बिस्मिल के शहादत दिवस 19 दिसम्बर को क्रान्तिकारी जन-एकजुटता दिवस के रुप में मनाया गया
आह्वान संवाददाता, गोरखपुर
गोरखपुर में दिशा छात्र संगठन व नौजवान भारत सभा ने बिस्मिल के शहादत दिवस को क्रान्तिकारी जन-एकजुटता दिवस के रूप में मनाया। इस अवसर पर छात्रों-नौजवानों ने गोरखपुर के विभिन्न मार्गों से होते हुए साइकिल जुलूस निकाला और व्यापक आज़ादी में साम्प्रदायिकता विरोधी और मेहनतकशों की क्रान्तिकारी वर्ग एकजुटता का पर्चा बाँटा।
साइकिल जुलूस ‘बिस्मिल पार्क’ से होते हुए बिस्मिल तिराहा, कचहरी चौक, प्रेस क्लब, शास्त्री चौक, टाउनहाल चौराहा, गोलघर चौराहा, काली मन्दिर, असुरन चौक से होते हुए ज़िला कारागार पहुँचा, जहाँ पर रामप्रसाद बिस्मिल को फाँसी दी गयी थी। वहाँ पहुँचकर बिस्मिल की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया और श्रद्धांजलि सभा की गयी।
सभा के सम्बोधित करते हुए नौजवान भारत सभा के तपिश ने कहा कि रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी हरक़िस्म के शोषण-उत्पीड़न से आम जनता की पूर्ण स्वाधीनता का सपना देख रहे थे। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम आम जनता की एकता कायम करने पर ज़ोर दिया था। उन्होंने कहा कि हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी शक्तियाँ क्रान्तिकारियों की स्मृति को कलंकित कर रही हैं और उनकी विरासत को संकीर्ण बना रही हैं। इसलिए यह ज़रूरी हो गया है कि क्रान्तिकारियों की सच्ची विरासत को लोगों तक पहुँचाया जाये और विभिन्न धर्मों की ग़रीब-मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी एकजुटता कायम की जाये।
एक तरफ छात्र-नौजवान अपने नारों, पर्चों से क्रान्तिकारी विरासत को लोगों के दिलों में फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ ऐसे तमाम फ़ासीवादी व बुर्जुआ संगठन ‘बिस्मिल’ की क्रान्तिकारी व साम्प्रदायिक विरोधी विरासत को ग़लत तरीक़े से पेश करके कलंकित करने का काम कर रहे थे। मज़दूरों का नाम लेकर उनकी पीठ में छुरा भोंकने वाले कुछ संशोधनवादी “मौन जुलूस” (मुर्दा जुलूस) निकालकर यह बता रहे थे कि आज के दौर में उनकी राजनीति किसका पक्ष ले रही है? ज़ाहिर सी बात है कि मौन रहने से यह वर्तमान व्यवस्था का ही पक्ष लेगी। मज़ेदार बात यह है कि अपने को ‘प्रगतिशील’ कहने वाले मुँहबोले बुद्धिजीवियों तक को यह नहीं पता था कि आज (19 दिसम्बर) के दिन ‘बिस्मिल’ का शहादत दिवस है। शहर के एक जाने-माने समालोचक ने एक पत्रकार के पूछने पर कि आज क्या है? तो बताया – ‘कुछ तो नहीं है!’ यह तो है राजनीतिक संगठनों व बुद्धिजीवियों के हालात! लेकिन, ऐसे राजनीतिक संगठनों और बुद्धिजीवियों के हालत को देखते हुए कोई दुःखी होने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत है तो एक ज़रूरी कार्यभार निकालने की। ताकि एक बार फिर नये सिरे से व्यापक मेहनतकश आबादी को संगठित व गोलबन्द करके शहीदों के सपनों के भारत का निर्माण करने के लिए नये इन्क़लाब की तैयारी की जा सके।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
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