‘पोलेमिक’ द्वारा मुम्बई में और ‘चिन्तन विचार मंच’ द्वारा पटना में ‘बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोग, पूँजीवादी पुनर्स्थापना और समाजवाद की समस्याएँ’ विषय पर व्याख्यान आयोजित

छात्रों और बुद्धिजीवियों के मंच ‘पोलेमिक’ ने 25 मार्च को मुम्बई के रॉयल क्रेस्ट बिल्डिंग, दादर पूर्व में ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा का व्याख्यान आयोजित करवाया। व्याख्यान का विषय था ‘बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोग, पूँजीवादी पुनर्स्थापना और समाजवाद की समस्याएँ’। विषय प्रवर्तन करते हुए पोलेमिक, मुम्बई के प्रशान्त ने बताया कि पोलेमिक एक व्याख्यान माला की शुरुआत कर रहा है जिसमें क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन और मज़दूर आन्दोलन की जीवन्त समस्याओं पर नियमित तौर पर व्याख्यान, परिचर्चा, संगोष्ठी, आदि का आयोजन किया जायेगा। इस सिलसिले की शुरुआत प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका ‘आह्वान’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा के व्याख्यान से की जा रही है।

कार्यक्रम में करीब 60 लोग मौजूद थे जिसमें, मुम्बई शहर के राजनीतिक कार्यकर्ता, ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट, आई.आई.टी. व मुम्बई विश्वविद्यालय के छात्र, बुद्धिजीवी, पत्रकार, साहित्यकार व सांस्कृतिक कार्यकर्ता शामिल थे।

इसी विषय पर लेनिन के जन्मदिवस 22 अप्रैल को पटना में गाँधी संग्रहालय में ‘चिन्तन विचार मंच’ ने ‘आह्वान’ के ही सम्पादक अभिनव सिन्हा का व्याख्यान आयोजित करवाया। कार्यक्रम की शुरुआत ‘चिन्तन विचार मंच’, पटना के संयोजक देबाशीष बराट ने विषय प्रवर्तन से की। इस कार्यक्रम में पटना और बिहार के अलग-अलग हिस्सों से करीब 30 राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और छात्रों ने हिस्सा लिया।

