श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के खिलाफ दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के नेतृत्व में मेट्रो रेल ठेका कर्मचारियों के संघर्ष का नया दौर शुरू

11 जुलाई को दिल्ली मेट्रो रेल कर्मचारियों ने अपने आन्दोलन के नये दौर की शुरुआत करते हुए नई दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया और मेट्रो के निदेशक ई. श्रीधरन का पुतला दहन किया। पिछले करीब ढाई वर्षों से दिल्ली मेट्रो रेल के ठेका कर्मचारियों की यूनियन ‘दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन’ मेट्रो रेल के कर्मचारियों को बुनियादी श्रम अधिकार भी नहीं मिलने के खिलाफ़ संघर्ष कर रही है। इस संघर्ष की शुरुआत 2008 में मेट्रो रेल स्टेशनों पर काम करने वाले सफ़ाई कर्मचारियों के आन्दोलन से हुई थी। इस आन्दोलन के बाद सफ़ाई कर्मचारियों को सरकारी न्यूनतम मज़दूरी की दर से वेतन देना तो शुरू नहीं किया गया, लेकिन उनके वेतनों में बढ़ोत्तरी की गयी। इसके बाद इस आन्दोलन में मेट्रो फ़ीडर बस सेवा के चालक व परिचालक भी जुड़ गये। 2009 में दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के बैनर तले नई दिल्ली स्थित मेट्रो भवन पर दिल्ली मेट्रो के ठेका कर्मचारियों ने धरना दिया। इस धरने के बाद करीब 46 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जो दो दिन तक तिहाड़ जेल में बन्द रहे। लेकिन इसके बावजूद मेट्रो कर्मचारियों का आन्दोलन जारी रहा। इस बीच दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन ने यूनियन के संघर्ष के चलते मेट्रो फ़ीडर बस सेवा का ठेका रद्द कर दिया।

