‘लालच ज़िन्दाबाद! इंक.’ का नया शाहकार!!!
महामंदी – ll
निर्देशक : अमेरिकी अर्थव्यवस्था
निर्माता : विश्व पूँजीवाद

अभिनव

एक बार पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता रॉबर्ट पेन वॉरेन ने कहा था, “अतीत हमेशा वर्तमान को एक झिड़की होता है ।” आह्वान के पिछले अंक में अमेरिकी सबप्राइम संकट के बारे में लिखते हुए हमने कहा था कि यह छोटे चक्रीय क्रम में आने वाला कोई छोटा संकट नहीं है बल्कि अंतिम मर्ज़ से ग्रस्त पूँजीवाद का एक महासंकट है जो आठ दशक के लम्बे चक्र के बाद दोबारा आया है । यह निश्चित तौर पर एक बहस का मुद्दा हो सकता है कि यह साम्राज्यवाद का आखिरी संकट है या नहीं । बहुत से प्रेक्षक कहेंगे कि इस संकट से देर–सबेर विश्व पूँजीवाद उबर जाएगा । लेकिन अन्तदृष्टि रखने वाले सभी अर्थशास्त्री और राजनीतिक टिप्पणीकार स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि जिन नुस्खों से विश्व पूँजीवाद मौजूदा संकट से उबर सकता है वे इससे भी भयंकर मन्दी को कुछ समय बाद प्रस्तुत कर देंगे । अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 8 अक्टूबर को दिये गये अपने आधिकारिक बयान में कहा है कि विश्व अर्थव्यवस्था एक पूर्णरूपेण आर्थिक महामन्दी की ओर बढ़ रही है । 8 अक्टूबर के दिन ही दुनिया की चार महत्वपूर्ण आर्थिक शक्तियों ने इस महामन्दी के प्रभाव को कुछ समय के लिए टालने की ख़ातिर कुछ कदम उठाये । अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के केन्द्रीय बैंकों ने ऋण दरों को गिरा दिया और कुछ देशों में सरकारों ने ऋणों और बैंकों की देनदारियों का बीमा कर दिया है । ऐसा दो कारणों से किया गया है; पहला, बाज़ार में जारी गिरावट को थामा जा सके; दूसरा, लोगों के बीच भय न फैले । लेकिन इन देशों की सरकारें अच्छी तरह जानती हैं कि ऐसा करके वे संकट को कुछ समय के लिए हल्का महसूस करा सकते हैं । इससे संकट वास्तव में कम नहीं होने वाला । बल्कि इससे संकट और भयंकर तरीके से बढ़ सकता है ।

हालाँकि हमने पिछले अंक में बताया था कि पूरी विश्व अर्थव्यवस्था डॉट कॉम क्रैश, स्टॉक मार्केट संकट और सबप्राइम संकट से होते हुए किस तरह इस वैश्विक वित्तीय संकट तक पहुँची है, लेकिन हम एक बार फिर पाठकों को इस पूरी प्रक्रिया से अवगत कराना चाहेंगे ।

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आज हम जो परिघटना देख रहे हैं वह दरअसल एक सट्टेबाज़ी से पैदा हुए वित्तीय बुलबुले का फूटना है । यह बुलबुला बना था अमेरिकी आवास बाज़ार में । कहानी को शुरुआत से शुरू करने की बजाय हम आवासीय बाज़ार से ही शुरू करेंगे । अमेरिका में यह मान्यता रही है कि आवास बाज़ार में कभी मन्दी नहीं आ सकती क्योंकि घर का स्वामी होना हर अमेरिकी नागरिक के सबसे प्यार से पाले गये सपनों में से एक होता है । इसलिए यह माना जाता है कि घरों की कीमत अमेरिका में कभी घट नहीं सकती है । इसलिए आवास ऋणों का बाज़ार अमेरिका में काफी गर्म रहता है । यह गर्मी ख़ास तौर पर डॉट कॉम और शेयर बाज़ार बुलबुले के फूटने के बाद और बढ़ी । कारण यह था कि इन संकटों के बाद वित्तीय बाज़ार में जो मन्दी आई उससे निपटने के लिए अमेरिकी केन्द्रीय बैंक ने ऋण दरों को बेहद घटा दिया और बाज़ार में तरलता को इंजेक्ट किया । नतीजा यह था कि तमाम ऋण बैंकों ने बड़े पैमाने पर आवास ऋण देना शुरू किया । आवास ऋणों की माँग एकदम आसमान छूने लगी । यह पूरा काम किस तरह होता था, इस पर निगाह डालकर ही मौजूदा संकट की आंतरिक संरचना को समझा जा सकता है ।

