सरकारी शिक्षा पर चौतरफ़ा संकट के बादल

प्रवीन

हर किसी के जीवन में शिक्षा की एक अहम भूमिका होती है। जीवन को उच्चतम धरातल पर ले जाने में शिक्षा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। शिक्षा के बिना हर कोई अपने आप को अधूरा-सा महसूस करता है। वैसे तो बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर होता है लेकिन अक्सर यह देखा जाता है कि उसको अक्षर ज्ञान किसी स्कूल में जाने से ही प्राप्त होता है। स्कूल किसी बच्चे को केवल अक्षर ज्ञान ही नहीं देता बल्कि बहुत सारी दूसरी चीज़ों से भी ओत-प्रोत करता है जो उसके आने वाले जीवन में बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। इसलिए किसी भी बच्चे को स्कूली जीवन जीना आवश्यक ही नहीं बल्कि बेहद ज़रूरी माना जाता है।
लेकिन हमारे देश की स्कूली शिक्षा का हाल लगभग 73 साल की “आज़ादी” के बाद बहुत बुरा हो चुका है। पूरे देश की बात की जाए तो बच्चों की एक बहुत बड़ी आबादी (ख़ास कर मज़दूरों के बच्चों की) स्कूली शिक्षा हासिल करनी तो दूर स्कूल में प्रवेश भी नहीं कर पाती। क्योंकि बच्चे स्कूल तभी जा सकते हैं जब उनके माता-पिता के पास रहने के लिए कोई स्थाई घर होगा। लेकिन भारत सरकार के ही एक आँकडे के अनुसार देश की लगभग 30 करोड़ आबादी या तो फुटपाथ पर रहती है या फिर झुग्गी-झोंपड़ियों में रहती है। अब आप ख़ुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस प्रकार से रहने वाले लोग अपने बच्चों को किस तरह स्कूल भेज पाते होंगे। देखा जाए तो जो लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजते भी हैं उनमे से भी बहुत बड़ी संख्या में घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण अपने बच्चों को 12वीं से पहले ही स्कूल से हटा कर काम की तलाश में कहीं भेज देते हैं ताकि कैसे भी करके घर-परिवार का गुज़ारा चल सके। आज ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में मज़दूर व दलित परिवारों के बच्चे ही पढ़ने जाते हैं। आँकड़ों से चलें तो लगभग दलित आबादी के 92 प्रतिशत बच्चे 12वीं से पहले ही स्कूल से बाहर हो जाते हैं। उनके स्कूल से बाहर होने का कारण पढ़ाई में मन लगना नहीं बल्कि घर का गुज़ारा करने के लिए कहीं काम-धंधे की तलाश में जाना होता है। लेकिन सबसे बड़ी दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इस आबादी को दिन-प्रतिदिन सरकारी स्कूली शिक्षा की पहुँच से भी दूर किया जा रहा है।
हक़ीक़त यह है कि 1991 में लागू उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के बाद से प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा देने के लिए सत्ता में बैठी हर सरकार ने सरकारी स्कूलों को सोची-समझी साज़िश के तहत बरबाद करने का काम किया है। हम देख सकते है कि प्राइवेट स्कूलों की मन चाही लूट का हर प्रकार की आबादी शिकार है। स्कूलों के मामले में यह कहावत कितनी सटीक बैठती है कि “आगे कुआँ पीछे खाई, जनता की दोनों ओर मुसीबत आई” आप ख़ुद ही फ़ैसला कर सकते हैं। सरकारी स्कूलों के ढांचे को इस बात से भी जांचा परखा जा सकता है कि 2016 की संसद की और 11 जनवरी, 2019 की जनसत्ता की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में क़रीब एक लाख से ज्यादा सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां केवल एक ही टीचर स्कूल चला रहा है। जिसमें पहले नंबर पर मध्य प्रदेश में ऐसे स्कूलों की संख्या 17,874 है और उत्तर प्रदेश 17,602 संख्या के साथ दूसरे नंबर पर है। आज भारत में सरकारी स्कूलों के मुकाबले निजी स्कूलों की संख्या 450 गुना तेजी से बढ़ रही है। प्राइवेट स्कूलों की लूट का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कोरोना काल के दौरान जब सभी स्कूल बंद हैं तब भी यह बिना कोई तनख़्वाह दिए अध्यापकों से काम करवाके ऑनलाइन क्लासेज़ के नाम पर जनता से मन मर्ज़ी की फ़ीस वसूलने में लगे हुए हैं। तो शिक्षा के नाम पर मुनाफ़ा कूटने का धंधा नहीं कहा जाए तो और क्या कहा जाए।

