फ़ासीवादी साम्प्रदायिक उन्माद और आत्महत्या करते बेरोज़गार छात्र-युवा

सम्पादकीय

साथियो! वर्तमान समय में पूरे देश में साम्प्रदायिक उन्माद की आँधी चल रही है। अभी हाल ही में विक्रम संवत नववर्ष से लेकर रामनवमी व नवरात्र के दौरान देशभर में मस्जिदों पर भगवा झण्डा फहराने, भड़काऊ भाषण देने, मुसलमान महिलाओं को बलात्कार की धमकी देने और मुसलमानों पर हमले की घटनाएँ हुईं। अजान के बहाने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा पढ़ने या बजाने के रूप में सामने आई। अब कुतुबमीनार, ज्ञानवापी जैसी ऐतिहासिक धरोहरों में मन्दिर की तलाश चल रही है। पैगम्बर मुहम्मद पर भाजपाई नेता नुपूर शर्मा की घटिया टिप्पणी और उदयपुर की घटना के बाद साम्प्रदायिक उन्माद की एक नयी लहर पैदा हुई है। न्यूज़ चैनलों पर साम्प्रदायिक ख़बरों की बाढ़ आयी हुई है। बहुत से छात्र-युवा भी इस साम्प्रदायिक उन्माद की आँधी में बह गये हैं, कुछ तटस्थ हैं क्योंकि उनको अपने ऊपर कोई आँच नहीं दिखती, जबकि कम ही सही लेकिन इंसाफ़पसन्द, प्रगतिशील छात्र-युवा इस उन्माद का डटकर प्रतिरोध कर रहे हैं।
लेकिन इस साम्प्रदायिक उन्माद के शोर में जनता के ऊपर हो रही बहुत सारी तकलीफ़ों की बारिश की तरह बेरोज़गारी की भयानक मार सहते हुए निराश, अवसादग्रस्त छात्रों-युवाओं की रिकॉर्डतोड़ आत्महत्याएँ और उनके परिवार की चीख़ें दब गयीं। मौजूदा व्यवस्था और उसके रहनुमाओं की नीतियों से निकलने वाला बेरोज़गारी का बुलडोज़र आम घरों के बेटे-बेटियों के भविष्य और सपनों को रौंदता हुआ दौड़ रहा है, चाहे वो जिस मज़हब और जाति के हों! अभी हाल ही में मोदी सरकार ने अग्निपथ योजना के ज़रिये बहुत से छात्रों-युवाओं की उम्मीदों पर बुलडोज़र चढ़ा दिया है और आगे अन्य विभागों में भी छात्रों-युवाओं की उम्मीदों पर बुलडोज़र चढ़ना तय है।
यूँ तो साम्प्रदायिक उन्माद की भेंट भी आम घरों के बेटे-बेटियाँ ही चढ़ते हैं और उनकी लाशों पर चढ़कर चुनावी मदारी वोट बटोरते हैं तथा मुट्ठी भर लुटेरों की लूट का रास्ता सुगम करते हैं। लेकिन सोचने की बात यह है कि देश के हर मज़हब, जाति, क्षेत्र आदि के आम घरों के बेटे-बेटियाँ जब बेरोज़गारी की भयानक मार झेल रहे हैं, आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं तो आख़िर बेरोज़गारी का सवाल देशव्यापी मुद्दा क्यों नहीं बन पा रहा है? कि क्या बढ़ती बेरोज़गारी और बढ़ते साम्प्रदायिक उन्माद में कोई रिश्ता है? कि साम्प्रदायिक उन्माद में बहने या तटस्थ रहने वाले छात्र-युवा जिस साम्प्रदायिक फ़ासीवादी पार्टी का झण्डा थामे हैं या उसके मूक समर्थक हैं, उनकी नीतियों के बुलडोज़र से क्या उनका भविष्य सही-सलामत है?