लेकिन इन संघर्षों के बावजूद अभी भी दिल्ली मेट्रो रेल के भीतर टिकट वेण्डिंग ऑपरेटरों, सफ़ाई कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों को श्रम कानूनों द्वारा प्रदत्त बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं दी जा रही हैं। मिसाल के तौर पर, टिकट वेण्डिंग ऑपरेटरों की न्यूनतम मज़दूरी करीब आठ हज़ार बनती है, जबकि उन्हें मात्रा साढ़े चार से पाँच हज़ार रुपये दिये जाते हैं। सफ़ाई कर्मचारियों की न्यूनतम मज़दूरी करीब पौने सात हज़ार रुपये बनती है लेकिन उन्हें साढ़े तीन से चार हज़ार रुपये पर खटाया जाता है और वह भी बिना किसी साप्ताहिक छुट्टी के! यूनियन के बैनर तले संघर्ष के बाद हाल ही में कुछ ठेका कम्पनियों ने दबाव में आकर सफ़ाई कर्मचारियों को साप्ताहिक छुट्टी देने की शुरुआत की है। सिक्योरिटी कर्मचारियों को भी न्यूनतम मज़दूरी का करीब आधा दिया जाता है। स्टेशन स्टाफ़, जिसमें कि ये तीनों किस्म के कर्मचारी आते हैं, को ईएसआई, पीएफ़ आदि की कानून-प्रदत्त सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। मज़दूरों को सतत कम्पनी के सुपरवाइज़रों और दबंगों के आतंक में रहना पड़ता है, जो बिना किसी स्पष्ट कारण के किसी को भी निलम्बित या निष्कासित कर सकते हैं। आम तौर पर, नौकरी पर रखने से पहले ये ठेका कम्पनियाँ, जिसमें ट्रिग सिक्योरिटीज़, बेदी एण्ड बेदी, प्रहरी, ए2ज़ेड, ऑल सर्विसेज़, आदि शामिल हैं, मज़दूरों से ‘सिक्योरिटी राशि’ के नाम पर 40 से 70 हज़ार रुपये तक लेती हैं। वास्तव में यह ‘सिक्योरिटी राशि’ लेना ही गै़र-कानूनी है और यह इसलिए ली जाती है कि मज़दूर अपना मुँह बन्द कर चुपचाप काम करें और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ न उठायें। श्रम कानूनों के इन नग्न उल्लंघनों में न सिर्फ ये निजी ठेका कम्पनियाँ शामिल हैं बल्कि स्वयं दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन भी शामिल है। डीएमआरसी ने दिल्ली मेट्रो रेल की तमाम उन सेवाओं को ठेके पर दे रखा है जो स्थायी प्रकृति का काम हैं। वह कैजुअल या अस्थायी रूप से नहीं किये जाते। मिसाल के तौर पर, टिकट वेण्डिंग, सफ़ाई और सिक्योरिटी एक स्थायी प्रकृति का काम है। लेकिन इन सभी कामों को दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन ने ठेके पर दे रखा है जो कि सीधे-सीधे कानूनों का उल्लंघन है। वेतन दिये जाने के समय डीएमआरसी का कोई नुमाइन्दा मौजूद रहना चाहिए। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता। ठेका मज़दूर कानून 1971 के अनुसार दिल्ली मेट्रो रेल में कार्यरत सभी ठेका मज़दूरों को उनके कानून-प्रदत्त अधिकार मिलने की गारण्टी करना डीएमआरसी की जि़म्मेदारी है। लेकिन दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के सूचना अधिकार अधिनियम के तहत दायर याचिका के जवाब में डीएमआरसी ने स्वयं यह माना है कि उसके पास अपने ठेका मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। यदि उसके पास अपने ठेका मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं है तो आखि़र वह सुनिश्चित कैसे करती है कि सभी श्रम कानून लागू हो रहे हैं? वास्तव में, इसके लिए ठेका कम्पनियों से ही, जो कि स्वयं श्रम कानूनों के नग्न उल्लंघन में लिप्त हैं, एक लिखित वचन ले लिया जाता है कि वे श्रम कानूनों को लागू करेंगी, अन्यथा उन पर कार्रवाई की जायेगी। लेकिन यह महज़ एक औपचारिकता है। इस औपचारिकता के पूरे होने के बाद ठेका कम्पनियाँ और डीएमआरसी दोनों ही श्रम कानूनों के उल्लंघन में लग जाते हैं। यहाँ तक कि डीएमआरसी ने अपनी ठेका कम्पनियों से ऐसे करार किये हैं जो कि ग़ैर-कानूनी हैं! डीएमआरसी और ठेका कम्पनियों के बीच के करारनामे में यह लिखा गया है कि किसी भी किस्म के कानूनों के उल्लंघन की सूरत में डीएमआरसी की कोई जवाबदेही नहीं होगी और जवाबदेही पूरी तरह ठेका कम्पनियों की होगी। ऐसा कोई भी करार कोई सरकारी या ग़ैर-सरकारी संस्थान नहीं बना सकता जिसमें प्रधान नियोक्ता ने अपने आपको श्रम कानूनों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने से अलग कर लिया और अपना पल्ला झाड़ लिया है। यह करार ही ग़ैर-कानूनी है। इन सभी मुद्दों पर दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन श्रम न्यायालय में मुकदमा दायर करने के अलावा हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करने पर विचार कर रही है। इस कानूनी पहलू के साथ ही यूनियन सड़क पर उतरकर भी मेट्रो मज़दूरों की लड़ाई को सार्वजनिक स्पेस में ला रही है।

