छात्रों के जनवादी अधिकारों पर एक ख़तरनाक हमला

सम्‍पादकीय

छात्रसंघ चुनावों पर लिंगदोह कमेटी की हुई रिपोर्ट ऐसे समय में जारी हुई जब मध्‍यप्रदेश में छात्रसंघ चुनाव के दौरान एक प्रोफेसर की हत्या और कई अन्य घटनाओं के जरिए छात्र राजनीति पर हावी गुण्डागर्दी का ज़िक्र सबकी जुबान पर था। इन घटनाओं ने ऐसे लोगों को और मसाला दे दिया जिनके मुताबिक छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिये और कैम्पसों में छात्र राजनीति पर कड़ी बन्दिशें जरूरी हैं।

उच्चतम न्यायालय द्वारा इस रिपोर्ट को स्वीकार करके विश्वविद्यालयों को फौरन इसकी सिफ़ारिशों पर अमल करने का निर्देश दे दिया गया। स्वाभाविक तौर पर पूरे बुर्जुआ मीडिया ने इन सिफारिशों का जमकर स्वागत किया मानो यह छात्र राजनीति को “साफ़–सुथरा” बनाने का कोई रामबाण नुस्खा हो। मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से ने भी इसका स्वागत किया है हालाँकि बहुत से शिक्षकों और बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध भी किया है। आम छात्र–छात्राओं की व्यापक आबादी में इस रिपोर्ट को लेकर उहापोह की स्थिति है। एक तरफ बहुत से छात्र–छात्राएँ जो छात्र राजनीति में बढ़ती गुण्डागर्दी और मनी पावर–मसल पावर से त्रस्त हैं, इन सिफारिशों से खुश हैं, दूसरी ओर ऐसे छात्र भी कम नहीं हैं जो इन सिफारिशों को छात्रों के जनवादी अधिकारों पर हमले के रूप में देख रहे हैं।

कहने के लिए लिंगदोह कमेटी के सुझावों का मक़सद छात्र राजनीति की सफाई करना है और उसे राजनीतिक कुरीतियों से बचाना है। लेकिन दरअसल यह छात्र राजनीति को साफ करने के नाम पर साधारण छात्रों की व्यापक आबादी को राजनीति से दूर करने की साजि“श है। यह छात्रों के जनवादी अधिकारों पर हमला है। जिस तरह  लोकसभा और विधानसभा चुनावों में आचार संहिता का तमाम चुनावी पार्टियों और अपराधी उम्मीदवारों के लिए कोई मतलब नहीं है और आचार संहिता के प्रावधानों से बच निकलने के चोर रास्ते तलाश लिये जाते हैं, उसी तरह छात्र संघ चुनावों में भी ये सुझाव छात्र राजनीति को तो साफ नहीं कर पायेंगे, हाँ, छात्रों के वास्तविक प्रतिनिधियों के लिए छात्र संघ के मंच का इस्तेमाल कर पाना जरूर थोड़ा और मुश्किल बना देंगे। और यही इन सिफारिशों का असली मक़सद भी है।

लिंगदोह कमेटी के पीछे के असली इरादों और मक़सद की बात करने और इसके सुझावों के असली चरित्र को समझने से पहले इसकी पृष्ठभूमि को जान लेना जरूरी है।

जे– एम– लिंगदोह कमेटी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर इसी वर्ष 20 जनवरी को बनायी गयी थी। इसका घोषित उद्देश्य इस बात की पड़ताल करना था कि छात्र संघ चुनावों में किस प्रकार की धाँधलियाँ चलती हैं और किस तरह की कैम्पस अनुशासनहीनता (जिसमें हिंसा भी शामिल है) का बोलबाला है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कमेटी केरल विश्वविद्यालय और केरल के कॉलेजों के प्राचार्यों की परिषद के बीच एक मामले की सुनवाई के दौरान बनाई थी। एक निचली अदालत ने यह आदेश दिया था कि विश्वविद्यालय छात्र संघ में छात्रों के चुने जाने के तरीक़े में दख़ल नहीं दे सकता। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी और इसी मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे– एम– लिंगदोह के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई। इस कमेटी का मक़सद छात्र संघ चुनावों में मौजूद बुराइयों की ओर इंगित करना और उनके उन्मूलन के लिए सकारात्मक सुझाव देना था। इसमें जे– एम– लिंगदोह के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू वि’वविद्यालय की प्रो– जोया हसन, सेण्टर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रो– प्रताप भानु मेहता जैसी शख्सियतें भी थीं।