छात्रों-युवाओं की आत्महत्या, अवसादग्रस्तता और बेरोज़गारी की वर्तमान स्थिति
बेरोज़गारी से होने वाली मौतों का जो भी आँकड़ा मिल पा रहा है, उससे बहुत भयानक स्थिति का पता चलता है। अगर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के बड़े केन्द्रों जैसे इलाहाबाद, पटना, कोटा, जयपुर, दिल्ली आदि की बात की जाये तो यहाँ पर बेरोज़गारी के संकट से पीले पड़ चुके, बीमार, निराश छात्रों-युवाओं की एक बहुत लम्बी कतार है। आये दिन इन शहरों के लॉजों-हॉस्टलों के कमरों में पंखे से लटकी हुई छात्रों-युवाओं की लाशें मिलती हैं। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ 2019 की तुलना में 2020 में 18-45 साल की उम्र के युवाओं की आत्महत्या में 33 फ़ीसदी का इजाफ़ा हुआ है, जो कि 2018 से 2019 के बीच 4 फ़ीसदी था। इस साल केवल अप्रैल के महीने में इलाहाबाद शहर में लगभग 35 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। देश के छात्रों-युवाओं की बड़ी संख्या बेरोज़गारी के चलते भयानक हताशा-निराशा, अवसाद की शिकार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ भारत में हर 4 में से 1 युवा अवसाद का शिकार है।
पूरे देश में रोज़गार का भयंकर अकाल पड़ा हुआ है। सीएमआईई के हालिया आँकड़े बताते हैं कि भारत में रोज़गार मिलने की दर कोरोना की दो लहरों के बाद पूरी दुनिया के देशों की तुलना में बहुत कम है। भारत में सिर्फ़ 38 फ़ीसदी लोगों को ही रोज़गार मिल रहा है। हर साल 2 करोड़ नौकरी देने का झाँसा देकर सत्ता में आयी भाजपा सरकार के मौजूदा पाँच साल के कार्यकाल में 2 करोड़ 10 लाख नौकरियाँ घटी हैं। 2017-2022 के बीच मोदी के “रामराज्य” में कामगारों की संख्या 46 फ़ीसदी से घटकर 40 फ़ीसदी पर आ गयी है। अक्सर आँकड़ो की धाँधलेबाज़ी कर भाजपा ईपीएफ़ओ (कर्मचारी भविष्य निधि संगठन), ईएसआईसी (कर्मचारी राज्य बीमा निगम) और एनपीएस (नयी पेंशन योजना) से जुड़ने वाले सदस्यों की संख्या को पैदा होने वाले रोज़गार की संख्या बता देती है और इस प्रक्रिया में बहुत चालाकी से ईपीएफ़ओ, ईएसआईसी और एनपीएस से बाहर होने वाले लोगों की संख्या को छुपा देती है। फ़रवरी-2022 में ईपीएफ़ओ से जुड़ने वाले नये सदस्यों की संख्या जहाँ 8.48 लाख रही, जबकि 9.35 लाख लोग इससे बाहर हो गये। इसी तरह से ईएसआईसी और एनपीएस के तहत जुड़ने वाले नये सदस्यों की संख्या में क्रमशः 3.3 और 0.59 फ़ीसदी की कमी आयी है। 1990-91 की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी में जारी गिरावट अब भयंकर स्तर पर पहुँच चुकी है। सीएमआईई के हालिया आँकड़ों के मुताबिक़ योग्यता के बावजूद सिर्फ़ 9 फ़ीसदी महिलाओं के पास या तो काम है या काम की तलाश जारी रखे हुए हैं। विश्व बैंक द्वारा जारी एक आँकड़े के मुताबिक़ भारत में महिला श्रमबल की भागीदारी जून-2020 में 20.3 फ़ीसदी थी। ग़ौरतलब है कि यह आँकड़ा 1990 में 30.3 फ़ीसदी था। बेरोज़गारी का आलम यह है कि काम करने योग्य कुल आबादी में से 45 करोड़ से ज़्यादा लोग अब काम की तलाश भी छोड़ चुके हैं। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) के जॉब पोर्टल पर नौकरी चाहने वालों की संख्या में 86 फ़ीसदी की कमी आयी है, वहीं पदों की संख्या में 71 फ़ीसदी की कमी आयी है। पिछले दिनों एमएसएमई के टूल रूम्स और तकनीकी संस्थानों से 4,77,083 युवा पास होकर निकले हैं लेकिन पोर्टल पर केवल 133 रिक्तियाँ उपलब्ध हैं।
