लोकसभा चुनाव के नतीजे और छात्रों-युवाओं के कार्यभार
सम्पादकीय
लोकसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं। येन-केन-प्रकारेण मोदी का तीसरी बार प्रधानमन्त्री बनने का सपना चन्द्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के समर्थन से पूरा हो गया है। लेकिन इस बार ‘आयेगा तो मोदी ही’ के संघी प्रोपेगेण्डा का ढोल ‘किसी तरह जीता मोदी’ के रूप में फूट गया। ‘अबकी बार 400 पार’ का राग अलापने वाली (हालाँकि इस राग की सच्चाई भाजपा भी जानती थी) भाजपा पिछली बार की 303 सीटों से खिसक कर 240 सीटों पर सिमट गयी। वह भी तब जबकि भाजपा ने राज्य मशीनरी पर आन्तरिक क़ब्ज़े का अपने पक्ष में ज़बरदस्त इस्तेमाल किया। इस चुनाव में विपक्ष को तोड़ने, ईडी के इस्तेमाल और विपक्ष के खातों को सील कर आर्थिक नाकेबन्दी करने, मोदी-शाह-योगी तिकड़ी समेत तमाम भाजपा नेताओं द्वारा खुलेआम आचारसंहिता की धज्जियाँ उड़ाते हुए साम्प्रदायिक और दंगाई प्रचार, ईवीएम मशीनों द्वारा किये गये हेर-फेर, मतगणना के दिन तमाम इलाक़ों में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर नतीजों में की गयी गड़बड़ी, इण्डिया गठबन्धन के वोटों में सेंध मारने के लिए बसपा के साथ आन्तरिक गठजोड़, पूँजीपतियों के बहुलांश द्वारा पैसा बहाने और कार्पोरेट मीडिया के सहारे के बावजूद भाजपा 272 का आँकड़ा न छू सकी। निश्चित तौर पर ये सारे कारक अगर हटा दिये जायें तो भाजपा इस चुनाव में 200 सीट भी मुश्किल से जीत पाती। यद्यपि जो 21वीं सदी में फ़ासीवाद की विशिष्टताओं को समझते हैं कि उसके विश्लेषण में इन कारकों को पहले से ही जोड़कर चलना होगा क्योंकि ये आज के दौर में फ़ासीवाद के काम करने के तरीक़े में अन्तर्निहित है।
लोकसभा चुनाव में भाजपा की इस स्थिति का कारण स्पष्ट तौर पर तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर भ्रष्टाचार और जनविरोधी व अमीरपरस्त नीतियाँ हैं। आम जनता के असन्तोष के साथ ही नियमित भर्तियों पर रोक लगाने, थोड़ी बहुत निकलने वाली भर्तियों में भी हर बार पेपर लीक होने और भ्रष्टाचार से पैदा हुए छात्रों-युवाओं के असन्तोष की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी। निश्चित तौर पर भाजपा की यह स्थिति किसी भी प्रगतिशील, जनपक्षधर व्यक्ति के लिए थोड़े सन्तोष की बात है। लेकिन तुरन्त यह बात कहना ज़रूरी है कि इससे हमें ज़रा भी निश्चिन्त होने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि इस चुनावी नतीजे से फ़ासीवादी ताक़तों की राज्यसत्ता और समाज में ज़हरीली, विनाशकारी उपस्थिति और उनकी गतिविधि पर कोई विशेष फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
चुनाव के नतीजों से जो तथाकथित प्रगतिशील लिबरल बुद्धिजीवी और वामपन्थी हर्षातिरेक में आ गये थे और घूम-घूमकर इसे ‘संविधान और लोकतन्त्र’ की जीत बता रहे थे, चुनाव के बाद का घटनाक्रम उन्हें दुबारा होश में लाने के लिए काफ़ी है। नयी गठबन्धन सरकार बनने के बाद उत्तर प्रदेश में धड़ल्ले से बुलडोज़रों का चलना, अरुन्धति रॉय और शेख़ शौक़त हुसैन के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा चलाने की मंज़ूरी, 1 जुलाई से नयी फ़ासीवादी दण्ड-संहिताओं को लागू करने, परीक्षाओं में योजनाबद्ध तरीक़े से किये जा रहे घोटालों की निरन्तरता और गोकशी को बहाना बनाकर मुसलमानों पर हमलों व मॉब-लिंचिंग का देश के तमाम हिस्सों में लगातार जारी रहना इसके लिए काफ़ी है।
लोकसभा के इस चुनाव में भाजपा का अपने बलबूते सरकार न बना पाने और नीतीश तथा नायडू से गठबन्धन की मजबूरी ने फ़ासीवादी मोदी सरकार को कुछ मामलों में खींच-तान की स्थिति में डाल दिया है। निश्चित तौर पर यह स्थिति फ़ासिस्ट मोदी की फ़ासीवादी फ्यूहरर छवि पर बुरा असर डालेगी और कुछ मामलों में पहले की तरह मोदी सरकार के फ़ासीवादी एजेण्डा को आगे बढ़ाने में बाधा पैदा करेगी। इस तरह की स्थिति देश में कई राजनीतिक सम्भावनाओं को जन्म देती है। आगे हम लोकसभा चुनाव के नतीजे से पैदा होने वाली राजनीतिक सम्भावनाओं, इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद की विशिष्टता और उससे छात्रों-युवाओं के लिए निकलने वाले कार्यभारों पर सिलसिलेवार अपनी बात रखेंगे।
