‘चिन्तन विचार मंच’ द्वारा मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों की सीमाओं पर व्याख्यान का आयोजन
लखनऊ शहर के छात्रों, नागरिकों और बुद्धिजीवियों द्वारा हाल ही में गठित ‘चिन्तन विचार मंच’ ने लखनऊ के ‘अनुराग पुस्तकालय’ में ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं की आह्वान’ के सम्पादक अभिनव का व्याख्यान 25 नवम्बर को आयोजित किया। व्याख्यान का विषय था ‘वर्तमान आर्थिक संकट और जनता के आन्दोलनः क्या पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त है?’
करीब दो घण्टे के अपने वक्तव्य में अभिनव ने कहा कि आज पूरा साम्राज्यवादी.पूँजीवादी विश्व एक भयंकर मन्दी की चपेट में है। इस मन्दी की कीमत जनता को अपने रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएँ आदि खोकर चुकानी पड़ रही है। विकसित पूँजीवादी देशों में भी हालात ऐसे हो गये हैं कि जनता सड़कों पर है। यह एक बार फिर मार्क्स की पूँजीवाद के संकट के सिद्धान्त को सही साबित कर रहा है। अमेरिका से लेकर यूनान, इटली और स्पेन तक और ‘तीसरी दुनिया’ में मिस्र व अन्य अरब देशों में जनता साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के खि़लाफ़ स्वतःस्फूर्त रूप से सड़कों पर उतर रही है। मौजूदा घटनाक्रम के एक द्वन्द्वात्मक विश्लेषण की ज़रूरत आज क्रान्तिकारी आन्दोलन के सामने है। हमें समझना होगा कि इन स्वतःस्फूर्त जनउभारों से क्या नतीजे निकालें और क्या नहीं।
आगे बोलते हुए अभिनव ने कहा कि ये स्वतःस्फूर्त जनउभार एक बात साफ़ तौर पर दर्शाते हैं कि सोवियत संघ के पतन के बाद पूँजीवाद के टुकड़ों पर पलने वाले टकसाली चिन्तकों, लेखकों आदि (जैसे कि फ्रांसिस फुकोयामा, आदि) ने ‘इतिहास के अन्त’, ‘विचारधारा के अन्त’ और ‘पूँजीवाद की अन्तिम विजय’ की जो उन्मत्त घोषणाएँ की थीं, वे आज बकवास और अर्थहीन साबित हो चुकी हैं। यहाँ तक कि हाल ही में फुकोयामा को स्वयं अपने कहे शब्द वापिस लेने पड़े और उसने माना कि आज पूँजीवाद के समक्ष कम्युनिस्ट आन्दोलन एक भारी चुनौती पेश कर रहा है। इसलिए निराशा का वह घटाटोप अब छँट रहा है जो 1989-90 के परिवर्तनों के बाद करीब डेढ़ दशकों तक दुनिया को अपने चपेट में लिये हुए था। 2006 के अन्त में अमेरिका से शुरू हुई मन्दी ने आज विश्वव्यापी मन्दी का स्वरूप धारण कर लिया है और जनता इसका बोझ नहीं उठाना चाहती। इसी के खि़लाफ़ जनता के अलग.अलग हिस्से अपनी.अपनी माँगों को लेकर दुनिया के तमाम देशों में आज सड़कों पर हैं। यह एक सकारात्मक विकास है।
लेकिन हमारा विश्लेषण महज़ इन स्वतःस्फूर्त जनउभारों के सकारात्मक, यानी कि उनके लाक्षणिक पूँजीवाद-विरोध पर रुक नहीं जाना चाहिए। सच यह है कि ये सभी आन्दोलन एक गम्भीर कमज़ोरी का शिकार हैं। चाहे अरब जनउभार हो या ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन, ये सभी स्वतःस्फूर्त उभार किसी भी किस्म की विचारधारात्मक दिशा और राजनीतिक नेतृत्व से लैस नहीं हैं। वास्तव में, आन्दोलन में सक्रिय कुछ समूह इसी नकारात्मक का जश्न मनाते हुए इन उभारों को ‘नेताविहीन क्रान्ति’, ‘पार्टी-विहीन क्रान्ति’ का नाम दे रहे हैं। लेकिन मिस्र का ताज़ा घटनाक्रम और विकसित देशों में चल रहे स्वतःस्फूर्त जनप्रतिरोधों की संरचना यह साफ़ तौर पर दिखलाती है कि सकारात्मक होने से बहुत दूर, एक भारी कमी है। बिना एक सुनिश्चित क्रान्तिकारी विचारधारा और एक सूझबूझ वाले क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व और संगठन के बिना, ये आन्दोलन पूँजीवाद का विरोध करने पर ही जाकर ख़त्म हो जाते हैं; वे पूँजीवाद का कोई कारगर विकल्प नहीं सुझाते। ऐसी स्थिति में, इन आन्दोलनों की माँगों में से कुछ को मान लेने और बाकी को छद्म सन्तुष्टि के गर्त में धकेल देने का माद्दा आज पूँजीवाद में है। ये आन्दोलन पहले पूरी व्यवस्था को असफल करार देते हैं, पूरी बुर्जुआ राजनीति का दीवालिया घोषित कर देते हैं, लेकिन यह सब करने के बाद अन्त में जो वे करते हैं, वह इस पूरी व्यवस्था का संगठित और व्यवस्थित उन्मूलन का नारा देना नहीं; वह किसी नये विकल्प के निर्माण का आह्वान नहीं है; विडम्बना की बात है कि अन्त में जो वे करते हैं वह एक माँग ही है! और किससे? उसी अनैतिहासिक हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था से! ऐसे में, ये आन्दोलन पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने और एक नयी न्यायपूर्ण और समतामूलक व्यवस्था के निर्माण में सक्षम नहीं हो सकते। आज की ज़रूरत पूरी दुनिया में यह है कि वैज्ञानिक क्रान्तिकारी विचारधारा से लैस एक क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन खड़ा किया जाय; यानी मज़दूर वर्ग की इंक़लाबी पार्टी। जब तक ऐसा संगठित और राजनीतिक विकल्प से लैस प्रयास नहीं खड़ा किया जाएगा, जनता के स्वतःस्फूर्त उभार होते रहेंगे और ख़त्म होते रहेंगे। ज़रूरी है कि अराजकतावाद, गैर-पार्टीवाद, त्रत्स्कीवाद आदि जैसी विजातीय विचारधाराओं से इन आन्दोलनों को मुक्त किया जाय। केवल तभी हम एक बेहतर परिणाम की उम्मीद कर सकते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर-दिसम्बर 2011
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