पोलेमिक, मुम्‍बई द्वारा आयोजित व्‍याख्‍यान का दृश्‍य

अपने व्याख्यान की शुरुआत करते हुए अभिनव सिन्हा ने कहा कि हम एक लम्बे ऐतिहासिक संक्रमण में प्रवेश कर रहे हैं। समकालीन विश्व के इतिहास की शुरुआत एक तरह से 1989 में बर्लिन दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के पतन के साथ हुई। हालाँकि पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ में जो ढह रहा था वह समाजवाद नहीं था, बल्कि राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद था जो अपने अन्तरविरोधों के चलते ढह रहा था, लेकिन चूँकि नाम के लिए ये देश समाजवादी थे, इसलिए सोवियत संघ के विघटन के साथ पूरा बुर्जुआ विश्व उन्मादपूर्ण हर्ष में डूब गया। ‘इतिहास के अन्त’, ‘विचारधारा के अन्त’, ‘कविता के अन्त’ आदि जैसी अन्तवादी घोषणाएँ होने लगीं। समाजवाद के कुछ निश्चित और विशिष्ट प्रयोगों की असफलता को मार्क्सवादी विचारधारा की असफलता के रूप में चित्रित किया गया। इसके साथ ही यह एलान किया गया कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है; उदार पूँजीवादी जनवाद ही वह सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसकी मानवता उम्मीद कर सकती है और इस रूप में मानवता अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है। लेकिन अब पूँजीवादी विजयवाद का वह दौर बीत चुका है। पिछले पाँच वर्षों से विश्व पूँजीवाद असाध्य आर्थिक संकट के भँवर में फँसा हुआ है। वास्तव में, 1973 में डॉलर-स्वर्ण मानक के धराशायी होने के बाद पूँजीवाद ने तेज़ी का एक भी दौर नहीं देखा है। पिछले चार दशकों से यह एक सतत् मन्द्र मन्दी में जी रहा है, जो निश्चित अन्तरालों पर भयंकर संकट के रूप में फूट पड़ती है। बताने की ज़रूरत नहीं है कि पूँजीवाद और साम्राज्यवाद लेनिन के समय से भी ज़्यादा खोखला, परजीवी और मरणासन्न है। सिर्फ इसलिए कि अभी पूँजीवाद के समक्ष कोई अर्थपूर्ण चुनौती या उसका कोई कारगर विकल्प नहीं दिखलायी पड़ रहा है, यह घोषणा नहीं की जा सकती कि दुनिया विकल्पहीन है और पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। वास्तव में, दुनिया भर में जनता आज पूँजीवाद द्वारा ढाए जाने वाले बेरोज़गारी, ग़रीबी और भूख के कहर के खि़लाफ़ स्वतःस्फूर्त रूप से सड़कों पर उतर रही है। यह सच है कि आज इन जनउभारों को नेतृत्व देने वाला कोई मँझा हुआ क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं है। और इसीलिए अरब जनउभार के नतीजे के तौर पर पुरानी निरंकुश सत्ताओं का पतन तो हुआ, लेकिन किसी क्रान्तिकारी विकल्प की गैर-मौजूदगी में एक राजनीतिक