बार-बार हो रही रेल दुर्घटनाओं का कारण क्या है?
नीशू
हमारे देश में आये दिन रेल दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। उड़ीसा के बालासोर में 2 जून को हुई पिछले दो दशकों में सबसे बड़ी रेल दुर्घटना ने हर संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख दिया। बालासोर में होने वाली इस बड़ी दुर्घटना के अलावा छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ बार-बार होती रहती हैं। बार-बार होने वाली ये दुर्घटनाएँ हर सोचने-समझने वाले लोगों के ज़ेहन में यह सवाल ज़रूर खड़ा करती होंगी कि ये दुर्घटनाएँ रेल कर्मचरियों की लापरवाही से होती हैं (जैसा कि अक्सर साबित हो जाता है) या इनकी वजह कुछ और ही है?
बार-बार होने वाली रेल दुर्घटनाओं पर विचार करने से पहले बालासोर रेल दुर्घटना की भयावहता और सरकारी तन्त्र की असंवेदनशीलता पर बात करना ज़रूरी है। यह दुर्घटना तीन ट्रेनों, जिसमें दो सवारी गाड़ी और एक मालगाड़ी थी, के टकराने से हुई जिसमें लगभग 300 लोगों की मृत्यु हो गयी और हज़ारों लोग घायल हुए। दुर्घटना के बाद लाशों का ढेर इकठ्ठा कर दिया गया। बहुत सारे घायल ज़िन्दा लोगों को भी इसी ढेर में फेंक दिया गया। समय पर पहुँच गये परिजनों ने लाशों के ढेर से अपने परिवार के लोगों को ज़िन्दा निकाला। बाद में एक रिपोर्ट के अनुसार यह बात सामने आई कि बचाव कार्य डॉक्टर या चिकित्साकर्मियों द्वारा नहीं बल्कि ग़ैर चिकित्साकर्मियों द्वारा करवाया गया। ग़रीबों का हितैषी होने का ढोल पीटने वाली मोदी सरकार द्वारा ग़रीबों की लाशों को ठेले पर लादकर इकट्ठे अन्तिम संस्कार करवा दिया गया। जहाँ एक तरफ़ इंसानों की लाशों और घायलों के साथ इस तरह अमानवीय व्यवहार किया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ़ पूरा प्रशासनिक अमला घटना स्थल पर प्रधानमन्त्री के लिए टेण्ट, कूलर आदि के इन्तज़ाम में व्यस्त था। प्रधानमन्त्री ने भी घटनास्थल पर ख़ूब नौटंकी दिखाई और कहा कि दोषियों को बख़्शा नहीं जायेगा तो वहीं रेलमन्त्री ने अपनी नाक़ामी से बचने के लिए रेलवे सुरक्षा आयुक्त की रिपोर्ट से पहले ही दुर्घटना की सीबीआई जाँच की घोषणा कर दी। जबकि सीबीआई रेल दुर्घटनाओं की नहीं, अपराधों की जाँच पड़ताल करती है। वह रेलवे की तकनीकी, संस्थागत और राजनीतिक विफलताओं की जाँच-पड़ताल कैसे कर सकती है? वास्तव में पूँजीपतियों की चहेती भाजपा सरकार जाँच कमेटी का इस्तेमाल अपने दामन में लगे दाग़-धब्बों को छुपाने के लिए करती रही है। जाँच कमेटी की सच्चाई यह है कि पिछली कई रेल दुर्घटनाओं की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। कानपुर में 2016 में हुई रेल दुर्घटना आपको याद होगी जिसमें डेढ़ सौ जानें गयी थीं। तब एनआईए से जाँच करवाने की घोषणा की गयी थी लेकिन आज तक उस जाँच की कोई आधिकारिक रिपोर्ट सामने नहीं आयी। उस रेल दुर्घटना को प्रधानमन्त्री ने तो आतंकी साज़िश क़रार दिया था। ऐसे ही 2017 में आन्ध्र प्रदेश हीराकुण्ड एक्सप्रेस दुर्घटना में 40 यात्रियों