क्या भारत में धर्मनिरपेक्षता अब सिर्फ़ काग़ज़ पर ही है?
अरविन्द
धर्म और आस्था किसी का भी निजी मसला हो सकता है किन्तु उसमें राज्य की या उसके सत्ता प्रतिष्ठानों की किसी भी रूप में कोई दखलन्दाजी नहीं होनी चाहिए। धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलरिज्म का असली अर्थ है धर्म और राजनीति का पूर्ण विलगाव और राज्य व सत्ता प्रतिष्ठानों की धार्मिक मसलों से सुनिश्चित दूरी। कहने के लिए भारत भी एक धर्मनिरपेक्ष देश है लेकिन हमारे यहाँ पर सत्ता की खातिर धार्मिक मुद्दों को बेतहाशा भुनाया जाता रहा है। अपवादों को छोड़कर न्याय व्यवस्था या तो किंकर्तव्यविमूढ़ होकर ताकती रही है या खुद इस प्रक्रिया में भागीदार रही है। कांग्रेस से लेकर पिछली तमाम सरकारों के कार्यकाल में भी धर्मनिरपेक्षता के असल मूल्यों को लहूलुहान किया जाता रहा था किन्तु अब भाजपा की फ़ासीवादी मोदी सरकार के राज में तो उन्हें मृत्युशैया पर ही पहुँचा दिया गया है।
अपनी बात की शुरुआत हाल की कुछ घटनाओं से करते हैं। आपको ज्ञात होगा 5 अगस्त को प्रधानमन्त्री मोदी ने “राम मन्दिर” का शिलान्यास किया था। अब इस मन्दिर निर्माण में आर्थिक योगदान या दान का “शुभारम्भ” देश के राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने 5 लाख रुपये देकर कर दिया है। इसके बाद आगे चलकर प्रधानमन्त्री ने तक़रीबन 971 करोड़ की लागत से नयी बन रही संसद की इमारत के भूमि पूजन और नींव भरने के कर्मकाण्ड को भी सकुशल निबटाया। प्रधानमन्त्री ने संसद के खर्चीले भवन को “आत्मनिर्भरता” का पर्याय बताकर इसे नये युग के श्रीगणेश की संज्ञा दी थी। लेकिन असल में यह “आत्मनिर्भरता” की नहीं बल्कि यह सेक्युलरिज्म की कब्र पर देश की संस्थाओं और प्रतीकों में साम्प्रदायिकता की घुसपैठ की नयी मंजिल है। भारतीय संसद किसी एक धर्म की बपौती नहीं है बल्कि यह देश के तमाम नागरिकों के प्रतिनिधियों का एक मंच है। यह एक अलग बात है कि संसद जनता की आवाज़ को कितना प्रतिनिधित्व देती है और असल में तो यह पूँजी की तानाशाही को ढकने के लिए एक परदे का ही काम करती है। लेकिन यह बेहद चिन्ताजनक है कि देश में जनवाद के सबसे बड़े तथाकथित प्रतीक को कैसे कूपमण्डूकता और धार्मिक पोंगापन्थ की झाँकी बनाया गया। और सुनिए विगत 4 दिसम्बर को चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ़ (सीडीएस) और थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने गोरखनाथ मठ से सम्बन्ध रखने वाले एक शिक्षण संस्थान के कार्यक्रम में आतिथ्य ग्रहण किया और वहाँ पर कई मूर्तियों का अनावरण भी किया। ये देश के सबसे बड़े सेना प्रमुख का हाल है! योगी सरकार तो और भी दो कदम आगे निकल गयी है। उत्तरप्रदेश लोकनिर्माण विभाग राम मन्दिर में दान के लिए एचडीएफसी बैंक, बैंक ऑफ़ बड़ौदा तथा और भी कई अन्य बैंकों में ‘पी. डब्ल्यू. डी. राम मंदिर वेलफेयर’ के नाम से खाते खोलने जा रहा है तथा विभाग के कमर्चारियों को अपना एक दिन का वेतन इसमें देने के लिए कहा जा रहा है।
कहना नहीं होगा कि राजनीति और धर्म के रिश्ते लगातार परवान चढ़ते जा रहे हैं। यह कोई अचरज की बात नहीं है कि तथाकथित सेक्युलर पार्टी कांग्रेस भी राम मन्दिर निर्माण में राजीव गाँधी की भूमिका के गुणगान करते हुए अपनी पीठ थपथपा रही है और इसने भी लगातार नरम साम्प्रदायिक कार्ड खेला है। हिन्दुओं ही नहीं बल्कि इस्लाम, सिख, बौध, इसाई आदि आदि धर्मों के ठेकेदार भी धार्मिक पहचान के नाम पर जनता की गोलबन्दी करने में लगे रहते हैं और जनता की एकजुटता में पलीता लगाने का काम करते हैं। किसी के धार्मिक होने में कोई बुराई नहीं है लेकिन यह केवल उसके निजी जीवन तक सीमित रहना चाहिए। प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, सेनाध्यक्ष, तमाम राज्यों के मुख्यमन्त्री और सरकारी कर्मचारी निजी जीवन में जो मर्जी करें लेकिन सार्वजनिक जीवन में उन्हें धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का निर्वहन करना चाहिए। भारत कोई धार्मिक राज्य नहीं है और संवैधानिक पदों पर बैठे लोग देश की पूरी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
