गहराते वैश्विक साम्राज्यवादी संकट के साये में जी20 शिखर सम्मेलन
सम्पादक
बीते 14-15 नवम्बर को ऑस्ट्रेलिया में जी20 शिखर सम्मेलन हुआ। अलग-अलग देशों के साम्राज्यवादी डाकुओं के प्रतिनिधियों का जमावड़ा इस बार ब्रिस्बेन शहर में लगा। एक बार फिर से 20 सबसे शक्तिशाली देशों के मुखिया विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की सेहत के लिए माथापच्ची करते नज़र आये। सभी देशों का पूँजीवादी मीडिया अपने-अपने देश के नागरिकों को यह यक़ीन दिलाने में लगा रहा कि उन्हीं के देश के मुखिया का सिक्का सम्मेलन में चला है। भारत के पूँजीवादी मीडिया ने इस मामले में सभी को पीछे छोड़ दिया और मोदी को तरह-तरह की उपाधियों से सुसज्जित कर डाला। इस बार सम्मेलन में वैश्विक संकट और बिगड़ते पर्यावरणीय सन्तुलन के एजेण्डे को सबसे ऊपर रखा गया था। सम्मेलन ख़त्म होने पर विश्व के सबसे बड़े 20 पूँजीवादी देशों के मुखियाओं या उनके प्रतिनिधियों ने एक साझा बयान भी जारी किया। इस बयान से ही साफ़ हो जाता है कि वैश्विक संकट और पर्यावरण के सन्तुलन के बिगड़ने से होने वाली उनकी पीड़ाओं की जड़ में कुछ और नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा और साम्राज्यवाद का हित है। लुटेरों का यह जमावड़ा किस तरह से पूँजीवाद की सेवा करने में लगा है और आपस में भी यह क्यों कुत्ताघसीटी कर रहा है, इस पर हम आगे चर्चा करेंगे।
सबसे पहले तो यह साफ़ कर लेना बेहद ज़रूरी है कि हम छात्रों-नौजवानों को इस बात से क्या मतलब है कि 20 देशों के मुखिया साथ मिलकर क्या खिचड़ी पका रहे हैं और इससे हमारी ज़िन्दगियों पर क्या असर पड़ने वाला है? दरअसल, इस सम्मेलन में, जिसमें कि मोदी के साथ अन्य 19 लुटेरे शामिल हैं, उन सभी प्रश्नों पर चर्चा की गयी है, जो हमारी ज़िन्दगी के साथ बेहद करीबी से जुडे़ हुए हैं। पिछले करीब 8 वर्षों से साम्राज्यवादी संकट ने विश्व पूँजीवाद की कमर तोड़ रखी है, हालाँकि उसके पहले भी करीब तीन दशक से विश्व पूँजीवाद सतत् एक मन्द मन्दी का शिकार रहा था, जो बीच-बीच में भयंकर संकटों के रूप में टूटती रही थी। लेकिन 2007 से जारी आर्थिक संकट पिछले 80 वर्षों का सबसे भयंकर और अब तक का सबसे ढाँचागत संकट सिद्ध हुआ है। इससे कैसे उबरा जाये और विश्व-भर के मेहनतकश अवाम को कैसे और अधिक लूटा जाये, यही इस सम्मेलन का मूल मुद्दा था। अलग-अलग लुटेरों के बीच खींचतान भी इसी लूट के बँटवारे को लेकर हो रही थी। मोदी वहाँ देश की बड़ी पूँजी के हितों की नुमाइन्दगी कर रहा था (अदानी का मोदी के साथ जी20 सम्मेलन में जाना इसी बात का प्रतीक है)। मोदी की अगुवाई में भारतीय पूँजीपति वर्ग भी इस खींचतान में शामिल था। इसी प्रक्रिया में मोदी ने अपने “प्यारे” अदानी के लिए कोयला खदानों का ठेका भी ऑस्ट्रेलिया में हथिया लिया। देश के भीतर पहले से ही मोदी सभी श्रम क़ानूनों को बर्बाद करने, बची-खुची सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को औने-पौने दामों पर निजी हाथों में सौंपने, सभी कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करने और छात्रों-नौजवानों-मज़दूरों-मेहनतकशों के हर आन्दोलन को कुचलकर देश की मेहनतकश आवाम के ख़ून-पसीने की आखि़री बूँद तक निचोड़ने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से लगा हुआ है। अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भी भारतीय बाज़ारों को खोलने के बदले साम्राज्यवादियों से भारतीय पूँजीपतियों के लिए उन्नत तकनोलॉजी और पूँजी प्राप्त करने के काम को मोदी समझदारी से अंजाम दे रहा है। इस सम्मेलन में भी मोदी विभिन्न देशों के पूँजीपतियों को भी भारत में आकर श्रम की नंगी लूट मचाने का न्यौता देते हुए घूम रहा था। सम्मेलन में मोदी ने देशी-विदेशी पूँजीपतियों से वायदा किया है कि भारत में श्रम को निचोड़कर मुनाफ़ा पीटने में जितनी भी बाधाएँ, जितनी भी अड़चनें