पाठ्यक्रम में बदलाव : फ़ासीवादी सरकार द्वारा नयी पीढ़ी को कूपमण्डूक और प्रतिक्रियावादी बनाने की साज़िश
रस्टी
फ़ासीवादी सरकार अगर किसी चीज़ से डरती है तो वो है लोगों के तार्किक होने और उनके सवाल करने से। इसलिए हर फ़ासीवादी सत्ता लोगों को झूठे, अतार्किक और प्रतिक्रियावादी रास्ते पर ले जाना चाहती है। फ़ासीवादी सत्ता हर उस चीज़ का विरोध करती है और उसे नष्ट करने की कोशिश करती है जो झूठ और अज्ञान पर आधारित उनके दुष्प्रचार और मिथ्याकरण के ख़िलाफ़ समाज को तार्किक और वैज्ञानिक चेतना से लैस करती है। इसी का ताज़ा उदाहरण नवीं और दसवीं कक्षा के सिलेबस से आवर्त सारणी (पीरियोडिक टेबल) और डार्विन के विकास के सिद्धान्त (थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन) को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) द्वारा हटाया जाना है। यह पहली बार नहीं है जब भाजपा के सत्ता में आने के बाद से सिलेबस में बदलाव किया गया हो। इससे पहले भी इतिहास व अन्य विषयों में कई बदलाव इस फ़ासिस्ट सरकार ने किया था। उदाहरण के लिए वर्ण-जाति व्यवस्था के उद्गम को ग़ायब करना, पूरे इतिहास के साम्प्रदायिक पाठ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना आदि। एनसीईआरटी द्वारा सिलेबस से पीरियोडिक टेबल और इवोल्यूशन हटाने के कई कारण बताये गये हैं। हम एक-एक करके सारे कारणों का खण्डन करेंगे और यह साबित करेंगे कि पाठ्यक्रम में बदलाव बच्चों को अतार्किक बनाने की एक साज़िश है।
पाठ्यक्रम में बदलाव करने का सबसे पहला तर्क बच्चों के बोझ को हल्का करने का दिया जा रहा है। उनके अनुसार कोविड-19 के बाद बच्चों पर पढ़ाई का दबाव बहुत बढ़ गया है, जिससे बच्चे मानसिक रूप से प्रभावित हो रहे हैं। जिसे कम करने के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव करने की ज़रूरत थी। पर असल में यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने की कोशिश है जिसके तहत इससे पहले इतिहास के पाठ्यक्रम में बदलाव किया गया था। आवर्त सारणी (पीरियोडिक टेबल) रसायन विज्ञान का बिल्कुल बुनियादी अध्याय है, जिसके बिना रसायन विज्ञान को समझना नामुमकिन सा हो जायेगा। उसी तरह डार्विन के उद्भव के विकास का सिद्धान्त भी जीव-विज्ञान को समझने के लिए बेहद ज़रूरी अध्याय है। डार्विन के इस सिद्धान्त को विज्ञान के विकास में एक मील का पत्थर माना जाता है, जिसने इंसान के उद्भव के इतिहास और विज्ञान को खोल कर रख दिया था। अर्थात इसको न पढ़ना आज से 200 साल पीछे जाने जैसा होगा। ये दोनों ही विषय छात्रों को एक वैज्ञानिक समझ प्रदान करते हैं और इससे सोचने-समझने की एक पहुँच विकसित होती है। इसलिए इसे हटाया जाना बच्चों पर मानसिक दबाव कम करना नहीं बल्कि भोथरा बनाना है।
इसी में दूसरा तर्क देते हुए एनसीईआरटी ने बयान दिया कि बच्चों को 11वीं कक्षा में विस्तार ये सारी चीज़ें पढ़नी ही हैं। एनसीईआरटी के अनुसार –
‘कक्षा 12 की जीवविज्ञान की पुस्तक में एक पूरा अध्याय ‘उद्विकास’ को समर्पित है जहाँ डार्विनियन सिद्धान्तों सहित विकास के विभिन्न सिद्धान्तों को पहले से ही विस्तार से पढ़ाया जा रहा है। इस अध्याय में विकास के ‘बिग बैंग थ्योरी’ और अन्य विकास सिद्धान्तों के अलावा डार्विन के विकास के सिद्धान्त की दोनों प्रमुख अवधारणाओं – ‘ब्रांचिंग डिसेण्ट’ और ‘प्राकृतिक चयन’ को पढ़ाया जा रहा है। इसीलिए छात्रों के भार को कम करने और अध्यायों की पुनरावृत्ति से बचने के लिए 10वीं कक्षा में ‘आनुवंशिकता और विकास’ (hereditary and evolution) अध्याय के स्थान पर ‘आनुवंशिकता’ अध्याय जोड़ा गया है, जो सर्वथा उचित है। इससे विद्यार्थियों को अनावश्यक रूप से लगभग एक ही पाठ्य सामग्री दो कक्षाओं में नहीं पढ़नी पड़ेगी। ’