पहली सम्भावना यह है कि गठबन्धन सरकार चलाने के लिए भाजपा कई मसलों पर समझौता करे, जिससे मोदी सरकार के फ़ासीवादी एजेण्डा के कुछ कोर मसलों के आगे बढ़ाने की तीव्रता और व्यापकता में कुछ मात्रात्मक कमी आये। हालाँकि यह अनिवार्य नहीं है। अभी से ही नीतीश और नायडू तगड़े राजनीतिक मोलभाव और भाजपा के कई कोर मुद्दों (मसलन, सीएए-एनआरसी, अग्निवीर, आदि) पर आपत्तियाँ खड़ी कर मोदी-शाह गिरोह के लिए कुछ असुविधाएँ पैदा कर चुके हैं। साथ ही, इन दोनों के द्वारा एक शर्त इनके राज्यों को केन्द्र द्वारा विशेष स्टेटस, पर्याप्त आर्थिक सहायता व रियायतें देने की हैं। यह जैसे ही बन्द या कम होगा, सरकार के ऊपर बहुमत खो देने की तलवार लटकने लगेगी। हालाँकि इन मसलों पर मोदी सरकार समझौता करने में ज़्यादा दिक़्क़त महसूस नहीं करेगी क्योंकि इन राज्यों, यानी बिहार और आन्ध्र प्रदेश में भाजपा स्वयं अपने-आप को और मज़बूत करने को एक तात्कालिक लक्ष्य मानती है। लेकिन अगर मोदी-शाह गठबन्धन सरकार को बचाये रखने के लिए साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के कोर मुद्दों पर समझौते करते हैं तो मोदी की अब तक बनायी गयी फ़ासीवादी छवि को अपूरणीय क्षति होगी और उसे दोबारा किसी नये तरीक़े से खड़ा कर पाना भी टेढ़ी खीर होगी। यह छवि चुनाव के नतीजों से कुछ कमज़ोर तो वैसे भी हो गयी है।
लेकिन यह भी समझ लेना चाहिए कि इन नतीजों के परिणामस्वरूप बनी गठबन्धन सरकार के दौर में क्या नहीं बदलेगा। सरकार की उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों, मेहनतकश व मज़दूरों के शोषण की दर को बढ़ाने व उनके दमन-उत्पीड़न को बढ़ाने के लिए बनायी जाने वाली नीतियों और फ़ासीवादी गुण्डा-वाहिनियों के रवैये में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं आयेगा। वजह यह कि इस नवउदारवादी एजेण्डा पर शासक वर्ग के अन्य राजनीतिक नुमाइन्दों में आपसी सहमति है। फ़र्क़ बस इतना है कि भाजपा नीत सरकार इस एजेण्डा को अन्य किसी भी पूँजीवादी पार्टी के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ गति से लागू कर सकती है। लेकिन ऐसे में गठबन्धन की अन्य पूँजीवादी पार्टियाँ इस पर कोई एतराज़ नहीं करने वाली हैं। तात्कालिक तौर पर जनवादी-नागरिक अधिकारों व विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों के औपचारिक क़ानूनी अधिकारों पर फ़ासीवादी हमलों की रफ़्तार और दर में कमी आ सकती है। लेकिन सड़कों पर अल्पसंख्यकों, मज़दूरों, छात्रों-युवाओं व जनवादी-नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वालों पर फ़ासीवादी गुण्डा गिरोहों द्वारा हमलों में कोई विशेष कमी नहीं आने वाली है। अब तक के घटनाक्रम से यह साफ़ भी हो चुका है।
दूसरी सम्भावना यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी आने वाले समय में साज़िशाना तरीक़े से ‘राइख़स्टाग में आग’ जैसी किसी घटना को अंजाम दे सकती है, जिसकी आड़ में सुरक्षा का हौआ पैदा कर गठबन्धन सरकार पर अपना पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास कर सकती है। ऐसे प्रयास सहजता से सफल हो जायें, यह ज़रूरी नहीं है। उस सूरत में वे कम-से-कम तात्कालिक तौर पर कोई आपातकाल जैसी स्थिति थोप सकते हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में भी, वे कोई आपवादिक क़ानून लाकर हिटलर व मुसोलिनी के समान स्थायी रूप में बुर्जुआ जनवाद के खोल का परित्याग करेंगे और स्थायी व औपचारिक तौर पर बुर्जुआ चुनावों, विधानसभाओं व संसद को भंग करेंगे, इसकी गुंजाइश नहीं के बराबर होगी। इस प्रकार का कोई अस्थायी क़दम केवल इस उम्मीद में उठाया जा सकता है कि स्थिति को पूर्ण रूप से नियन्त्रण में लाया जा सके। यह कोई ज़रूरी नहीं है कि इस तरक़ीब को लागू करने में भी वे कामयाब ही हों।
तीसरी सम्भावना यह है कि मोदी-शाह गठबन्धन सरकार चलाने के बावजूद फ़ासीवादी मंसूबों को पहले की तरह आक्रामकता के साथ लागू करे। गठबन्धन के सहयोगियों द्वारा बाधा पैदा करने पर मोदी उन पर ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ और “राष्ट्रसेवा” व “राष्ट्रसुरक्षा” में निर्णायक क़दम न उठाने देने का आरोप लगाकर इस्तीफ़ा दे दे और मध्यावधि चुनावों की माँग करे। ऐसा फ़ैसला लेने के पहले ही, फ़ासीवादी ताक़तें नये सिरे से देश में साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवादी उन्माद की लहर पैदा करने की कोशिशें कर सकती हैं जिससे कि मध्यावधि चुनावों में जीतकर नयी आक्रामकता और ताक़त के साथ सरकार में पहुँचा जाये। यहाँ भी यह याद दिलाना आवश्यक है कि यह ज़रूरी नहीं कि वे अपने इन मंसूबों में कामयाब ही होंगें। यह बहुत से दूसरे कारकों पर निर्भर करेगा।