हैं वह सभी को रास्ते से हटा देगा। कुल मिलाकर इस सम्मेलन में होने वाले फ़ैसलों और समझौतों का असर हमारी ज़िन्दगी पर ही पड़ने वाला है। इसलिए यह समझ लेना बेहद ज़रूरी है कि आज जब पूँजी का भूमण्डलीकरण हो चुका है और वह वैश्विक पैमाने पर आपस में जुड़ चुकी है तो ऐसे में विश्व पूँजीवाद के मुखिया कहीं भी इकठ्ठा होकर राज्य की कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करने और उसे अपने उत्तरदायित्वों से पीछे हटाने, शिक्षा का निजीकरण करने, हमारे ऊपर करों का बोझ लादने, महँगाई बढ़ाने और हमारे बुनियादी हक़ हमसे छीनकर अपने लालच द्वारा पैदा किये गये आर्थिक संकट का बोझ हम पर डालने की ही योजना बनाते हैं, ताकि कारपोरेट पूँजीपति वर्ग और सट्टेबाज़ वित्तीय पूँजी को डूबने से बचाया जा सके और उसके मुनाफ़े को लगातार बढ़ाया जा सके। ज़ाहिर है, इसका असर सीधे हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पर पड़ता है। आज नौजवान राजनीति से उदासीन नहीं रह सकते, चाहे वह राष्ट्रीय पटल पर हो या अन्तरराष्ट्रीय पटल पर। हमें इन लुटेरों की रणनीतियों के बारे में विस्तार से जानना होगा, तभी हम आने वाले संघर्षों के लिए अपनी रणनीति तैयारी कर सकेंगे।
एक शब्द जो पूँजीवाद के जन्म के कुछ समय बाद ही अस्तित्व में आया और पूँजीपतियों के लिए आज तक दुःस्वप्न बना हुआ है – ‘मन्दी’! इस सम्मेलन में भी सभी लुटेरों की चिन्ता का मूल विषय बना हुआ था। 2007 से जो संकट शुरू हुआ उससे उबरने के पूँजीवाद के सारे प्रयास धरे के धरे रह गये और घटती-बढ़ती तीव्रता के साथ यह हर वर्ष अधिक से अधिक ढाँचागत होती जा रही है। 1930 की महामन्दी के बाद यह अब तक का सबसे बड़ा आर्थिक संकट है और कई मायनों में 1930 की मन्दी से अधिक ख़तरनाक और अधिक विनाशकारी है। आज की यह महामन्दी बेहद गहरी और ढाँचागत साबित हो रही है और किसी भी तरह से टलने का नाम नहीं ले रही है और असल बात तो यह है कि इस मन्दी से बाहर निकलने के लिए आज पूँजीवाद के लिए कोई द्वार खुला नहीं रह गया है।
मन्दी दरअसल पूँजीवाद की ही नैसर्गिक उपज होती है और पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर कितने भी उपाय कर लिये जायें लेकिन इसे आने से नहीं रोका जा सकता। मन्दी अपने साथ भयंकर तबाही लेकर आती है। मन्दी का असर सबसे अधिक आम मेहनतकश आबादी पर ही पड़ता है। यह अपने साथ बेरोज़गारी, भुखमरी लेकर आती है। समूची पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों के शोषण पर टिकी हुई है और मज़दूरों के हाड़ गलाकर ही सारे पूँजीपति अपना मुनाफ़ा कमाते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में जो उत्पादन होता है वह मनुष्य को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर होता है, यानी कि बाज़ार के लिए होता है। उत्पादन की प्रक्रिया में पूँजीपति उत्पादन ख़र्च को लगातार घटाने की कोशिश करते हैं। ऐसा वह श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर या फिर श्रम-काल को निरपेक्ष रूप से बढ़ाकर करते हैं। इन दोनों ही तरीक़ों से मज़दूर वर्ग का शोषण बढ़ाने के फलस्वरूप व्यापक मज़दूर आबादी और अधिक ग़रीब होती जाती है और बड़ी आबादी को काम से निकाल बाहर कर दिया जाता है। हरेक पूँजीपति अधिक से अधिक उत्पादन करने की कोशिश करता है जिसका परिणाम यह होता है कि एक तरफ़ बाज़ार माल से पट जाते हैं और दूसरी तरफ़ उन्हें ख़रीदने के लिए पर्याप्त ख़रीदार नहीं होते। यही पूँजीवादी संकट का मूल है: “अतिउत्पादन”। यह वास्तव में अतिउत्पादन नहीं होता, बल्कि सिर्फ़ इसलिए अतिउत्पादन होता है क्योंकि वस्तुओं और ज़रूरतमन्द लोगों के बीच निजी मुनाफ़े की दीवार खड़ी होती है। वरना उत्पादन की कोई भी मात्र अतिउत्पादन नहीं हो सकती, यदि समाज बराबरी और न्याय पर आधारित हो। लेकिन एक पूँजीवादी समाज में उत्पादन की कोई भी मात्र “अतिउत्पादन” हो सकती है!
