फासीवादी हमले के विरुद्ध ‘जेएनयू’ में चले आन्दोलन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवाल

लता

9 फरवरी के बाद जेएनयू परिसर में एक विचित्र अनिश्चितता का माहौल पसरा था, पुलिस गेट पर खड़ी थी, अन्दर तूफ़ान के पहले की शान्ति व्याप्त थी, चारों ओर पुलिस के छापों और तलाशी की ख़बर उड़ रही थी। परिसर में भय, भ्रम और अफवाहों का कोहरा फैल गया और सभी के दिमाग में एक ही बात थी, अब आगे क्या होने वाला है? जेएनयू के छात्र-छात्राएँ  काफ्का के उपन्यास ट्रायल के पात्र श्रीमान के. की तरह बदहवासी से पूछ रहे थे, आखिर यह सब किसलिये, किस अपराध के लिए यह भयंकर उन्माद? अफजल गुरु पर 9 फ़रवरी का कार्यक्रम पहली बार नहीं हुआ था। यह तीसरी बार आयोजित किया जा रहा था। लेकिन इसमें ऐसा क्या हो गया जो कि चन्द घण्टों के भीतर यह राष्ट्रीय स्तर का समाचार बन गया और बिके हुए मीडिया चैनलों ने जेएनयू को राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया।

जेएनयू पर होने वाला संघ का हमला शिक्षण संस्थानों पर चल रहे हमले और उनकी भगवाकरण की प्रक्रिया की ही अगली कड़ी थी जो आईआईटी मद्रास, एफटीआईआई से होते हुए जेएनयू और अब बीएचयू तथा पटना आर्ट कॉलेज के रूप में आगे ही बढ़ता जा रहा है। तार्किकता, विज्ञान, इतिहास, स्वतंत्र चिन्तन और जनवादी स्पेस संघ के फासीवादी विचारों के लिए प्राणघातक हैं। इन विचारों पर अंकुश लगाना संघ के लिए  ज़रूरी है ताकि छात्र इस भ्रष्ट, अमानवीय, घिनौनी, पतित व्यवस्था के कलपुर्जे बन कर ही रहें और सोच, समझकर प्रश्न न उठा सकें। स्पेन के प्रसिद्ध लेखक मिगेल दे उनामुनो ने कहा था– “अन्य  किसी भी चीज़ की तुलना में फासीवादी ज्ञान से सबसे ज्यादा नफ़रत करते हैं।” भाजपा के सत्तासीन होने के बाद संघ की योजना के तहत एक-एक कर सभी शैक्षणिक संस्थानों और विद्यालय के पाठ्यक्रम पर हमले की शुरुआत हो गयी। इसके अलावा सार्वजनिक वित्तपोषित विश्वविद्यालयों की साख ख़त्म किये बिना निजी विश्विद्यालयों का बाज़ार चमक ही नहीं सकता।

जेएनयू लम्बे‍ समय से आरएसएस के ‘रडार’ पर था जिसे पिछले लम्बे समय से पांचजन्य और ऑर्गेनाइज़र में छप रहे लेखों को देख कर समझा जा सकता है। 9 फरवरी को होने वाला कार्यक्रम कोई नया नहीं था, यह पिछले तीन साल से होता आया है और यह किसी भी रूप में कानून का उल्लंघन नहीं करता। उच्चतम न्यायालय के निर्णय या सरकार की नीतियों की आलोचना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में आती है। दूसरी बात महज नारे लगाने या नहीं लगाने से राष्ट्रद्रोह साबित नहीं हो जाता। लेकिन फिर भी जैसा कि इस कार्यक्रम के आयोजकों ने और विभिन्न प्रगतिशील और वाम संगठनों और समूहों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस तरह के किसी भी नारे में वे शामिल नहीं थे। लेकिन संघ परिवार लम्बे समय से एक मौके की तलाश में था और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सौरभ शर्मा ने थाली में परोस कर वह मौका अपने संघी महापिताओं को दे ही दिया।

