नयी शिक्षा नीति पर अमल का असर: विश्वविद्यालयों में बढ़ती फ़ीस

नीशू

‘अखिल भारतीय शिक्षा समागम’ में प्रधानमन्त्री मोदी ने कहा कि ‘हमारे लिए विकास का मतलब चमक-दमक नहीं, बल्कि ग़रीब दलित, वंचित, पिछड़े आदिवासी माताओं-बहनों और सबका सशक्तिकरण है।’ सुनने में यह बात काफ़ी अच्छी लगती हैं लेकिन वास्तव में इसके निहितार्थ कुछ और ही हैं। वर्ग विभाजित समाज में हर बात और हर नारे का एक वर्गीय परिप्रेक्ष्य होता है। दरअसल प्रधानमन्त्री मोदी कहना चाहते हैं कि आम जनता की मेहनत की लूट पर टिकी पूँजीपतियों की चमक-दमक की तरफ़ कान मत दो! पूँजीपतियों की चहेती मोदी सरकार दमन-उत्पीड़न के तमाम हथकण्डों के ज़रिये जिन मुट्ठी भर धनपशुओं की सेवा में जुटी है, वास्तव में उन्हीं की ज़िन्दगी में दुनिया भर की सारी चमक-दमक है और सत्तासीन फ़ासिस्टों का गिरोह लगातार इन्हीं का सशक्तिकरण कर रहा है। बाकी देश की लगभग 80 फ़ीसदी आम आबादी को केवल लफ़्फ़ाज़ियों का लॉलीपॉप ही नसीब होता है।
जिस ‘नयी शिक्षा नीति’ का गुणगान करने में मोदी-योगी समेत पूरी फ़ासिस्ट मण्डली लगी हुई है, वह कुछ और नहीं बल्कि लफ़्फ़ाज़ियों की आड़ में शिक्षा को देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपने की नीति है। जैसे-जैसे नयी शिक्षा नीति पर अमल हो रहा है, वैसे-वैसे उसकी सच्चाई भी आम जनता के सामने खुलती जा रही है। मोदी की इस नयी शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के प्रशासनिक केन्द्रीकरण और वित्तीय स्वायत्तता पर ज़ोर दिया गया है जिसका असर अब जगह-जगह दिखने लगा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की नवप्रवेशी छात्रों के लिए फ़ीस 400 फ़ीसदी और कुछ-कुछ कोर्सों में इससे भी ज़्यादा बढ़ा दी गयी है। दिल्ली विश्वविद्यालय, कानपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर विश्वविद्यालय समेत देशभर के कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और राज्य विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग, मेडिकल, नर्सिंग आदि की फ़ीस में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। बीएचयू में भी पिछले सत्र में हॉस्टल की फ़ीस में वृद्धि की जा चुकी है। शिक्षा पर इस सरकारी हमले का कोई विरोध न कर सके, इसका भी इन्तज़ाम नयी शिक्षा नीति में मौजूद है। शिक्षा के अधिकार पर हो रहे इस हमले के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन को कुचलने के लिए विश्वविद्यालयों के आस-पास पुलिस चौकियों का निर्माण किया जा रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय तो शहर का दूसरा पुलिस लाइन बन चुका है। फ़ीस वृद्धि के विरुद्ध छात्रों के आन्दोलन को विश्वविद्यालय प्रशासन की शह पर पुलिसिया गुण्डागर्दी के ज़रिए दबाया जा रहा है। जिस दिन प्रधानमन्त्री मोदी बनारस में शिक्षाविदों के साथ मीटिंग कर रहे थे, उसी दिन बनारस के ही श्री बलदेव पीजी कॉलेज में फ़ीस बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ आन्दोलनरत छात्रों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जा रहा था। फ़ासीवादी सरकार ग़रीबों, दलितों, वंचितों, आदिवासियों आदि का सशक्तिकरण ऐसे ही करती है।
‘नयी शिक्षा नीति’ आसमान से नहीं टपक पड़ी है। वास्तव में आज़ादी के बाद से ही शिक्षा नीति भारतीय शासक वर्ग की ज़रूरतों के मद्देनज़र बनायी जाती रही है। 1990-91 के बाद पूँजीपति वर्ग की बदलती ज़रूरतों व आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा नीति में समय-समय पर ज़रूरी परिवर्तन किये गये हैं। नयी शिक्षा नीति – 2020 पुरानी शिक्षा नीतियों की ही निरन्तरता है, जिसमें शिक्षा के भगवाकरण का पहलू और जुड़ गया है।

