कोरोना की दूसरी लहर और रोज़गार का संकट

अंजलि

कोरोना महामारी की पहली लहर और सत्तासीन फ़ासीवादी सरकार की छात्र-युवा विरोधी नीतियों ने छात्रों-युवाओं के भविष्य पर जो भयानक कुठाराघात किया था, उससे देश की युवा आबादी अभी उबर भी नहीं पायी थी कि कोरोना की दूसरी लहर और फासिस्ट मोदी-योगी सरकार के चौतरफा हमले ने उनकी कमर तोड़ कर रख दी है। पहली लहर के दौरान बेशर्मी से प्रधानमंत्री ने ‘आपदा को अवसर’ में बदलने का नारा दिया था। वर्ग विभाजित समाज में हर आपदा शोषित वर्ग पर कहर ढाती है और शोषकों के लिए यह अवसर होता है कि मेहनतकश वर्ग के खून और पसीने को भी सिक्के में ढाल दें और उन्हें उनकी हालत पर सड़कों पर धकेल दें। इस बार भी हुआ यही! फ़ासिस्ट मोदी के इस नारे के बाद एक-एक करके सरकारी नौकरियों में कटौती, बचे-खुचे सरकारी विभागों को औने-पौने दामों में पूँजीपतियों को बेचने, प्राइवेट सेक्टर में छँटनी-तालाबन्दी की खुली छूट देने, श्रम कानूनों,जो पहले भी कही लागू नही होते थे, को क़ानूनी तौर पर भी प्रभावहीन करने आदि का सिलसिला शुरू हुआ। नतीजा यह है कि जो नौजवान नौकरियों में थे भी वो भी अपनी नौकरी गँवा बैठे हैं। पहली लहर के दौरान लगभग 12 करोड़ नौजवानों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। जिनकी नौकरी बची भी रही, उन्हें कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया गया। यह सिलसिला अभी तक चल ही रहा था कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर छात्रों-युवाओं के भविष्य पर कहर बनकर टूट पड़ी। दूसरी लहर के दौरान जब आम आबादी ऑक्सीजन, हॉस्पिटल बेड, जीवन रक्षक दवाओं के लिए दर-दर भटक रही थी तब फ़ासिस्टों के द्वारा एक बार फिर बिना किसी तैयारी के देश पर लॉकडाउन थोप दिया गया। पिछली बार की तरह इस बार भी इसका खामियाजा आम जनता ही चुका रही है। एक बार फिर छँटनी-तालाबन्दी करोड़ों नौजवानों-मेहनतकशों की नौकरियाँ निगल चुकी है।
फ़ासिस्टों की पूरी जमात चाहे, संघ परिवार हो या भाजपा की अपने आयोजनों के लिए कोरोना महामारी से बचाव के सारे बन्दोबस्त कर ले रही है लेकिन यही फ़ासीवादी सरकार संसाधनों की कमी का रोना रोकर विश्वविद्यालय, कॉलेज कैम्पसों, कोचिंग संस्थानों और हर उस जगह पर ताला लटका रही है जो पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा छात्रों-नौजवानों के भविष्य के लिए बुनियादी बना दी गयी है। पढ़ाई के नाम पर तमाम विश्वविद्यालयों द्वारा ऑनलाइन कक्षाएँ थोपी जा रही हैं। जो दूर-दराज के गाँवों में बसने वाले छात्रों और शहरी गरीब छात्र जो महँगे गैजेट नही खरीद सकते हैं, को शिक्षा के बुनियादी अधिकार से दूर करती जा रही है और इन छात्रों-नौजवानों को अवसाद के गहरी खाई में धकेल रही है।