पूँजीवादी व्यवस्था 1850 के दशक से लेकर 1960 के दशक के अन्त तक कई बार अतिउत्पादन के संकट का शिकार हुई। 1930 की महामन्दी सबसे विनाशकारी साबित हुई और इसने पूँजीवाद की चूलों को हिलाकर रख दिया। पूँजीवाद ने इससे उबरने के लिए विश्व को दूसरे विश्वयुद्ध में झोंक दिया जो मानवता के लिए बेहद विनाशकारी साबित हुआ। इससे कुछ फ़ौरी राहत पूँजीवाद को मिल गयी। लेकिन 1960 का दशक ख़त्म होते-होते हालात फिर से ख़राब होने लगे और एक बार फिर से मन्दी का भूत पूँजीवाद को सताने लगा। पूँजीपतियों ने इस मन्दी से निपटने के लिए एक नायाब तरीक़ा निकाला: वित्त पूँजी के ज़रिये उपभोक्ताओं को सूद पर क़र्ज़ देना और उन्हें सामान ख़रीदने के लिए प्रोत्साहित करना। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में ऋण-वित्तपोषित उपभोग भी कहा जाता है। 1960 के दशक के बाद क़र्ज़ देकर ख़रीदारी करवाने की सोच पूरी दुनिया की वित्तीय पूँजी के सरदारों द्वारा लागू की जाने लगी। उन्हें उम्मीद थी कि इससे अतिउत्पादन का संकट भी दूर होगा और सूद के ज़रिये क़र्ज़ पर कमाई भी होगी। लेकिन एक समय ऐसा आया जब कि क़र्ज़ का सूद देने लायक पैसे भी बहुसंख्यक जनता के पास नहीं बचे! एक तरफ़ क़र्ज़ देने के लिए विशालकाय पूँजी का अम्बार इकट्ठा हो गया, तो वहीं दूसरी ओर एक विशालकाय दरिद्र आबादी का निर्माण हो गया। ऋण-बाज़ार सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँचने लगा। 1980 और 1990 के दशक में वित्त पूँजी ने सट्टेबाज़ी के कई बुलबुले फुलाये जैसेकि डॉट-कॉम बुलबुला, आवास बाज़ार बुलबुला आदि। लेकिन सट्टेबाज़ी का हर बुलबुला फूटने के बाद विश्व अर्थव्यवस्था पहले से भी ज़्यादा भयंकर मन्दी के भँवर में फँसी। इसके बाद, वित्तीय पूँजीपतियों ने ग़रीब से ग़रीब आदमी को भी बेहद ज़्यादा सूद पर क़र्ज़ देने की रणनीति अपनायी ताकि उसकी पूँजी बाज़ार में घूमती रहे, घर न बैठे। क्योंकि जब पूँजी बाज़ार में घूमती नहीं और पहले से ज़्यादा पूँजी नहीं पैदा करती तो फिर वह ख़त्म होती है। यानी कि पूँजी का गुब्बारा फूलते जाने (और अन्ततः फट जाने) या फट जाने के लिए अभिशप्त होता है! 2007 में अमेरिका में यही हुआ। ढेर सारे ऐसे लोगों को अमेरिकी बैंकों ने कार व घर आदि ख़रीदने के लिए क़र्ज़ दिया जो कि क़र्ज़ की पहली किश्त चुकाने की स्थिति में भी नहीं थे। नतीजतन, क़र्ज़ लेने वाली बड़ी आबादी क़र्ज़ का ब्याज़ तक नहीं दे पायी। अमेरिकी बैंकों ने ऐसे असफल हो चुके क़र्ज़ों की लेनदारी का अधिकार दुनिया के अन्य बैंकों को भी बेच रखा था। लिहाज़ा हुआ यह कि जब अमेरिकी जनता के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से ने क़र्ज़ का ब्याज़ तक चुका पाने में असमर्थता घोषित कर दी (डिफ़ॉल्ट करना), तो बैंकों का पैसा कारों और घरों में फँस गया। ऐसे में, बैंकों के पास अपने खातेदारों को देने के लिए पैसे नहीं बचे; यहाँ तक कि अपने कर्मचारियों को देने के लिए भी पैसे नहीं बचे। नतीजतन, दुनिया के सबसे बड़े बैंक दीवालिया होकर औंधे मुँह गिरने लगे। इस तरह से वित्तीय पूँजी के मुनाफ़े के लालच और सट्टेबाज़ी के चलते 2007 में वैश्विक आर्थिक संकट की शुरुआत हुई।
इसके बाद, दुनिया-भर की सरकारों ने मेहनतकश आबादी की मज़दूरी घटाकर, कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करके, स्कूलों को बन्द करके और खानों-खदानों को पूँजीपतियों को बेचकर इन लालची बैंकों को अरबों डॉलर और रुपयों के ‘पैकेज’ दिये। इन बैंकों ने इन पैकेजों का इस्तेमाल भी जुआ खेलने, सट्टेबाज़ी करने और नक़ली तेज़ी के बुलबुले फुलाने में किया। परिणामतः संकट और बढ़ता गया। हर बार दुनिया-भर की सरकारों ने इस संकट का बोझ मेहनतकश आबादी पर डाला। कैसे? छँटनी और तालाबन्दी करके, श्रम अधिकार छीनकर, पूँजीपतियों को कर से छुटकारा देकर और आम जनता को करों से लादकर, महँगाई बढ़ाकर! अभी भी यही प्रक्रिया जारी है।