दुनिया भर के निवेश बैंक अमेरिकी बैंकों से आवास ऋणों को खरीदते हैं । इसके बाद वे इसे सी.डी.ओ. (कोलैटरल डेट ऑब्लिगेशन) पैकेजों में तोड़ देते हैं । इसका अर्थ होता है उन आवास ऋणों को खरीदना जिन्हें बैंक पहले ही ग्राहकों को जारी कर चुके होते हैं । इसके बाद उन्हें छोटे–छोटे वित्तीय पैकेजों में तोड़ा जाता है और फिर ब्याज दरों, ऋण काल आदि के आधार पर विभिन्न नामों से दुनिया भर के निवेशकों को बेचा जाता है । ये नाम कुछ ऐसे होते हैं-“हाई ग्रेड स्ट्रक्चर्ड एनहैंस्ड लीवरेज फण्ड”!! ये काफी कुछ म्यूचुअल फण्ड्स जैसे ही होते हैं । जब कोई निवेशक सी.डी.ओ. खरीदता है तो उसे उस ऋण पर आने वाले ब्याज का लाभांश प्राप्त होता है । यहीं से आवासीय बाज़ार पूरे वित्तीय बाज़ार से जुड़ जाता है । केन्द्रीय बैंक निवेश बैंकों को ये ऋण इसलिए बेचते हैं क्योंकि निवेश बैंक उनको एकमुश्त विशालकाय पेशगी देते हैं और फिर ब्याज का एक हिस्सा भी उन्हें रखने देते हैं । एकमुश्त भुगतान केन्द्रीय बैंकों को ऋण देने–लेने में और ज़्यादा सक्षम बना देता है क्योंकि यह उनके पास उपलब्ध तरलता को बढ़ा देता है । नहीं तो आवास ऋण का वापस भुगतान होने में 20 से 30 वर्ष का समय तक लग जाता है । इन सी.डी.ओ. पैकेजों में दुनिया भर के धनलोलुप सट्टेबाज़ों से लेकर लोभी बैंकर व लालची दलाल निवेश करते हैं और इसके जोखिम को वे अपने से नीचे छोटे निवेशकों में बाँट देते हैं । नतीजा यह होता है कि भारत के छोटे से सरकारी कर्मचारी से लेकर लीमैन जैसे विशालकाय निवेश बैंक एक कमज़ोर–जर्जर वित्तीय जाले का एक अंग बन जाते हैं । अगर एक जगह से जाला टूटता है तो सभी धड़ाम–धड़ाम गिरना शुरू हो जाते हैं । आवास बाज़ार को वित्तीय निवेशक बैंकों ने इसलिए चुना क्योंकि यहाँ जैसी ब्याज़ दर उन्हें और किसी भी बाज़ार में नहीं मिल सकती है । डॉट कॉम बुलबुले के फूटने के बाद शेयर बाज़ार उतना ललचा देने वाला निवेश विकल्प नहीं रह गया था ।

बैंक आवास बाज़ार को एकदम सुरक्षित मानते थे । इसका कारण पहले ही बताया जा चुका है । नतीजतन, बैंकर यह मानकर चलते थे कि 2–3 प्रतिशत से ज़्यादा ग्राहक ऐसे नहीं होंगे जो ऋण के ब्याज़ का भुगतान न कर सकें । इसके अतिरिक्त, भुगतान में असफलता से निपटने के लिए निवेश बैंकों ने इस ऋणों का बीमा ए.आई.जी. नामक बीमा कम्पनी से करवा लिया । बीमा कम्पनी ने भी आवास बाज़ार में अत्यधिक विश्वास दिखलाते हुए इन ऋणों का बीमा कर दिया । लेकिन 2005 के अन्त में यह विश्वास खोखला साबित होना शुरू हो गया ।