औद्योगिक नौकरियों में मार्च 2022 में 76 लाख की कमी आयी है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में 41 लाख नौकरियाँ, निर्माण क्षेत्र में 29 लाख नौकरियाँ, खानों-खदानों में 11 लाख नौकरियाँ कम हुई हैं। कृषि क्षेत्र में भी रोज़़गार की स्थिति बहुत बुरी है। स्टेटिस्टा द्वारा दिये गये आँकड़ों के अनुसार, भारत में साल 2009 से 2019 तक आर्थिक क्षेत्रों में कार्यबल का वितरण देखने से साफ़ पता चलता है कि इन 10 सालों में कृषि क्षेत्र में कार्यबल 52.5 से घटकर 42.6 प्रतिशत रह गया था। कृषि के क्षेत्र में प्रच्छन्न बेरोज़गारी की स्थिति सबसे भयानक है जहाँ एक सर्वे के मुताबिक़ कृषि कार्यो में लगी आधी से ज़्यादा आबादी आज प्रच्छन्न बेरोज़गारी की मार झेल रही है।
बेरोज़गारी का कारण मौज़ूदा पूँजीवादी व्यवस्था है!
बेरोज़गारी पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक गति से पैदा होती है। इसलिए बेरोज़गारी अन्ततः पूँजीवादी व्यवस्था के ख़त्म होने के साथ ही ख़त्म हो सकती है। वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था में उद्योग का सेक्टर हो या फिर कृषि का, सभी जगह मुट्ठी भर पूँजीपतियों का नियन्त्रण होता है। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन के सभी साधन पूँजीपतियों के हाथ में होते हैं। पूँजीपति वर्ग उत्पादन की प्रक्रिया में केवल और केवल मुनाफ़े के लिए सक्रिय रहता है। पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए जहाँ एक ओर कच्चे माल और मशीनों या नयी तकनीक पर निवेश बढ़ाता रहता है, वहीं दूसरी तरफ़ दीर्घकाल में श्रमशक्ति के सन्दर्भ में निवेश को सापेक्षिक तौर पर घटाने की प्रवृत्ति होती है।। चूंकि नया मूल्य कच्चा माल और मशीनें नहीं बल्कि श्रमशक्ति ही पैदा कर सकती है, इसलिए श्रमशक्ति के सन्दर्भ में निवेश घटाने की प्रवृत्ति दीर्घकाल में मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट के नतीज़े के रूप में सामने आती है। पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर में कमी का संकट अपने लक्षण के तौर पर अल्पउपभोग की परिघटना को भी जन्म देता है और सामान्य अति उत्पादन की परिघटना को भी। पूँजीवादी उत्पादन के फैलाव के साथ बड़ी संख्या में छोटे माल उत्पादक और छोटे पूँजीपति दिवालिया हो जाते हैं और अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। छोटे व्यापारी, छोटे दुकानदार आदि को पूँजी लगातार उजाड़ती रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद का विकास बड़ी संख्या में किसानों को भी कंगाल बना देता है, जो आजीविका कमाने के लिए शहरों में उमड़ पड़ते हैं। इन सब कारणों से श्रमशक्ति की आपूर्ति बढ़ती रहती है। तेज़ी के दौर में, यानी पूँजी निवेश और पूँजी संचय के बढ़ने के दौर में आम तौर पर श्रमशक्ति की आपूर्ति में बढ़ोत्तरी को नया पूँजी निवेश यानी विस्तारित पुनरुत्पादन आंशिक या पूर्ण रूप से सोख सकता है, लेकिन ठहराव या संकट के