की मौत हुई। इसमें भी एनआईए ने अभी तक चार्ज शीट दाखिल नहीं की। जबकि रेलवे सुरक्षा आयुक्त ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट में ट्रेन के पटरी से उतरने के लिए ‘टंग रेल के फ्रैक्चर’ को ज़िम्मेदार ठहराया था। लेकिन इस पर किसी ने ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा। कैग ने अपनी 2022 की रिपोर्ट में बताया था कि अप्रैल 2017 से मार्च 2021 के बीच चार सालों में 16 जोनल रेलवे में 1,129 डिरेलमेण्ट की घटनाएं हुईं। यानी हर साल लगभग 282 डिरेलमेण्ट हुए।
‘चिन्तन शिविर’ रेलवे की भलाई के लिए या रेलवे को निजी हाथों में बेचने के लिए
रेलमन्त्री अश्वनी वैष्णव की अध्यक्षता में 1 और 2 जून को दिल्ली में आयोजित “चिन्तन शिविर” में रेल मन्त्री ने दावा किया कि, “रेलवे ‘पाई-पाई से ग़रीब की भलाई’ के सिद्धान्त पर काम कर रहा है और देश के प्रत्येक नागरिक के लिए सबसे सस्ती क़ीमत पर अत्यधिक सुरक्षा एवं संरक्षा के साथ सर्वोत्तम सेवाएं देने के उद्देश्य से प्रतिबद्ध है।”
भारतीय रेलवे की ग़रीबों की भलाई के सिद्धान्त की सच्चाई यह है कि शताब्दी और राजधानी जैसी कुछ प्रीमियम ट्रेनों में LHB बोगियाँ (ये बोगी जल्दी पलटती नहीं है यदि पलट भी जाए तो पिचकती नहीं है) इस्तेमाल की जा रही हैं, वहीं स्लीपर व जनरल, जिसमें आम आबादी सफ़र करती है की बोगियाँ ICF (कमज़ोर व पिछड़ी तकनीक) की हैं।
कैग की ही रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा मानदण्डों का उल्लंघन करते हुए 27,763 कोचों (62 प्रतिशत) में आग बुझाने के यन्त्र उपलब्ध नहीं कराए गये थे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ट्रैक नवीनीकरण के लिए धन का कुल आवण्टन घट रहा है। ऑडिट रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ट्रैक रखरखाव और उन्नयन कार्यों के लिए धन का आवण्टन 2018-19 में 9,607.65 करोड़ रुपये से घटकर 2019-20 में 7,417 करोड़ रुपये हो गया था।
चिन्तन शिविर के सत्र का हिस्सा रहे एक रेलवे अधिकारी ने बताया कि, “हाल के महीनों में मालगाड़ियों के पटरी से उतरने की ख़तरनाक घटनाएँ हुई हैं, जिनमें लोको पायलट मारे गये हैं और वैगन पूरी तरह से नष्ट हो गये। लेकिन ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कोई चर्चा नहीं की गयी।”
बालासोर ट्रेन दुर्घटना के बाद सभी ने ‘कवच प्रणाली’ का नाम सुना। आख़िर क्या है यह ‘कवच प्रणाली’? 2011-12 में आरडीएसओ द्वारा विकसित ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली को ‘कवच’ का नाम दिया गया। यह एक तरह की डिवाइस है जो ट्रेन के इंजन के अलावा रेलवे रूट पर भी लगाई जाती है। इससे दो ट्रेनों के एक ही ट्रैक पर एक-दूसरे के क़रीब आने पर ट्रेन सिग्नल, इण्डिकेटर और अलार्म के ज़रिए ट्रेन के पायलट को इसकी सूचना मिल जाती है। ‘कवच सिस्टम’ द्वारा प्रदान की जाने वाली अन्य विशेषताओं में फाटकों पर आटो सीटी बजाना या किसी जोख़िम के मामले में अन्य ट्रेनों को कण्ट्रोल या सावधान करने के लिए आटो-मेनुअल SOS