फ़ासीवादी मोदी राज में विकराल होती बेरोज़गारी

अविनाश

बेरोज़गारी! पूँजीवादी व्यवस्था अपनी स्वाभाविक गति से इस लाइलाज बीमारी को पैदा करती है जो देश के युवाओं की ज़िन्दगी पर भारी पड़ रही है। जब नौजवानों को देश-दुनिया की परिस्थितियों, ज्ञान-विज्ञान और प्रकृति से परिचित होना चाहिए, बहसों में हिस्सा लेना चाहिए, उस समय नौजवान तमाम शैक्षिक शहरों में अपनी पूरी नौजवानी एक नौकरी पाने की तैयारी में निकाल दे रहे हैं और फिर भी रोज़गार मिल ही जायेगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है। बेरोज़गारी नौजवानों को गहरे अवसाद में धकेल रही है। मेडिकल साइंस की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘लेसेंट एण्ड लेसेंट साइकेट्री’ के मुताबिक़ भविष्य की असुरक्षा, बेहतर विकल्प की कमी, मनमुआफ़िक़ काम न होना और कल्पनाशीलता एवं सृजनशीलता की कमी के कारण नौजवान अवसाद के शिकार होते जा रहे हैं। भारत में लगभग 9 करोड़ लोग किसी न किसी प्रकार के मानसिक रोग से ग्रस्त हैं और किसी तरह की उम्मीद न दिखायी देने की सूरत में हर साल लाखों लोग आत्महत्या जैसे क़दम उठा लेते हैं। एनसीआरबी की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर 2 घण्टे में 3 छात्र बेरोज़गारी से तंग आकर आत्महत्या करने को मजबूर है। 2018 में हर दिन स्वरोज़गार से जुड़े 36 नौजवानों ने भविष्य की अनिश्चितता की वजह से ज़िन्दगी की जगह मौत को चुना लेकिन स्टार्टअप इण्डिया का ख़्वाब बेचकर सत्ता में पहुँचने वाली फ़ासीवादी मोदी सरकार इन नौजवानों की असमय मौत पर क़ातिलाना चुप्पी मार कर बैठी हुई है। इन मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए संघ और भाजपा देश को हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर साम्प्रदायिकता की आग में झोकनें का हर सम्भव प्रयास कर रही है। सीएए, एनआरसी और एनपीआर इसी कड़ी में आगे बढ़ा हुआ क़दम है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह हैं कि एक बड़ी युवा आबादी मोदी-शाह के साम्प्रदायिक बँटवारे की राजनीति में उलझकर हिन्दू-मुसलमान बनकर सोचने लगी है।

देश मे बेरोज़गारी अब भयावह ढंग से बढ़ रही है। करोड़ युवा बेरोज़गारी में सड़कों की धूल फाँक रहे हैं और मोदी सरकार की कारगुज़ारियों की वजह से इस संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक़ बेरोज़गारी दर पिछले 45 वर्षों के उच्चतम शिखर पर पहुँच चुकी है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के दावों की पोल खोलते हुए सीएमआईई की हालिया रिपोर्ट बता रही है कि देश में बेरोज़गारी दर जनवरी में 7.16% के मुक़ाबले फ़रवरी में बढ़कर 7.78% हो गयी है जो अक्टूबर 2019 के बाद सबसे ज़्यादा है। शहरी इलाक़ों में फ़रवरी में बेरोज़गारी दर 8.65% रही, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में यह 7.37% हो गयी। हालाँकि गाँवों में जो रोज़गार है उसका स्तर बहुत ही ख़राब है और मज़दूरी भी शहरों की अपेक्षा काफ़ी कम हैं। बढ़ती बेरोज़गारी की सबसे भयंकर मार शिक्षित नौजवानों पर पड़ रही है, 20 से 29 साल के ग्रेजुएट युवाओं में बेरोज़गारी की दर 42.8 पहुँच गयी है। वहीं, सभी उम्र के ग्रेजुएट के लिए औसत बेरोज़गारी दर इतिहास में सबसे ज़्यादा 18.5 फ़ीसदी पर पहुँच गयी है। इसी तरह का हाल पोस्ट-ग्रेजुएट के लिए भी है। कॉलेज से निकलर जॉब मार्केट में आने वाले युवओं की स्थिति भी बेहतर नहीं है। 20 से 24 साल की उम्र के युवाओं के बीच सितम्बर से दिसम्बर के दौरान बेरोज़गारी की दर दोगुनी होकर 37 फ़ीसदी पर पहुँच गयी।

नीचे दिये गये ग्राफ़ से स्पष्ट है कि 30 साल से अधिक आयुवर्ग के लोगों में बेरोज़गारी दर अचानक बहुत कम हो जाती है। ऐसा इसलिए नहीं होता कि 30 साल के बाद सबको रोज़गार मिल जाता है बल्कि नौकरी नहीं मिलने और सामाजिक सुरक्षा स्कीम्स के अभाव में रोज़ी-रोटी चलाने के लिए रेहड़ी-खोमचा लगाने लगते हैं या फ़्लिपकार्ट, अमेज़ॉन जैसी कम्पनियों में डिलीवरी ब्वॉय का काम या इसी प्रकार का कोई दूसरा काम करने लगते हैं जिसको ‘सेल्फ़-एम्प्लॉयड’ कहा जाता है। मतलब युवाओं के लिए सेल्फ़-एम्प्लॉयड एक तरह से अभिशाप बनकर उनकी योग्यता को मुनाफ़े की भेँट चढ़ा रहा है। शायद यही वजह है कि प्राइवेट सेक्टर के सबसे बड़े एम्प्लॉयर क्वेस कॉर्प में डिलीवरी ब्वॉय के रूप में 3.85 लाख लड़के काम करते हैं। औसतन भारत में बेरोज़गारी की दर 50% हैं। यानि काम करने योग्य व्यक्तियों में से केवल आधे के पास रोज़गार है। और यथास्थिति बनाये रखने के लिए हर साल क़रीब 1 करोड़ 20 लाख नौकरियों की ज़रूरत है।

