देश में बढ़ती असमानता और नरेंद्र मोदी का नग्न प्रहसन
सम्पादक मण्डल
ग़रीबी और बेरोजगारी के संकट के बीच फासीवादियों का नंगा प्रहसन जारी है। बेशर्मी और नग्नता के लिए भाषा में जितने मुहावरे हैं वे नरेन्द्र मोदी और संघियों के लिए अपूर्ण प्रतीत होते हैं। वर्ल्ड इकनोमिक फोरम में इक्कट्ठा हुए लूटेरों की सभा में मोदी भी अपने देश के पूँजीपतियों की टोली के साथ पहुँचा। जिस समय दावोस में बैठक चल रही थी बवाना में पटाखे के गोदाम में आग लगने से 17 से अधिक मजदूरों की मृत्यु हो चुकी थी। इस वीभत्स हत्याकाण्ड के बाद अभी बवाना से इस आग के धुएँ की चादर बवाना से हटी भी न थी कि मोदी ने दावोस में कहा कि वह पूँजीपतियों के लिए ‘लाल फीताशाही’ यानी श्रम कानूनों की सभी अड़चनों को दूर कर ‘रेड कारपेट’ बिछा रहा है। जिसका अर्थ था कि देशी और विदेशी पूँजीपतियों के लिए भारत के बाज़ार खुले हैं। भारत के मज़दूरों के शरीर को सिक्के में ढालिए, सरकार मज़दूरों के लिए बने हर श्रम कानून को हटा देगी। पिछले एक साल में बवाना में हर दिन 4 फैक्टरियों में आग लगी है। और न जाने कितने ही लोग मारे गए हैं। पर इन मौतों के ऊपर ही भारत के पूँजीपति मुनाफा कमाते हैं। बवाना हत्याकाण्ड के बावजूद बेशर्मी से लूट का खुला न्योता देने वाली फासीवादी सरकार के नेताओं के मुहँ से आश्वित्ज़ की गंध आती है। फॉक्स वागन में आश्वित्ज़, दचाऊ, बेर्गेंन-बेल्सेन यातना कैम्प से भूखे पेट मजदूरों को मर जाने तक काम करवाया था। यह दृश्य अभी तक भारत में पैदा नहीं हुआ है परन्तु बवाना जैसी फेक्टरियाँ उन उपक्रमों और उसके ऊपर मोदी जैसों की बेशर्मी इनके केंचुल के नीचे मौजूद औश्वित्ज़ के हत्यारों की तस्दीक कराती है। ये वही लोग हैं जो गोरखपुर में ऑक्सीजन आपूर्ति बंद होने पर मरे सैकड़ों बच्चों की मौत पर दांत निपोर कर इन्हें मौसमी मौत करार देरहे थे। पूँजीपतियों के सबसे वफादार चाकर के रूप में नरेंद्र मोदी और संघ जनता की लूट को अपने वीभत्स रूपों तक ले जाने के लिए तैयार हैं। यही फासीवादी उभार का अर्थ है। झूठ, भव्य प्रोसेशन और कार्यक्रमों और दंगों के जरिये मूल मुद्दों को हाशिये पर लगाने की रणनीति में संघ हिटलर और मुसोलिनी का सक्षम वारिस साबित हुआ है। इतिहास के आगे बढ़ने के साथ फासीवाद के रूप में बदलाव आया है। फासीवादी राजनीति ने इतिहास से शिक्षा ली है और खुले-नंगे रूप की जगह ज्यादा वर्चस्वकारी तरीकों को अपनाया है। संसद और संवैधानिक संस्थाओं के आवरण को ओढ़ कर अपनी नीतियों को लागू किया है। हालाँकि मोदी लहर की गिरावट के संकेत गुजरात चुनाव और राजस्थान उपचुनाव में देखे जा सकते हैं परन्तु मोदी लहर की गिरावट या इसके पतन का अर्थ फासीवाद का पतन नहीं है। इसकी जड़ें सामाजिक तौर पर लगातार मजबूत हो रही हैं। धर्म और जातिगत दंगों के पीछे ये असल मुद्दों को धूमिल करने में सफल हो रहे हैं। बेरोज़गारी, गरीबी और महँगाई के कारण जनता में सुलग रहे गुस्से को व्यवस्था के खिलाफ केंद्रित होने से रोकने के लिए संघ मशीनरी कासगंज सरीखे दंगे आयोजित कराती है। पर दावोस में पहुँचने से पहले संघ का प्रधान मंत्री अपनी भाषा और तेवर में बदलाव कर शान्ति का मसीहा होने का अभिनय करता है ।
