फ़ार्बिसगंज पुलिस दमन : बर्बरों के “सुशासन” का असली चेहरा

प्रशान्त

 

बिहार में नीतीश के “सुशासन” का ख़ूनी और बर्बर चेहरा एक बार फिर सामने आ गया। गत 3 जून को बिहार की “पीपुल्स फ्रेण्डली” पुलिस ने अरारिया जि़ले के भजनपुर गाँव के निर्दोष निवासियों का बर्बरता की पराकाष्ठा तक दमन कर मानवता को शर्मसार कर दिया। इस घटना में पुलिसिया दमन का विभत्सतम चेहरा देखकर बरबस ही हिटलर जर्मनी के कन्सण्ट्रेशन कैम्पों और रोमन साम्राज्य में गुलामों के अमानवीय दमन के चित्र सामने उभर आये। इस घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि तेज़ी से आर्थिक और सामाजिक “विकास” के पथ पर आरूढ़ बिहार में वास्तव में विकास किसका और किसकी कीमत पर हो रहा है? और नीतीश जी के विकास के सुन्दर मुखौटे के पीछे की वास्तविकता क्या है?

घटना बिहार के अरारिया जि़ले के फ़ार्बिसगंज मण्डल के भजनपुर गाँव की है। इस गाँव की लगभग सम्पूर्ण आबादी मुस्लिम है और मुख्य रूप से आसपास के शहरी मार्केट में और बड़े फ़ार्मरों के खेतों पर दिहाड़ी मज़दूर के रूप में खटती है। 1984 में बिहार औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकार (बियाडा) द्वारा 105 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित की गयी थी जिसमें अधिकांश गाँव वालों की ज़मीन छिन गयी थी और बदले में उन्हें बहुत ही मामूली सा मुआवज़ा देकर मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया था। तभी से इस गाँव के निवासियों को छोटे किसानों से भूमिहीन मज़दूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस गाँव को नज़दीकी मार्केट, ईदगाह, अस्पताल और कर्बला से जोड़ने वाली केवल एकमात्र सड़क थी जो 1962 में बनायी गयी थी। इस प्रकार यह सड़क गाँव वालों की लाइफ़-लाइन थी। लेकिन पूँजीवादी विकास के घोड़े पर सवार नीतीश सरकार के आदेश के अन्तर्गत बियाडा ने पिछले साल जून में इस सड़क सहित रामपुर और भजनपुर गाँवों के बीच की सम्पूर्ण ज़मीन ऑरो सुन्दरम इण्टरनेशनल कम्पनी को मक्के से स्टार्च बनाने की फैक्टरी स्थापित करने के लिए आवण्टित कर दी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस कम्पनी के डायरेक्टर्स में से एक भाजपा का एम.एल.सी. अशोक अग्रवाल का बेटा सौरभ अग्रवाल भी है। बियाडा के इस निर्णय के विरोध में गाँव वालों ने एस.डी.ओ. को अपना शिकायत पत्र सौंपकर सड़क बन्द न करने की अपील की थी, क्योंकि ऐसा होने पर दिहाड़ी पर खटने वाले इन मज़दूरों को रोज़ काम की तलाश में मार्केट तक पहुँचने के लिए 5-7 किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी और तय करनी पड़ती। मामले को सुलझाने के लिए 1 जून 2011 को कम्पनी अधिकारियों, प्रशासन और मुखिया समेत गाँव वालों के बीच एक मीटिंग हुई थी जिसमें गाँव वालों ने इस शर्त पर सड़क पर अपना अधिकार छोड़ने की लिखित रूप से हामी भर दी थी कि फैक्टरी के दक्षिण की ओर से एक सड़क निकाल दी जाये। लेकिन अगले ही दिन अर्थात् 2 जून को कम्पनी ने भारी पुलिस बल की मौजूदगी में ईंट और कॉन्क्रीट की दीवार बनाकर सड़क को ब्‍लॉक कर दिया और पास का एक छोटा पुल भी ध्वस्त कर दिया।