निर्वात पैदा हुआ जिसे भरने का काम अन्त में धार्मिक कट्टरपंथियों ने किया। वहीं अमेरिका में ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन कल्याणकारी नीतियों के वापस लिये जाने के विरोध में जनता का स्वतःस्फूर्त आन्दोलन था जिसका न तो कोई सांगठनिक ढाँचा था, न कोई निश्चित नेतृत्व और न ही कोई सुपरिभाषित लक्ष्य। ऐसे में, इसमें अराजकतावाद और चॉम्स्कीपंथ की धाराएँ हावी थीं जो इसे किसी निश्चित दिशा में नहीं ले जा पायीं और न ही भविष्य में ले जाय पाएँगी। ज़्यादा से ज़्यादा ये आन्दोलन एक सत्ता-परिवर्तन कर सकते हैं और ऐसी कोई भी चीज़ अमेरिका में और भी प्रतिक्रियावादी रिपब्लिकन सरकार को ही लायेगी। इसलिए पूँजीवाद के विरुद्ध जनता विकल्प की राह टटोल रही है।

अभिनव ने कहा कि ऐसे में आज हमें उस विचारधारा के प्रयोगों के बारे में सोचने की ज़रूरत है जिसने पूँजीवाद के विकल्प की बात की और उसे सफलतापूर्वक लागू भी किया। मार्क्सवाद एकमात्र ऐसी विचारधारा है जो ‘बेहतर पूँजीवाद’, ‘मानवीय पूँजीवाद’, ‘सन्त पूँजीवाद’, सुधरे पूँजीवाद’ आदि की बात नहीं करता, बल्कि पूँजीवाद के ही विकल्प की बात करता है। बीसवीं सदी में सोवियत संघ में समाजवाद का जो प्रयोग हुआ उसने मध्यकालीन बर्बरता और पिछड़ेपन में पड़े हुए एक देश को महज़ तीन-चार दशक में उस जगह लाकर खड़ा कर दिया जहाँ तक पहुँचने में ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन को दो सौ साल लग गये थे। ऐसा करते हुए सोवियत संघ ने मानव विकास के मानकों में भी ऐसी तरक्की की जो मानव इतिहास में अद्वितीय थी। बेरोज़गारी, अशिक्षा, वेश्यावृत्ति, तमाम रोगों आदि का ख़ात्मा किया गया। पूरी की पूरी जनता का जीवन स्तर असाधारण रूप से ऊपर गया। इस पूरे दौर में अन्तरिक्ष विज्ञान से लेकर आणविक विज्ञान तक में सोवियत संघ ने दुनिया भर के देशों को पीछे छोड़ दिया। और सोवियत संघ ने फासीवाद और नात्सीवाद के ख़तरे से दुनिया को निजात दिलायी हालाँकि इसके लिए उसे अपने सवा दो करोड़ लोगों की कुर्बानी देनी पड़ी। इस रूप में सोवियत संघ के महान प्रयोग ने मानव इतिहास में एक नया अध्याय खोला। प्रथम प्रयोग होने के चलते अन्ततः इसके गिर जाने को अनपेक्षित नहीं माना जा सकता है। यह नैसर्गिक ही था। इतिहास में पहले भी नयी व्यवस्थाओं को अपनी अन्तिम विजय से पहले कई पराजयों का सामना करना पड़ा है। लेकिन सिर्फ इतना कह देने से आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का विश्लेषण पूरा नहीं हो जाता। उन्हें स्पष्ट रूप में बताना होगा कि सोवियत संघ के प्रयोग की सफलता और असफलता क्या थी।