चौथी सम्भावना यह है कि कुछ समय बाद अपने विशिष्ट हितों के मद्देनज़र मोदी-शाह सरकार को पर्याप्त तंग करने के बाद नीतीश व नायडू समर्थन वापस ले लें और इण्डिया ब्लॉक को समर्थन दे दें, जो कुछ अन्य छोटे दलों व निर्दलियों के समर्थन से सरकार बना लें। उस सूरत में कई उपसम्भावनाएँ पैदा होंगी। पहला, यह नयी गठबन्धन सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे और दूसरा, वह बीच में ही गिर जाये और या तो फिर से भाजपा-नीत कोई सरकार बने या फिर मध्यावधि चुनाव हों। दोनों ही सूरत में फिर से नये ज़ोर के साथ और सम्भवत: किसी नये ‘फ्यूहरर फिगर’ के साथ फ़ासीवादी उभार होने या गडकरी जैसे किसी फ़ासीवादी नेता के नेतृत्व में फ़ासीवादी सरकार बनने या फिर किसी सेण्ट्रिस्ट गठबन्धन की सरकार बनने की गुंजाइश बनी रहेगी। इनमें से कौन-सी उपसम्भावना असलियत में तब्दील होगी, उसके बारे में अभी कोई अटकल लगाना न तो सम्भव है और न ही उपयोगी।
फ़िलहाल इतना स्पष्ट है कि चुनावों में फ़ासीवाद का कमज़ोर प्रदर्शन या उसकी चुनावी हार होना व उसका सरकार से बाहर जाना फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं है। इसके अलावा, इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद की विशिष्टताओं को जो लोग समझते हैं, वे जानते हैं कि सरकार से बाहर होने के बावजूद राज्यसत्ता और समाज में फ़ासीवाद ने पिछले सात और विशेष तौर पर चार दशकों में इस क़दर आन्तरिक पकड़ बनायी है, इस क़दर आन्तरिक क़ब्ज़ा किया है, कि सरकार से बाहर जाने की सूरत में भी राज्यसत्ता व समाज दोनों में ही फ़ासीवाद की पकड़ बनी रहेगी और दीर्घकालिक संकट के समूचे दौर में वे बार-बार सरकार में भी आम तौर पर पहले से ज़्यादा आक्रामकता के साथ वापसी करते रहेंगे। सामान्य रूप में, आज फ़ासीवादी शक्तियाँ बुर्जुआ जनवाद के खोल का परित्याग नहीं करेंगी क्योंकि उन्हें इसकी कोई ज़रूरत नहीं है और साथ ही, बीसवीं सदी के फ़ासीवाद के प्रयोगों से आज के फ़ासीवादी सबक लेते हुए इस बात को समझते हैं कि यह उनके लिए बेहतर विकल्प नहीं है। इस पर थोड़ी बात ज़रूरी है।
इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद की कार्यप्रणाली और जीवन रूप में आये विशिष्ट बदलावों को समझना इसलिए ज़रूरी है कि फ़ासीवादी शक्तियों के चुनावी हार से या ख़राब प्रदर्शन से बुद्धिजीवियों और छात्रों-युवाओं के एक विचारणीय हिस्से में समग्रता में फ़ासीवाद के परास्त हो जाने का भ्रम पैदा होता रहता है। अस्मितावादी बुद्धिजीवियों की एक पूरी पलटन है जो भाजपा की चुनावी हार पर ‘लोकतन्त्र और संविधान की जीत’ का शोर मचाने लगती है और फिर भाजपा के जीतने पर ‘लोकतन्त्र और संविधान’ के ख़तरे में होने का स्यापा करने लगती है। इसी तरह पंजाब के प्रतिबद्ध-ललकार ग्रुप जैसे कुछ दिग्भ्रमित ग्रुप हैं, जो भारत में तब तक फ़ासीवाद मानने को तैयार नहीं हैं जब तक कि भाजपा/संघ परिवार जर्मनी और इटली की तरह आपवादिक क़ानूनों के ज़रिये बुर्जुआ लोकतन्त्र और संविधान को निरस्त कर फ़ासीवादी सत्ता न थोप दे और यातना शिविरों का निर्माण न करने लगे। वास्तव में देखा जाय तो इस तरह की समझदारी यह उम्मीद करती है कि इतिहास अपने-आप को हूबहू दुहरायेगा। वे जर्मनी तथा इटली के फ़ासीवादी मॉडल की प्रतिलिपि को ही फ़ासीवाद मानने की जड़ सोच से ग्रस्त है। दोनों तरह की समझदारी हमें इक्कीसवीं सदी में भारत में फ़ासीवाद को समझने और उससे लड़ने के सही कार्यभार निकाल पाने से वंचित करती है। पहली तरह की समझदारी और भी ख़तरनाक है क्योंकि यह बुर्जुआ लोकतन्त्र और संविधान को महिमामण्डित करती है और फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष में जनता को निःशस्त्र करती है। हक़ीक़त यह है कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट ही वह बुनियादी अन्तरविरोध है जो फ़ासीवाद के उभार की ज़मीन तैयार करता है। जर्मनी के महान नाटककार, कवि, फ़ासीवाद विरोधी योद्धा बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने इसी समझदारी पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि- “जो लोग पूँजीवाद का विरोध किये बिना फ़ासीवाद का विरोध करते हैं, जो उस बर्बरता पर दुखी होते हैं जो बर्बरता के कारण पैदा होती है, वे ऐसे लोगों के समान हैं जो बछड़े को जिबह किये बिना ही मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने के इच्छुक हैं लेकिन उन्हें ख़ून देखना नापसन्द है। वे आसानी से सन्तुष्ट हो जाते हैं अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है। वे उन सम्पत्ति सम्बन्धों के ख़िलाफ़ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं, वे केवल अपने आप में बर्बरता के ख़िलाफ़ हैं।”