हरियाणा में गठबंधन सरकार के आने से सरकारी शिक्षा पर संकट के बादल पहले से कहीं और गहरे

वैसे तो कांग्रेस सरकार के समय भी सरकारी स्कूलों की हालत ख़स्ता थी। लेकिन पिछले 5 साल के कार्यकाल में भाजपा ने सरकारी स्कूलों की हालत को सुधारने की बजाए और गहरे दलदल में धँसाने का काम ही किया है। कुछ आँकड़ों से समझा जा सकता है कि अपने पिछले कार्यकाल में भाजपा ने स्कूलों के मामले में क्या गुल खिलाए हैं।

सरकारी शिक्षा पर चौतरफ़ा संकट के बादल

…”बेटी-बचाओ बेटी-पढ़ाओ” की नौटंकी करने वाली खट्टर सरकार के कार्यकाल का आँकड़े बताते हैं कि उन्होंने अपने कार्यकाल में लगभग 208 सरकारी प्राथमिक स्कूल बंद किए हैं। 20 अक्टूबर 2018 की जागरण की एक रिपोर्ट के मुताबिक खट्टर सरकार द्वारा 53 स्कूलों को और बंद करने का फैसला लिया गया था। दूसरी तरफ़ इन सब के विपरीत भाजपा ने अपने ही कार्यकाल के दौरान 974 नए मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों को खुलवाया। और तो और सबसे बड़े शर्म की बात तो यह है कि अपने पिछले कार्यकाल में खट्टर सरकार प्रदेश के सरकारी स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों से स्कूलों में पढ़ाई करवाने की बजाए मेलों में प्रसाद बंटवाने तक का काम करवाती आई है।
खट्टर व दुष्यंत की गठबंधन सरकार पिछली नीतियों पर चलते हुए हरियाणा प्रदेश के सरकारी स्कूलों को लूट का अड्डा बनाने में तुली हुई है ताकि आने वाले समय में इनको आसानी से निजी हाथों में सौंपा जा सके। “हरियाणा प्रदेश के शिक्षा मंत्री कंवर पाल गुर्जर की माने तो हरियाणा सरकार में फिलहाल 23 अंग्रेजी मीडियम सरकारी मॉडल संस्कृति सीनियर सेकंडरी स्कूल चल रहे हैं, जबकि 108 और ऐसे स्कूल खोले जाएंगे। इन सभी 131 स्कूलों को सीबीएसई से जोड़ा जाएगा। इसी तरह 1000 मॉडल संस्कृति प्राइमरी स्कूल खोले जाएंगे।” आपको स्कूलों के नाम से ही ऐसा प्रतीत तो नहीं हो रहा कि शिक्षा के भगवाकरण की तैयारी ज़ोरों पर शुरू हो चुकी है। आपकी जानकारी के लिए बता देते हैं कि इन स्कूलों में 1 से 5वीं कक्षा के छात्रों से 500 रुपए और 6वीं से 12 वीं तक की कक्षाओं के लिए 1000 रुपए प्रवेश शुल्क लिया जाएगा। वहीं कक्षा 1 से 3 के छात्रों से 200 रुपए, कक्षा 4 और 5वीं के छात्रों से 250 रुपए, कक्षा 6 से 8 वीं के छात्रों से 300 रुपए, कक्षा 9वीं और 10वीं के छात्रों से 400 रुपए और कक्षा 11वीं और 12वीं के छात्रों से 500 रुपए तक का मासिक शुल्क लिया जाएगा। इस प्रकार से शिक्षा के नाम पर छात्रों से प्रवेश शुल्क व मासिक शुल्क वसूलना कितना उचित माना जा सकता है। क्या सरकार का इस प्रकार का क़दम शिक्षा को बिकाऊ माल में तब्दील करना नहीं कहा जाएगा? एक बहुत बड़ी आबादी जो अपना पेट भी बड़ी मुश्किल से भर पाती है क्या वह अब अपने बच्चों को इन स्कूलों में दाख़िला दिलवा पाएगी? जिस आबादी की पहुँच प्राइवेट स्कूलों तक नहीं थी वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेज देती थी लेकिन यह सब देखते हुए ऐसा लगता है कि आने वाले समय में अब उनकी पहुँच सरकारी स्कूलों तक भी नहीं होगी। वैसे तो संविधान हमें बहुत सीमित अधिकार देता है लेकिन आज उन सीमित अधिकारों को भी ताक पर रख कर हरियाणा की गठबंधन सरकार प्रदेश की मेहनतकश अवाम से शिक्षा का अधिकार भी छिनने जा रही है। यह बात शीशे की तरह साफ़ है कि हरियाणा सरकार का सोनीपत में 56 स्कूलों को गोद देने का निर्णय हो या चार हज़ार प्ले स्कूलों को चलाने के लिए प्रथम शिक्षा फ़ाउंडेशन एनजीओ के साथ समझौता हो यह सब निजीकरण की दिशा में बढ़ा हुआ एक क़दम ही है। अगर हम हरियाणा के सरकारी स्कूलों की ज़मीनी सच्चाई जाने तो वो यह है कि हरियाणा प्रदेश में 3500 सरकारी स्कूल ऐसे हैं जो बिना मुखिया के चल रहे हैं। इस समय हरियाणा के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के कुल 1,28,405 पदों में से 44,962 पद रिक्त हैं। जिनको सत्ता में आने वाली कोई भी सरकार भरने का नाम तक नहीं लेती। अगर सरकार को सरकारी स्कूलों की इतनी ही चिंता होती तो अब तक स्कूलों में शिक्षकों के रिक्त पदों को कब का भर दिया जाता और किसी भी स्कूल में शिक्षक व मुखिया की कोई कमी नहीं होती। लेकिन यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि हरियाणा सरकार की सरकारी स्कूलों को लेकर कुछ और ही मंशा है जो आने वाले समय में आइने की तरह बिलकुल साफ़ हो जाएगी।