दौर में, श्रमिकों की यह आरक्षित सेना बढ़ती जाती है। यह एक ओर बेरोज़गारी को बढ़ाती है, तो वहीं दूसरी ओर रोज़गारशुदा श्रमिकों की औसत मज़दूरी को घटाती है। मौजूदा समय में निजी मुनाफ़े पर केन्द्रित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक दीर्घकालिक संकट का शिकार है और इस दौर में बेरोज़गारी की परिघटना भी अभूतपूर्व रूप से सामने आ रही है। लेकिन तेज़ी के दौर में भी पूँजीवाद को बेरोज़गारों की एक रिज़र्व फौज़ चाहिए होती है, क्योंेकि यह एक ओर मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता को नियन्त्रित करने का काम करती है, वहीं पूँजी निवेश के विस्तार के लिए श्रमशक्ति की भावी आपूर्ति को भी सुनिश्चित करती है।
वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में भारत सहित दुनिया के किसी भी देश के पूँजीपति वर्ग के लिए मुनाफ़े की औसत दर में कमी को रोक पाना सम्भव नहीं रह गया है। मुनाफ़े की औसत दर में कमी से बिलबिलाया पूँजीपति वर्ग येन-केन-प्रकारेण अपने मुनाफ़े की दर को बरकरार रखने के लिए सरकार पर दबाव बनाता है। अब चूँकि किसी भी पूँजीवादी देश में सरकार पूँजीपतियों की प्रबन्धक कमेटी के रूप में ही काम करती है, इसलिए वर्तमान समय में सभी पूँजीवादी देशों की सरकारें यह काम जनता को मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं (जो भी कमोबेश उसे हासिल थीं) में कटौती कर, बेल आउट पैकेज, सस्ती दर पर कर्ज़ मुहैया कर या उनके कर्ज़ों को बट्टे खाते में डालकर या जनता के ख़ून-पसीने से खड़े सरकारी संस्थानों को पूँजीपतियों को औने-पौने दामों में बेच कर, मज़दूरों के पक्ष में बने थोड़े-बहुत श्रम क़ानूनों को भी ख़त्म करके कर रही है।
हमारे देश में आज़ादी के बाद पूँजीपति वर्ग ने पूँजीवादी विकास का एक विशिष्ट पथ अपनाया। इस पूँजीवादी मॉडल को पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ का नाम दिया गया। इस पूँजीवादी मॉडल को ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ का नाम इसलिए दिया गया क्योंकि पूँजीपति वर्ग की आर्थिक क्षमता कम होने के चलते तुरन्त मुनाफ़ा न देने वाले आधारभूत ढाँचे और बड़े उद्योगों के निर्माण व संचालन को सरकार ने अपने हाथ में रखा, जबकि तुरन्त मुनाफ़ा देने वाले कम लागत वाले उद्योगों को निजी हाथ में। लेकिन जैसे-जैसे पूँजीपति वर्ग की आर्थिक क्षमता बढ़ी वैसे-वैसे पूँजीपति वर्ग ने सरकारी संस्थानों को निजी हाथों में बेचने के लिए सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया। इसका नतीज़ा अन्ततः 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के रूप में सामने आया। जिस पूँजीवादी पार्टी कांग्रेस ने पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों के मद्देनज़र सार्वजनिक क्षेत्र का ढाँचा खड़ा किया था उसी कांग्रेस ने पूँजीपति वर्ग की बदलती ज़रूरतों के मुताबिक़ सार्वजनिक क्षेत्रों को निजी हाथों में सौंपने की भी शुरुआत की। लेकिन उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करने और उसके परिणामों से निपटने के लिए पूँजीपति वर्ग को एक ऐसी सरकार की ज़रूरत थी जो कठोरता से इन नीतियों को लागू करे, जन प्रतिरोध