जिस समय दावोस में मोदी पूँजीपतियों, रसोइयों और बॉलीवुड के भाड़ों को लेकर भारत में निवेश करने व विकसित देश से तक्नोलॉजी के लिए चिरौरी-मिन्नतें कर रहा था, ऑक्सफेम ने विश्व स्तर पर असामनता की एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट ने आँकड़ों के जरिये यह प्रदर्शित किया कि ग़रीब आबादी को आँसुओं के समन्दर में धकेलकर ऐयाशी की मीनारों में अमीरजादों की जमात बैठी है। यह रिपोर्ट भले पूँजीवाद की पैरवी करती है और थॉमस पिकेटी सरीखे उदारवादी लेखक के उपदेशों को पेश करती है। यानी कल्याणकारी राज्य को स्थापित कर असामनता को कम करने की पैरवी करती है। परन्तु सवाल भले या बुरे पूँजीवाद का नहीं बल्कि पूँजीवाद का है। इस असमानता को ख़त्म करने के लिए पूँजीवाद को ख़त्म करना होगा।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार बीते साल भारत की महज एक प्रतिशत आबादी ने पैदा हुई सम्पत्ति के 73 फीसदी हिस्से पर कब्ज़ा जमाया है। यह पिछले साल के आँकड़ें, करीब 58 प्रतिशत, से बेहद ज्यादा है। इस एक प्रतिशत में शेयर बाज़ार के सबसे बड़े गिद्ध, बड़े औद्योगिक घराने और बैंकों के मालिकान शामिल हैं जिन्होंने आर्थिक संकट से जूझ रही पूँजीवादी व्यवस्था में भी बेशुमार धन दौलत जुटाई है। इस संकट की घड़ी में भी अमीरों की दौलत दिन-दोगुनी रात-चौगुनी हो सके इसलिए ही दुनिया भर के अमीर अपने देशों में फासीवादी या दक्षिणपन्थी सरकारों का समर्थन कर रहे हैं। नोटबन्दी, जीएसटी, कोर्पोरेट लोन माफ़ी की पूँजी परस्त नीतियों और श्रम कानूनों पर हमले कर मोदी सरकार ने भी यह कारनामा कर दिखाया है। बेरोज़गारी के भयंकर आलम में मोदी सरकार नौकरियाँ ख़त्म कर रही है। पिछले 5 साल से खाली 5 लाख पदों को सरकार ख़त्म करने जा रही है।
केन्द्र और राज्यों के स्तर पर क़रीब बीसियों लाख पद खाली हैं। भाजपा के दिग्गजों ने कभी एक करोड़ तो कभी दो करोड़ रोज़गार देने के चुनावी जुमले उछाले थे किन्तु साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद आधिकारिक श्रम ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक सिर्फ 5 लाख नयी नौकरियों को जोड़ा गया है। वर्ष 2012 में भारत की बेरोज़गारी दर 3.8 प्रतिशत थी जो 2015-16 में 5 प्रतिशत पहुँच गयी। श्रम ब्यूरो सर्वेक्षण 2013-14 और 2015-16 के बीच 37.4 लाख नौकरियों की कमी दर्शाता है। इपीडब्ल्यू पत्रिका के एक लेख के मुताबिक रोज़गार में कमी 53 लाख तक पहुँच गयी है। केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय के आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015 और 2016 में क्रमश: 1.55 लाख और 2.31 लाख (पिछले आठ सालों में सबसे कम) नयी नौकरियाँ सृजित हुईं। 