कम्पनी द्वारा सड़क को ब्‍लॉक करने की यह ख़बर गाँव में जंगल की आग की तरह फैल गयी। गाँववालों ने अपने आप को ठगा हुआ और असहाय महसूस किया और इस वजह से उनका गुस्सा बारूद के ढेर की तरह फूट पड़ा। भजनपुर और रामपुर गाँव के निवासियों ने सड़क को ब्‍लॉक किये जाने के विरोध में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया और कम्पनी द्वारा बनायी गयी दीवार को ढहा दिया। हालाँकि पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि गाँववालों ने पास खड़ी कम्पनी की जीप को भी आग लगा दिया, लेकिन अधिक उम्मीद इसी बात की है कि पुलिस ने ख़ुद जीप में आग लगाकर झूठा आरोप गाँववालों पर मढ़ दिया जिससे कि उनके ऊपर एक्शन करने की “पृष्ठभूमि” तैयार की जा सके। गाँववालों के इस तथाकथित उग्र प्रदर्शन को रोकने के लिए मौके पर मौजूद एस.पी. गरीमा मलिक ने प्रदर्शनकारियों पर ओपेन फ़ायरिंग का आदेश दे दिया। आदेश मिलते ही पुलिस ने निर्दोष गाँववालों को सबक सिखाने के लिए अपनी हैवानियत और वहशीपन का जो रूप दिखाया उसके दृश्यों को देखकर रूह काँप उठती है। पुलिस ने गाँव वालों को उनके घरों तक खदेड़-खदेड़ कर मारा। 18 वर्षीय मो. मुस्तफा अंसारी को पुलिस ने चार गोलियाँ मारीं जिससे वह मृतप्राय अवस्था में ज़मीन पर गिर पड़ा। लेकिन इतने से बर्बरों की हैवानियत शान्त कहाँ हुई? सुनिल कुमार नाम का पुलिस वाला ज़मीन पर पड़े मृतप्राय मुस्तफा के चेहरे पर कूद-कूदकर अपने पैरों से उसे कुचलने और अपने बूटों से उस पर पागलों की तरह प्रहार करने लगा जबकि वहाँ खड़े पुलिस कुनबे से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक सब के सब तमाशबीन होकर यह सब देखते रहे। पुलिस फ़ायरिंग का शिकार दूसरा शख़्स मो. मुख्तार अंसारी था जिसे सिर में तीन और एक गोली जाँघ में लगी। पगलाई पुलिस ने गर्भवती माँ और सात माह के बच्चे तक को नहीं बख्शा। 6 माह की गर्भवती शाज़मीन खातून को 6 गोलियों (चार सिर में) से छलनी करने के बाद पुलिस के एक सिपाही ने ज़मीन पर पड़े उसके मृत शव के सिर पर राइफ़ल की बट से वार कर उसके सिर को फाड़ डाला और उसका दिमाग़ बाहर आ गया। 7 माह के नौसाद अंसारी की दो गोलियाँ लगने से मौत हो गयी। इसके अलावा फ़ायरिंग में आधा दर्जन से भी अधिक लोग घायल हुए। मरने वालों में सभी मुस्लिम थे।

घटना के बाद जाँच करने गये एक जाँच दल को गाँव वालों ने बताया कि 29 मई को राज्य के उप-मुख्यमन्‍त्री भाजपा के सुशील मोदी ने फ़ार्बिसगंज का दौरा कर वहाँ के प्रशासन पर जल्द से जल्द रोड को बन्द कर फैक्टरी के निर्माण के लिए कार्य प्रारम्भ करने का रास्ता साफ़ करने के लिए दबाव डाला था। 3 जून की घटना के प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक उस दिन ख़ुद अशोक अग्रवाल ने पुलिस वाले से पिस्टल लेकर गाँव वालों पर फ़ायरिंग की और कहा कि “इनको पिंजरे में बन्द कर देंगे, जेल बना देंगे सालों के गाँव को।” ये दबंगई और बेशर्मी की पराकाष्ठा ही है कि सारे साक्ष्य होने और घटना के अगले ही दिन इस बर्बर पुलिस दमन का वीडियो एक लोकल समाचार चैनल पर दिखाये जाने के बावजूद सुनिल कुमार के तबादले के अलावा अन्य किसी भी पुलिस अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी, कम्पनी अधिकारी या अशोक अग्रवाल किसी पर भी कोई कार्यवाही नहीं की गयी और न ही मृतकों या घायलों को (नौसाद अंसारी के पिता को छोड़कर) कोई मुआवज़ा ही दिया गया। इसके उल्टे नीतीश सरकार और प्रशासन द्वारा पुलिस के क्रूर दमन को न्यायसंगत साबित करने का काम किया जाता रहा। असल में फ़ार्बिसगंज की घटना बिहार में नीतीश शासन के दौरान आम ग़रीब किसानों व मज़दूरों के बर्बर पुलिस दमन की कोई अकेली घटना नहीं है। इससे पहले भी 11.84 फ़ीसदी की जी.डी.पी. दर से विकास करते बिहार में वहाँ के छोटे किसानों और मज़दूरों को इस विकास की कीमत पुलिस की गोली और लाठी खाकर चुकानी पड़ती रही है। पटना जि़ले के बिहटा, औरंगाबाद के नबीनगर और मुज़फ्फ़रनगर के मड़वन इलाके में फ़ोर-लेन सड़क, थर्मल पावर प्लाण्ट और एस्बेस्टस फ़ैक्टरी का विरोध करने पर किसानों पर पुलिस का कहर बरपना कुछ उदाहरण भर हैं। औरंगाबाद में किसान मारे भी गये थे। इसके अलावा पिछले छह सालों के दौरान अन्य कई मौकों पर पुलिस बर्बर कार्यवाही कर चुकी है। जैसे कि कहलगाँव में साल 2008 के जनवरी महीने में नियमित बिजली की माँग कर रहे लोगों में से तीन शहरी पुलिस की गोलियों का शिकार हुए थे। साल 2007 में भागलपुर में चोरी के आरोपी औरंगजेब का “स्‍पीड ट्रायल’ करते हुए एक पुलिस अधिकारी ने उसे अपनी मोटरसाइकिल के पीछे बाँधकर घसीटा था। कोसी इलाके में उचित मुआवज़ा और पुनर्वास की माँग करने वाले बाढ़ प्रभावित भी पुलिस की गोली का निशाना बने थे।