का दमन करे और लोगों को एकजुट होने से रोकने के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर सके। कांग्रेस पूँजीपति वर्ग के पक्ष में जन प्रतिरोध का दमन तो शुरू से ही कर रही थी, मन्दिर का ताला खोलकर सॉफ़्ट केसरिया नीति भी अपनायी। लेकिन लम्बे समय से शासन कर रही कांग्रेस के ख़िलाफ़ जन असन्तोष और सुस्पष्ट फ़ासीवादी विचारधारा तथा कैडर आधारित ढाँचा न होने के चलते कांग्रेस नयी आर्थिक नीतियों के परिणामों से पूँजीवादी दायरे में निपटने में सक्षम नहीं थी। नतीजा 1925 से ही भारतीय राजनीति में मौजूद संघ परिवार और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा (पहले जनसंघ) 1990-91 के दौर की बदली हुई परिस्थितियों में पूँजीपति वर्ग की पहली प्राथमिकता बनने लगी। लोगों की बढ़ती समस्याओं, पूँजी के गहराते संकट के दौर में राम मन्दिर आन्दोलन और गुजरात दंगे के रूप में संघ परिवार और भाजपा अपनी राजनीतिक उपयोगिता को साबित कर चुकी थी। आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद बढ़ती बेरोज़गारी-मँहगाई-भुखमरी से त्रस्त जनता के असन्तोष और आर्थिक संकट से निपटने के लिए पूँजीपति वर्ग ने मोदी की छवि गढ़ने, भाजपा को सत्ता तक पहुँचाने के लिए अपनी तिजोरी का मुँह खोल दिया। जिसका नतीजा हमारे सामने है। वर्तमान समय में पूरा देश फ़ासीवाद के शिकंजे में जकड़ा हुआ है।
साम्प्रदायिक उन्माद की राजनीति बेरोज़गारी, मँहगाई, भुखमरी से ध्यान हटाने का हथकण्डा है!
मोदी के नेतृत्व में फ़ासीवादी भाजपा के सत्तारोहण के बाद पूँजीपतियों की ज़रूरतों को पूरी करने में भाजपा ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। फ़ासीवादी मोदी सरकार के नेतृत्व में पूँजीवाद का बुलडोज़र आज देश के हर कोने में, हर क्षेत्र में आम मेहनतकश आबादी को रौंद रहा है। सरकारी संस्थानों के निजीकरण के चलते सरकारी नौकरियों में बहुत कमी आ चुकी है। अगर पहले ‘एक अनार सौ बीमार’ की कहावत लागू होती थी तो आज हालत है ‘एक अनार एक हज़ार बीमार’! शिक्षा के क्षेत्र में नयी शिक्षा नीति-2020 से छात्रों-युवाओं की स्थिति और बदतर होगी। संक्षेप में, नयी शिक्षा नीति शिक्षा को पूरी तरह देशी-विदेशी लुटेरों की लूट के अड्डे में बदलने और शिक्षा व्यवस्था के भगवाकरण की नीति है। इसके अमल के बाद आम घरों के बेटे-बेटियों के लिए उच्च शिक्षा और भी दूर की कौड़ी बन जायेगी। सरकारी संस्थानों के अलावा प्राइवेट सेक्टर में भी नौकरियाँ बहुत कम हुई हैं; दूसरे, प्राइवेट सेक्टर में बहुत कम वेतन-ज़्यादा काम और सामाजिक सुरक्षा न होने के चलते हालत बहुत ख़राब है। पूँजीपतियों को मज़दूरों के मेहनत की अन्धाधुन्ध लूट की छूट के लिए पुराने श्रम क़ानूनों को चार लेबर कोड में बदल दिया गया है। कृषि क्षेत्र में पूँजीवादी विकास का नतीजा गाँवों में एक विशाल ग्रामीण मज़दूर वर्ग की उपस्थिति और रोज़ी-रोटी की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों की तरफ़ पलायन है। ग्रामीण मज़दूर और छोटे-सीमान्त किसानों की स्थिति बहुत ख़राब है। मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ का वायदा दरअसल बड़े पूँजीपतियों/कॉर्पोरेट घरानों के लिए अच्छे दिन का वायदा था। जिसे मोदी सरकार ने नोटबन्दी, जीएसटी, बेलआउट पैकेज, बेहद कम दर पर क़र्ज़ तथा पुराने क़र्ज़ों को बट्टे खाते में डालने, सरकारी संस्थानों को बहुत ही कम क़ीमत पर पूँजीपतियों को सौंपने, श्रम क़ानूनों को पूँजीपतियों के पक्ष में बदलने, शिक्षा-चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाओं वाले क्षेत्रों को पूँजीपतियों की लूट के खुले चरागाह में तब्दील करने आदि के ज़रिये अंजाम दिया है।