जी20 शिखर सम्मेलन में संकटग्रस्त पूँजीवाद को बचाने की छटपटाहट साफ़ तौर पर विश्व पूँजीवाद के मुखियाओं के चेहरे पर देखने को मिली। आज विश्व-भर में कोई भी ऐसी अर्थव्यवस्था नहीं है जिसके ऊपर इस भीषण मन्दी का असर न पड़ रहा हो। और तो और चीन, भारत और ब्राज़ील जैसी दुनिया की तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्थाएँ भी इस संकट से अछूती नहीं हैं। यूरोपीय संघ के तो कई देशों की अर्थव्यवस्थाएँ दिवालिया होने के कगार पर खड़ी हैं। सबप्राइम संकट के बाद अमेरिका की भी हालत बेहद पतली है और विश्व के अलग-अलग हिस्सों में युद्ध थोपकर और विश्व व्यापार के प्रमुख माध्यम डॉलर को छापकर ही वह अपनी सेहत सँभाल रहा है। जापान भी लम्बे समय से संकटग्रस्त है। अब इस सम्मेलन में साम्राज्यवाद के इन मुखियाओं ने इस मन्दी से छुटकारा पाने के लिए कुछ “ठोस” क़दम उठाने की योजनाओं पर चर्चा की है।
अब ये “ठोस” क़दम क्या हैं, इनकी पड़ताल करना ज़रूरी है। विश्व पूँजीवाद के मुखियाओं का दावा है कि आज संकट से उबरने के लिए “संरचनागत सुधारों” की ज़रूरत है। वैसे 1970 के दशक से विश्व पूँजीवाद के मुखिया संरचनागत सुधारों और संरचनागत समायोजनों की ही बातें कर रहे हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। हर ऐसे संरचनागत सुधारों के चक्र ने विश्व पूँजीवाद को अन्दर से और कमज़ोर और खोखला बनाया है। इन संरचनागत सुधारों का क्या अर्थ है और ये हमारी ज़िन्दगी पर क्या असर डालेंगे यह भी जानना ज़रूरी है। इन संरचनागत सुधारों के तहत दुनिया-भर की मेहनतकश आबादी को लूटने के लिए सारी बाधाओं को ख़त्म कर दिया जायेगा और संकट का सारा बोझ आम आबादी के ऊपर डाल दिया जायेगा। सभी श्रम क़ानूनों को बर्बाद करके उन्हें पूँजीपतियों के हक़ में कर दिया जायेगा, जैसाकि नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में किया है। जनता के ऊपर अप्रत्यक्ष करों व अन्य शुल्कों का बोझ अधिक से अधिक बढ़ा दिया जायेगा। पूँजीपतियों को श्रम क़ानूनों के अतिरिक्त अन्य क़ानूनी विनियमनों की बाधाओं से मुक्त कर दिया जायेगा और बचे-खुचे सार्वजनिक क्षेत्र को भी औने-पौने दामों पर निजी हाथों में सौंप दिया जायेगा। धनी वर्ग के ऊपर से प्रत्यक्ष करों का बोझ कम कर दिया जायेगा और बिजली-पानी इत्यादि जैसी सुविधाएँ उन्हें बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध करायी जायेंगी। जनता को शिक्षा, चिकित्सा, राशन, बिजली-पानी आदि बुनियादी सुविधाएँ देने पर जो सरकारी ख़र्च होता है उसमें कटौती की जायेगी। कुल मिलाकर इन संरचनागत सुधारों का बोझ हमारे ऊपर ही पड़ने वाला है।
साम्राज्यवादी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके ये क़दम छात्रों-युवाओं और मज़दूरों को विद्रोह करने का न्यौता दे रहे हैं, इसलिए उन्होंने बेशुमार पैसा ख़र्च करके सभी देशों में फासीवादियों, दक्षिणपन्थियों और तानाशाहों को सत्ता में बिठाना शुरू कर दिया है। मेक्सिको में हाल में लापता छात्रों के प्रश्न पर शुरू हुआ जनउभार अब सरकार और उसकी नीतियों को अपने निशाने पर रख रहा है। यूनान में पहले से ही जनता लगातार आन्दोलनरत है और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना शुरू कर रही है। स्पेन और इटली में भी रह-रहकर जनान्दोलन हो रहे हैं। अरब विश्व तो शायद ही कभी शान्त रहता हो। इसी के मद्देनज़र पूँजी अपने आखि़री विकल्प फासीवाद और धुर दक्षिणपन्थ की ओर बढ़ रही है। ऑस्ट्रेलिया, फ़्रांस, स्पेन, ब्रिटेन, यूनान, भारत सभी देशों में पूँजीपतियों ने धुर दक्षिणपन्थी शासकों को सत्ता में ला दिया है या लाने की कोशिश कर रहे हैं। पूँजीपति जानते हैं कि पूँजीवादी संकट से पैदा होने वाले जनअसन्तोष के कारण जनसंघर्ष खड़े होंगे। इन जनसंघर्षों से निपटने के लिए आज उन्हें ऐसी सरकारों की ज़रूरत है जो दमन की मशीनरी को और तेज़ कर दे और मुनाफ़े के रास्ते में मौजूद हर गतिरोधक को उखाड़कर पफ़ेंक दे। मोदी ने सत्ता में आते ही धुर जनविरोधी क़दम उठाने शुरू कर दिये हैं और मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनानी शुरू कर दी हैं। सभी बाधाओं से निपटने के लिए और जनता को धर्म, जाति आदि के नाम पर बाँटकर उसके प्रतिरोध को कुचलने के लिए मोदी ने संघी गुण्डों को खुला हाथ दे दिया है। मोदी के सत्ता में आने के बाद अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। असल