10 जुलाई को दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के नेतृत्व में करीब 100 मेट्रो मज़दूर और कुछ अन्य संगठनों से समर्थन में आये कार्यकर्ताओं ने ज़बरदस्त प्रदर्शन किया और ‘मेट्रो-मैन’ ई. श्रीधरन का पुतला फूँका। मेट्रो मज़दूरों की माँग है कि 1 अप्रैल, 2011 से लागू नये न्यूनतम वेतन का एरियर समेत भुगतान किया जाये और ईएसआई और पीएफ़ की सुविधा दी जाये; कम्पनियों द्वारा गै़र-कानूनी और नाजायज़ ढंग से नौकरी से बाहर किये जाने को बन्द किया जाये और निकाले जाने या निलम्बित किये जाने की एक सुपरिभाषित नीति होनी चाहिए; मज़दूरों के कार्यकाल को आठ घण्टे तक सीमित रखा जाना चाहिए और ओवरटाइम पर दोगुनी दर से वेतन का भुगतान होना चाहिए; सभी सफ़ाई कर्मचारियों को साप्ताहिक छुट्टी मिलनी चाहिए; और वेतन पर्ची मिलनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, कई अन्य माँगें भी मज़दूरों ने प्रशासन के सम्मुख रखीं। प्रदर्शन के बाद सैकड़ों मज़दूरों के हस्ताक्षर वाले एक ज्ञापन और माँगपत्रक को क्षेत्रीय श्रमायुक्त, डीएमआरसी निदेशक श्रीधरन, भारत के प्रधानमन्‍त्री और श्रम मन्‍त्री, दिल्ली की मुख्यमन्‍त्री और श्रम मन्‍त्री को सौंपा गया और चेतावनी दी गयी कि यदि ठेका मज़दूरों के कानूनी अधिकारों का हनन जारी रहा तो मेट्रो मज़दूरों के पास सड़क पर उतरकर आन्दोलन करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचेगा।

मेट्रो मज़दूरों का दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के तहत आन्दोलन की शुरुआत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि दिल्ली मेट्रो रेल की पूरी कार्यशक्ति बेहद बिखरी हुई है। टिकट-वेण्डिंग करने वाले आठ-दस लोगों का स्टाफ़ अलग केबिन में बैठा दिन पर टोकन बनाता रहता है; आठ सफ़ाईकर्मियों की शिफ्ट अलग-अलग अपने काम में लगी रहती है और सिक्योरिटी गाड्र्स भी अलग-अलग गेटों पर ड्यूटी पर लगे रहते हैं। यह कार्यशक्ति पूरी दिल्ली में बिखरी हुई है। इसे न तो कार्यस्थल पर ही बड़ी संख्या में एक जगह पकड़ा जा सकता है और न ही किसी एक रिहायश की जगह पर। ऊपर से दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन का तानाशाह प्रशासन और ठेका कम्पनियों की गुण्डागर्दी के आतंक! इन सबके बावजूद लम्बी तैयारी, प्रचार, स्टेशन मीटिंगों के बाद यूनियन ने सैकड़ों मज़दूरों को जुटाकर यह प्रदर्शन करके सिद्ध किया कि मेट्रो मज़दूर भी एकजुट होकर लड़ सकते हैं। दिल्ली मेट्रो रेल मज़दूरों के बीच ठेका मज़दूरों की यूनियन बनने का कई कारणों से भारी महत्त्व है। डीएमआरसी भारतीय पूँजीवाद के विकास के प्रतीकों में से एक है। यह एक वैश्विक शहर पर दिल्ली के दावे को मज़बूत करने वाला सबसे अहम कारक है। यह व्यापारिक और औद्योगिक केन्द्र के रूप में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पूँजी के संचरण की गति को बढ़ाती है। इस रूप में यह पूँजीवादी व्यवस्था के लिए एक बेहद महत्त्वपूर्ण परिवहन माध्यम है। इसके रुकने या ठप्प पड़ने को व्यवस्था बर्दाश्त नहीं कर सकती और ऐसी किसी भी स्थिति से बचना चाहेगी। इसीलिए दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन अपने मज़दूरों को किसी भी कीमत पर संगठित होने से रोकना चाहता है। लेकिन ऐसे प्रयास सफल नहीं हो सकते। मेट्रो रेल की चमचमाती दुनिया के नीचे मज़दूरों के जीवन का जो नर्क जैसा रसातल है, वह आने वाले समय में उन्हें इस शोषण, उत्पीड़न और अन्याय के लिए संगठित करेगा और यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011

 

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