ऐसा ही तर्क वे पीरियोडिक टेबल के लिए भी देते हैं। पर इसका दूसरा पहलू यह है कि दसवीं तक की पढ़ाई बुनियादी पढ़ाई होती है जिसके बाद ही विषयों का विभाजन होता है। लेकिन वैसे बच्चे जो दसवीं के बाद विज्ञान या जीव-विज्ञान नहीं पढ़ पाते, उनके लिए यह सारी चीज़ें जान पाना तो नामुमकिन ही हो जायेगा। मतलब यह कि रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान की बेहद बुनियादी चीज़ों से वे अनजान रह जायेंगे। इसके अलावा पढ़ाने के तरीक़े में भी नीचे की कक्षाओं में बुनियादी चीज़ें बतायी जाती हैं ताकि एक समझदारी पहले से तैयार हो जाये जिसके बाद इसे आगे समझना आसान हो जाये। अर्थात एनसीईआरटी द्वारा छात्रों का भार कम करने का तर्क और भी बेकार हो जाता है, क्योंकि बिना कुछ जाने 11वीं या 12वीं में सीधा पढ़ने पर बच्चों पर भार ज़्यादा बढ़ेगा। साफ़ है कि ऊपर दिये गये सारे तर्क बेबुनियाद हैं, जिनका कोई आधार ही नहीं है।
तीसरे तर्क के रूप में एनसीईआरटी ने छात्रों को अनुकूलित शिक्षण अनुभव प्रदान करने के लिए पाठ्यक्रम को अधिक “संक्षिप्त, सूचनात्मक और तर्कसंगत” बनाने के उद्देश्य से पुराने पाठ्यक्रम से विषय-सामग्री के कुछ हिस्सों को हटाने का तर्क दिया है। नयी शिक्षा नीति-2020 के तहत बच्चों को ज़्यादा उत्तरदायी और प्रासंगिक बनाने के लिए उनकी उम्र और रूचि के अनुसार इसमें बदलाव किये जा रहे हैं। पर हक़ीकत यह है कि यह छात्रों को प्रासंगिक नहीं अप्रासंगिक बनाना है। जब छात्र विज्ञान की बुनियादी बातों को ही नहीं जान पायेंगे तो वह तार्किक कैसे हो सकते हैं! नयी शिक्षा नीति के तहत शिक्षा को बरबाद करने और बेचने की तथा “गतिविधि आधारित शिक्षा” बोलकर बच्चों को मशीन बनाने की तैयारी तो सरकार पहले ही कर चुकी है।
इन अध्यायों को हटाये जाने के बाद देश भर में इसका विरोध किया जा रहा है। 4000 से अधिक शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने सरकार के इस निर्णय का विरोध किया है। कई छात्रों, शिक्षकों और छात्र संगठनों द्वारा भी इसका विरोध किया गया है। लेकिन हमेशा की तरह सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा। देश में तमाम शिक्षण संस्थानों का पहले ही भगवाकरण किया जा रहा है। क़िताबों से क्रान्तिकारियों की जीवनियों को हटाया जा रहा है। 2019 में ही एनसीईआरटी को संघ परिवार से जुड़े संगठन शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने ग़ालिब और टैगोर की रचनाओं, क्रान्तिकारी कवि पाश की कविता, एमएफ़ हुसैन की जीवनी के अंशों, गुजरात के दंगों, मुगल बादशाहों और नेशनल कान्फ़्रेंस सम्बन्धी विवरण हटाने को कह दिया था। कर्नाटक की एक क़िताब में संघ के गुरु सावरकर को, जिसने अंग्रेज़ों को माफ़ीनामा लिखा था, एक ‘स्वतन्त्रता सेनानी’ बताया जा रहा है जो जेल से “बुलबुल” पर बैठ के फ़रार हुआ था। पर सच यह है कि उसकी “बुलबुल” अंग्रेज़ों को लिखा गया माफ़ीनामा ही था। राजस्थान में भाजपा सरकार के कार्यकाल में पाठ्यक्रम में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, के.