‘दिशा’ के फिल्म क्लब ‘मोन्ताज’ द्वारा फिल्म शो का आयोजन
दिशा छात्र संगठन के फिल्म क्लब मोन्ताज ने दिल्ली विश्वविद्यालय, उत्तरी परिसर में स्टूडेंट एक्टिविटी सेंटर में 2006–07 के प्रथम अकादमिक सत्र में वैकल्पिक प्रगतिशील संस्कृति को छात्रों के बीच ले जाने के अपने मुहिम के तहत सफलतापूर्वक अपने प्रथम स्थापना फिल्म शो का आयोजन 13 सितम्बर 06 को किया। अवसर था हमारे अमर शहीद यतीन्द्रनाथ दास का 77 वाँ शहादत दिवस जिसे ‘राजनीतिक अधिकार दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। इसी दिन ठीक 77 साल पहले अर्थात 13 सितम्बर सन् 1931 को यतीन्द्रनाथ दास 63 दिन लंबी अनवरत भूख हड़ताल के बाद शहीद हो गये। आज जब पूरे देश में तबाही बर्बादी मची हुई है, शहीदों के सपने अभी भी अधूरे हैं, लगातार उन्हें और उनके विचारों को भुलाया जा रहा है तब एक बार फिर इंसानियत की रूह में हरक़त पैदा करने के लिए नये प्रयास करने की जरूरत है और इन प्रयासों का दायरा एकदम फैला देने की जरूरत है। ‘दिशा’ ने अमर शहीदों को याद करते हुए उनके क्रान्तिकारी विरासत को जन–जन तक पहुँचाने के अपने संकल्प और उनके वैचारिक विरासत से मेल खाते वैकल्पिक रचनात्मक संस्कृति को विश्वविद्यालय, कॉलेजों के छात्रों के बीच ले जाने व उन्हें स्थापित करने के अपने लक्ष्य की ओर एक बड़ा व महत्वपूर्ण प्रयास किया।
मोन्ताज रूस के बहुचर्चित प्रसिद्ध प्रयोगधर्मी फिल्मकार सेर्गेई मिखाइलोविच आइजे़ंस्ताइन की फिल्म बनाने की एक ख़ास शैली का नाम है, जिसमें ध्वनि, प्रतीकों, बिम्बों आदि के माध्यम से फिल्म में अपनी पूरी बात कही जाती है। ‘राजनीतिक अधिकार दिवस’ के अवसर पर 13 सितम्बर 06 को ‘मोन्ताज’ ने दो ऐतिहासिक फिल्मों का प्रदर्शन किया। पहली फिल्म रूसी क्रान्ति पर आधारित डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘वे दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ थी। इसमें रूस में अक्टूबर की क्रान्ति के दौर में बदलते सामाजिक–राजनीतिक परिदृश्यों को बड़े ही खूबसूरत अंदाज में दिखाया गया है। इसके कुछ ऐतिहासिक दृश्यों को देखकर छात्र अभिभूत हो उठे और भविष्य का स्वप्न देखने वालों को नई उ़र्जा का एहसास हुआ। दूसरी फिल्म ‘अलेक्जांद्र नेव्स्की’ थी। यह 13 वीं शताब्दी में हो रहे किसानों के संघर्षां पर आधारित थी। इसमें बताया गया कि कैसे संघर्षां के दौर में लोगों के एकजुटता स्थापित होती है, उनके बीच से नेतृत्व उभर कर आता है कैसे सहज मानवीय भावनायें संघर्षों के दौर में भी अभिव्यक्ति होती है। फिल्में लोगों में सामाजिक–राजनीतिक रूप से जागरूकता लाने का एक बेहतरीन और प्रभावी माध्यम होती हैं। लेकिन जिनके पास आर्थिक दृष्टि से फिल्में बनाने की क्षमता है वो ऐसी निम्न स्तरीय, घटिया फिल्में लोगों के बीच परोस रहे हैं कि उनकी आलोचना करना भी मुश्किल हो जाता है। ये फिल्में लगातार ऐसी संस्कृति, मूल्य–मान्यताओं का प्रचार–प्रसार लोगों के बीच कर रही हैं जो उन्हें भौंडा–भौतिकवादी, व्यक्तिवादी, असंवेदनशील बनाती है और यही संस्कृति विश्वविद्यालय, कॉलेजों में हावी है। ऐसे वक़्त में ‘दिशा छात्र संगठन’ ने ‘मोन्ताज’ फिल्म क्लब के माध्यम से समानान्तर रचनात्मक संस्कृति छात्रों के बीच ले जाने का संकल्प लेते हुए यह नई शुरुआत की है। और पहले फिल्म शो में ही छात्रों बड़ी संख्या में शामिल होना और फिल्म के बाद लंबी चर्चाओं का छिड़ जाना इस बात का द्योतक है कि छात्र भी ऐसे किसी मंच की कमी महसूस करते हैं बल्कि यूँ कहा जाये उन्हें भी लंबे वक़्त से ऐसे प्रयासों का इंतजार था जो विश्वविद्यालय में छाये हुए सांस्कृतिक जड़ता और ठहराव के माहौल को तोड़े तथा इस पतनशील पूँजीवादी संस्कृति का विकल्प हो। सभी उपस्थित छात्रों ने इस तरह के फिल्म शो लगातार आयोजित करने की अपील की। और दिशा के सदस्यों ने इसे सहर्ष स्वीकार किया।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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