वास्तव में, आज फ़ासीवादी ताक़तों को पहले की तरह बुर्जुआ जनवाद और उसकी संस्थाओं को निरस्त करने की ज़रूरत नहीं है। फ़ासीवादी ताक़तों की कार्यप्रणाली में आये इस बदलाव का कारण 1970 के दशक से ही पूँजीवादी आर्थिक संकट के चरित्र में आये गुणात्मक बदलाव से पैदा होने वाली ज़रूरत, नवउदारवाद के दौर में पूँजीवादी राज्यसत्ता और पूँजीपति वर्ग में बची-खुची जनवादी सम्भावनासम्पन्नता का समाप्त होना और जर्मनी तथा इटली में पहले फ़ासीवादी प्रयोगों के द्रुत गति से ध्वस्त होने से फ़ासीवादियों द्वारा ली जाने वाली सीख है। समकालीन फ़ासीवादी ताक़तों ने राज्यसत्ता की मशीनरी को एक लम्बी योजनाबद्ध प्रक्रिया में अन्दर से टेकओवर किया है। इसी तरह फ़ासिस्टों ने समाज के विभिन्न हिस्सों में अपनी संस्थागत मज़बूत पकड़ बना रखी है। इस स्थिति में फ़ासीवादी शक्तियाँ जो करना चाहती हैं, वे बुर्जुआ जनवाद के खोल में करने में सक्षम हैं। इसलिए किसी आपवादिक क़ानून के ज़रिये उन्हें बुर्जुआ जनवाद को निरस्त करने की आवश्यकता नहीं है। दूसरे, पूँजीवादी व्यवस्था 1970 के दशक से जिस दीर्घकालिक आर्थिक संकट की शिकार है, एकाधिकारी पूँजीवाद के दौर में बुर्जुआ वर्ग के जनवादी सम्भावना का जो क्षरण हुआ है उसके मद्देनज़र यह बात कही जा सकती है कि फ़ासीवाद का मुक़ाबला किसी बुर्जुआ पार्टी या ‘लोकतन्त्र और संविधान बचाओ’ के नारे के तहत नहीं किया जा सकता है। पूँजीवादी व्यवस्था जिस दीर्घकालिक आर्थिक संकट (यानी मुनाफ़े की नीचे गिरती औसत दर) की शिकार है, उसका समाधान पूँजीवादी व्यवस्था में सम्भव ही नहीं है। 1970 के बाद पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की गिरती औसत दर को बढाने का एक ही रास्ता था – पूँजी का विविनियमन और श्रम बाज़ारों का विविनियमन। सरल शब्दों में कहें तो पूँजी का राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार प्रवाह बढ़ाना, उसके रास्ते में खड़ी दीवारों को ख़त्म करना, निर्धारित विनिमय दरों व मुद्रा-माल द्वारा समर्थित कागज़ी मुद्रा की जगह लचीली विनिमय दरों व पूर्ण फियेट मुद्रा की व्यवस्था को बहाल करना ताकि मौद्रिक लचीलेपन का इस्तेमाल मन्दी से निपटने में किया जा सके, मज़दूरों के बुनियादी श्रम अधिकारों पर हमला करना, यूनियन बनाने के अधिकार से लेकर कार्य-दिवस की लम्बाई के अधिकार, न्यूनतम मज़दूरी के अधिकार व अन्य सभी लाभ व भत्ते समाप्त करना और राज्यसत्ता के हस्तक्षेप की प्रकृति को बदलना, यानी सभी कल्याणकारी नीतियों को समाप्त करना और इसके विपरीत पूँजी के पक्ष में राज्यसत्ता के निर्णायक हस्तक्षेप को बढ़ाना। इन्हीं नीतियों को सामग्रिक तौर पर अध्येताओं ने नवउदारवादी नीतियों का नाम दिया। तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के सापेक्षिक रूप से पिछड़े पूँजीवादी देशों में से कई देशों के पूँजीपति वर्ग ने अपनी ज़रूरतों से इन नीतियों को स्वीकार किया और अपने-अपने तरीक़े से लागू किया। कुछ देशों ने इन नीतियों को ठीक अन्तरराष्ट्रीय पूँजी के निर्देशों के अनुसार लागू किया, मसलन, अर्जेण्टीना, मेक्सिको, आदि और जल्द ही इसका ख़ामियाज़ा भुगता। कुछ अन्य देशों ने इसे हूबहू लागू करने के बजाय इन नीतियों को, मूलत: और मुख्यत:, अपने देशी पूँजीवादी हितों को कमान में रखकर अलग रूप और अलग गति में लागू किया, जिसका मुख्य फ़ायदा अन्तत: देशी पूँजीपति वर्ग को मिला। ऐसे देशों में भारत प्रमुख था। भारत में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ 1990-91 में कांग्रेस सरकार द्वारा लागू की गयीं। इन नीतियों पर सभी पूँजीवादी पार्टियों में आम सहमति है। इन नीतियों को लागू करने की शुरुआत तो कांग्रेस ने 1980 के दशक में ही कर दिया था, जो भारतीय पूँजीवाद के एक ख़ास विनियामक रूप, यानी पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के अन्तरकारी संकट का दौर था। इसी दौर में बढ़ी आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा व अनिश्चितता का लाभ उठाते हुए संघ परिवार ने रामजन्मभूमि आन्दोलन के आधार पर टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करना शुरू किया। पूँजीपति वर्ग का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा भी तेज़ी से फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ओर झुका। इसी दौर में, इस लहर को हवा देने में कांग्रेस की नर्म केसरिया लाइन ने भी एक भूमिका निभायी। कांग्रेस की सरकारों ने स्वयं नवउदारवाद के दौर में दमन का पाटा चलाने में अपने चरित्र के मुताबिक हर मुमकिन कदम उठाया। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ऑपरेशन ग्रीन हण्ट और यूएपीए कांग्रेस की ही देन है। इसके पहले भी संघ परिवार के फैलाव और फ़ासीवादी कार्रवाइयों पर कांग्रेस ने कभी कोई रोक नहीं लगायी। उल्टे पूँजीपरस्त नीतियों को लागू करने पर उठने वाले जनअसन्तोष को दबाने में संघ परिवार की मौजूदगी से फ़ायदा उठाया। लेकिन वैश्विक स्तर पर जारी दीर्घकालिक मन्दी से गिरते मुनाफ़े के औसत दर को बढ़ाने के लिए पूँजी के पक्ष में जिन कड़े क़दमों की ज़रूरत थी और उन कड़े क़दमों से जो जनअसन्तोष पैदा होता या हो रहा था उसे संभाल पाने की क्षमता कांग्रेस में नहीं है, जो कि अपने ऐतिहासिक चरित्र के कारण अलग-अलग समय में सेण्टर-लेफ़्ट से सेण्टर-राइट के बीच दोलन करती रही है। नतीज़तन बड़े पूँजीपति वर्ग की सामूहिक सहमति से भाजपा की ताजपोशी हुई। इसके पहले भाजपा स्वदेशी, राममन्दिर आदि के नाम पर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन, संस्थागत सुधारकार्यों और प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ज़रिये छोटे पूँजीपतियों, टुटपँुजिया वर्गों से लेकर समाज के विभिन्न हिस्सों में अपनी जड़ें जमा चुकी थी।
कुल मिलाकर देखा जाये तो नवउदारवाद के दौर में भारत समेत अधिकांश पूँजीवादी देशों में बुर्जुआ राज्यसत्ता के बचे-खुचे जनवादी चरित्र का सामान्य रूप में अभूतपूर्व क्षरण और ह्रास हुआ है। नतीजतन, बुर्जुआ राज्यसत्ता में आज ऐसा कुछ बचा नहीं है, जो फ़ासीवादी शक्तियों को वे कुकर्म करने से रोके जो कि संकटग्रस्त पूँजीवाद के दौर में वह पूँजीपति वर्ग व पूँजीवाद की सेवा के लिए करते हैं : चाहे वह जनवादी, नागरिक अधिकारों का दमन हो, चाहे वह श्रम अधिकारों को समाप्त करना हो, आम मेहनतकश आबादी का दमन करना हो, सार्वजनिक उपक्रमों को पूँजीपतियों को सौंपना हो, जनता की ‘जल-जंगल-ज़मीन’ को पूँजीपतियों को सौंपना हो। फ़ासीवाद के रास्ते में आने वाली वे सभी जनवादी बाधाएँ नवउदारवाद के दौर में वैसे ही नगण्य हो गयी हैं और ठीक इसीलिए पुराने अर्थों में फ़ासीवाद कोई राज्य-परियोजना नहीं रह गया है। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में एक राज्य-परियोजना होना फ़ासीवाद के लिए अनिवार्य था क्योंकि बुर्जुआ राज्यसत्ता का चरित्र आज के दौर से अहम मायनों में भिन्न था। जिन वजहों से फ़ासीवादी शक्तियों के लिए बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में आपवादिक क़ानून लाकर खुली फ़ासीवादी तानाशाही को स्थापित करना, बुर्जुआ जनवाद के खोल का परित्याग करना और सभी जनवादी संस्थाओं व प्रक्रियाओं को नष्ट करना आवश्यक था, आज, यानी नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में, वे वजहें हीं, मूलत: और मुख्यत:, समाप्त हो चुकी हैं। लिहाज़ा, फ़ासीवाद आज पुराने अर्थों में कोई राज्य-परियोजना नहीं रह गया है।
यानी राज्यसत्ता का फ़ासीवादीकरण, नतीजतन, अब एक घटना (event) के रूप में नहीं घटित होगा बल्कि अब यह एक सतत् जारी परियोजना (ongoing project) के तौर पर मौजूद रहेगा जो कि राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण को कभी पूर्णता तक नहीं पहुँचायेगा। बुर्जुआ राज्यसत्ता के रूप या खोल को बरक़रार रखने के साथ पैदा होने वाले अन्तरविरोधों में से सबसे अहम अन्तरविरोध यही है। नतीजतन, फ़ासीवादी शक्तियाँ चुनाव हारकर सरकार से बाहर भी जा सकती हैं। लेकिन इसका अर्थ फ़ासीवाद की निर्णायक हार या ध्वंस नहीं होगा क्योंकि आज के दौर में, यानी दीर्घकालिक संकट के दौर में, फ़ासीवाद आम तौर पर पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत है और यदि फ़ासीवादी शक्तियों के हारकर सरकार से बाहर जाने पर कोई अन्य उदार बुर्जुआ, या सेण्ट्रिस्ट, या सेण्टर-राइट बुर्जुआ सरकार सत्ता में आती है तो भी उसे फ़ासीवादी शक्तियों पर कोई भी निर्णायक क़दम उठाने की इजाज़त