कोरोना संकट में फ़ासिस्ट सरकार के कुप्रबन्धन से छिनता युवाओं का रोज़गार

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में भी मोदी सरकार के घटिया प्रबन्धन की वजह से करोड़ों लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठे है। आँकड़ो के हिसाब से चले तो सीएमआईई के हालिया रिपोर्ट के मुताबिक मई में बेरोजगारी दर मार्च के 6.63 फ़ीसदी से बढ़कर 14.45 फ़ीसदी हो गई है। हालत का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सीएमआईई ने उन लोगों को बेरोज़गार के रूप में वर्गीकृत किया है जिन्होंने नौकरी की तलाश की, लेकिन एक सप्ताह में एक घण्टे से कम काम प्राप्त किया। साफ़ है कि अब लोगों के पास सप्ताह में एक दिन तो छोड़िए, एक घण्टे का भी काम नही है। आगे आँकड़ें बताते हैं कि केवल मई, 2021 में 1.5 करोड़ लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। अप्रैल और मई में 2.27 करोड़ लोगों की नौकरियाँ छिन गयी हैं। वहीं साल की शुरुआत से मई तक की बात करें तो लगभग 2.53 करोड़ नौकरियाँ जा चुकी हैं। पूँजीवाद के पैरोकार अर्थशास्त्री चीख़-पुकार मचा रहे हैं कि नौकरियों के जाने और बेरोज़गारी बढ़ने की असली वजह कोरोना महामारी के कारण लगाया गया अनियोजित लॉकडाउन है। लेकिन ये पैरोकार अपनी धूर्ततापूर्ण बातों से यह छिपाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि बेरोज़गारी पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का एक आम नियम है। इन धूर्त अर्थशास्त्रियों की लाख कोशिश के बावज़ूद आँकड़े व्यवस्था की पोल-पट्टी खोल ही देते हैं। आँकड़ों पर ग़ौर करें तो आप पाएंगे कि कोविड-19 की पहली और दूसरी लहर के मध्य के अपेक्षाकृत स्थिर समय जनवरी-अप्रैल के बीच लगभग 26 लाख लोगों को अपनी नौकरी गँवानी पड़ी है। इस दरम्यान देश में न तो लॉकडाउन लगा था और न ही कोविड-19 का प्रकोप ऐसा था कि स्थिति नियन्त्रण से बाहर हो गयी हो। ऐसे में नौकरियाँ क्यों जाती रहीं, इस बात को ये अर्थशास्त्री गोल कर जाते है। यह तो उन लोगों की माली स्थिति है जो रोज़गारशुदा थे और जिनको फ़ासीवादी सरकार ने कोरोना महामारी की आड़ में सड़कों पर धकेल दिया है। उन छात्रों-युवाओं की स्थिति और भी भयंकर हो गयी है जो पहले से बेरोज़गार थे, शैक्षिक शहरों में तैयारी कर रहे थे , सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन निकलने की राह देख रहे थे, परीक्षाएँ दे रहे थे।