मोदी सरकार ने तो कोरोना काल में भी (जबकि लाखों लोग दवा-अस्पताल-ऑक्सीज़न और रोज़ी–रोटी के अभाव में दम तोड़ रहे थे।) बड़े पूँजीपतियों/कॉर्पोरेट घरानों की ख़ूब तन-मन-धन से सेवा की। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के मुताबिक़ कोरोना की अवधि के दौरान ही भारत के अरबपतियों की सम्पत्ति दो गुनी हो गयी।
इस पूरे विश्लेषण के बाद यह आसानी से समझा जा सकता है कि बेरोज़गारी और बेरोज़गारी से आत्महत्या करते छात्रों-युवाओं और पूरे देश में फैलाये जा रहे साम्प्रदायिक उन्माद के बीच क्या रिश्ता है? इससे समझा जा सकता है कि आम जनता की तबाही-बर्बादी की क़ीमत पर पूँजीपति वर्ग की तिजोरी भरने वाली भाजपा व संघ देश को क्यों साम्प्रदायिक उन्माद की आग में झोंक रहा है?
आत्महत्या नहीं, साम्प्रदायिक उन्माद नहीं, सबको रोज़गार के लिए देशव्यापी संघर्ष और इंक़लाब का रास्ता चुनो!
ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है कि छात्रों-युवाओं की बढ़ती बेरोज़गारी और उससे होने वाली आत्महत्याओं के लिए मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था और फ़ासीवादी भाजपा सरकार की नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं और इसी से छात्रों-युवाओं का ध्यान हटाने और उन्हें आपस में लड़कर मरने-कटने के लिए साम्प्रदायिक उन्माद भड़काया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में छात्रों-युवाओं को क्या करना चाहिए?
सबसे पहले तो छात्रों-युवाओं को भाजपा और संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे साम्प्रदायिक उन्माद की राजनीति को समझना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि भाजपा और संघ परिवार भले ही मुस्लिम आबादी को निशाना बनाते हुए अपने को हिन्दुओं का मसीहा बताते हैं या ‘राष्ट्र’ के विकास का शोर मचाते हैं। लेकिन फ़ासीवादी ताक़तों का असली निशाना आम आबादी और आम घरों के बेटे-बेटियाँ ही हैं और ‘राष्ट्र’ के विकास के ढोंग के नाम पर असल में ये मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तिजोरी भरते हैं। प्रगतिशील, इंसाफ़पसन्द छात्रों-युवाओं को व्यापक हिन्दू आबादी के बीच भाजपा और संघ परिवार द्वारा स्थापित किये गये इस झूठे ‘नैरेटिव’ को ध्वस्त करना होगा कि केवल मुस्लिम या “राष्ट्र” के विकास में बाधा बनने वाले ही फ़ासिस्टों के निशाने पर हैं। हमें इस सच को स्थापित करना होगा कि भाजपा और संघ परिवार का निशाना वो सभी हैं (हर जाति-धर्म के) जो इनके द्वारा मुट्ठी भर पूँजीपतियों की सेवा में कोई बाधा खड़ी करते हैं। