हाथरस में भगदड़ और मौतें : ज़िम्मेदार कौन?

अविनाश

गत 2 जुलाई को उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक दिल दहला देने वाला हादसा हुआ। हाथरस के फुलरई में नारायण साकार हरि उर्फ़ भोले बाबा (जिसका असली नाम सूरजपाल है) द्वारा आयोजित सत्संग में भगदड़ मचने की वजह से 122 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी और सैकड़ों घायल हो गये। इस सत्संग में अनुमति से बहुत ज़्यादा भीड़ इकट्ठा की गयी थी। भीषण गर्मी में आयोजित इस सत्संग का समापन होते-होते तमाम लोगों को साँस लेने में समस्या होने लगी थी। सत्संग समाप्त होने के बाद जब सूरजपाल जाने लगा तो उसने अपना चरण-रज लेने के लिए भीड़ को उकसाया। बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ भोले बाबा की चरण-रज लेने के लिए आगे बढ़ी तो बाबा के सेवादारों और प्रशासन ने भीड़ को रोक लिया। बहुत से लोगों के एक जगह इकट्ठा होने और भीषण गर्मी से लोग बेहोश होने लगे। स्थिति बिगड़ती देख भोले बाबा वहाँ से भाग निकला। ज्योंही भोले बाबा (उर्फ़ सूरजपाल) वहाँ से निकला, वैसे ही भीड़ को अचानक छोड़ दिया गया जिसकी वज़ह से भगदड़ मच गयी। इस भगदड़ में लोग एक-दूसरे को कुचलते, दबाते किसी तरह बाहर निकलने की कोशिश करने लगे जिससे इतना बड़ा हादसा हुआ। बाद में पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चला कि लोगों की मौत दम घुटने, पसली टूटने, गले की हड्डी टूटने जैसी वजहों से हुई। मरने वालों में बड़ी संख्या महिलाओं और बच्चों की है। हाथरस के आस-पास एटा, आगरा आदि ज़िलों के शवगृह इस घटना में मरने वालों की लाशों से पटे हुए थे।
वास्तव में प्रशासन की तरफ़ से इस भीषण गर्मी में इतनी बड़ी संख्या में जुटी भीड़ को संचालित और नियंत्रित करने का प्रबन्ध नहीं किया गया था। लाखों लोगों की भीड़ को संचालित और नियंत्रित करने के लिए केवल 61 पुलिसकर्मी और 4 ट्रैफ़िक पुलिसकर्मियों की तैनाती थी। कार्यक्रम स्थल पर मजिस्ट्रेट स्तर का कोई अधिकारी नहीं था। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तक का इन्तज़ाम नहीं था। इस प्रशासनिक बदइन्तज़ामी का परिणाम भगदड़ के रूप में सामने आया।
इस भयानक हादसे के बाद योगी सरकार मृतक परिवारों को 2-2 लाख रुपये और घायलों को 50-50 हज़ार रुपये मुआवज़ा देने की घोषणा करके और मामले की जाँच के लिए कमेटी गठित करके मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की तैयारी कर चुकी है। एसडीएम समेत कुछ अफ़सरों को सस्पेण्ड कर दिया गया है। दोषियों पर कार्रवाई करने के नाम पर कुछ आयोजकों पर एफ़आईआर दर्ज़ करने और उनकी गिरफ़्तारी की क़वायदें की जा रही हैं, जबकि इसके लिए ज़िम्मेदार मुख्य आरोपी भोले बाबा (उर्फ़ सूरजपाल) खुलेआम नेशनल मीडिया पर इण्टरव्यू देता घूम रहा है।
भाजपा, सपा समेत तमाम पार्टियों के नेताओं के साथ भोले बाबा के घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। यही वजह है कि मरने वालों के प्रति झूठी सहानुभूति के घड़ियाली आँसू बहाने वाली सत्ताधारी भाजपा से लेकर विपक्षी नेताओं तक में से कोई भी सूरजपाल पर मुँह खोलने को तैयार नहीं है।
सवाल यह है कि अनुमति से इतनी ज़्यादा भीड़ किसने बुलायी? जब अनुमति से बहुत ज़्यादा इकट्ठी होने लगी तब पुलिस प्रशासन द्वारा कार्यक्रम पर रोक क्यों नहीं लगायी गयी? सूरजपाल के सत्संग में भगदड़ की यह कोई पहली घटना नहीं है इसके पहले भी कोरोना-काल में जब बिना तैयारी के अनियोजित तरीक़े से पूरे देश में लॉकडाउन थोपा गया था तब मई 2022 में यह पाखण्डी फ़र्रूख़ाबाद में प्रशासन की शह पर सत्संग का आयोजन कर रहा था। इस आयोजन के लिए 50 लोगों की अनुमति माँगी थी लेकिन हर नियम क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए सत्संग में 50,000 से ज़्यादा लोग इकठ्ठा हुए थे। यहाँ भी विवाद होने के बाद आयोजकों पर तो एफ़आईआर किया गया था लेकिन सूरजपाल का नाम यहाँ भी एफ़आईआर में नहीं था। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िम है कि वह कौन-सा अदृश्य हाथ है जो हर बार सूरजपाल को बचा रहा है?