साज़िश से ध्यान भटकाने के लिए मोदी अन्धराष्ट्रवाद का सहारा ले रहा है और पाकिस्तान के साथ युद्धोन्माद को भड़काकर असली शत्रु यानी कि पूँजीवाद को छिपा रहा है। ठीक यही नवाज़ शरीफ़ पाकिस्तान में कर रहा है। विश्व-भर में आज जिस तरह से छात्रों और मज़दूरों के छोटे से छोटे आन्दोलनों को कुचला जा रहा है, उससे साम्राज्यवादियों की नीति स्पष्ट है। यह साफ़ है कि आर्थिक संकट के दौर में नरेन्द्र मोदी, टोनी एबट, कैमरून जैसे धुर दक्षिणपन्थी शासक आज पूँजीपतियों की ज़रूरत है। आर्थिक संकट आज पूँजीपतियों को आर्थिक कट्टरपन्थ के छोर पर पहुँचा रहा है। इसी का स्वाभाविक परिणाम है कि आज वह राजनीतिक कट्टरपन्थी बनने के लिए बाध्य है।
भले ही आम मेहनतकश जनता को लूटने में सभी साम्राज्यवादियों में सहमति हो लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि साम्राज्यवादियों के बीच में कोई अन्तरविरोध नहीं है। जी20 शिखर सम्मेलन में भी इन लुटेरों के बीच के लगातार तीखे होते अन्तरविरोध खुलकर सामने आये। साम्राज्यवादियों के बीच लूट का बँटवारा आर्थिक व सामरिक ताक़त के आधार पर होता है और इस बँटवारे को लेकर साम्राज्यवादियों के बीच जमकर कुत्ताघसीटी होती है। पिछले कुछ वर्षों में रूस और चीन बड़ी आर्थिक शक्तियाँ बनकर उभरे हैं और उन्होंने अपने इर्द-गिर्द उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का एक ताना-बाना खड़ा किया है जिसे ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ़्रीका) कहा जा रहा है। अमेरिका जो आधे दशक से भी अधिक समय तक विश्व साम्राज्यवाद का चौधरी बना रहा, अब उसे चीन और रूस से कड़ी चुनौती मिल रही है। ‘ब्रिक्स’ के देश पूँजी का अपना भण्डार बना रहे हैं, एक-दूसरे से डॉलर के साथ ही अन्य मुद्राओं में भी व्यापार कर रहे हैं, और साथ ही इनके पास प्राकृतिक संसाधन बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। ये ऐसे देश नहीं हैं जिन पर अमेरिकी साम्राज्यवादी सीधे सैन्य हमला कर सकते हों। रूस और चीन के साथ सीधे युद्ध का ख़याल फ़िलहाल अमेरिका नहीं पाल सकता। वियतनाम और कोरिया में जहाँ अमेरिका ने मुँह की खायी, वहीं पिछले वर्षों में अफ़गानिस्तान और इराक़ में भी उसकी हालत पतली हो गयी है। हालाँकि साम्राज्यवाद अपनी अन्धी हवस के चलते कहाँ तक जा सकता है, इसके बारे में अन्तिम तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है और अमेरिकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने के अन्धेपन में दुनिया पर कोई बड़ा युद्ध फिर से थोप सकते हैं।
इस जी20 सम्मेलन में साम्राज्यवादियों की कुत्ताघसीटी के दो प्रमुख केन्द्र विवाद का मुद्दा बने रहे – पहला है यूक्रेन मसला। यूक्रेन पहले सोवियत संघ का ही हिस्सा था लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस से अलग हो गया था। अलग होने के बाद भी यूक्रेन पर रूस का ही आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव था। अब अमेरिका व ब्रिटेन इस प्रभाव क्षेत्र को ख़त्म कर अपना प्रभाव क्षेत्र बनाना चाहते हैं। लेकिन रूस ऐसा होने नहीं दे रहा है और यह अमेरिका, ब्रिटेन और साथ ही यूरोपीय संघ के प्रमुख देशों जर्मनी व फ़्रांस के लिए काफ़ी चिड़चिड़ा देने वाला अनुभव है। ऐसे में, अमेरिकी गिरोह ने रूस पर व्यापार प्रतिबन्ध लगाने की धमकियाँ देकर काफ़ी धौंस-पट्टी जमाने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो पाये। उल्टे रूस ने ही अपने राष्ट्रपति के साथ एक विशाल सैन्य बेड़ा ऑस्ट्रेलिया की सीमा पर पड़ने वाले अन्तरराष्ट्रीय समुद्र में भेजकर अपनी हेकड़ी दिखला दी। पुतिन के आने से पहले कनाडा के राष्ट्रपति, ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री और अमेरिका के राष्ट्रपति ने पुतिन के ख़िलाफ़ काफ़ी बयानबाज़ी की लेकिन बाद में जी20 सम्मेलन में पुतिन की मौजूदगी में उनके मिजाज़ बदले हुए नज़र आये। पुतिन ने पूरे सम्मेलन तक मौजूद रहना भी ज़रूरी नहीं समझा और बीच में ही चले गये। यह बाक़ी जी20 में वर्चस्व रखने वाली अमेरिकी धुरी के लिए सन्देश था कि ‘मैं तुम्हें कुछ नहीं समझता’!