कमेटी को छात्र संघ में अपराधीकरण की जाँच, आर्थिक पारदर्शिता, चुनाव के संचालन में ख़र्च की सीमा, चुनाव लड़ने के लिए आयु सीमा, और अकादमिक न्यूनतम योग्यता पैमाने का निर्धारण करने को कहा गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने साथ ही यह भी कहा कि यह कमेटी छात्र राजनीति में अवांछित तत्वों के प्रवेश को रोकने के लिए जो कदम भी आवश्यक समझे उसका सुझाव दे।

छात्र संघ चुनावों में जिस गन्दगी को हटाने के घोषित उद्देश्य के साथ इस कमेटी को बनाया गया है उसे हटा पाना किसी कमेटी के सुझावों पर अमल से नहीं हो सकता। जाहिर है कि तमाम पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ जो राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव के समय करती हैं वही उनके छात्र संगठन छात्र संघ चुनावों में करते हैं। छात्र संघ चुनाव दरअसल सांसद–विधायक–पार्षद बनने की राजनीति में प्रशिक्षण की नर्सरी के समान हैं और वे ऐसे बने रहेंगे, चाहे कोई भी कमेटी बना दी जाय और उसके सुझावों पर अमल कर लिया जाय। इस बात से न्यायालय और सरकार अच्छी तरह वाकिफ हैं। तमाम शिक्षक, विश्लेषक और छात्र संगठनों के प्रतिनिधि इस बात पर प्रकाश डाल रहे हैं कि किस तरह इस कमेटी की सिफारिशों पर अमल से छात्र राजनीति की सफाई का काम नहीं हो सकता है। कई नौकरशाह भी दबी जुबान में इस बात की तसदीक कर रहे हैं। फिर आख़िर इस कमेटी के सुझावों का मक़सद है क्या यह समझने के लिए हमें लिंगदोह कमेटी द्वारा दिये गये सुझावों पर एक नजर दौड़ानी पड़ेगी।

कमेटी की सबसे महत्वपूर्ण तीन सिफारिशें ये हैं कि छात्र संघ चुनाव लड़ने के लिए छात्रों के लिए अधिकतम आयु सीमा 25 वर्ष निर्धारित कर दी जानी चाहिए; केवल वही छात्र चुनाव लड़ सकता है जिसकी उपस्थिति 75 प्रतिशत हो और जिसका कोई पिछला प्रश्नपत्र रुका न हो; और चुनाव में ख़र्च की सीमा 5000 रुपये कर दी जाये। इसके अतिरिक्त छात्र को चुनाव लड़ने के लिए पूर्णकालिक छात्र होना होगा; वह किसी भी पद के लिए सिर्फ एक बार चुनाव लड़ सकता है।