सूरजपाल, भोले बाबा के रूप में अवतरित होने से पहले पुलिस के इण्टेलीजेंस यूनिट में काम करता था। छेड़खानी के मामले में गिरफ़्तार होने और सस्पेण्ड हो जाने के बाद इसने पुलिस की नौकरी छोड़कर सत्संग करना शुरू कर दिया। पिछले 10 सालों से इसके सत्संगों की नियमितता और जुटने वाली भीड़ में काफ़ी तेज़ी के साथ वृद्धि हुई। पिछले कुछ सालों से इस ढोंगी बाबा के सत्संगों में और इसके आश्रमों में बहुत से पार्टियों के नेता-मन्त्री शोभा बढ़ाते रहे हैं।
हमारे देश में धार्मिक आयोजनों में भगदड़ का पुराना इतिहास रहा है। 2008 में हिमाचल के नैना देवी में एक आयोजन के दौरान भगदड़ में 162 लोगों की जान चली गयी थी। 13 अक्टूबर 2013 को मध्य प्रदेश के दतिया जिले में रतनगढ़ मन्दिर के पास नवरात्रि उत्सव के दौरान मची भगदड़ में 115 लोगों की मौत हो गयी थी और 100 से ज़्यादा लोग घायल हो गये थे। 14 जनवरी 2011 को केरल के इडुक्की जिले के पुलमेडु में एक जीप के सबरीमाला मन्दिर के दर्शन कर लौट रहे तीर्थयात्रियों से टकरा जाने के कारण मची भगदड़ में कम से कम 104 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी और 40 से अधिक घायल हो गये थे। 4 मार्च 2010 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में कृपालु महाराज के राम जानकी मन्दिर में भगदड़ मचने से लगभग 63 लोगों की मौत हो गयी थी। 30 सितम्बर 2008 को राजस्थान के जोधपुर शहर में चामुण्डा देवी मन्दिर में बम विस्फोट की अफ़वाह के कारण मची भगदड़ में लगभग 250 श्रद्धालु मारे गये और 60 से अधिक घायल हो गये थे। 25 जनवरी 2005 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में मन्धारदेवी मन्दिर में वार्षिक तीर्थयात्रा के दौरान 340 से अधिक श्रद्धालुओं की कुचलकर मौत हो गयी और सैकड़ों घायल हो गये थे। 27 अगस्त 2003 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में सिंहस्थ कुम्भ मेले में पवित्र स्नान के दौरान भगदड़ में 39 लोग मारे गये और लगभग 140 घायल हो गये थे।
ये तो कुछ पिछले सालों में धार्मिक आयोजनों के दौरान हुए बड़े भगदड़ के कुछ मामले हैं।
पिछले 20 सालों में ही सैकड़ों छोटे-बड़े भगदड़ के मामले हुए हैं जिसमें हज़ारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए हैं। यह केवल संख्या नहीं है बल्कि यह वो इंसानी ज़िन्दगियाँ हैं जिन्हें अन्धश्रद्धा व धर्म के व्यापारियों ने शासन-प्रशासन की शह पर लील लिया है।
किसी धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक देश में धर्म और राजनीति का पूर्णतः विलगाव होना चाहिए। धर्म लोगों का व्यक्तिगत मसला होना चाहिए। धर्म की राजनीति पूर्णतः वर्जित होनी चाहिए। लेकिन हमारे देश में लोकतन्त्र के नाम पर सर्वधर्म समभाव का जो पाठ पढ़ाया जाता है, वहाँ साम्प्रदायिक नेताओं और भाजपा/संघ जैसे साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संगठनों