पूँजीपति वर्ग ही नहीं देगा, अगर उसमें ऐसी कोई इच्छाशक्ति हुई तो भी। हालाँकि आज के दौर में किसी गैर-फ़ासीवादी बुर्जुआ पार्टी की सरकार में ऐसी कोई इच्छाशक्ति वास्तव में होगी, इसकी सम्भावना ही न्यूनातिन्यून है। यदि फ़ासीवादी शक्ति कोई चुनाव हारकर सरकार से बाहर जाती भी है तो वह राज्यसत्ता और समाज में अपनी पकड़ बनाये रखेगी, अपनी अवस्थितियाँ सशक्त और सुदृढ़ बनाती रहेगी और दीर्घकालिक संकट की स्थितियों में वह किसी की अन्य बुर्जुआ दल या गठबन्धन की सरकार के दौर में संकट के गहराने का इस्तेमाल कर पहले से भी ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से सरकार में पहुँचेगी। आगे निश्चित ही वह फिर से तात्कालिक आर्थिक कारणों से, यानी बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक असुरक्षा आदि के कारण और साथ ही सरकारी कुप्रबन्धनों के परिणामस्वरूप कोई चुनाव हार भी सकती है (हालाँकि, राज्य मशीनरी पर अन्दरूनी फ़ासीवादी क़ब्ज़े के कारण इसकी गुंजाइश हमेशा अपेक्षाकृत कम रहेगी), लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि अगले चक्र में वह और भी आक्रामक तरीक़े से चुनाव जीत कर पहले से भी ज़्यादा साम्प्रदायिक क़िस्म के फ़ासीवादी नेता के ‘फ्यूहरर कल्ट’के साथ सरकार बनाये। कम-से-कम दीर्घकालिक संकट के दौर में ये स्थितियाँ और सम्भावनाएँ बनी रहेंगी।
इक्कीसवीं शताब्दी में फ़ासीवाद की कार्यप्रणाली और जीवन-रूप में आये इन महत्वपूर्ण गुणात्मक बदलावों के संक्षिप्त विश्लेषण के बाद अब हम इससे छात्रों-युवाओं के लिए निकलने वाले कार्यभारों की चर्चा कर सकते हैं।
छात्रों-युवाओं का सबसे पहला कार्यभार यही बनता है कि फ़ासीवादी शक्तियों के ख़िलाफ़ एक लम्बे योजनाबद्ध आम राजनीतिक संघर्ष का हिस्सा बनें। छात्र-युवा मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों, काले क़ानूनों, साम्प्रदायिक राजनीति, अन्धराष्ट्रवाद, जनवादी अधिकारों और अल्पसंख्यक आबादी पर हमलों के ख़िलाफ़ संगठित हों। छात्रों-युवाओं को केवल शिक्षा-रोज़गार सम्बन्धी मुद्दों पर संघर्ष करने की संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठना होगा। मोदी सरकार द्वारा चाहे चार लेबर कोड के ज़रिये पूँजीपतियों को मज़दूरों का ख़ून चूसने की छूट देने की योजना हो, अन्धाधुन्ध निजीकरण की नीतियाँ हों, पूँजीपतियों को करों से छूट देकर और जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ लादकर बेतहाशा बढ़ाई जा रही महँगाई का मसला हो, जंगलों और देश की प्राकृतिक सम्पदा को पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस में झोंक देना हो, अंग्रेज़ों द्वारा बनायी गयी दण्ड-संहिता से भी ज़्यादा दमनकारी दण्ड संहिता को लागू करना हो, सीएए/एनआरसी की योजना हो, धर्म और राष्ट्र के नाम पर साम्प्रदायिक व अन्धराष्ट्रवादी उन्माद फैलाने की साज़िश हो, अरुन्धति राय और शेख़ शौक़त हुसैन जैसे जनवादी अधिकारों के लिए काम करने वालों पर यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाने की मंज़ूरी देने का मामला हो! इन सबके ख़िलाफ़ हमें बोलना होगा और समग्रता में फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में खड़ा होना होगा। क्योंकि कोई भी आम छात्र-युवा जनता के बीच से ही आता है और वह नागरिक भी होता है। ‘छात्र, छात्र हित के लिए’ जैसे छात्रों-युवाओं का विराजनीतिकरण करने वाले नारों से हमें सावधान रहना होगा क्योंकि फ़ासीवादी ताक़तें छात्रों, कर्मचारियों, मज़दूरों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों के हक़ों और जनवादी अधिकारों पर एक साथ हमला करती हैं। बढ़ती महँगाई, निजीकरण, प्रकृति का विनाश, काले क़ानून तो सीधे छात्रों पर भी बहुत बुरा असर डालते हैं। साम्प्रदायिकता हमारी एकजुटता को तोड़ती है और हमारे हक़ों की लड़ाई को कमज़ोर करती है। लेखकों, साहित्यकारों, जनवादी अधिकारकर्मियों और अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों के ख़िलाफ़ अगर छात्र-युवा नहीं बोलते तो वह वास्तव में अपने जनवादी अधिकारों के भी छिनने का ही रास्ता साफ़ करते हैं। वैसे भी जनता के किसी भी हिस्से पर होने वाले ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बोलना, उसका साथ देना हमारे इन्साफ़पसन्द होने का प्रमाण है। और यह भी सच है कि अगर हम आम जनता के किसी भी हिस्से पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ नहीं खड़े होते तो छात्रों-युवाओं का संघर्ष किसी मुक़ाम पर नहीं जा सकता है। छात्रों-युवाओं समेत आबादी के विभिन्न हिस्सों पर होने वाले ज़ुल्म और हक़ों पर हमले का स्रोत एक है-वर्तमान फ़ासीवादी सरकार! इसलिए इसके ख़िलाफ़ संघर्षों में भी हमें एक होना होगा।
