पाठक मंच
प्रिय साथी,
नमस्कार, ‘‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान’’ पत्रिका का प्रवेशांक मिला। मानवीय मूल्यों के लिए इंक़लाब के लिए समर्पित इस पत्रिका के प्रति मैं समर्पित हूँ। इसके तूणीर के बाण, जब यह ‘आह्वान’ के रूप में थी, निरन्तर मर्म को बेधती रही थी और इस क्रम को इस प्रवेशांक ने भी जारी रखा है। उष्ण खून की इस सौगात और फ़ड़कती उर्जस्वित भुजाओं के आमंत्रण ने हर पाठक को अपने मुक्तिकामी आह्वान के इंक़लाबी सैन्य दस्ते में सम्मिलित करने का आह्वान किया है। इस दस्ते में मैं भी शामिल हूँ।
शुरुआती दौर में पत्रिका की दस प्रतियाँ मुझे भी भेज दें तथा बिहार में पत्रिका प्राप्ति का पता मेरे नाम भी कर दें, मैं इस दिशा में पत्रिका के प्रचार-प्रसार का कार्य करता रहूँगा।
इस अंक में संकलित आलेख, सूचनाएँ और कविताएँ क्रान्ति की अदभुत चिंगारी लिये हुए हैं। यह मानवता के हित एक नये मानव के निर्माण के साथ-साथ प्रतिरोधी दानवीय शक्तियों का खात्मा भी करेगी। यह देश के युवाओं को एक नई जीवन दृष्टि, एक सही इतिहासबोध और मानवीय समझ देगी। हमारी संकल्प दृढ़ता और विस्तृत कर्त्तव्य-बोध ही हमारी सफ़लता का कारक होगा, हमारी यह आकांक्षा है।
‘आज की कविताएँ’ पत्रिका विगत कुछ वर्षों से अर्थाभाव के कारण स्थगित है। पुनः प्रकाशन की योजना में हूँ।
अपनी कुछ प्रकाशित पुस्तकें निकट भविष्य में कोरियर से भेजना चाहता हूँ।
धर्म के नासूर
मुझे डर लगने लगा है अब
मन्दिरों से, मस्जिदों से, गिरजाघरों से,
आदमी को जिबह करते
इन कसाईखानों से
आदमी को आतंकी, दंगाई
और उन्मादी बनाती
इन अंधगफ़ुाओं से,
मुझे और भी
डर लगने लगता है
जब देखता हूँ
रोज-रोज बढ़ रहे
धर्म के इन नासूरों की संख्या को,
जो पैदा होते रहे हैं
कराहती संततियों की कब्र से,
मेरा डर और भी बढ़ने लगता है
जब देखता हूँ हुजूम
आदमी की शक्ल वाली
भेड़ों की यहाँ
और मीडिया भी परेशान रहती है
फ़हराने को ध्वज इनका
आकाश में,
डर तो मुझे सबसे अधिक
तब लगता है
जब लोकतंत्र भी यहाँ चुपचाप
गिरवी रह जाता है,
पता नहीं कब होगा
आदमी का इंक़लाब,
अपने ही गढ़े
दुर्दशा के इन कारकों
के खिलाफ़।
मंगलकामनाओं के साथ
भवदीय
डॉ. गिरिजाशंकर मोदी
सम्पादक – ‘आज की कविताएँ’
शब्द-सदन
सिकन्दरपुर, मिरजानहाट, भागलपुर (बिहार)
संयोगवश ‘आह्वान’ का जनवरी-मार्च 09 का अंक मिला। पढ़ते ही स्पष्ट हो गया कि ‘आह्वान’ एक उद्घोष है इस खूनी पूँजीवादी व्यवस्था के अन्त का। इसके बाद ‘आह्वान’ के जितने भी पहले के अंक मिल पाये वे सब पढ़े। आज के दौर में जब क्रान्ति पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है तो ऐसे समय में ‘आह्वान’ का अपने पैनेपन के साथ बना रहना सराहनीय है। ‘आह्वान’ के अन्दर हमें लगातार इस पूँजीवादी व्यवस्था तथा उसके पैरोकारों के ढके हुए चेहरों को नग्न करना होगा, वो भी बिना किसी रियायत के। ‘आह्वान’ में इतिहास के जन-संघर्षों का ब्यौरा लगातार बने रहना चाहिये तथा दर्शन व साहित्य का प्रकाशन भी लगातार जारी रहना चाहिये। क्योंकि साहित्य-दर्शन और राजनीति दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं और दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध हमेशा मौजूद रहता है। हम हमेशा इस क्रान्तिकारी कदम में पूर्ण रूप से आपके साथ हैं एवं यथासम्भव सहयोग जारी रखेंगे।
अजीत, ग्रेटर नोएडा
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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