एस. सुदर्शन आदि को शामिल कर लिया गया। सिन्धिया को अंग्रेज़ों का मित्र बताने वाली झाँसी वाली रानी कविता को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया। मतलब संघ का झूठा इतिहास ही अब बच्चों के लिए इतिहास रह जायेगा। क्योंकि अपने सच्चे इतिहास से तो संघ परिवार ख़ुद डरता है, जिसमें अंग्रेज़ों की मुख़बिरी करना, हिटलर और मुसोलिनी की वकालत करने जैसी कई चीज़ें शामिल रही हैं। मोदी सरकार द्वारा लायी गयी नयी शिक्षा नीति शिक्षा के पूरे तन्त्र के फ़ासीवादीकरण का दस्तावेज़ है। आज सभी संस्थानों की फ़ीस बढ़ायी जा रही है तथा उनका निजीकरण किया जा रहा है। तमाम छात्रवृत्तियाँ एक-एक कर के बन्द की जा रहीं हैं। यह सारे क़दम इसलिए उठाये जा रहे हैं ताकि आम घरों के बच्चों का पढ़ना मुश्किल हो सके। ऐसे अन्धभक्तों की फ़ौज तैयार हो सके जो बिना सोचे-समझे आँख बन्द कर के सरकार द्वारा फैलाये जा रहे हर उस बात का विश्वास कर सकें जो यह सरकार बोले। ख़ैर, मूर्खों से क्या ही उम्मीद की जा सकती है? जिनका सबसे बड़ा नेता ‘प्लास्टिक सर्जरी’, ‘पुष्पक विमान’ और न जाने ऐसी कई चीज़ों पर बेतुके बयान देता हो। संघियों के इतिहास और विज्ञान के ज्ञान की पोल पट्टी तो वैसे ही खुल जाती है।
पर एक फ़ासीवादी सत्ता ऐसे ही काम करती है। वह पहले पूरे इतिहास का मिथ्याकरण करती है, फ़िर अपनी पूरी शक्ति से उसे स्थापित करने की कोशिश में लग जाती है। एक झूठे इतिहास का महिमामण्डन कर के लोगों को किसी “रामराज्य” के ख़्वाब दिखाती है, जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। पहले टीवी न्यूज़ चैनलों और फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर तथा व्हाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया के ज़रिये ऐसे झूठ को हज़ार बार दोहराया जाता है, जिससे वह एक सामान्य बोध की तरह लोगों के दिमाग़ में स्थापित हो जाये और लोग उसे सच मानने लगें। आज भाजपा और आरएसएस द्वारा लगातार यही कोशिशें की जा रही हैं। आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मन्दिर, विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा संचालित एकल अभियान जैसी संस्थाएँ पहले ही बचपन से बच्चों के दिमाग़़ में ज़हर घोलने का काम कर रही हैं। लेकिन अब सत्ता में आने के बाद इन्होंने इसी काम को हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों तक ले जाने की कवायद शुरू कर दी है। इनके ज़रिये फ़ासिस्ट समस्याओं और उनके वास्तविक कारणों पर परदा डालने का काम करते हैं। ऐसी विषय सामग्री को पाठ्यक्रम में जगह देने की वजह नयी पीढ़ी के दिमाग़ में वर्तमान व्यवस्था को ‘श्रेष्ठतम सम्भव व्यवस्था’ साबित करने की साफ़-साफ़ कोशिश-भर है। इसके अलावा पाठ्यक्रम में ऐसे विषय-वस्तुओं की भरमार है, जो असल समस्याओं और मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने की जगह अनावश्यक चीज़ों की ओर ध्यान भटकाते हैं। कुल मिलाकर यदि बच्चों को केवल स्कूली शिक्षा के भरोसे छोड़ दिया जाए तो उनके कूपमण्डूक होने की शत-प्रतिशत सम्भावना है। इन बदलावों के बाद तो वे अपने सोचने-विचारने की शक्ति से भी हाथ धो बैठेंगे। लेकिन यह भी इतना ही सच है कि वही इतिहास और विज्ञान हमें आगे का और इन फ़ासिस्टों से लड़ने का रास्ता भी सुझाता है। ऐसी तमाम कोशिशें इतिहास में पहले भी हो चुकीं हैं। अत: आज ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो बच्चों के कोमल मन को प्रदूषित होने से बचाने में अपनी भूमिका निभा सकें, व्यवस्था के सारे फ़र्ज़ीवाड़े को उनके सामने उजागर कर सकें और उनमें सुन्दर भविष्य के सपने देखने और प्रयास करने की आदत डाल सकें। •
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फ़रवरी 2023
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