इसके अलावा, छात्रों-युवाओं को भाजपा/संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति का व्यापक भण्डाफोड़ अभियान संगठित करना होगा। हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद के संघ परिवार की दंगाई राजनीति की आड़ में लोगों का ध्यान भटकाकर मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने की सच्चाई को जनता के सामने ले जाना होगा। लवजिहाद, जनसंख्या जिहाद जैसे झूठे व जनविरोधी प्रचार का खुलासा करना होगा। लोगों के सामने यह सच्चाई ले जानी होगी कि संघ परिवार के ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का मतलब केवल अम्बानी-अडानी जैसे धन्नासेठों का राष्ट्र है। इनका भ्रष्टाचारी-बलात्कारी चेहरा जनता के सामने नंगा करना होगा। चूंकि संघ के “महापुरुषों” और नेताओं के राष्ट्रीय आन्दोलन में ग़द्दारी और माफ़ीनामों से इतिहास भरा पड़ा है, इसलिए फ़ासिस्ट इतिहास को मनमाने तरीक़े से बदल रहे हैं। युवाओं में वैज्ञानिक सोच विकसित करने वाले पाठ्यक्रम की जगह पोंगापन्थ और कूपमण्डूक बनाने वाला पाठ्यक्रम थोप रहे हैं। ‘नयी शिक्षा नीति’ के ज़रिये शिक्षा का साम्प्रदायीकरण कर रहे हैं। ऐसे में सच्चे इतिहास को बचाना और इतिहासबोध विकसित करना, सच्चे सेक्युलरिज़्म पर अमल और उसका छात्रों-युवाओं तथा जनता में प्रचार हमारा एक अहम् कार्यभार बनता है। इसी तरह कैम्पसों और कैम्पस के बाहर इनकी गुण्डागर्दी का उचित जवाब देना होगा।
छात्रों-युवाओं का दूसरा कार्यभार है, भाजपा व संघ परिवार द्वारा कैम्पस जनवाद ख़त्म करने की साज़िश के ख़िलाफ़ देशव्यापी आन्दोलन संगठित करना। वास्तव में विश्वविद्यालय/उच्च शिक्षण संस्थान लम्बे समय से क्रान्तिकारी संघर्ष को नेतृत्व देने वाले युवाओं की भर्ती के केन्द्र रहे हैं। यह सच है कि शासक वर्ग भी अपने पिछलग्गू छात्र संगठनों के ज़रिये शोषण के पहिये को सुचारू तरीक़े से चलाते रहने के लिए हिक़मत करने वाले बुद्धिजीवियों, प्रशासकों, बुर्जुआ नेताओं की भर्ती के केन्द्र के रूप में इसका इस्तेमाल करता रहा है। लेकिन अब जबकि फ़ासीवादी सरकार ने पूँजीपतियों की तिजोरी भरने में लाज-शर्म का दिखावटी पर्दा भी उतार फेंका है तो वह जनता के असन्तोष को नेतृत्व देने में विश्वविद्यालयों/उच्च शिक्षण संस्थानों के जनपक्षधर, उन्नत, संजीदा और इंसाफ़पसन्द छात्रों-युवाओं की क्रान्तिकारी सम्भावना को कुचल डालने पर आमादा है। कैम्पसों के जनवादी स्पेस पर फ़ासीवादी हमले का कारण यह भी है कि भाजपा शिक्षा को देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लूट के अड्डे में बदल रही है और धन्नासेठों के फ़ायदे के लिए पब्लिक सेक्टर पर निजीकरण का बुलडोज़र चला रही है। इससे कैम्पस आम घरों के बेटे-बेटियों की पहुँच से दूर होते जा रहे हैं और पक्की नौकरियाँ तेज़ी से ख़त्म होती जा रही हैं। भर्तियों पर रोक, परीक्षा समय न करवाये जाने, हर परीक्षा में धाँधली, ठेकाकरण के ख़िलाफ़ आये दिन छात्र-युवा सड़कों पर उतर रहे हैं। ऐसे माहौल में फ़ासिस्टों को कैम्पसों में प्रगतिशील छात्र संगठनों की मौजूदगी बहुत खटकती है। कैम्पस जनवाद भाजपा के छात्र विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ संगठित होने की ज़मीन मुहैया कराता है। छात्र संघ पर रोक, कैम्पस में बड़े पैमाने पर निजी सुरक्षाकर्मियों की तैनाती, गेटों पर सघन चेकिंग, आन्दोलनकारी छात्रों का निलम्बन-गिरफ़्तारी-जेल, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और विचार-गोष्ठियों-सेमिनारों पर रोक, दीवारों पर कुछ लिखने और पोस्टर लगाने पर रोक लगने से छात्र एकजुटता और आन्दोलन का बहुत नुक़सान हुआ है। लेकिन यह सभी रोक संघ के बगलबच्चा संगठन एबीवीपी और संघ के कार्यक्रमों के लिए नहीं है। कैम्पस में कैण्टीन, हॉस्टलों में मेस, सामाजिक गतिविधियों के लिए बने हॉल बन्द पड़े हैं। विश्वविद्यालयों में बहुत से सार्वजनिक स्थल और हॉलों को बन्द कर दिया गया है। कुछ हॉल हैं भी तो उनका किराया इतना ज़्यादा रखा गया है कि आम छात्रों के वास्तविक प्रतिनिधि छात्र संगठनों के लिए उसका किराया ही दे पाना मुश्किल है। इन जगहों/ हॉलों में संघ/भाजपा/एबीवीपी के कार्यक्रम धड़ल्ले से होते रहते हैं। ऐसे में छात्र संघ की बहाली (विश्वविद्यालय प्रशासन के इस कुतर्क का-कि छात्र संघ चुनाव होने पर गुण्डागर्दी बढ़ जाती है, के जवाब में हमें यह तर्क देना चाहिए कि तब तो संसद-विधानसभा भी बन्द कर देनी चाहिए क्योंकि वहाँ बैठने वाला हर तीसरा सांसद-विधायक अपराधी है!), लिंगदोह समिति की सिफ़ारिशों को रद्द करने, कैम्पस को पुलिस छावनी में बदलने से रोकने यानी संक्षेप में कैम्पस जनवाद की बहाली के लिए छात्रों-युवाओं को देशव्यापी आन्दोलन संगठित करने के लिए कमर कस लेनी चाहिए।