2017 में नयी नौकरियाँ का सृजन तो दूर करीब 15 लाख नौकरियाँ सिर्फ 2017 के पहले 4 महीनों में ख़त्म हो गयीं। यह वही समय है जब अम्बानी, टाटा और देश के धनपतियों की आय में दोगुने से ज्यादा की वृद्धि हुई। अमित शाह के बेटे की कम्पनी ने शुद्ध 16000 गुने का मुनाफा कमाया। नरेंद्र मोदी ने बेरोज़गारी की इस भयंकर हालात पर नौजवानों का मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि 200 रूपये की दिहाड़ी पर पकौड़ा बेचना रोज़गार है! वह जी न्यूज़ के चैनल पर बोल रहा था कि 2017 में 70 लाख नौकरियाँ जोड़ी गयी हैं। यह एक कोरा झूठ है। दरअसल यहाँ वह इपीएफ विभाग में जोड़े गए नामों को रोज़गार सृजन बता रहा था। परन्तु पिछले साल से ही सरकार ने एक अभियान के तहत देश भर में सभी कार्यरत मजदूरों के नाम इपीएफ विभाग में दर्ज करवाने का अभियान चलाया था जिसे नोटबन्दी और जीएसटी के कारण छोटे फैक्टरी और गोदाम मालिकों के लिए यह पंजीकरण मजबूरी बन गया। 70 लाख लोगों में ज़्यादातर नाम ऐसे लोगों के हैं जो लम्बे समय से उस फैक्टरी में कार्यरत थे। यह भी नरेंद्र मोदी की झूठों की लिस्ट में नया झूठ था।
“काला धन” ख़त्म करना, “डिजिटलीकरण” करना, “एक देश एक कर” के जुमलों को अब सरकार के मंत्री भी नहीं दोहरा रहे हैं। बजट से पहले पेश किये गए आर्थिक सर्वेक्षण में अर्थव्यवस्था को लेकर दिखाई गयी तमाम हसीन गप्पबाजी के इतर ठोस सच्चाई को बयाँ करते हुए आँकडें भी पेश किये हैं। वास्तविक उजरत घट रही है। पर्यावरण बदलाव के चलते आने वाले समय में खेती से आय को 25 प्रतिशत तक घाटा हो सकता है। यानी आने वाले समय में खेती का संकट और गहराने वाला है। सरकार अपनी रिपोर्टों को कितना भी गुलाबी बनाकर पेश करे असल में आज आर्थिक संकट से पैदा हुई बेरोज़गारी, गरीबी और भूखमरी और दूसरी तरफ मुट्ठीभर अमीरजादों की अयाशी छिपाए नहीं छिप रही है। असल में यही पूँजीपतियों के लिए ‘अच्छे दिन’ का वायदा है जिसे मोदी 2014 में लोकसभा में प्रचारित कर बहुमत जीता था। जनता को बेरोज़गारी, भूखमरी, महंगाई के पहाड़ के नीचे दबाकर कुछ चंद पूँजीपतियों की नग्नतम सेवादारी ही नरेंद्र मोदी की सरकार की उपलब्धि है। बेरोजगारी आज अपने सबसे भयंकरतम स्तर पर है। इन परिस्थितियों से ध्यान भटकाने के लिए कासगंज जैसी घटना को अंजाम दिया जाता है। जिससे कि लोग बेरोज़गारी की जगह नफरत की राजनीति में उलझ जाएँ। गुजरात चुनाव और राजस्थान के उपचुनाव के नतीजों से साफ़ हो चुका है कि लहर नीचे उतर रही है। इस कारण संघ मशीनरी 2019 के चुनावों के लिए तैयारी कर रही है। 2018 में जुमलों के साथ दंगों के आयोजन की रणनीति पर जमकर अमल किया जाएगा। यही समय है जब हमें मेहनतकशों को गोलबंद करना होगा। क्योंकि पूँजीपति तो मोदी सरकार में अपना रुख रख चुके हैं। भाजपा को पिछले साल सभी चुनावी ट्रस्ट द्वारा मिले चंदे का करीब 89 प्रतिशत हिस्सा मिला है। अब हमें जनता की जुझारू एकजुटता कायम करनी होगी और फासीवाद के इस काले नाग को कुचलने के लिए जनता के बीच इन्कलाब का पैगाम ले जाना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जनवरी-फरवरी 2018
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