कोरोना संकट, फ़ासीवादी सत्ता और घटते रोज़गार के अवसर

कोरोना महामारी, मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था और आदमखोर फ़ासीवादी सरकार मिलकर जहाँ एक ओर लोगों को ऑक्सीजन, बेड, जीवन रक्षक दवाइयों आदि बेहद बुनियादी ज़रूरतों से महरूम कर मौत की खाई में धकेल रही हैं, वहीं दूसरी ओर सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं को रद्द और अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर छात्रों-नौजवानों के भविष्य से गन्दा मज़ाक कर रही है। पिछले लम्बे समय से स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई बाधित होने और अब एक-एक कर सभी परीक्षाओं को रद्द करने का जो सिलसिला शुरू हुआ है यह छात्रों-युवाओं के भविष्य को चौपट कर रही है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा समेत तमाम भाजपा शासित राज्यों समेत अन्य पूँजीवादी क्षेत्रीय और केन्द्रीय दलों की सरकारों ने भीड़ इकट्ठा होने की आशंका जताते हुए सरकारी परीक्षाओं को रद्द करती जा रही है। निर्लज्जता की हद यह है कि यही पार्टियाँ अभी कुछ दिनों पहले ही पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश ग्राम पंचायत चुनाव में लाखों की भीड़ जुटाकर रैलियाँ, सभाएँ करने में मशगूल थीं जिसके बाद कोरोना के मामलों में 2000 फ़ीसदी से ज़्यादा का उछाल आ गया और अब तक लाखों देशवासियों के मौत का कारण बन चुका है। स्टाफ सेलेक्शन कमीशन (एसएससी) आयोग ने कम्बाइण्ड हायर सेकेण्डारी परीक्षा (सीएसएचएल), कम्बाइण्ड ग्रेजुएट लेवल परीक्षा (सीजीएल) और कांस्टेबल (जीडी), भारतीय सेना की कॉमन एण्ट्रेस परीक्षा (राजस्थान क्षेत्र), बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) ने 66वीं संयुक्त मुख्य परीक्षा, हरियाणा विधानसभा के लिये अलग-अलग समूहों की भर्ती को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश के फ़ासीवादी योगी सरकार छात्रों-नौजवानों के खिलाफ अपने कुख्यात दमन के मामले में अलग ही रिकॉर्ड बना रही है। इसकी बानगी समय-समय पर देखने के लिए मिलता रहता है। चाहे संविदा भर्ती के खिलाफ़ छात्रों का आन्दोलन हो या पर्चा लीक होने के खिलाफ़ हर बार पुलिसिया दमन योगी सरकार के छात्र-नौजवान विरोधी रवैये को बेनकाब कर दी है। अब कोविड संकट के समय एक बार फिर उत्तर प्रदेश सरकार का यह चेहरा छात्रों-नौजवानों के सामने उभर कर सामने आ गया है। उत्तर प्रदेश शिक्षक पात्रता परीक्षा-2021, उत्तर प्रदेश असिस्टेण्ट प्रोफेसर भर्ती-2021, यूपीपीसीएस-2021, प्रवक्ता राजकीय इण्टर कॉलेज परीक्षा-2020, क्षेत्रीय वन अधिकारी परीक्षा-2021, समेत दर्जनों अन्य महत्वपूर्ण परीक्षाओं को कोविड के नाम पर या तो रद्द कर या अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर छात्रों-नौजवानों के भविष्य को गर्त में धकेलने का काम योगी सरकार कर रही है। देश भर में लाखों छात्र-नौजवान ऐसे थे जिनके पास यही आख़िरी विकल्प था लेकिन भर्ती स्थगित होने या रद्द कर सरकारों ने उनकी आख़िरी उम्मीद भी छीन ली है। निकट भविष्य में नौकरियों के जो मौके बन सकते थे उसपर भी फ़ासीवादी पाटा चल चुका है। फ़ासीवादी भाजपा सरकार निजीकरण की नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से लागू कर रही है। सत्र 2021-22 के लिए मोदी सरकार की ओर से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और वितीय संस्थानों के हिस्सेदारी की बिक्री से 1.75 लाख करोड़ जुटाने का लक्ष्य रखा गया हैं जिसमें से एक लाख करोड़ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वितीय संस्थानों में सरकार की हिस्सेदारी बेच कर जुटाई जाएगी। इसका सिलसिला बैकों के विलय, बैंकों के निजीकरण के रूप में सामने आने भी लगा है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि इस वितीय वर्ष में बीएसएनएल, आईडीबीआई बैंक, शिपिंग कॉर्पोरेशन, नीलांचल इस्पात निगम लिमिटेड, कन्टेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया सहित अन्य कम्पनियों के विनिवेश किया जाएगा। इससे साफ है कि आने वाले दिनों में रोज़गार का यह संकट और गहराने वाला है। सरकारी और स्थायी नौकरियाँ कम होने वाली हैं और इसके जगह पर ठेका, संविदा और पीस रेट लेने वाला है। मतलब साफ है कि अब काम की कोई गारण्टी नहीं होगी, न ही किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा। यह पूरी स्थिति छात्रों-नौजवानों को अवसाद के गहरे अंधेरे में धकेल रही है। कोई विकल्प न सुझने पर छात्र युवा आत्महत्या तक के कदम उठा रहे हैं।