आज़ाद भारत में शिक्षा नीति का संक्षिप्त इतिहास

आज़ादी के बाद 1948 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में 1948 में ‘विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग’ का गठन किया गया जिसने एक साल बाद अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में उच्च शिक्षा के संचालन के लिए स्वायत्त संस्था के निर्माण की सिफ़ारिश की गयी। 1956 में यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्राण्ट कमीशन) की स्थापना की गयी। जिसका कार्य उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान देना, शिक्षकों की बहाली तथा अन्य आधारभूत ज़रूरतों को संचालित करना आदि था। नवस्वाधीन पूँजीपति वर्ग को अपनी व्यवस्था चलाने के लिए टेक्नोक्रेट, ब्यूरोक्रेट्स की ज़रूरत थी, जिसके लिए जनता के टैक्स से विश्वविद्यालय और आईआईटी जैसे संस्थान खोले गये। आज़ादी के समय देशभर में जहाँ 20 विश्वविद्यालय थे, वहीं 1970 के अन्त तक क़रीब 100 विश्वविद्यालय हो गये।
1968 में देश में पहली व्यवस्थित शिक्षा नीति आयी जिसमें राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्य कुशल युवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया। यहाँ सवाल यह है कि किसके लिए वचनबद्ध? किसके लिए चरित्रवान? और किसके लिए कार्य कुशल? ज़ाहिरा तौर एक पूँजीवादी व्यवस्था का कोई भी दस्तावेज पूँजीपति वर्ग के हितों के मद्देनज़र ही तैयार होता है। यह दस्तावेज शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम 6 फ़ीसदी ख़र्च करने की बात करता था, लेकिन ऐसा न होने की सूरत में ज़वाबदेही का कोई प्रावधान नहीं था।
राजीव गाँधी सरकार द्वारा लायी गयी दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 भारत में शिक्षा के निजीकरण का पहला दस्तावेज थी। इसके साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की सुव्यवस्थित शुरुआत हुई। इस दस्तावेज़ में साफ़-साफ़ इस बात का ज़िक्र किया गया कि उच्च शिक्षा संस्थानों को बेहतर रूप से संचालित करने के लिए चन्दा इकट्ठा करना तथा इमारतों के रखरखाव एवं रोज़मर्रा के काम आने वाली वस्तुओं की पूर्ति के लिए स्थानीय लोगों की सहायता लिया जाना चाहिए। शिक्षा नीति के प्रावधान को उस समय आयी विश्व बैंक की विकासशील देशों पर रिपोर्ट, जिसमें कहा गया था कि “आर्थिक संसाधनों की कमी को देखते हुए शिक्षा पर आने वाले ख़र्च का बड़ा हिस्सा अभिभावकों पर डाला जाये” के साथ जोड़ कर देखने पर आगे स्पष्टीकरण की कोई ज़रूरत नहीं बचती।
शिक्षा के बाज़ारीकरण का अगला पड़ाव 1991 में नरसिंह राव सरकार द्वारा उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के तहत शिक्षा को पूरी तरह से बाज़ारू माल में तब्दील करना था। अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी पूँजीपतियों को मुनाफ़ा कमाने की छूट दे दी गयी। इसके लिए अलग-अलग समय पर अलग-अलग कमेटियाँ बनायी गयी। जैसे 1992-93 में क्रमश: जस्टिस पूनिया और डी स्वामीनाथन की अध्यक्षता में दो कमेटियाँ बनी जिसमें जस्टिस पूनिया समिति ने 1993 में उच्च शिक्षा के निजीकरण के पक्ष में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा कि “कोई भी समाज जो ग़रीबी और ग़ैर-बराबरी से जूझ रहा हो, वह विश्वविद्यालयों में हो रही फ़ुज़ूलख़र्ची के सब्सिडीकरण का समर्थन नहीं कर सकता। वहीं डी. स्वामीनाथन समिति ने फ़ीस वृद्धि, स्ववित्तपोषित कोर्सेज़ को शुरू करने तथा स्कॉलरशिप के बदले स्टूडेण्ट लोन की सिफ़ारिश की। 1997 में वित्त मन्त्रालय द्वारा एक दस्तावेज़ जारी किया गया जिसमें उच्च शिक्षा को ‘नॉन मेरिट गुड’ की श्रेणी में रखा गया। जिससे पहली बार आधिकारिक रूप से शिक्षा ख़रीदने बेचने वाले माल में बदल गयी और शिक्षण संस्थान दूकानों में बदल गये।
वर्ष 2000 में ‘मुकेश अम्बानी’ व ‘कुमारमंगलम बिड़ला’ की सदस्यता वाली समिति ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी। जिसमें कहा गया कि सरकार एक प्रक्रिया में विश्वविद्यालयों को वित्तीय सहयोग देने में कटौती करती जाय। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भूमिका अनुदान देने की नहीं रहनी चाहिए, निजी विश्वविद्यालय खोले जाने हेतु एक निजी विश्वविद्यालय विधेयक बनाने की सिफ़ारिश की गयी। ऐसे विश्वविद्यालयों की ख़र्चीली फ़ीस का भार उठाने के लिए विद्यार्थियों को क़र्ज़ देने का प्रावधान किया गया। इस रपट का स्पष्ट मानना है कि शिक्षा को सामाजिक विकास के एक अंग के रूप में देखने की वर्तमान सोच छोड़कर हमें शिक्षा को निवेश के एक क्षेत्र के रूप में देखना चाहिए।