हर साल 2 करोड़ रोज़गार पैदा करने का सपना दिखाकर सत्ता में आयी मोदी सरकार अब रहे-सहे रोज़गार के अवसरों को भी निगलती जा रही है। देश की जनता की मेहनत से खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर को औने-पौने दामों में अपने आकाओं को सौंप रही है। 3 मार्च 2020 को लोकसभा में वित्त-राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने बताया कि सरकार 28 सार्वजनिक उपक्रमों की हिस्सेदारी बेचने की सैद्धान्तिक मंज़ूरी दे दी गयी है। जिसमें ऐसी भी कम्पनियाँ हैं जो सालों से फ़ायदे में थीं और हर साल करोड़ों रुपये टैक्स के रूप में सरकार को देती भी थीं। आने वाले दिनों में छँटनी की मार सार्वजनिक और निजी दोनों ही सेक्टर में तेज़ होने वाली है।

बीते पाँच सालों में देश के सात प्रमुख सेक्टर्स टेक्सटाइल, जेम एण्ड ज्वेलरी, बैंकिंग, आटोमोबाइल्स, रीयल एस्टेट, टेलीकॉम और एविएशन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से 3.64 करोड़ नौकरियाँ जा चुकी हैं जिसमें सर्वाधिक 3.5 करोड़ नौकरियाँ टेक्सटाइल सेक्टर की हैं।

ईपीएफ़ओ के अप्रैल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार सितम्बर 2017 से फ़रवरी 2019 के बीच केवल 4,49,261 नई नौकरियाँ आयीं। 6 माह में 26% नये रोज़गार कम आये।

भारत में बेरोज़गारी की भयावह मार और भाजपा के रोज़गार सृजन के दावे को उत्तर प्रदेश के उदाहरण से समझा जा सकता है। योगी सरकार के श्रम मंत्री द्वारा 7 फ़रवरी 2020 को पेश की गयी रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में शिक्षित बेरोज़गार नौजवानों की संख्या जुलाई 2018 के 21.39 लाख से बढ़कर 34 लाख पहुँच गयी है। मतलब उत्तर प्रदेश में शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या मात्र डेढ़ सालों मे 59% बढ़ गयी है। 18 फ़रवरी को योगी सरकार द्वारा पेश किये गये नये बजट में युवाओं को रोज़गार देने के लिए दो नयी स्कीम ‘मुख्यमंत्री शिक्षुता प्रोत्साहन योजना’ और ‘युवा योजना’ चालू की गयी हैं। पहली स्कीम में 80 हज़ार से ज़्यादा युवाओं को स्किल ट्रेनिंग के साथ-साथ 2500 रुपये हर महीने भत्ता भी दिया जायेगा और ट्रेनिंग के बाद इन युवाओं को रोज़गार दिलाने की ज़िम्मेदारी सरकार की होगी। ‘युवा योजना’ के तहत हर ज़िले में एक युवा हब बनाया जायेगा और 1 लाख युवाओं को अपना ख़ुद का बिजनेस खोलने में सरकार मदद करेगी। अब दोनों योजनाओं को मिलाकर भी ज़्यादा से ज़्यादा 2 लाख लोगों को ही रोज़गार दिया जा सकता है जो बेरोज़गार युवाओं की तुलना में ऊँट के ‘मुँह में जीरे’ से भी कम हैं।

पूँजीवाद में एक तरफ़ विलासिता के शिखर पर अम्बानी-अडानी जैसे धनपशु होते हैं तो दूसरी तरफ़ मज़दूरों की एक ऐसी तादाद मौजूद रहती है जिनके पास जीने के लिए श्रमशक्ति बेचने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं होता, मगर उन्हें अपनी श्रमशक्ति का कोई ख़रीदार नहीं मिलता, उन्हें कोई काम नहीं मिलता, वे “बेरोज़गार” होते हैं। बेरोज़गारों की इसी फौज़ को औद्योगिक रिज़र्व सेना कहते हैं जो पूँजीवादी व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। जिसका इस्तेमाल पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ करता है।

बेरोज़गारी से लड़ने के नाम पर स्किल इण्डिया, स्टार्टअप इण्डिया, वोकेशनल ट्रेनिंग जैसी तमाम योजनाओं के विज्ञापन पर सरकार ने जमकर पैसा लुटाया, और बेरोज़गारी की असली वजह को लोगों के सामने नहीं जाने दिया। बेरोज़गारी महज़ एक मानवीय समस्या नहीं है, जिसका सामना बेरोज़गारों को करना पड़ता है। यह मौजूदा व्यवस्था का संकट है।

चूँकि लूट-मुनाफ़े पर टिकी हुई पूँजीवादी व्यवस्था के लिए बेरोज़गारों का होना पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए फ़ायदेमन्द होता है। ऐसे में इस व्यवस्था की परिधि में रहकर बेरोज़गारी से निजात पाने के बारे में सोचना अन्ततोगत्वा दिवास्वप्न साबित होगा। ऐसे में ‘सबको शिक्षा, सबको काम’ नारे के इर्द-गिर्द एक बड़ी लामबन्दी क़ायम करते हुए आन्दोलन छेड़ने की ज़रूरत है और इस संघर्ष को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध चलने वाले व्यापक संघर्ष से जोड़े बग़ैर इसका कोई हल नहीं निकल सकता है। असल मायने में इस समस्या का समाधान न्याय और समता पर आधारित समाजवादी समाज में ही सम्भव है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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