रूस ने सीरिया के मुद्दे पर भी अमेरिका को सीधा सैन्य हस्तक्षेप करने से रोक रखा है। अब इस्लामिक स्टेट के कट्टरपन्थियों को कुचलने के नाम पर अमेरिका प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप करने की फ़िराक में है लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है। इसका कारण यह है कि सीरिया की जन-विरोधी असद सरकार और ईरान रूस-चीन धुरी के नज़दीक हैं और अमेरिका इस गठजोड़ पर हमला करने का कोई अवसर गँवाना नहीं चाहता। लेकिन पुतिन रूस के लिए एक मँझा हुआ पूँजीवादी-साम्राज्यवादी रणनीतिकार साबित हो रहा है और अमेरिका की हर चाल को बेअसर कर रहा है। मध्य-पूर्व में रूस बेहद चुप्पी के साथ और सधे हुए क़दमों से अपने असर को बढ़ा रहा है। यह लेख लिखे जाने के समय ही यह ख़बर आयी कि इस्लामिक स्टेट के उग्रवादियों के ख़िलाफ़ ईरान ने हवाई हमले किये हैं। ये हमले वास्तव में ईरान द्वारा अमेरिकी हमलों की सहायता नहीं हैं, बल्कि सीरिया और इराक़ पर ईरानी प्रभाव को बढ़ाने की कवायद थे। मध्य-पूर्व में चीन भी आर्थिक रास्तों से तेज़ी से घुस रहा है। साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि इस पूरे क्षेत्र में भी अमेरिकी वर्चस्व आने वाले समय में बिना प्रतिद्वन्द्वियों के नहीं होगा।
उसी प्रकार चीन ने अमेरिकी धुरी की परवाह न करते हुए एशिया-प्रशान्त क्षेत्र के देशों के लिए एक अलग अवसंरचना निवेश बैंक (यानी, अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निवेश के लिए बैंक) बनाने का प्रस्ताव रखा, जिस पर अमेरिकी धुरी ने काफ़ी नाक-भौं सिंकोड़ा। इसका कारण यह था कि अगर चीन के नेतृत्व में ऐसा बैंक एशिया प्रशान्त क्षेत्र के देशों को क़र्ज़ देने लगता है, तो फिर अमेरिकी वर्चस्व वाले अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक का वित्तीय वर्चस्व निश्चित तौर कमज़ोर पड़ेगा। इसका कारण यह भी है कि आने वाले समय में विश्व-भर में होने वाले निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा एशिया प्रशान्त क्षेत्र में ही होने वाला है क्योंकि वहीं पर विश्व-भर के पूँजीपतियों को सस्ते संसाधन और सस्ती श्रमशक्ति मिलने वाली है। ऐसे में, अमेरिकी धुरी के लिए यह ज़रूरी था कि ऐसे बैंक बनने के प्रस्ताव पर वह ठण्डा रुख़ दिखलाये। चीन और रूस को परिधि पर धकेलने के तमाम प्रयासों के बावजूद रूस-चीन धुरी ने अमेरिकी पार्टनरों में ही तोड़-फोड़ मचा दी। मिसाल के तौर पर, चीन ने ऑस्ट्रेलिया के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है। ऑस्ट्रेलिया ने नागरिक उपयोग के लिए भारत और चीन को यूरेनियम बेचने को स्वीकृति दी है और साथ ही रूस तक को यूरेनियम बेचने से उसने कोई इंकार नहीं किया है। उसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया ने भारत के पूँजीपति घराने अदानी को अपने देश में कोयले की खानों का ठेका दिया है। इसलिए अगर कुल मिलाकर देखें तो अमेरिकी धुरी उभरती हुई रूस-चीन धुरी के विरुद्ध कोई विशेष सफलता हासिल नहीं कर पायी। जहाँ तक यूरोपीय संघ का प्रश्न है, उसकी हालत धोबी के कुत्ते के जैसी हो गयी है। रूस-चीन धुरी के साथ वह सीधा बैर नहीं मोल लेना चाहती है, क्योंकि रूस की प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के भण्डार से उसे काफ़ी कुछ मिलता है और उसकी कई भावी उम्मीदें भी हैं। इसके अलावा, चीन की अर्थव्यवस्था के साथ न सिर्फ़ अमेरिकी अर्थव्यवस्था नाभिनालबद्ध हो चुकी है, बल्कि स्वयं यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था भी चीनी आयात पर काफ़ी हद तक निर्भर होने लगी है। लेकिन साथ ही वह तमाम ऐतिहासिक कारणों, डॉलर पर निर्भरता और अमेरिका पर सैन्य निर्भरता के कारण यूरोपीय संघ अमेरिका के साथ रहने को भी मजबूर है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि यह गठजोड़ स्वाभाविक नहीं है और आने वाले समय में टूट भी सकता है। कुल मिलाकर, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि विश्व के साम्राज्यवादी समीकरणों में बदलाव आने की प्रक्रिया धीमी गति से ही सही, लेकिन जारी है। एकछत्र अमेरिकी वर्चस्व तो पहले ही टूट चुका है, लेकिन अभी भी अमेरिका ही सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति है। लेकिन यह एक सच्चाई है कि उसकी शक्ति ढलान पर है।