ये सुझाव देखने में ऊपरी तौर पर बहुत अच्छे लग सकते हैं। हाल में जो घटनाएँ हुई हैं उनके बाद बहुतेरे मध्यमवर्गीय साधारण छात्र इस कमेटी के सुझावों का समर्थन कर रहे हैं। उज्जैन में भगवा ब्रिगेड के छात्र संगठन के गुण्डों द्वारा प्रो– सभरवाल की हत्या, इलाहाबाद वि’वविद्यालय में एक 54 वर्षीय व्यक्ति द्वारा छात्र संघ चुनाव लड़े जाने की घटना; और हर बार जिस मनी–मसल पावर का प्रदर्शन छात्र संघ चुनावों में होता है; उसे देखकर आम छात्र आबादी को भी लगता है कि छात्र राजनीति में बहुत गन्दगी आ गयी है और इसकी सफाई की जरूरत है। दूसरी ओर; सभी चुनावी छात्र संगठनों के उम्मीदवार या नेता आम तौर पर पेशेवर छात्र होते हैं जो सिर्फ चुनाव लड़ने और नेता बनने के मक़सद से ही छात्र बनते हैं। पढ़ाई से उन्हें कोई लेना–देना नहीं होता है। अक्सर वे धनी परिवारों से आते हैं और गुण्डों, पैसे और प्रभाव के जरिये संसद–विधानसभाओं की राजनीति में जाने का रास्ता तैयार कर रहे होते हैं। ऐसे लोग उन्हीं पार्टियों के हैं जो केन्द्र में और तमाम राज्यों में सरकार चला रही हैं। आम छात्र इन लोगों से डरता है; सहमता है, इनकी गुण्डागर्दी और लम्पटई से परेशान रहता है। नतीजतन, उसे आयु सीमा, अकादमिक योग्यता आदि के निर्धारण के प्रस्ताव स्वागत योग्य लगते हैं और उसे लगता है कि इससे छात्र राजनीति को स्वच्छ बनाया जा सकता है। अधिकांश आम छात्र यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि किसी चुनावबाज पार्टी का पिछलग्गू छात्र संगठन उनके हितों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। दूसरी ओर छात्र राजनीति में कोई क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा नहीं किया जा सका है और एक विकल्पहीनता की स्थिति है। ऐसे में छात्रों का यह सोचना स्वाभाविक है कि चलो और कुछ नहीं तो इस गन्दी राजनीति पर लगाम कसने के लिए कुछ तो किया जा रहा है। वैसे भी न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं में मध्यम वर्ग की अटूट और धार्मिक किस्म की आस्था होती है, जो दरअसल व्यवस्था के दूरदर्शी रक्षक और पहरेदार की भूमिका में होते हैं और जनतंत्र के ख़र्चीले ड्रामे को ‘जेनुइन’ बनाने और आम लोगों का उस पर यकीन कायम रखने का काम करते हैं।

लेकिन हमें यह समझना होगा कि ये सिफारिशें छात्र राजनीति को साफ करने के नाम पर छात्र संघ को शक्तिहीन बना देने की साजि’श हैं। कमेटी की अहम सिफारिशों पर एक नज़र डालें तो इनकी असलियत साफ हो जायेगी। छात्रों के लिए चुनाव लड़ने के लिए 25 वर्ष की आयु सीमा निर्धारित करने का कदम बेहद गैर–जनतान्त्रिक है। तमाम शोध विद्यार्थी और अनुसंधानकर्ता जो विश्वविद्यालय के छात्र होते हैं, उनकी उम्र आम तौर पर 25 वर्ष से ज़्यादा होती है। वे भी विश्वविद्यालय के पूर्णकालिक छात्र होते हैं लेकिन इस कमेटी की सिफारिशों पर अमल का अर्थ होगा कि वे छात्रों के प्रतिनिधित्व का अधिकार खो देंगे।

दूसरा कदम और भी अधिक घातक है। यह है 75 प्रतिशत उपस्थिति का नियम। अधिकांश वि’वविद्यालय परीक्षा देने की न्यूनतम पूर्वशर्त के तौर पर भी 75 प्रतिशत उपस्थिति की माँग नहीं करते हैं। ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए इतनी उपस्थिति की माँग का क्या तुक बनता है? किसी भी छात्र से अकादमिक तौर पर आवश्यक न्यूनतम उपस्थिति से अधिक उपस्थिति की माँग करना एकदम असंवैधानिक और गैर–जनवादी है। तमाम शिक्षकगण तक इस बात को मान रहे हैं कि यह एक ग“लत कदम है। अगर कम उपस्थिति कैम्पस के माहौल के गन्दा होने का कारण होती तब तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को सबसे गन्दा कैम्पस होना चाहिए था।