सिस्टम को तत्काल एक्टिव करना भी शामिल है। जिससे ट्रेनों का संचालन आसपास रोक दिया जाए। इसके अलावा ‘कवच सिस्टम’ घने कोहरे, बारिश या ख़राब हुए मौसम के दौरान ट्रेन की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। यदि लोको पायलट ब्रेक लगाने में विफल रहता है तो भी यह सिस्टम स्वचालित रूप से ब्रेक लगाकर ट्रेन की स्पीड को नियन्त्रित करती है। इसका सफल परीक्षण मार्च 2022 में किया गया और दावा किया गया था कि आत्मनिर्भर भारत के एक हिस्से के रूप में, 2022-23 में सुरक्षा और क्षमता वृद्धि के लिए 2,000 किलोमीटर नेटवर्क को कवच के तहत लाया जायेगा। लेकिन तमाम जुमलों की तरह यह भी सरकार की कोरी लफ़्फ़ाज़ी ही साबित हुई। बालासोर रेल दुर्घटना के बाद भारतीय रेलवे के प्रवक़्ता अमिताभ शर्मा ने बताया कि दुर्घटनाग्रस्त रूट पर कवच उपलब्ध नहीं था। वास्तव में, अब तक कुल रेल नेटवर्क के मात्र 2 प्रतिशत पर ही कवच लगाया गया है।
इन तथ्यों की रोशनी में समझा जा सकता है कि बढ़ती रेल दुर्घटनाओं के पीछे मानवीय चूकों की जगह ढाँचागत कमियाँ ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं। रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए तमाम सुरक्षा उपायों का समुचित इस्तेमाल ही नहीं किया जा रहा है।
बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का दूसरा प्रमुख कारण ट्रेनों के विशाल नेटवर्क को संचालित करने के लिए कर्मचरियों की कमी है। वास्तव में, नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद के 32 वर्षों में और ख़ास तौर पर मोदी सरकार के पिछले 9 वर्षों में, रेलवे में नौकरियों को घटाया जा रहा है, जो नौकरियाँ हैं उनका ठेकाकरण और कैजुअलीकरण किया जा रहा है। नतीजतन, ड्राइवरों समेत सभी रेल कर्मचारियों पर काम का भयंकर बोझ है। कई जगहों पर ड्राइवरों को गाड़ियाँ रोककर झपकियाँ लेनी पड़ रही हैं क्योंकि 18-18, 20-20 घण्टे बिना सोये लगातार गाड़ी चलाने के बाद दुर्घटना की सम्भावना बढ़ जाती है। मार्च, अप्रैल और आधी मई में 12 घण्टे से ज़्यादा काम करने वाले इंजन ड्राइवरों की संख्या क़रीब 35 प्रतिशत थी। इसी प्रकार, लगातार 6-6 दिन रात की ड्यूटी करवाये जाने के कारण भी रेल दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। 2021-22 से 2022-23 के बीच नुक़सानदेह रेल दुर्घटनाओं की संख्या में 37 प्रतिशत की भारी बढ़ोत्तरी हुई। मौजूदा साल में ही मामूली ट्रेन दुर्घटनाओं की संख्या 162 थी, जिनमें से 35 में काम के ज़्यादा बोझ के कारण होने वाली ‘सिग्नल पास्ड ऐट डेंजर’ वाली चूकें थीं। कई बार ड्राइवरों को बिना शौचालय विराम के 10-10 घण्टे तक ट्रेन चलाना पड़ता है। तमाम समझौतापरस्त यूनियनें जो कि इस या उस चुनावी पार्टी से जुड़ी हैं, यह मसला उठाती ज़रूर हैं, मगर कभी इस पर कुछ करती नहीं हैं। इसी प्रकार सिग्नल प्रणाली में लगे स्टाफ को भी या तो बढ़ाया ही नहीं गया या पर्याप्त रूप में नहीं बढ़ाया गया। नतीजतन, वहाँ भी काम के बोझ के कारण त्रुटियों और चूकों की सम्भावना बढ़ जाती है। यही हाल ग्रुप सी व डी के रेलवे कर्मचारियों का भी है। 