पर्यावरण के प्रश्न पर भी ये बदलते समीकरण नज़र आ रहे थे। साम्राज्यवादी देशों के बीच खींचतान नज़र आयी। पर्यावरण को बचाने और उसमें हो रहे विनाशकारी परिवर्तनों के अनुसार मानवता को अनुकूलित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के एक फ़ण्ड के निर्माण के प्रस्ताव को साम्राज्यवादी देशों ने ही तवज्जो नहीं दी। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री टोनी एबट (जोकि सबसे मूर्ख राष्ट्र-प्रमुखों की प्रतिस्पर्द्धा में जॉर्ज बुश जूनियर और नरेन्द्र मोदी जैसे दिग्गजों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं!) ने यहाँ तक कह दिया कि यह प्रस्ताव ‘पर्यावरणवाद के मुखौटे में समाजवाद’ है! समाजवाद के प्रति डर साम्राज्यवादियों में इस कदर समाया हुआ है (समाजवाद की मृत्यु के तमाम दावों के बावजूद) कि उनके मुनाफ़े की रफ्तार को धीमा करने वाला कोई सुधारवादी प्रस्ताव भी उन्हें ‘समाजवादी’ प्रतीत होता है! आगे बढ़ने से पहले यह भी स्पष्ट कर दें कि अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व को चुनौती देने वाली रूस-चीन धुरी भी स्वयं साम्राज्यवादियों का ही गिरोह है और अपने-अपने देशों के भीतर आम जनता को लूटने और कुचलने में ये देश कहीं भी अमेरिकी धुरी के देशों से पीछे नहीं हैं। साथ ही, जिन देशों में इनका असर ज़्यादा है, वहाँ भी इन्होंने जनता को दबाने में कोई रू-रियायत नहीं बरती है। वास्तव में, इन धुरियों के बीच का झगड़ा साम्राज्यवादी डाकुओं के बीच का झगड़ा है। इनमें से किसी एक के जीतने पर या हावी होने पर हमें ताली बजाने की कोई ज़रूरत नहीं है। सवाल यह है कि इनके बीच के अन्तरविरोधों के गहराने और इनके बीच के समीकरणों के बदलने का हमारे लिए क्या अर्थ है? क्या इनके मद्देनज़र हमें भी अपनी तैयारियों के लिए कुछ नतीजे निकालने चाहिए?
इतिहास गवाह है कि जब भी साम्राज्यवादियों के बीच लूट में हिस्सेदारी को लेकर झगड़ा बढ़ा है, जब भी उनके बीच के अन्तरविरोध गहराये हैं, जब भी साम्राज्यवाद के वैश्विक समीकरणों में कोई बड़ा बदलाव आया है, तो वह शान्तिपूर्ण तरीक़े से नहीं आया है। साम्राज्यवाद के संकटों ने ही पहले और दूसरे विश्वयुद्ध को जन्म दिया। नया लुटेरा गिरोह के सरदार की उपाधि पुराने सरदार से लड़कर ही जीतता है, यह उसे कभी पुराना सरदार तोहफ़े में नहीं देता है। साम्राज्यवादी डाकुओं पर भी यह बात पूरी तरह से लागू होती है। इसीलिए सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने कहा था कि साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। यह सच है कि आज तीसरे विश्वयुद्ध की गुंजाइश कम है। इसका पहला कारण तो यह है कि उपनिवेशवाद का ज़माना चला गया और उस रूप में उपनिवेशों के फिर से बँटवारे की लड़ाई पूरी दुनिया के पैमाने पर नहीं लड़ी जा सकती है। दूसरा कारण यह है कि आणविक हथियारों का जखीरा आज दुनिया के कई साम्राज्यवादी देशों के पास है। हर धुरी के पास अच्छी-ख़ासी तादाद में ऐसे हथियार मौजूद हैं। ऐसे में, हालाँकि साम्राज्यवादी पागलपन अपवादस्वरूप स्थितियों में और क्रान्तिकारी शक्तियों की अनुपस्थिति में किसी भी हद तक जा सकता है और आणविक युद्ध के ज़रिये मानवता का विनाश भी कर सकता है, लेकिन इसकी गुंजाइश बेहद कम है। यह भी एक कारण है कि आज पहले दो विश्वयुद्धों की तरह कोई तीसरा विश्वयुद्ध नहीं होगा। तीसरा कारण यह है कि साम्राज्यवादियों ने भी इतिहास से सबक लिया है कि हर ऐसा व्यापक विश्वयुद्ध कई देशों में क्रान्ति की परिस्थितियाँ तैयार करता है। पहले विश्वयुद्ध ने रूस में समाजवादी क्रान्ति की परिस्थितियाँ तैयार कीं, तो दूसरे विश्वयुद्ध में फासीवादी धुरी की हार ने एक ओर चीन को तो दूसरी ओर पूरे पूर्वी यूरोप को लाल कर दिया। आज साम्राज्यवादी ऐसे किसी टकराव से बचना चाहते हैं जोकि पूरे विश्व के पैमाने पर हो और विश्व के कई देशों में समाजवादी क्रान्ति की ज़मीन को तैयार करे। इन तीन कारणों से आज तीसरे विश्वयुद्ध की गुंजाइश बेहद कम है।
