपोर्ट ‘’गोधरा काण्ड को मुसलमानों द्वारा की गयी साजिश” बताती है और कहती है कि “एस 5-6 कोच में बाहर से ज्वलनशील डाला गया और कोच के दरवाज़े बाहर से बन्द किये गये”, वहीं बनर्जी रिपोर्ट उससे मेल नहीं खाती। यह रिपोर्ट कहती है कि ज्वलनशील पदार्थ बाहर से नहीं डाला गया और न ही कोच के दरवाज़े बाहर से बन्द थे, क्योंकि भारतीय रेल की बोगियों को बाहर से बन्द ही नहीं किया जा सकता है। फ़ोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (एफएसएल) गाँधीनगर, 17 फरवरी 2002 की रिपोर्ट भी बनर्जी की रिपोर्ट को सही साबित करती है। यह रिपोर्ट बताती है कि आग में तेज़ाब जैसे किसी घातक पदार्थ के इस्तेमाल के कोई संकेत नहीं थे। आग के समय बोगी की खिड़कियाँ अन्दर से बन्द थीं; जिस जगह ट्रेन रुकी थी, वहाँ बोगी की खिड़कियाँ ज़मीन से 7 फीट की ऊँचाई पर थी; इस परिस्थिति में बाहर से ज्वलनशील द्रव्य को उड़ेलना सम्भव नहीं था, यदि ऐसा वाकई में हुआ होता तो द्रव्य का एक बड़ा हिस्सा बाहर पटरी के आस-पास गिरा होता और बोगी के बाहरी निचले हिस्से ने भी आग पकड़ ली होती। लेकिन बोगी और पटरी के परीक्षण में ऐसा कुछ नहीं पाया गया, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बाहर से कोई भी ज्वलनशील द्रव्य बोगी के अन्दर नहीं फेंका गया। इसके अलावा गोधरा काण्ड में पुलिस ने जिन लोगों को गवाह बनाया, उनके तहलका के ख़ुफिया कैमरों के सामने कुछ अलग ही बयान सामने आये है, जैसे कि –

– “नानावती बहुत चालाक है, उसे पैसे से प्यार है, के.जी. शाह बहुत अक्लमन्द है, वो हमारी तरफ है।” – अरविन्द पाण्ड्या (विशेष सरकारी वकील)

– “पूलिस ने मुझे ट्रेन में आगजनी का गवाह बनाया है जबकि मैं तो प्लेटफॉर्म पर था ही नहीं, मैं अपने घर पर सो रहा था। हमें दो महीने बाद पता चला कि पुलिस ने हमें चश्मदीद गवाह बनाया है।” – मुरली मूलचन्दानी (उपाध्यक्ष, गोधरा नगर पालिका परिषद)

‘’कोई लूज पेट्रोल नहीं बिका था। नोएल परमार ने मुझे बयान बदलने के लिए पचास हज़ार रुपये दिये और सलीम पानवाला को पहचानने के लिए कहा।” – रंजीत सिंह पटेल (पेट्रोल पम्पकर्मी)

जाँच एजेंसियों के इन भारी मतभेदों और कृत्रिम गवाहों के झूठे बयानों के बावजूद न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी मानते हुए सज़ाएँ दीं। जबकि इसके उलट गुजरात दंगों (विशेषकर बेस्ट बेकरी) में जहाँ हज़ारों अल्पसंख्यक लोग मारे गये, जहाँ हैवानियत का नंगा नाच किया गया, जहाँ मानवजाति को शर्मसार किया गया, जहाँ छोटे-छोटे बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया, जहाँ वे चीख़ते-चिल्लाते रहे, जहाँ हज़ारों सबूत चीख़-चीख़कर आज भी उस मंजर की हुबहू कहानी कह रहे हैं, वहाँ यह न्याय-व्यवस्था अपंग नज़र आती है, शैतानों के पक्ष में खड़ी नज़र आती है, पीड़ितों से दूर नज़र आती है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011

 

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