अब ज़रा चुनाव में उम्मीदवार द्वारा खर्च की सीमा 5000 रुपये करने की सिफारिश को देखें। इसकी असलियत को समझने के लिए संसद और विधानसभाओं के चुनावों में लागू ख़र्च की सीमा पर नज़र डाल लेना काफ़ी होगा। एमपी–एमएलए के चुनावों में ख़र्च की सीमा कुछ लाख रुपये तय है। सभी उम्मीदवार बड़ी चुस्ती से चुनाव खर्च का ब्योरा भी आयोग में जमा करा देते हैं, लेकिन हर कोई जानता है कि इससे बड़ा मज़ाक कोई नहीं हो सकता। किसी भी चुनावी पार्टी के उम्मीदवार का बजट एक करोड़ रूपये से कम नहीं होता। ऐसा ही छात्रसंघ के चुनावों में भी होने वाला है। जाहिर है ,इन सिफारिशों का प्रभाव उन छात्र संगठनों पर ही पड़ेगा जो छात्रों के बीच से संसाधन जुटाकर काम करते हैं। चुनावी पार्टियों के पिछलग्गू छात्र संगठनों के उम्मीदवारों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। मान लीजिये कि कोई छात्र ”व्यक्तिगत तौर” पर’’ अपने संसाधन से किसी उम्मीदवार के लिए पर्चे छपवाता है और गाड़ियों का इंतजाम करता है तो कोई भी कानून उसे ऐसा करने से नहीं रोक सकता है। इस ‘लूपहोल’ का इस्तेमाल जाहिरा तौर पर वे छात्र संगठन नहीं कर सकेंगे जो आम ग“रीब और निम्न मध्यमवर्गीय छात्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका लाभ सामाजिक रूप से प्रभाव’शाली और धनी घरों से आने वाले छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले छात्र संगठन ही उठायेंगे। चुनावी पार्टियों से जुड़े और मनी पावर–मसल पावर की राजनीति करने वाले छात्र संगठनों पर इस रोक का रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ेगा।

लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को कैम्पसों में और पूरे समाज में जनवादी अधिकारों में की जा रही कटौतियों से अलग करके नहीं समझा जा सकता है। कैम्पसों में सिर्फ छात्रों के ही नहीं बल्कि शिक्षकों और कर्मचारियों के जनवादी अधिकारों में भी एक के बाद एक कटौतियाँ की गयी हैं। मज़दूरों–कर्मचारियों के संगठित होने और अपने हक़ के लिए आवाज उठाने के अधिकारों में आये दिन कटौती की जा रही है। इस मामले में सरकार, सभी चुनावी पार्टियों, मालिकों–प्रबंधकों और न्यायपालिका के बीच गज़ब की एकजुटता दिखायी दे रही है। बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आम लोगों के बीच न्यायपालिका की साख का लाभ उठाकर जनवादी अधिकारों पर ज़्यादातर हमलों की शुरुआत आज न्यायपालिका के जरिये ही करायी जा रही है।

यह समझना भी जरूरी है कि आज यह व्यवस्था छात्रों–युवाओं के जनवादी अधिकारों को ख़तरनाक क्यों मान रही है। बेशक, आज छात्र आन्दोलन बिखरा हुआ, दिशाविहीन और कमजोर है। छात्र हितों पर लगातार हो रही चोटों के ख़िलाफ, बेरोजगारी, फीस बढ़ोत्तरी, दमन–उत्पीड़न के ख़िलाफ कोई मजबूत और व्यापक आन्दोलन नहीं हो पा रहा है, यह आज की सच्चाई है। लेकिन इस व्यवस्था के सिपहसालार अच्छी तरह जानते हैं कि यह स्थिति हमेशा बनी रहने वाली नहीं है। जोर–शोर से लागू की जा रही नयी आर्थिक नीतियाँ जिस तरह बेरोजगारी को बढ़ा रही हैं और कैम्पसों को जिस तरह से अभिजात वर्गों के लिए आरक्षित करने की कोशिश की जा रही है उसे आम छात्र–युवा आबादी चुपचाप देखते नहीं रह सकती। उच्च शिक्षा में लगातार विनिवेश किया जा रहा है और विश्वविद्यालयों को “आत्मनिर्भर” बनाने के नाम पर लगातार फीसों में बढ़ोत्तरी की जा रही है और सीटों में कटौती की जा रही है। उच्च शिक्षा को कुछ वर्गों का विशेषाधिकार बनाया जा रहा है। तमाम पूँजीवादी छात्र संगठन छात्रों की निगाह में अच्छी तरह से बेनकाब हो चुके हैं और उनका चरित्र आम छात्रों के सामने आ चुका है। आज विकल्पहीनता की स्थिति में ये छात्र भले ही कुछ न कर पा रहे हों लेकिन कल किसी क्रान्तिकारी विकल्प के तैयार होने की स्थिति में ये छात्र उसके इर्द–गिर्द गोलबन्द और संगठित हो सकते हैं। इसलिए अगर आज समय रहते ही कैम्पस में इस जनवाद का गला घोंट दिया जाय तो कोई ऐसी ताकत पनप ही नहीं पाएगी जो कल व्यवस्था के लिए ख़तरा बन सके। व्यापक आम मध्यमवर्गीय छात्र–युवा आबादी जो कल शिक्षा और रोजगार के सवाल पर एकजुट और संगठित होकर लड़ सकती है उसके किसी भी राजनीतिक मंच के तैयार होने के लिए मौजूद अनुकूल परिस्थितियों को ख़त्म कर दिया जाय तो इस ख़तरे से बचा जा सकता है।