उच्च शिक्षा के बाज़ारीकरण के प्रयास वैसे तो पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से जारी है। जिसका पहला चक्र यूपीए-1 के शासन काल में तब पूरा हुआ, जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने 2005 में दोहा में शिक्षा को डब्लूटीओ-गेट्स समझौते के अन्तर्गत लाने के लिए वार्ता पर सहमति दी थी। इस फ़ैसले की परिणति तब हुई जब वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने दिसम्बर 2017 में नैरोबी में इस समझौते पर दस्तख़त किये। यानी अब भारत का शिक्षा बाज़ार देशी-विदेशी दोनों क़िस्म की पूँजी के लिए खोल दिया गया। शिक्षा के क्षेत्र में जैसे-जैसे निजीकरण बढ़ता गया उसी अनुपात में शिक्षा पर सरकारी ख़र्च भी सिमटता गया है। ऊपर दिये गये ग्राफ़ से यह बात और स्पष्ट हो जाती है।
मोदी सरकार नयी शिक्षा नीति -2020 के समर्थन में विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित कर रही है। इससे छात्रों-युवाओं की एक बड़ी संख्या सरकारी प्रचार के प्रभाव में दिग्भ्रमित हो रही है। वहीं नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद देश में एक नवढनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है जो बाज़ार और फ़ासीवादी प्रचार की भाषा बोल रहा है। उसका तर्क है कि अगर विश्वविद्यालय फ़ीस नहीं बढ़ायेगा तो इन्फ्रास्ट्रक्चर कैसे खड़ा होगा? शिक्षकों की भर्ती कैसे होगी? अच्छी सुविधा कैसे मिलेगी? आदि। इन कुतर्कों से एक बात तो स्पष्ट है कि यह वर्ग प्रतिक्रियावादी जनविरोधी ही नहीं मूर्ख भी है। जो न केवल अपने हक़ों-अधिकारों को छोड़ रहा है, बल्कि शासक वर्ग की प्रतिक्रियावादी राजनीति के साथ खड़ा है। ख़ुद के ज़्यादा समझदार और जागरूक होने के दम्भ में जीने वाला यह वर्ग शायद ही कभी नेताओं-मन्त्रियों को मिलने वाली छूटों-सुविधाओं (यात्रा, चिकित्सा, फोन, पेंशन आदि), नेताओं की रैलियों और विज्ञापनों पर होने वाले ख़र्चों पर सवाल उठाता हो। विश्वविद्यालय प्रशासन भी सरकार की हाँ में हाँ मिलाते हुए कुतर्क गढ़ रहा है। जैसे – वार्षिक कैलेण्डर में फ़ोटो के नाम पर लाखों रुपये का वारा-न्यारा करने वाला इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन बढ़ी हुई फ़ीस पर बहुत ही घिसी-पिटी दलील दे रहा है और बेशर्मी से वित्तीय संसाधनों की कमी का रोना रो रहा है। ऐसे ही बीएचयू में पिछले सत्र में हॉस्टलों की फ़ीस में वृद्धि कर दी गयी और इस सत्र में गोरखपुर विश्वविद्यालय में फ़ीस बढ़ाने की तैयारी चल रही है। सच्चाई यह है कि बेतहाशा फ़ीस वृद्धि और कुछ नहीं बल्कि सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों का चोर दरवाज़े से निजीकरण की दिशा में बढ़ा हुआ एक क़दम है।

नयी शिक्षा नीति 2020 में नया क्या है?

