शीषर्कविहीन कविता
बेबी
भागते, दौड़ते,
चमचमाते महानगर की
तलहटी में
बहता है काला जल
खलबल…खलबल…
काले जल के बहाव के
तट पर
है जीवन का बीहड़-
झँझकता, ठहकता,
ठिठकता, लहकता
धँसने की चुनौती देता बार-बार
वहीं एक किनारे उगे हैं
हरी कंटीली झाड़ियाँ और ‘भटकटैया’
चमकते हैं असंख्य जुगनू।
एक दबी हुई चिंगारी
हवा पा जाती है
सुलग उठता है चूल्हा।
चाँद के स्वागत में
बजने लगती हैं
थालियाँ, छिपलियाँ,
कटोरियाँ।
पीठ पर लादे हुए दिन
को झाड़ती, फटकारती,
बिछाती है
और
घुटती, कसमसाती
रातें ओढ़ के सोने की
तैयारियों में लग जाती है-
ज़िन्दगी
ठीक आधी रात को
चिहुंक के रो उठता है
एक बच्चा
और सपनों के
ताज़ा खून से
सने हाथों के निशान
मिलते हैं
होर्डिंग्स पर
टंगे हुए-
जहाँ एक भयानक रूप से
सलीकेदार
और कड़क कलफ़ वाला
लाख टके का कुर्ता
आदमी के मुँह पर
थूकता है…
बर्बरता
हमेशा बूटों की धमक
में ही नहीं होती
उसके लिये
तितली कट मूछें
भी ज़रूरी नहीं हमेशा-
बर्बरता
बहुत ही मामूली लगने वाली चीज़ों के ज़रिये
फैला सकती है अपने खूनी पंजे
मसलन
चाय की एक प्याली या
बहुत पुराना
बाबा का खड़ाऊँ
या
सहज मानवीय उद्गारों के ज़रिये
जैसे रोना और हँसना.
जहाँ रोज एक मलकानगिरी है
एक बस्तर है, एक गुजरात है
एक मुज़फ्फ़रनगर है
इन सब के बीच भी-
जब
रोज देखे जाते हैं सपने
बच्चे बड़े हो रहे हैं रोज
लोगों को बताना होगा रोज
कि
‘हँसने’ और ‘रोने’ के मायने
इस बात से भी तय होते हैं
कि कौन ‘रो’ और ‘हँस’ रहा है…
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्त 2017
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