लेकिन साम्राज्यवाद का अर्थ आज भी युद्ध है। अब ये युद्ध विश्वयुद्ध का रूप न भी लें, तो साम्राज्यवादी युद्ध के कुछ क्षेत्रीय/महाद्वीपीय मंच निर्मित होंगे। मिसाल के तौर पर, अभी ऐसा एक मंच मध्य-पूर्व और यूक्रेन बने हुए हैं जहाँ पर साम्राज्यवादी धुरियों के बीच के अन्तरविरोध सान्द्र होकर इकट्ठा हो गये हैं। साथ ही सैन्य युद्ध न होने के बावजूद, दक्षिणी और दक्षिणी-पूर्वी यूरोप के पिछड़े पूँजीवादी देश भी साम्राज्यवादियों के बीच के अन्तरविरोधों के एक जगह एकत्र होने की निशानी हैं। यूरोप के ज़मीन पर साम्राज्यवादी युद्ध साम्राज्यवाद के लिए बहुत ज़्यादा ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि वहाँ की जनता की राजनीतिक चेतना का स्तर अच्छा-ख़ासा विकसित है और उसके क्रान्तिकारी राजनीतिकरण की ओर तेज़ी से बढ़ने की सम्भावना काफ़ी ज़्यादा है। इसलिए वहाँ खुले सैन्य युद्ध की बजाय साम्राज्यवादियों ने एक अन्दरूनी प्रच्छन्न युद्ध छेड़ रखा है। यूनान, स्पेन, पुर्तगाल और इटली में ये साम्राज्यवादी लगातार फासीवादी ताक़तों को वित्तपोषण व अन्य सहायता दे रहे हैं, ताकि जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों के ख़िलाफ़ एक अघोषित युद्ध चलाया जा सके। लेकिन मध्य-पूर्व में हालात बेहद भयंकर हैं और खुले युद्ध जैसे हैं। यही कारण है कि मिस्र और ट्यूनीशिया में, सीरिया और जॉर्डन में रह-रहकर जनविद्रोह हो रहे हैं। यही कारण है कि सीरिया के कुर्द मज़दूर न सिर्फ़ धार्मिक कट्टरपन्थियों से लोहा ले रहे हैं, बल्कि साम्राज्यवाद से भी लोहा ले रहे हैं। लातिन अमेरिका में भी छात्रों-युवाओं-मज़दूरों के आन्दोलन लगातार सिर उठा रहे हैं। ये जनविद्रोह दिखला रहे हैं कि साम्राज्यवादी पतली रस्सी पर चल रहे हैं। ये जनविद्रोह दिखला रहे हैं कि युद्ध हमेशा की तरह क्रान्ति की सम्भावना से सम्पन्न परिस्थितियों को जन्म देते हैं। लेकिन साथ ही, इन जनविद्रोहों के कुचल दिये जाने ने यह भी सिद्ध किया है कि जनविद्रोह स्वयं क्रान्ति में तब्दील नहीं होते। नौजवानों को आज यह स्पष्ट तौर पर समझ लेने की ज़रूरत है कि क्रान्ति के लिए संगठन और विचारधारा की ज़रूरत होती है। यानी क्रान्ति के विज्ञान से लैस मज़दूर वर्ग की एक हिरावल पार्टी।
आने वाले समय में साम्राज्यवाद का बढ़ता संकट हमारे देश में भी राजनीतिक व सामरिक संकट पैदा कर सकता है। ऐसे में, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन होंगे, मज़दूरों की बग़ावतें होंगी, ग़रीब किसान सड़कों पर उतरेंगे! लेकिन क्या ये बग़ावतें ख़ुद-ब-ख़ुद क्रान्ति में तब्दील हो जायेंगी और पूँजीवाद को नष्ट कर देंगी? कभी नहीं! इतिहास ने यह साबित किया है कि क्रान्तिकारी विचारधारा के अभाव में जुझारू से जुझारू छात्रों-मज़दूरों के आन्दोलन अन्ततः बिखर जाते हैं। आनेवाला समय उथल-पुथल भरा होगा! आनेवाला समय विद्रोहों का समय होगा! लेकिन समाजवाद की घड़ी को समाजवाद में तब्दील करने के लिए हमारे पास मज़दूर वर्ग की एक तपी-तपायी, क्रान्तिकारी, हिरावल पार्टी होनी चाहिए। इसके बग़ैर, समाजवाद की घड़ी बीत जायेगी और हमारी सज़ा होगी – युद्ध, तबाही, फासीवाद! साम्राज्यवाद के बढ़ते अन्तरविरोधों को समझना इसीलिए ज़रूरी है कि हम अपने आज के कार्यभार को समझ सकें। मिस्र में पिछले चार-पाँच वर्षों में ही कई बार क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ आयीं, लेकिन वैज्ञानिक क्रान्तिकारी विचारधारा और एक क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी में उसे क्रान्ति में तब्दील नहीं किया जा सका। ऐसी ही स्थिति कुछ अन्य देशों में भी दुहरायी गयी। साम्राज्यवाद पतली रस्सी पर ज़रूर चल रहा है, लेकिन यह बिना धक्के के नहीं गिरने वाला है। उसे गिराने के लिए बल की ज़रूरत है; बल लगाने के लिए बल लगानेवाली संगठित शक्ति की ज़रूरत है; बल लगानेवाली संगठित शक्ति को यह पता होना चाहिए बल कैसे और किस दिशा में लगाना है। यही हमारी आज की ज़रूरत है। यही हमारा आज का कार्यभार है – क्रान्ति के विज्ञान की समझदारी को हासिल करना! इस समझदारी के आधार पर एक क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी का निर्माण करना!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2014
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