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से इसके बहुतेरे उदाहरण भरे पड़े हैं। अभी हाल ही में सेना की भर्ती की तैयारी में लगे युवाओं की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए भाजपा ने 4 सालाना ठेके की “राष्ट्रसेवा”, अग्निपथ योजना लागू कर दी। इस योजना के विरोध में छात्रों की आत्महत्या और गहरे असन्तोष का भाजपा पर कोई असर न पड़ा बल्कि आन्दोलनकारी छात्रों-युवाओं का बर्बर दमन किया गया। आगे इस तरह की योजना भाजपा सरकार सभी विभागों में डण्डे के ज़ोर पर लागू करेगी। सत्ता का बुलडोज़र केवल मुस्लिमों पर नहीं चल रहा! अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते जब फ़रीदाबाद के पास खोरी में लाखों ग़रीबों के घर ढहा दिये गये। सीएए/एनआरसी के मामले में भी यह झूठ फैलाया गया कि इसमें केवल मुस्लिम और बाहर के घुसपैठिये फँसेंगे। लेकिन असल में सीएए/एनआरसी की साज़िश में वो सभी शिकार बनेंगे जो ग़रीब मेहनतकश हैं। भाजपा ने सत्ता में आने के बाद जंगलों की खनिज सम्पदा को पूँजीपतियों पर लुटाने के लिए आदिवासियों पर पहले से होने वाले ज़ुल्मों को तेज़ किया है। किसी भी जाति-धर्म के मज़दूरों की हड्डी से मज्जा तक निकाल लेने के लिए पूँजीपतियों के हित में पुराने श्रम क़ानूनों को बदल कर चार लेबर कोड लाया गया है। इसी तरह भाजपा के पिछले 10 वर्षों के शासनकाल में दलितों के उत्पीड़न के मामलों में 66 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। जेलों में केवल मुस्लिम कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि वो सभी बन्द हैं या बन्द किये जा रहे हैं जिन्होंने भाजपा के फ़ासीवादी राज के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी है।
दूसरे, हमें भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफा़क़उल्ला खां जैसे क्रान्तिकारियों से प्रेरणा लेते हुए पर्चों, पुस्तिकाओं, गोष्ठियों, गीतों, नुक्कड़ नाटकों, पदयात्राओं, नुक्कड़ सभाओं आदि के ज़रिये सभी धर्मों के आम छात्रों-युवाओं और मेहनतकशों की एकता पर बल देना होगा। सच्ची धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को आम जनता में गहराई से पैठाना होगा। साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की साज़िश का त्वरित पर्दाफाश करने के लिए गली-मोहल्लों में युवाओं की टीम गठित करनी होगी। साम्प्रदायिक ज़हर फ़ैलाने वाले अख़बारों-चैनलों के व्यापक बहिष्कार अभियान संगठित करने होंगे। हिटलर-मुसोलिनी जैसे फ़ासिस्टों और उनसे सीख लेकर बने संघ परिवार के इतिहास और इनके कारनामों को जन-जन तक पहुँचाना होगा।
तीसरे, बढ़ती फ़ीसों और घटते रोज़़गार पर छात्रों-युवाओं को देश व्यापी आन्दोलन संगठित करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। क्योंकि व्यापकता और निरन्तरता में होने वाले आन्दोलन भाजपा केे जनविरोधी पूँजीपरस्त चेहरे को बेनक़ाब करते हैं। छात्रों-युवाओं के आन्दोलन को पूँजीवाद विरोधी संघर्ष से जोड़ना होगा और अतीत से सबक लेते हुए इसे कांग्रेस, सपा, बसपा जैसी पूँजीवादी पार्टियों और जय प्रकाश नारायण, अण्णा हज़ारे जैसे पूँजीवादी व्यवस्था के दूरदर्शी पहरेदारों द्वारा हड़पने से बचाना होगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2022

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