छात्रों-युवाओं का तीसरा कार्यभार है- निःशुल्क और एकसमान शिक्षा और सबको रोज़गार के हक़ के नारे के तहत देश के शहरों-कस्बों-गाँवों के छात्रों-युवाओं को लामबन्द करना। निश्चित तौर पर, भाजपा के सत्ता में आने से पहले भी बेरोज़गारी थी। वस्तुतः बेरोज़गारी पूँजीवादी व्यवस्था की अनिवार्य अन्तर्निहित बीमारी है। लेकिन भाजपा ने सत्ता में आने के बाद से मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हित में निजीकरण की जो बुलेट ट्रेन दौड़ायी है, वह अभूतपूर्व है। पूँजीपतियों को सस्ती श्रमशक्ति मुहैया कराने और पूँजीपतियों को सस्ते ऋण, बेलआउट पैकेज देने, क़र्ज़ माफ़ करने आदि से बढ़ने वाले आर्थिक बोझ को सन्तुलित करने के लिए सामाजिक सुरक्षा, पक्की नौकरी, वेतन, भत्ता, पेंशन आदि में होने वाले ख़र्च में बहुत अधिक कटौती की गयी है। इसीलिए पक्की नौकरियों को मोदी सरकार तेज़ी से ख़त्म कर उसकी जगह ठेके, संविदा, दिहाड़ी की व्यवस्था ला रही है। केन्द्र व राज्य के विभिन्न विभागों में ख़ाली पदों को भरने की जगह सीधे समाप्त करती जा रही है। थोड़ी बहुत भर्तियाँ निकल भी रही हैं तो लगभग सभी परीक्षाओं में पेपर लीक, धाँधली के चलते वो किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रही हैं। पिछले 10 सालों में क़रीब 80 परीक्षाओं के पर्चे लीक हो चुके हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले की तरह नीट परीक्षा में महाघोटाला हुआ। उसके तुरन्त बाद नेट परीक्षा में पेपर लीक हुआ। फिर उत्तर प्रदेश पीसीएस(जे) की परीक्षा में कई अभ्यर्थियों की उत्तर पुस्तिकाओं के बदले जाने का मामला सामने आया। इन तमाम मामलों में किसी न किसी रूप में भाजपा नेताओं की भूमिका के पूरे सबूत मिले हैं। शिवराज सिंह चौहान के समय हुए व्यापम घोटाले में तो सैकड़ों गवाहों को मार दिया गया था। साल 2017 में सीबीएसई के पेपर लीक में एबीवीपी का संयोजक शामिल था। वास्तव में पेपर लीक की यह घटनाएँ सरकार, निजी प्रेस मालिकों, शिक्षा माफियाओं, निजी विश्वविद्यालयों और प्रशासन की मिलीभगत का नतीजा है। फ़ासीवादी सरकार पक्की व सरकारी नौकरी के लिए चलने वाली भयंकर होड़ का फ़ायदा उठाकर न केवल अरबों-ख़रबों का वारा-न्यारा कर रही है बल्कि अपने लोगों को भी विभिन्न विभागों में भर रही है। इन सबका नतीजा यह है कि छात्र-युवा अपने भविष्य को लेकर भयानक अँधेरे में हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र हताश-निराश होकर बहुत बड़े पैमाने पर आत्महत्याएँ कर रहे हैं। बेरोज़गारी की दर अब तक के इतिहास में सबसे अभूतपूर्व ऊँचाई पर पहुँच चुकी है। 2 करोड़ नौकरियाँ हर साल पैदा करने का दावा करने वाली फ़ासीवादी भाजपा का असली चाल-चेहरा-चरित्र इसी से समझा जा सकता है। यही स्थिति शिक्षा व्यवस्था की है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा से सरकार अपना हाथ खींचती जा रही है। सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों की इमारतों, रखरखाव को रामभरोसे छोड़ दिया गया है। शिक्षकों की कमी, इन्फ्रास्ट्रक्चर में सरकारी निवेश न के बराबर होने से पूरा सरकारी शिक्षा तन्त्र ही चौपट हो गया है। चौपट सरकारी शिक्षा तन्त्र पर देशी-विदेशी निजी पूँजी की लूट का तन्त्र खड़ा हो चुका है। असल में सरकारी शिक्षातन्त्र को बरबाद ही इसीलिए किया गया था।
इस स्थिति में छात्रों-युवाओं के पास केवल एक ही रास्ता बचता है कि एकसमान व निःशुल्क शिक्षा और सबको रोज़गार के हक़, पारदर्शी परीक्षा व्यवस्था के लिए देशव्यापी आन्दोलन संगठित करने की जद्दोजहद में आज ही उतर पड़ें, क्योंकि कल बहुत देर हो जायेगी।
(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2024)
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