को धर्म की राजनीति करने की खुली छूट है। धर्म की राजनीति सीधे तौर पर वोट बैंक की राजनीति से जुड़ी हुई है। सत्संगों के ज़रिये जहाँ एक ओर पाखण्डी बाबा व महात्मा जनता के दुःख-तकलीफ़ों के लिए ज़िम्मेदार मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था से ध्यान भटकाकर पुराने जन्मों के परिणाम से जोड़ देते हैं, जनता की दुःखों से मुक्ति को ईश्वर या अपने आशीर्वाद के चमत्कार के भरोसे कर जनता को राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय बनाते रहते हैं वहीं दूसरी ओर अन्धविश्वास की शिकार भक्त भीड़ को पूँजीवादी पार्टियों के लिए वोट बैंक में बदल देते हैं। इसीलिए आसाराम, रामरहीम, भोले बाबा जैसे सभी कुकर्मी बाबाओं के बड़े-बड़े नेताओं से गहरे रिश्ते होते हैं और यही कारण है कि किसी बड़ी दुर्घटना होने पर इन बाबओं का बाल बाँका नहीं होता। बस घुन पिस जाता है और गेहूँ साबुत रह जाता है। या मामला बहुत संगीन होने पर कुछ होता भी है तो रामरहीम जैसे बलात्कारी और हत्यारों को बार-बार पैरोल पर बाहर निकाला जाता रहता है और फिर बरी कर दिया जाता है। धार्मिक आयोजनों को वित्तपोषित कर सरकारें अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश में लगी रहती है। सच्चाई यह है कि ऐसे पाखण्डी बाबाओं का धन्धा बिना राजनीतिक समर्थन के सम्भव नहीं है।
दरअसल लोग पूँजीवादी व्यवस्था में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा होने के कारण धर्म-कर्म के चक्कर में पड़ते हैं। पूँजीवादी समाज का जटिल तन्त्र और उसमें व्याप्त अस्थिरता किसी अलौकिक सत्ता में विश्वास करने का कारण बनती है। धार्मिक बाबाओं के पास लोग एकदम भौतिक कारणों से जाते हैं। किसी को रोज़गार चाहिए, किसी को सम्पत्ति के वारिस के तौर पर लड़का चाहिए, कोई अपनी बीमारी के इलाज़ के लिए जाता है तो किसी को धन चाहिए। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की वैज्ञानिक समझ न होने और तर्कशीलता और वैज्ञानिक नज़रिया न होने के कारण लोग ढोंगियों को अवतार पुरुष समझ बैठते हैं। ये ढोंगी बाबा एकदम विज्ञान पर आधारित कुछ ट्रिकों का इस्तेमाल करते हैं और अपनी छवि को चमत्कारी व अवतारी के तौर पर प्रस्तुत करते हैं।
आज ज़रूरत है कि ऐसी घटनाओं के असली दोषियों को सज़ा दिलवाने और सत्ता की शह पर होने वाले ऐसे आयोजनों पर तत्काल रोक लगाने के संघर्ष के साथ-साथ जनता को उनके दुःख-तकलीफ़ के असली कारणों से परिचित कराया जाये। शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार-आवास के हक़ के लिए जनता को लामबन्द किया जाये। सच्चे सेक्युलरिज़्म के मूल्यों की बहाली के लिए, धर्म का राजनीति से पूर्ण विलगाव कर धर्म को निजी मामला बनाने के लिए संघर्ष संगठित किया जाये।

(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2024)

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