जैसे–जैसे सी.डी.ओ. पैकेजों की माँग वित्तीय बाज़ारों में तेज़ी से बढ़ने लगी, वैसे ही विशाल निवेश बैंकों, जैसे लीमैन, ने स्वयं अपनी पूँजी इसमें निवेश करनी शुरू कर दी । इससे एक हाउसिंग बूम पैदा हुआ । यह पूरा बूम इस आवास बाज़ार में मौजूद स्थायी तेज़ी की धारणा पर आधारित था । इस बूम का फल चखने के लिए टटपुँजिया निवेशकों से लेकर विशाल बैंकों तक सभी इसमें निवेश करने लगे । इसके कारण दलाली के बदले में केन्द्रीय बैंकों ने और अधिक आवास ऋण देना शुरू कर दिया । इन ऋणों को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए बैंकों ने धीरे–धीरे ऋण देने के मानकों को ढीला करना शुरू कर दिया । यह वित्तीय बाज़ार में “अति–उत्पादन” के संकट से निपटने के लिए उठाया जाने वाला कदम था । वित्तीय संस्थानों को निवेश के लिए नये अवसर और स्थान चाहिए थे और उन स्थानों पर निवेशकों को लुभाने के लिए नये हथकण्डे भी अपनाये ही जाने थे । नतीजतन, सबप्राइम लेंडिंग की शुरुआत हुई जिसमें किसी व्यक्ति के ऋण इतिहास पर ध्यान दिये बगैर ऋण देने की शुरुआत की गई । ऋण के भुगतान की असफलता से निपटने के लिए एडजस्टेबल (परिवर्तनीय) ब्याज़ दरों के सिद्धान्त को लागू किया गया । यानी, कुछ ही किश्तों में ऋण के बराबर ब्याज़ वसूल लेने का हथकण्डा । इसके पीछे यह मान्यता काम कर रही थी कि कोई भी ऋण लेने वाला पहली कुछ किश्तें तो देगा ही, उसके बाद ही वह डिफॉल्टर बनेगा । नतीजतन, लोगों ने घर ख़रीदने के लिए बड़े पैमाने पर ऋण लेना शुरू किया और इससे घरों की माँग बढ़ी, उनकी कीमतें भी बढ़ीं और फिर ऋण की माँग और अधिक बढ़ीय इससे घरों की माँग फिर से और अधिक बढ़ी, फिर ऋण की माँग भी बढ़ी–––और नतीजा था, एक विशालकाय वित्तीय बुलबुला । लोगों ने आवास को एक निवेश के रूप में देखना शुरू कर दिया जिसने इस बुलबुले को अन्तिम हदों तक फुला दिया ।

2006 के अन्त में इन ऋणदाताओं ने एक ऐसी परिघटना देखनी शुरू की जो उनकी कल्पना से परे थी । लोगों ने ऋण लेकर घरों को खरीदा और पहले ही भुगतान में उन्होंने ऋण वापस करने में अपनी अक्षमता जता दी । 2004 से 2006 के बीच ब्याज़ दरें बढ़ती गईं थीं जिसके कारण परिवर्तनीय दर वाले ऋणों की किश्त भरना ऋण प्राप्तकर्ताओं के बहुत बड़े हिस्से के लिए असम्भव हो गया । परिणामत:, फोरक्लोज़र्स, यानी कि ऋण वापस न मिलने की सूरत में नीलामी शुरू हो गयी । लेकिन इसके साथ ही आवास बाज़ार में कीमतों में गिरावट शुरू हो गयी और घर खरीदने या उसमें निवेश करने में लोगों की दिलचस्पी तेज़ी से घटी । यानी, अब नीलाम होने वाले घरों को खरीदने वाले लोग भी बेहद कम हो गये । लिहाज़ा, करोड़ों–अरबों डॉलरों का डिफॉल्ट्स के कारण डूबना शुरू हुआ । एक बार आवास बाज़ार में कीमतों के नीचे होना शुरू होने के साथ ही एक उल्टा नीचे की ओर जाने वाला ‘चेन रिएक्शन’ शुरू हो गया । ज़्यादा से ज़्यादा घर बाज़ार में बिकने के लिए बिछ गये लेकिन ख़रीदार कोई नहीं था! वॉल स्ट्रीट की कम्पनियाँ जो इन आवासीय ऋणों को खरीदकर सी.डी.ओ. पैकेजों में तोड़कर दुनिया भर में बेचकर मुनाफ़ा कमा रही थीं, उन्होंने आवासीय ऋणों को निवेश बैंकों आदि से खरीदना बन्द कर दिया । नतीजतन, तमाम निवेश बैंक तबाह होने लगे । इन ऋणों का बीमा करने वाली कम्पनी ए.आई.जी. ने कभी नहीं सोचा था कि इतने सारे डिफॉल्ट्स होंगे । इतनी बड़ी संख्या में होने वाले दावों को वह पूरा नहीं कर सकती थी । सबसे मज़ेदार बात यह थी कि इन बीमा करारों को भी तोड़कर दुनिया भर में बेच दिया गया था जिससे यह पता कर पाना मुश्किल था कि बरबाद होने वाले निवेशकों को मुआवजा देने के लिए ज़िम्मेदार कौन है ?