शिक्षा व्यवस्था के ढाँचे को सही से लागू करवाने के लिए जन पहलकदमी की ज़रूरत

साथियों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज सरकारी शिक्षा पर संकट के बादल पहले से कहीं और गहरे हो गये हैं। जिनको हटाना अपने और अपने बच्चों के भविष्य के लिए बेहद ज़रूरी है। ताकि हम आने वाले समय में अपने बच्चों को शिक्षा हासिल करवा के एक अच्छा नागरिक बनता देख सकें। हमें इस बात का पता होना चाहिए कि जनता की एकजुटता वह ताकत होती है जो सत्ता में बैठी किसी भी सरकार को झुकाने का दम रखती है। ऐसे में जो शिक्षा व्यवस्था एक इंसान को असल में इन्सान बनाने का काम करती है। उसे बचाने के लिए देश की मेहनतकश अवाम को आगे आने की ज़रूरत है। अगर आज हम सरकारी स्कूलों को बचाने का प्रयास नहीं करेंगे तो आने वाला भविष्य हमारे और हमारे बच्चों के लिए बेहद खतरनाक होगा। क्योंकि जब तक हमारे बच्चों को अच्छी शिक्षा ही नहीं मिल पाएगी तब तक हम कैसे कह सकते हैं कि वह अपने भविष्य को सुनिश्चित कर पाएंगे। आज जब देश मे हमारे शहीदों के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने की ज़रूरत है और उनका सपना पूरा करने के लिए आगे आने की ज़रूरत है तो ऐसे में बिना शिक्षा हासिल किए वह इस काम को कैसे अंजाम दे पाएंगे। यानी वह समाज बदलाव की लड़ाई सही तरीके से कैसे आगे बढ़ा पाएंगे। आज हमें शिक्षा के पहलू को हर दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है। इसलिए पूरे देश मे एक समान शिक्षा व्यवस्था लागू करवाने के लिए जन एकजुटता के साथ सत्ता में बैठी किसी भी सरकार पर दबाव बनाने की ज़रूरत है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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