लिंगदोह कमेटी का असली मकसद यही है। छात्र राजनीति में जो गंद चुनावबाज पूँजीवादी छात्र संगठनों ने मचा रखी है उसके सफाए की आड़ लेकर छात्र राजनीति के क्रान्तिकारीकरण के ख़तरे से बचने के इंतजाम किये जा रहे हैं। यह राजनीति की सफाई का कदम नहीं बल्कि राजनीति के सफाए की साजि“श है। और यह काम इतनी कुशलता और चालाकी के साथ किया जा रहा है कि लोगों को यह लगे कि यह तो बहुत अच्छा कदम है। वे यह सोचते रहें कि छात्र राजनीति के अपराधीकरण को दूर किया जा रहा है, उसमें पैसे के जोर को ख़त्म किया जा रहा है और छात्र राजनीति को स्वच्छ बनाया जा रहा है। स्वच्छ छात्र राजनीति छात्रों को राजनीति से दूर करने से नहीं बल्कि सघन क्रान्तिकारी राजनीतिकरण से ही स्थापित हो सकती है। जरूरत इस बात की है छात्रों के बीच एक ऐसे क्रान्तिकारी विकल्प को खड़ा किया जाय जो सबको समान एवं नि:शुल्क शिक्षा और सबको रोजगार के अधिकार के लिए आम छात्रों की व्यापक आबादी को संगठित करे और जो चुनावी रास्ते से नहीं बल्कि क्रान्तिकारी रास्ते से इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए संघर्ष करे। छात्र राजनीति को एक ऐसा क्रान्तिकारी मोड़ देने की जरूरत है जिससे कि वह उस व्यापक युवा आबादी के सवालों को भी उठा सके जो उच्च शिक्षा तक नहीं पहुँच पा रही है और बिना शिक्षा के या थोड़ी बहुत शिक्षा के साथ सड़कों पर बेरोजगार भटक रही है। छात्र राजनीति को छात्रों के वास्तविक मुद्दे को उठाने, यानी कि घटती सीटों और बढ़ती फीसों के मुद्दे को उठाने में सक्षम बनाने के लिए चुनावी मदारियों के चंगुल से बाहर निकालना होगा।

अधिकतम आयु सीमा निर्धारित करने अधिकतम ख़र्च सीमा निर्धारित करने और न्यूनतम उपस्थिति सीमा निर्धारित करने से छात्र राजनीति स्वच्छ नहीं हो जाएगी।  इन सिफारिशों से छात्र राजनीति में गन्दगी फैलाने वाली ताकतों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। उल्टे इसका निशाना हमेशा आम छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले उन छात्र संगठनों को बनाया जाएगा जो एक कारगर क्रान्तिकारी विकल्प के निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए ऐसे फरेबों में न फँसकर सभी सही मायनों में युवा, संवेदनशील और बहादुर छात्रों को छात्र राजनीति को क्रान्तिकारी दिशा देने के लिए संघर्ष में शामिल होना चाहिए। छात्रों को राजनीति से दूर करने और जनवादी अधिकारों को चोर दरवाजे से छीनने की साजि“शों को हमें समझना होगा और नाकाम करना होगा।

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2006

 

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