असल में भारत की धर्मनिरपेक्षता स्वयं किसी पाखण्ड से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। आज़ादी के आन्दोलन से ही इसे सर्वधर्म समभाव के तौर पर बरता गया है जबकि सेक्युलरिज़म के ऐसे मायने हैं ही नहीं। 90 के दशक के पहले तक तथाकथित कल्याणकारी राज्य के दौर में भी साम्प्रदायिक ताकतों को लगातार खाद-पानी दिया जाता रहा। तर्क-विवेक और विज्ञान द्रोही ताकतों को लगातार फलने-फूलने का मौका दिया जाता रहा। धार्मिक मुद्दों में कभी तुष्टिकरण तो कभी खुलेआम पक्ष लेकर अवसरवादी राजनीति होती रही। राम जन्मभूमि रथ यात्रा के नाम पर अतीत में हुए तथाकथित अन्यायों को भुनाते हुए जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटकाकर उसे मन्दिर-मस्ज़िद की राजनीति में उलझा दिया गया। धार्मिक मुद्दों के नाम पर जनता को भड़काने का 80 के दशक का यह वही दौर था जब कल्याणकारी राज्य का मॉडल अपनी चरम परिणति को प्राप्त हो रहा था। चारों तरफ़ भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी अपने पाँव पसार रही थी। इसी के मद्देनज़र ट्रिकल डाउन जैसी निर्लज्ज थ्योरी देकर एक तरफ़ उदारीकरण-निजीकरण की लुटेरी नयी आर्थिक नीतियों की नींव डाली जा रही थी तो दूसरी तरफ़ समाज में साम्प्रदायिक ताकतों को खुली छूट दी जा रही थी। मन्दिर मुद्दे पर सवार होकर मतपेटियों के माध्यम से दंगाई कैसे संसद तक पहुँच गये यह किसी से छिपा नहीं है। न्यायव्यवस्था के दन्त-नख विहीन होने की और इसमें साम्प्रदायिक तत्वों की घुसपैठ की प्रक्रिया भी कोई नयी नहीं है। यही कारण है कि देश के सामाजिक ताने-बाने को दंगों की ख़ूनी दलदल में डुबोने वाले तमाम फ़ासीवादी थोक भाव में बरी कर दिये गये और अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी मन्दिर निर्माण को “क़ानूनी मान्यता” दे दी। आज राज्य ने फ़ासीवादी मुखौटा धारण कर लिया है और तमाम सत्ता प्रतिष्ठान सेक्युलरिज्म के मूल्यों की अर्थियाँ उठा रहे हैं।
जनता के असल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए राजनीति का धर्म के साथ गठजोड़ करके उसका सौन्दर्यीकरण करना फ़ासीवादियों की पुरानी फ़ितरत रही है। मिथकों को यथार्थ बनाकर पेश किया जाना और लोगों को मिथकों की दुनिया में झोंकना भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। जनता के सामने धर्मनिरपेक्षता को उसके सच्चे अर्थों में लागू करवाना संघर्ष का एक महत्वपूर्ण मसला है। धर्म को राजनीति में मिलाने के हरेक प्रयास का कड़ा प्रतिकार किया जाना चाहिए। धार्मिक पहचानों पर लोगों को संगठित कर रही ताकतों की असली मंशा का जनता के बीच लगातार भण्डाफोड़ किया जाते रहना चाहिए। आज हम तथाकथित सेक्युलर दलों की फ़र्जी धर्मनिरपेक्षता के भरोसे नहीं बैठे रह सकते हैं। भारत जैसे देश में जहाँ पूँजीवाद क्रान्तियों के ज़रिये नहीं आगे बढ़ा तर्कणा, जनवाद, मानववाद और सेक्युलरिज्म के मूल्यों का प्रचार-प्रसार भी जनता की जुझारू एकता स्थापित करने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। आज लम्बी औपनिवेशिक गुलामी से बंजर देश की बौद्धिक जमीन पर बेहद शिद्दत के साथ मेहनत करने की दरकार है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021
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