आवासीय ऋणों की नींव पर बना यह वैश्विक बुलबुला अब छोटे–छोटे विस्फोटों के साथ फूटना शुरू हो गया है । नतीजे के तौर पर हम पिछले कुछ महीने में दीवालिया हुए वैश्विक वित्तीय बैंकों पर एक निगाह डाल सकते हैं । अभी हाल ही में बरबाद हुए विशालकाय बैंक लीमैन की भारतीय शाखा खरीदे जाने के लिए बाज़ार में उपलब्ध है जिसमें करीब एक हज़ार लोग काम करते हैं । भारतीय शेयर बाज़ार इस उथल–पुथल से यह लेख लिखे जाने तक 11,000 के आँकड़े पर आ चुका था । ग़ौरतलब है कि अभी साल भर पहले ही उसके 20,000 के आँकड़े को पार करने पर सारे तेजड़िये पागलों की तरह उन्माद में दलाल स्ट्रीट की सड़कों पर नाच रहे थे । इसका कारण यह है कि वॉल स्ट्रीट के बड़े खिलाड़ियों ने भारत में अपने निवेशों की बिकवाली शुरू कर दी है ताकि मॉर्टगेज बाज़ार में होने वाले अपने नुकसानों की भरपाई कर पाएं । दुनिया भर में हेज फण्ड्स, पेंशन फण्ड्स और बीमा कम्पनियों ने अपने निवेशकों के करोड़ों डॉलर इस संकट में गवाँ दिये हैं । भारत के नवधनाढ्यों के लड़के–लड़कियों को भी इस संकट की गर्मी से पसीना आना शुरू हो गया है, जो प्रबन्धन और बैंकिंग आदि का कोर्स करके बाहर फुर्र से उड़ जाना चाहते थे । बाहर के बैंकों में पहले ही हज़ारों रोज़गारों की कटौती की जा चुकी है । और यह प्रक्रिया अभी जारी है । तमाम भारतीय धनिकों की सन्तानों को जो एप्वाइंटमेंट लेटर मिले थे उन्हें अनिश्चित काल के लिए रद्द किया जा रहा है । भारतीय आई.टी. कम्पनियाँ जो अमेरिकी निवेश बैंकों के लिए काम करती थीं, तबाही की कगार पर खड़ी हैं । यही प्रक्रिया पूरी दुनिया में जारी है और अभी यह संकट अपने पूरे आकार में सामने नहीं आया है । सभी राष्ट्राध्यक्ष इस बात को मान रहे हैं कि यह संकट अभी और बढ़ने वाला है । बुश ने स्वयं कहा है कि अमेरिका एक लम्बी और यंत्रणादायी मन्दी की ओर बढ़ रहा है । अभी अमेरिकी सरकार 700 अरब डॉलर वित्तीय बाज़ार में डाल रही है ताकि सट्टेबाज़ों को कोई नुकसान न हो और जो वित्तीय बुलबुला बना है वह फूटे नहीं बल्कि और फूले । अगर ऐसा करके कुछ समय के लिए संकट के प्रभाव को टाला भी जा सके तो बहुत जल्दी ही यह संकट और विकराल रूप में विश्व पूँजीवाद के सामने होगा ।

तमाम संशोधनवादी वामपंथी अर्थशास्त्री पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के दायरे में ही रहते हुए विनियमन को लागू करके इस संकट को दूर करने का कीन्सियाई नुस्खा सुझा रहे हैं । लेकिन वे भूल जाते हैं कि पूँजी की गति को विनियमित करना पूँजीवादी सरकारों के बूते की बात नहीं होती है । मुनाफ़े की हवस से चलने वाली एक अनियंत्रित, अनियोजित और निजीकृत अर्थव्यवस्था में यही हो ही सकता है । बीच–बीच में होने वाला सरकारी कीन्सियाई हस्तक्षेप संकट को कुछ समय के लिए टाल सकता है, सिर्फ दुबारा और अधिक तूफानी गति और संवेग के साथ आने के लिए । यह विनियमन एक शेखचिल्ली का सपना है । ऐसा कोई भी विनियमन पूँजीवादी विश्व को इन चक्रीय संकटों से नहीं बचा सकता है । इसके सभी तर्कों को यहाँ विस्तार के साथ नहीं बताया जा सकता है । हम अपने पाठकों को पिछले अंक में अमेरिकी सबप्राइम संकट पर प्रकाशित लम्बे लेख को पढ़ने का सुझाव देंगे । संक्षेप में, यह साम्राज्यवाद के भूमण्डलीकरण के दौर का संकट है । भूमण्डलीकरण विश्व साम्राज्यवाद की चरम अवस्था है । इसके बाद पूँजीवाद के पास कोई नयी शरणस्थली नहीं है । ऐसे संकट दुनिया भर में मज़दूरों और आम जनता में एक भयंकर असन्तोष को जन्म दे रहे हैं और आम मेहनतकश जनता इस बात को धीरे–धीरे समझ रही है कि पूँजीवाद इस दुनिया के आम लोगों को अब सिर्फ़ भूख, बेरोज़गारी, कुपोषण और बरबादी दे सकता है । मानवता को इसके विकल्प के बारे में सोचना होगा, किसी बेहतर सन्त कल्याणकारी पूँजीवाद के बारे में नहीं ।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2008

 

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