साफ़ है कि बिहार के “इनक्लूसिव विकास” की लम्बी-चैड़ी हाँकने वाले नीतीश कुमार असल में किसके विकास में लगा है और किस तरह राज्यसत्ता इस “इनक्लूसिव विकास” के रास्ते में आने वाली सारी “बाधाओं” को दूर करने के लिए बर्बरता की सारी सीमाएँ लाँघने को तैयार है।

वास्तव में नीतीश का “सुशासन” फ़ासीवादियों के शासन का एक आदर्श उदाहरण है जहाँ ग़रीब किसानों और मज़दूरों और अल्पसंख्यकों के जीवन का इसके अलावा और कोई मायने नहीं होते हैं कि वे चुपचाप बड़े किसानों और पूँजीपतियों के निजी मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करें और चुपचाप मर जायें, क्योंकि विरोध में अगर कहीं कोई आवाज़ उठी तो वही हश्र होगा जो फ़ार्बिसगंज में हुआ। साथ ही देश की मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा नीतीश के फ़ासीवादी शासन की लगातार बड़ाई और नीतीश को विकास के एक नये नायक के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना अभूतपूर्व संरचनागत क्राइसिस के भँवर में फँसी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था की एक निरंकुश फ़ासीवादी राजतन्‍त्र की आवश्यकता के प्रति बढ़ते झुकाव को ही रेखांकित करता है।

ऐसे में सबसे अधिक पीड़ादायी तो देश के पढ़े-लिखे युवाओं का फ़ार्बिसगंज जैसी घटनाओं के प्रति अपनी आँख, कान और दिमाग़ को बन्द कर अपना कैरियर बनाने में लगे रहना है; सबसे अधिक घृणास्पद उस खाये-पिये अघाये मध्य वर्ग की नपुंसकता और देश के मेहनतकशों और ग़रीब जनता के दुःखों, तकलीफ़ों और बेहिसाब शोषण के प्रति उनकी उदासीनता है, जो अपनी नपुंसकता पर इठलाने से बाज़ भी नहीं आता है। सवाल तो भ्रष्टाचार विरोध का भोंपू बजाने वाले अण्णा से भी और प्रबुद्ध “सिविल” सोसाइटी के सदस्यों से भी है कि क्या वे इस बर्बर व निरंकुश शोषण व दमन के विरोध में भी कभी आवाज़ उठायेंगे? ज़ाहिरा तौर पर नहीं। ऐसे फ़ासीवादी राज्यसत्ता के खि़लाफ़ देश के संवेदनशील व साहसी छात्रों-युवाओं को सामने आना ही होगा और सतह के नीचे जमा हो रहे देश की 80 करोड़ मेहनतकश आबादी के गुस्से के बारूद को एक समानतामूलक समाज के निर्माण की दिशा में चैनलाइज़ करने के काम को अपने हाथ में लेना ही होगा। वरना आने वाली पीढि़याँ हमें कभी माफ़ नहीं करंगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011

 

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