कैम्पसों में सिमटते जनवादी अधिकार
योगेश
दिल्ली विश्वविद्यालय उन शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में से एक है जो अपने जनवादी माहौल, स्वतंत्रता और छात्रों की सरगर्मियों के लिए जाना जाता है। 60 और 70 के दशक का छात्र आन्दोलन हो या तमाम छात्र विरोधी नीतियों के ख़िलाफ संघर्ष हो, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने हमेशा उन्नत राजनीतिक चेतना और संघर्षशीलता का प्रदर्शन किया है। शायद यही कारण है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में जनवादी अधिकारों का पीछे के दरवाजे से धीरे–धीरे हनन किया जा रहा है। हाल ही में ऐसे कई मौके आए हैं जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पुलिसिया दमन हुआ है। साल भर पहले नेत्रहीन छात्रों पर पुलिस ने लाठियाँ बरसाईं और अभी सितम्बर में मानसरोवर छात्रावास में घुसकर, कमरों से निकाल–निकालकर लड़कों की पिटाई की गई और फिर थाने ले जाकर उन्हें मुर्गा बनाने जैसी जघन्य कार्रवाई की गई।
कुल मिलाकर पिछले 7–8 वर्षों में दिल्ली विश्वविद्यालय में खाकी रंग की उपस्थिति बढ़ी है। जगह–जगह नुक्कड़ों–चौराहों पर, सड़क पर, शैक्षणिक संस्थानों के अन्दर, कॉलेजों के अन्दर, हॉस्टलों के बाहर, दफ्तरों–कार्यालयों में पुलिसवालों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रॉक्टर विश्वविद्यालय का प्रशासक होता है और उसकी आज्ञा के बिना पुलिस किसी शैक्षणिक संस्थान के अन्दर नहीं घुस सकती। पहले के जमाने में इस किस्म के वार्डेन और प्रॉक्टर हुआ करते थे जो इस बात को एक मुद्दा बनाते थे कि पुलिस को किसी भी हालत में कॉलेज या हॉस्टल की चारदीवारी के भीतर नहीं आने देंगे और कोई भी विवाद अन्दरूनी तौर पर ही सुलटा लिया जाएगा। लेकिन अब नीतिगत तौर पर पुलिस की उपस्थिति को कैम्पसों के भीतर बढ़ाया जा रहा है।
दूसरी तरफ क्रान्तिकारी राजनीतिक गतिविधियों को कैम्पस के भीतर रोकने की साजिशें भी की जा रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में कहीं भी पोस्टर लगाने पर मनाही हो गयी है। पोस्टरों के लिए कुछ दीवारें बनाई गई हैं जिनका नाम रखा गया है ‘वॉल ऑफ डेमोक्रेसी’। वहाँ पर हमेशा बड़े चुनावी मदारियों के रंग–बिरंगे पोस्टरों की भरमार होती है। और साथ ही अन्य जगहों पर पोस्टर लगाने पर पाबन्दी को लागू सिर्फ़ क्रान्तिकारी छात्र संगठनों पर किया जा रहा है। कांग्रेस और संघ के छात्र मुखौटों को कहीं भी पोस्टर और होर्डिंग लगाने की पूरी आजादी है। तो सीधे–सीधे नोट–वोट की राजनीति को खुला हाथ दिया जा रहा है और क्रान्तिकारी प्रचार पर अंकुश लगाया जा रहा है। कैम्पस अपने रात की जीवन्तता के लिए भी जाना जाता था। लेकिन अब दिल्ली विश्वविद्यालय में रात में कैम्पस में सन्नाटा छाया रहता है। अगर कहीं भी दो–तीन लोग टहल रहे हों या बैठे हों तो गश्त लगाती पुलिस की वैन या जीप रुककर उससे ऐसे पूछताछ करती है जैसे वे अपराधी हों। और खुदा न खास्ता अगर उस समूह में लड़के और लड़कियाँ दोनों हैं तब तो पुलिस का बर्ताव देखते ही बनता है। इस तरह से कोई भी छात्र रात में चुपचाप अपने कमरे में या हॉस्टल में रहने में ही सुरक्षा महसूस करता है। क्योंकि बाहर सड़कों पर इस देश की सबसे संगठित गुण्डा फोर्स के सिपाही जो छात्रों की सुरक्षा के लिए गश्त लगाते रहते हैं!
कहीं भी कोई व्याख्यान, नाटक, म्यूजिक कंसर्ट, गोष्ठी आदि का आयोजन करने के लिए इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप वहाँ ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन का विचार ही त्याग दें। इनकी जगह अण्डरवियर की कम्पनियों की वैन, फैशन शो, जैम सेशन और इस तरह की गतिविधियों को आयोजित करवाने का काम स्वयं छात्र संघ में बैठे चुनावबाज करते हैं। इस तरह से कैम्पस का विराजनीतिकरण (डीपॉलिटिसाइजेशन) करने की एक साजिश की जा रही है। इसकी वजह यह है कि ऊपर बैठे हुक्मरान डरते हैं। उन्हें डर है कि अगर कैम्पस में इतना जनवादी स्पेस होगा तो उसका इस्तेमाल क्रान्तिकारी ताक’तें छात्रों को एकजुट, गोलबन्द और संगठित करने में कर सकती हैं। तो जनवादी अभिव्यक्ति की जगहों को ख़त्म किया जा रहा है और पुलिस का आतंक छात्रों के दिल में बैठाया जा रहा है। जनतंत्र के नाम पर छात्र संघ तो है ही! वहाँ किस तरह की राजनीति होती है यह किसी से छिपा तथ्य नहीं है। वैसी राजनीति की तो सत्ता पर काबिज लोगों को जरूरत है। वे छात्र राजनीति को अपने जैसी ही भ्रष्ट, दोगली और अनाचारी राजनीति की नर्सरी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इस काम में बाधक क्रान्तिकारी राजनीतिक शक्तियों का गला घोंटने के लिए ही तरह–तरह के नियम–क़ायदे–क़ानूनों की आड़ में जनवादी स्पेस को सिकोड़ा और जनवादी अधिकारों का धीरे–धीरे हनन किया जा रहा है। जिम्मेदार क्रान्तिकारी छात्र शक्तियों को इस साजिश को समझना होगा और इसे नाक़ाम करना होगा।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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