बढ़ती आत्महत्या, ज़िम्मेदार कौन

कोरोना महामारी और फ़ासीवादी सत्ता का सामूहिक कुचक्र छात्रों-युवाओं की ज़िन्दगी लीलती जा रही है। घटते रोज़गार के अवसर, रोज़गारशुदा नौजवानों की छिनती नौकरियाँ और नौजवानों के प्रति सरकारों की आपराधिक उदासीनता छात्रों-युवाओं के भविष्य को विकल्पहीनता, मानसिक तनाव, सामाजिक विलगाव, और अवसाद की तरफ धकेल रही है। सामान्य दिनों में भी छात्रों-नौजवानों की बड़ी आबादी भविष्य की अनिश्चितता, रोज़गार के लिए अपने सगे-सम्बन्धियों से गलाकाटू प्रतियोगिता, ज़िन्दगी की भागमभाग और एक अदद नौकरी के लिए अपने सबसे बेहतरीन समय में अपने को एक छोटी सी कोठरी में क़ैद कर तोतारटन्त करना छात्रों नौजवानों को अन्दर ही अन्दर खोखला करता जा रहा है। सामूहिकता छात्रों-नौजवानों के लिए परायी चीज़ हो गयी है जिससे नौजवानों में नफ़रत, अविश्वास, बदहवासी, ऊब बढ़ रही है। ऊब मिटाने के लिए ये नौजवान पूंजीवाद द्वारा परोसे जा रहे घटिया फिल्मों, दुअर्थी स्त्री विरोधी गानों, टिक-टाक, पबजी, फेसबुक व्हाट्सएप आदि का सहारा ले रहे हैं।और इससे भी अधिक गहरे अलगाव में जा रहे हैं। ये नौजवान इस बात से अनभिज्ञ है कि इनके ऊब और अवसाद का कारण पूँजीवाद है और जब तक पूँजीवादी व्यवस्था को नही उखाड़ फेंका जाता तब तक इसके चपेट में छात्रों-युवाओं की एक बड़ी आबादी आती रहेगी। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में लगभग 43 प्रतिशत लोग किसी न किसी प्रकार से डिप्रेशन से ग्रसित हैं।

6.5 प्रतिशत यानी लगभग 8.5 करोड़ लोग अवसाद के गम्भीर शिकार हो चुके है। तमाम ऐसे भी लोग हैं जो हालात को सहन न कर पाने और जीवन में किसी प्रकार की उम्मीद न दिखायी देने से आत्महत्या कर ले रहे है और हालिया आँकड़ों के हिसाब से इसमें सबसे ज़्यादा बेरोज़गार नौजवान हैं। एनसीआरबी-2019 के रिपोर्ट के अनुसार 2018 में औसतन 35 बेरोज़गार और 36 स्वरोज़गार करने वाले लोग हर रोज़ आत्महत्या की राह चुन रहे थे। कोरोना काल के दौरान फ़ासीवादी भाजपा सरकार और अन्य पूँजीवादी सरकारों ने जनता के ऊपर जो कहर बरपा किया है उसका नतीजा यह है कि इस में आत्महत्या की दर 30 फ़ीसदी बढ़ गयी है। भारत में आत्महत्या की दर ग्लोबल एवरेज से 60 फ़ीसदी से भी ज्यादा है। यह आत्महत्या नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था और फ़ासीवादी सत्ता द्वारा की जाने वाली ठण्डी हत्याएँ हैं जिनका न कोई सुबूत है ना कोई सुराग। इसके लिए न कोई पुलिस प्रशासन के पास जा सकता है, न ही हाइकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में न्याय की गुहार लगा सकता हैं क्योंकि ये सारी संस्थाएँ इस मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था की सेवा में लगी हुई हैं। देश के छात्रों-नौजवानों के पास अब केवल दो ही विकल्प है या तो व्यवस्था द्वारा प्रायोजित इस क़त्लेआम को देखते रहें और अपने अन्य साथियों के मौत से अपनी निगाहें फेर कर तोतारटन्त में लग जायें और आने वाली हज़ारों मौतों में व्यवस्था के सहभागी बन जाएँ या फिर इस भयानक मंज़र के खिलाफ मुठ्ठी तानकर खड़े हों और अपने जैसे लाखों-करोड़ों साथियों को अपने साथ जोड़ें। ‘सबको एक समान और निःशुल्क शिक्षा और सबको रोज़गार’ के नारे पर शहरों से लेकर गाँव तक में एक जनान्दोलन खड़ा किये बगैर इस पूरी स्थिति से नहीं निपटा जा सकता है। समय है कि करोड़ों शोषित-दमित मज़दूरों, खेत मज़दूरों, छोटे किसानों के साथ लामबन्द होकर और अपनी फ़ौलादी एकता के दम पर मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्ता को इतिहास के कूड़ेदान में फ़ेक दिया जाय और समता और न्याय पर आधारित समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाय।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-जून 2021

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