चिन्‍तन विचार मंच, पटना द्वारा आयोजित व्‍याख्‍यान का दृश्‍य

सोवियत संघ में स्तालिन के जीवित रहते सर्वहारा सत्ता कायम रही। लेकिन उनकी मृत्यु के साथ मानो संशोधनवाद के समक्ष खड़ा आखिरी बैरियर गिर गया और तीन वर्ष के भीतर पार्टी के भीतर संशोधनवाद ने अपनी जड़ें निर्णायक रूप से जमा लीं। इसका कारण यह था कि पार्टी के भीतर ही पूँजीपति वर्ग लम्बे समय से अपनी जड़ें गहरी कर रहा था। पार्टी के भीतर एक पूँजीपति वर्ग के पैदा होने के पीछे जो कारण थे वे समाजवादी निर्माण और संक्रमण की वह समझदारी थी जिसका न सिर्फ स्तालिन बल्कि पूरी सोवियत पार्टी शिकार थी। यह समझदारी थी उत्पादक शक्तियों की प्रमुखता और प्राथमिकता और उत्पादन सम्बन्धों की सतत् अप्रमुखता का सिद्धान्त। इस समझदारी के अनुसार जब 1936 में सामूहिकीकरण के अभियान के समाप्त होने के साथ उद्योग के साथ-साथ कृषि के क्षेत्र में भी सामूहिक सम्पत्ति स्थापित हो गयी, तब सोवियत संघ में कोई शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं बचे थे और अब सोवियत संघ में महज़ किसान, मज़दूर और बुद्धिजीवी थे, जिन्हें जनता की सेवा करनी थी और कम्युनिज़्म की दिशा में आगे बढ़ना था। स्तालिन ने स्वयं इस ग़लती को सैद्धान्तिक जामा पहनाया। इसके साथ ही सर्वहारा क्रान्तिकारियों के दिमाग़ से पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा हट गया। यहाँ पर सोवियत पार्टी एक किस्म के अर्थवाद का शिकार थी जो यह मानता था कि उत्पादक शक्तियों के विकास के अनुरूप उत्पादन सम्बन्ध बनते हैं, लेकिन इस बात को नहीं समझता था उत्पादक शक्तियों का विकास तभी हो सकता है, जब उसके अनुकूल उत्पादन सम्बन्ध स्थापित हों। इस रूप में ऐतिहासिक तौर पर यह सच है उत्पादक शक्तियों का विकास लम्बे दौर में अधिक गतिमान और निर्णायक भूमिका निभाता है, लेकिन क्रान्ति के बाद उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारीकरण की भूमिका प्रधान हो जाती है, क्योंकि उसके बिना उत्पादक शक्तियों का विकास हो ही नहीं सकता। चूँकि सोवियत पार्टी की समझदारी यह था कि सर्वहारा सत्ता कायम होने और समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के स्थापित हो जाने का अर्थ समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों के निर्णायक रूप से स्थापित हो जाना है, इसलिए वह यह मानती थी अब सोवियत सत्ता का एकमात्र कार्य है उत्पादक शक्तियों का द्रुत और सतत् विकास। इस तरह से उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का कार्य समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना के बाद रुक गया। अभी समाज में मानसिक और शारीरिक श्रम, गाँव और शहर और उद्योग व कृषि के बीच के फर्क मौजूद था जो कि असमानता के बुर्जुआ अधिकार को पैदा करता था; अभी समाज में सभी को उनकी आवश्यकता के अनुसार और सभी से उनकी क्षमता के अनुसार नहीं लिया जा रहा था, बल्कि लोगों को उनके काम के अनुसार दिया जा रहा था। यानी कि अभी भी श्रम एक माल के रूप में मौजूद था। अभी विनिमय सम्बन्धों की मौजूदगी थी और वस्तुएँ महज़ उपयोग मूल्य के रूप में नहीं थीं, बल्कि माल के रूप में मौजूद थीं। इसलिए इन सभी कारणों से सामाजिक विनियोजन की पूरी प्रक्रिया का क्रान्तिकारी रूपान्तरण अभी बाकी था। मज़दूर वर्ग ने अभी राजनीतिक निर्णय लेना स्वयं नहीं सीखा था। चूँकि पार्टी का ज़ोर सिर्फ उत्पादन और उत्पादक शक्तियों के विकास पर था इसलिए वह विशेषज्ञों को विशेषाधिकार दे रही थी, वह ‘वन मैन मैनेजमेण्ट’ को सही ठहरा रही थी, अकुशल मज़दूर और कुशल मज़दूरों की मज़दूरी के बीच का अन्तर बढ़ रहा था, शहर और गाँव के बीच का अन्तर बढ़ रहा था, कृषि और उद्योग के बीच का अन्तर बढ़ रहा था। इन सभी कारणों से समाजवादी रूपान्तरण की पूरी प्रक्रिया सम्पत्ति सम्बन्धों के रूपान्तरण पर ही रुक गयी। वितरण के सम्बन्ध, राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया, अन्तरवैयक्तिक असमानताओं के ख़त्म होने की प्रक्रिया न सिर्फ रुक गयी बल्कि पीछे गयी। इसी प्रक्रिया में पार्टी के भीतर विशेषाधिकारों से लैस एक वर्ग पैदा हुआ जो आगे चलकर पार्टी के भीतर एक बुर्जुआ मुख्यालय स्थापित करने वाली ताक़त बना। स्तालिन के जीवित रहते पार्टी भीतर पैदा हुई बुर्जुआजी पूँजीवादी पुनर्स्थापना नहीं कर सकी, क्योंकि स्तालिन समाजवादी समाज में भी वर्ग संघर्षों को ही प्रथम प्रेरक तत्व न समझने की भूल के बावजूद, लाक्षणिक रूप से पूँजीवादी तत्वों का दमन करते रहे। लेकिन मूल कारण का निवारण करने की प्रक्रिया को समाजवादी निर्माण और संक्रमण की ग़लत समझदारी के कारण वे आगे नहीं बढ़ा सके। नतीजतन, उनके मृत्यु के तुरन्त बाद ही संशोधनवादियों के गिरोह ने ख्रुश्चेव के नेतृत्व में पार्टी पर अपना नेतृत्व स्थापित कर लिया और समाजवादी निर्माण को समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी।

महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त के जरिये माओ ने इस कमज़ोरी को समझा और बताया कि समाजवादी समाज में भी शुरू से अन्त तक वर्ग संघर्ष की प्राथमिक प्रेरक तत्व बना रहता है। समाजवादी समाज में हारी हुई बुर्जआजी अपने खोए हुए स्वर्ग की प्राप्ति का प्रयास करती रहती है। समाज में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच का फर्क, गाँव और शहर के बीच का फर्क और कृषि और उद्योग के बीच का फर्क लगातार बुर्जुआ विशेषाधिकारों को जन्म देता है। इन बुर्जुआ विशेषाधिकारों से लैस तत्व पार्टी और राजसत्ता में अपनी जड़ें जमाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को रोकने के लिए महज़ आर्थिक तौर पर समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना काफ़ी नहीं है। इसके लिए उपरोक्त तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को ख़त्म करना ज़रूरी है। इसके लिए समाजवादी शिक्षा आन्दोलनों और साथ ही महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की ज़रूरत है, जिसका अर्थ है क्रान्ति को न सिर्फ़ आर्थिक आधार पर ले जाना, बल्कि उसे सतत् रूप से जारी रखते हुए अधिरचना के धरातल पर भी ले जाना। इसीलिए उन्होंने नारा दिया ‘क्रान्ति पर पकड़ बनाये रखो और उत्पादन को बढ़ावा दो।’ यह नारा महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सारतत्व को अभिव्यक्त करता है। माओ ने यह भी स्पष्ट किया कि महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति एक घटना या कदम नहीं है जिसे अंजाम देने के बाद पूँजीवादी पुनर्स्थापना को हमेशा के लिए टाल दिया जाय। यह एक सतत् प्रक्रिया है जो बीच-बीच में कुछ तीव्र अभियानों का रूप ले सकती है। लेकिन इस प्रक्रिया को पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान जारी रखना होगा। इसीलिए चीन में एक महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद भी इस बात का फैसला नहीं हुआ है कि अभी इस चक्र में पूँजीपति वर्ग विजयी होगा या सर्वहारा वर्ग। लेकिन, जैसा कि माओ ने कहा था कि अगर चीन में समाजवाद हार भी जाये, तो आने वाले 50 से 100 वर्ष पूरे विश्व में एक ज़बर्दस्त उथल-पुथल का दौर होगा। इस दौर में ही विश्व भर में इस बात का फैसला होगा कि मज़दूर वर्ग विजयी होगा या पूँजीवाद विश्व को तबाह करेगा।

अभिनव ने अन्त में कहा कि हम अभी भी माओ द्वारा बताये गये उसी दौर में जी रहे हैं। और उथल-पुथल जारी भी है। लेकिन यह भी समझ लिया जाना चाहिए कि कोई भी क्रान्तिकारी परिस्थिति स्वयं अपने आप क्रान्ति में परिणत नहीं हो जाती। उसे सही क्रान्तिकारी विचारधारा और कार्यक्रम से लैस एक अनुशासित क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में एक क्रान्तिकारी अभिकर्ता या उत्प्रेरक की आवश्यकता होती है। और आज दुनिया भर में कम्युनिस्ट आन्दोलन के समक्ष यही संकट है। इस संकट के समाधान के लिए एक ओर हमें विगत समाजवादी प्रयोगों का एक सही मार्क्सवादी आलोचनात्मक विश्लेषण करना होगा और वहीं दूसरी ओर हमें नवजनवादी क्रान्ति के पुराने पड़ चुके खाँचे से बाहर आकर अपने देश की ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करना होगा। हमारा देश बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के चीन के समान अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक नहीं है, बल्कि एक पिछड़ा हुआ, विशिष्ट प्रकार का उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी देश है। यहाँ एक नयी समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम को अपनाना होगा, जो पूँजीवाद-विरोधी साम्राज्यवाद-विरोधी समाजवादी क्रान्ति होगी। पुराने जड़सूत्रें को छोड़कर और जूते के नाप से पाँव काटने की आदत को छोड़कर ही आज कम्युनिस्ट आन्दोलन अपने संकट से मुक्ति पा सकता है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012

 

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