2015 से 2022 के बीच ग्रुप सी व डी के 72,000 पदों को रेलवे ने समाप्त कर दिया। इन्हीं श्रेणियों में इस समय रेलवे में क़रीब 3 लाख पद ख़ाली हैं। एक ओर ट्रेनों की संख्या बढ़ रही है, रेलवे स्टेशनों, ट्रैकों की संख्या बढ़ रही है, वहीं पदों को कम कर, ठेकाकरण कर निजी कम्पनियों को मुनाफ़ा कूटने की आज़ादी दी जा रही है और रेलवे कर्मचारियों पर बोझ को बढ़ाया जा रहा है। यह मोदी सरकार की धन्नासेठों की तिजोरी भरने की नीतियों का ही नतीजा है। 2021 से रेलवे ने हर तीसरे दिन एक रेलवे कर्मचारी की नौकरी ख़त्म की है। 2007-08 में रेलवे में 13,86,011 कर्मचारी थे। लेकिन आज यह संख्या 12 लाख के क़रीब आ गयी है। यानी क़रीब पौने दो लाख नौकरियों की कटौती। वहीं 2009 से 2018 के बीच रेलवे में ख़ाली होने वाले क़रीब 3 लाख पदों को नहीं भरा गया है। मोदी सरकार आने के बाद, 2014 में 60754 लोग रिटायर हुए लेकिन भर्तियाँ हुईं 31805 की, उसी प्रकार 2015 में 59960 कर्मचारी रिटायर हुए लेकिन भर्तियाँ हुईं मात्र 15,191 की, 2016 में 53,654 लोग रिटायर हुए जबकि भर्तियाँ हुईं मात्र 27,995। यही हाल उसके बाद के हर साल का भी रहा है। यह वही मोदी सरकार है जिसने हर साल 2 करोड़ रोज़गार देने का वायदा किया था।
यानी, एक ओर रेलवे का नेटवर्क विस्तारित किया गया है, ट्रेनों व स्टेशनों की संख्या बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर रेलवे में कर्मचारियों की संख्या को लगातार कम करके मोदी सरकार मौजूदा कर्मचारियों पर काम के बोझ को भयंकर तरीक़े से बढ़ा रही है। ऐसे में, दुर्घटनाओं और त्रासदियों की संख्या में बढ़ोत्तरी को सहज ही समझा जा सकता है और यह भी समझा जा सकता है कि मानवीय चूकों के लिए भी मुख्य तौर पर कर्मचारी नहीं बल्कि रेलवे में सुरक्षा इन्तज़ामात और कर्मचारियों की कमी है। रेलवे में सुरक्षा इन्तज़ामात की कमी और कर्मचारियों की कमी के लिए सरकार की रेलवे को निजी हाथों में बेचने की नीति ज़िम्मेदार है। ऐसे जर्जर ढाँचे के भीतर मोदी सरकार बुलेट ट्रेन चलाने के शेख़चिल्ली के ख़्वाब दिखा रही है, तो इससे बड़ा भद्दा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता। तात्कालिक तौर पर निश्चय ही ऐसी दुर्घटनाओं के लिए किसी व्यक्ति की चूक या ग़लती ज़िम्मेदार नज़र आ सकती है। लेकिन यह एक व्यवस्थागत समस्या है जिसके लिए मौजूदा मोदी सरकार की छँटनी, तालाबन्दी और ठेकाकरण की नीतियाँ और रेलवे को टुकड़ों-टुकड़ों में निजी धन्नासेठों के हाथों में सौंप देने की मोदी सरकार की योजना ज़िम्मेदार है। यह मोदी सरकार की पूँजीपरस्त और लुटेरी नीतियों का परिणाम है। इस बात को हमें समझना होगा क्योंकि सरकारें ऐसी त्रासदियों की ज़िम्मेदारी भी जनता पर डाल देती हैं और अपने आपको कठघरे से बाहर कर देती हैं।
(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2023)
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