छात्रों-युवाओं को फ़ासीवादी सरकार की प्रचार मशीनरी के नयी शिक्षा नीति के समर्थन में दिये जा रहे कुतर्कों को समझना होगा। आइये देखते हैं कि जिस नीति का ग़रीबों, दलितों, आदिवासियों के हक़ में और “राष्ट्र” के विकास में “नयी” नीति के रूप में ढिंढोरा पीटा जा रहा है, उसमें नया क्या है?
मोदी सरकार द्वारा लायी गयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में नया केवल यह है कि यह पूर्ववर्ती सभी शिक्षा नीतियों को पीछे छोड़ते हुए प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक को कारपोरेट पूँजी के हवाले करने का दस्तावेज़ तो है ही साथ ही यह शिक्षा के भगवाकरण के ज़रिये देश के शिक्षा तन्त्र को फ़ासीवादी प्रयोग की पाठशाला में भी बदलने का दस्तावेज़ है।
नयी शिक्षा नीति के तहत पूँजीपतियों की आपसी प्रतिस्पर्धा के मद्देनज़र सस्ते श्रमिकों की आपूर्ति के लिए वोकेशनल सेण्टर आईटीआई, पॉलिटेक्निक आदि को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिससे पूँजीपतियों को सस्ते मज़दूर मिल सके और शिक्षा पर ख़र्च भी कम करना पड़े। छठी से ही बच्चों को छोटे-मोटे काम धन्धे सिखाये जाने का सुझाव दिया जा रहा है। पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफ.वाई.यू.पी., सी.बी.सी.एस. आदि स्कीमें भारत की शिक्षा व्यवस्था को अमेरिकी पद्धति के अनुसार ढालने का प्रयास भर थी। लेकिन मोदी सरकार इस शिक्षा नीति के ज़रिये पूरे शिक्षा तन्त्र को ही देशी-विदेशी लुटेरों के हाथों में सौंपने का रोड मैप तैयार कर चुकी है।
नयी शिक्षा नीति के प्रावधान के मुताबिक़ विश्वविद्यालयों को अनुदान देने की संस्था यूनिवर्सिटी ग्राण्ट कमीशन को ख़त्म करके उच्च शिक्षा की मॉनिटरिंग और वित्त के लिए दो नये संस्थान एचएसीआई (हेकी) और एचईएफए (हेफ़ा) बनाया गया। हेफ़ा शिक्षण संस्थानों को अनुदान नहीं बल्कि क़र्ज़ देगी। जो क़र्ज़ संस्थानों को 10 वर्ष के भीतर चुकाना होगा। इस शैक्षिक सत्र में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को अपने कुल ख़र्च का 30 फ़ीसदी हिस्सा अपने स्रोत-संसाधनों से जुटाने का लक्ष्य दिया गया है। ज़ाहिरा तौर पर यह ख़र्च फ़ीस बढ़ाकर छात्रों-युवाओं से ही वसूला जायेगा।
अगर इस पृष्ठभूमि में देखें तो फ़ीस में हो रही बेतहाशा वृद्धि कोई आकस्मिक घटना नहीं है, बल्कि लम्बे समय से इसकी पूर्वपीठिका तैयार की जा रही थी। इसके ख़िलाफ़ कोई व्यापक छात्र उभार न हो इसके लिए विश्वविद्यालयों में लगातार प्रशासनिक जकड़बन्दी मज़बूत की जा रही है। लोकतन्त्र और जनवाद की चाशनी में परोसी गयी नयी शिक्षा नीति में छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले छात्रसंघ का ज़िक्र तक नहीं है। ऊपर से बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स (बीओजी) का एक नया तन्त्र सुझाया गया है जो विश्वविद्यालय समुदाय के प्रति किसी भी रूप में जवाब देह नहीं होगा। बीओजी के पास फ़ीस पर फ़ैसला करने, उच्च शिक्षण संस्थान (एचईआई) के प्रमुख सहित नियुक्तियाँ करने और शासन के बारे में निर्णय लेने का अधिकार होगा। शासन का यह मॉडल स्वायत्तता और अकादमिक उत्कृष्टता को केन्द्रीकृत और नष्ट कर देगा। इस तरह यह दस्तावेज़ कैम्पसों के बचे-खुचे जनवादी स्पेस का भी गला घोंट देने वाला है। यह शिक्षा नीति शिक्षण-संस्थानों को शैक्षिक-प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता देने की बात करती है। लेकिन दूसरी तरफ़ प्रशासनिक केन्द्रीकरण का पुरज़ोर समर्थन भी करती है। विश्वविद्यालयों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा आयोग गठित किया जायेगा, जिसकी अध्यक्षता शिक्षा मन्त्री करेंगे, और राज्य सरकारों के संस्थानों पर भी केन्द्र का नियन्त्रण होगा। आयोग के सदस्यों का चयन भी प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाली एक कमेटी करेगी। यानी पूरे देश में केजी से लेकर पीजी तक – पूरी शिक्षा व्यवस्था पर प्रधानमन्त्री का हुक्म चलेगा।
फ़ीस में बढ़ोत्तरी तो नयी शिक्षा नीति का तत्काल दिखने वाला प्रभाव है। आने वाले समय में इसके और भी विध्वंसक प्रभाव हमारे सामने आयेंगे। इसलिए छात्रों-युवाओं को केवल फ़ीस वृद्धि के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि नयी शिक्षा नीति-2020 के ख़िलाफ़ जुझारू और व्यापक संघर्ष में उतरना होगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2022

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