इस भगवा हमले के ख़िलाफ़ जेएनयू जम कर लड़ा। जेएनयू के प्रोफेसर, छात्र और छात्राओं ने इस हमले का न केवल विरोध किया बल्कि जब तक गिरफ्तार छात्र कन्हैेया, अनिर्बान और उमर जेल से छूट नहीं गये और उन्हें जमानत नहीं मिल गयी तब तक प्रतिरोध के विभिन्न रचनात्मक माध्यमों से अपनी एकजुटता और विरोध का प्रदर्शन करते रहे। दो महीने तक जेएनयू में ‘नेशनलिज़्म’ और ‘आज़ादी’ पर ‘लेक्चर श्रंखला’ आयोजित कर, देश-विदेश से बुद्धिजीवियों और कलाकारों को आमंत्रित कर एक लम्बा प्रतिरोध चला। इस लम्बे प्रतिरोध के बावजूद कुलपति निहायत बेशर्मी के साथ संघ के फरमान सुनाते रहे। जेएनयू के कुलपति, जगदीश कुमार ने इस पूरे मामले की छान-बीन के लिए एक ‘हाई लेवल इन्वाएयरी कमिटी’ (आगे ‘एचएलईसी’) का गठन किया। जेएनयू शिक्षक संघ (‘जेएनयूटीए’) और जेएनयू छात्र संघ (‘जेएनयूएसयू’) ने इस कमेटी का विरोध किया और इसे जनवादी बनाने की माँग की। इस कमेटी में औपचारिक तौर पर एक-दो सदस्यों की संख्या बढ़ाने के अलावा ‘जेएनयूएसयू’ और ‘जेएनयूटीए’ की कोई भी बात नहीं मानी गयी। किसी भी छात्र को इस कमेटी की छान-बीन का हिस्सा नहीं बनया गया और सारे नियम-कानून दरकिनार करते हुए कमेटी ने एकतरफा छान-बीन के आधार पर रिपोर्ट तैयार कर कुलपति के सुपुर्द कर दी। अभी दो छात्र जेल में ही थे तब तक कमेटी की सिफारिशें आ गयी थीं। इन सिफारिशों पर निर्णय कुलपति को लेना था। कुलपति ने सिफारिशों के आने के बावजूद निर्णय नहीं लिया और निर्णय को “सबसे अनुकूल समय” के लिए स्थगित कर दिया। वह समय था विश्वविद्यालय में परीक्षाओं का समय। जिस दिन परीक्षाएँ आरम्भ हुई उसी दिन रिपोर्ट पर निर्णय भी ले लिया गया। कुलपति की योजना यह थी कि छात्र-छात्राएँ अपने इम्तिहान में व्यस्त होंगे तो प्रतिरोध अपने आप कमजोर हो जायेगा। लेकिन पहले की तरह ही इस बार भी छात्र-छात्राओं और अध्यापकों ने एकता और एकजुटता का प्रदर्शन किया।

रिपोर्ट पर निर्णय के बाद जेएनयू के सभी संगठनों की  बैठक (‘मीटिंग’) बुलायी गयी जिसमें राजनीतिक और कानूनी संघर्षों के पहलुओं पर बात हुई। इस बैठक में यह भी बात हुई  कि यदि छात्र कानूनी संघर्ष में उतरते हैं तो राजनीतिक संघर्ष या तो लड़ ही नहीं पायेंगे और यदि राजनीतिक संघर्ष जारी भी रहा तो अंतत: बात आ कर यहीं रुकेगी कि चूँकि मामला न्यायालय के अधीन है इसलिए इस पर निर्णय नहीं हो सकता। बैठक में प्रशासनिक भवन के घेराव से लेकर कमरे-कमरे जा कर राजनीतिक प्रचार, विरोध प्रदर्शनों की बात हुई और अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर भी चर्चा हुई। इस बैठक के बाद एक और बैठक हुई जिसमें कुछ संगठनों ने हिस्सा लिया और बेहद गैरजनवादी तरीके से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर एक सहमति बना ली गयी जिसकी घोषणा अगले दिन प्रेस कॉन्फ्रेन्स में कर दी गयी। अपनी असहमतियों (रिजर्वेशन) के बावजूद अन्य सभी संगठनों ने  इसमें हिस्सा लिया। बापसा (बिरसा अम्बेडकर फुले स्टूूडेन्ट ऑर्गेनाइजेशन) ने पहले की तरह ही इस बार भी अपने-आप को आन्दोलन से दूर रखा और अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया। बेहतर यह होता कि संघर्ष को चरणों में आगे बढ़ाया जाता, पहले घेराव और प्रदर्शनों के माध्यम से छात्र आबादी को एक बार फिर लामबन्द किया जाता; प्रतिरोध किया जाता और फिर क्रमिक भूख हड़ताल से शुरुआत करते हुए अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की ओर बढ़ा जाता। परन्तु कुछ संगठन अवसरवादी तरीके से इस संघर्ष को अपना नाम चमकाने के लिए ही इस्तेमाल करना चाहते थे।

बहरहाल, ‘जेएनयूएसयू’ द्वारा घोषित भूख हड़ताल के समानान्तर संघी ड्रामेबाजों ने भी अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की घोषणा की जिसका नेता, सौरभ शर्मा, पाँच दिनों बाद अस्पताल में फूड प्वाइज़निंग की वजह से भर्ती कराया गया! सौरभ शर्मा का अस्पताल जाना इस पूरे प्रकरण का बेहद प्रहसनात्मक अंश रहा।

10 मई को अकादमिक काउन्सिल की मीटिंग होने वाली थी और उस दिन अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल अपने तेरहवें दिन में प्रवेश कर चुकी थी। इस आन्दोलन का दबाव पूरी तरह कुलपति और प्रशासन पर बन रहा था। कुलपति मीटिंग को छोड़ कर भागने को मजबूर हो गया। लेकिन तभी एक खबर आयी कि ‘एचएलईसी’ पर कोर्ट का स्टे हो गया है। फिर पता चला कि मात्र उमर और अनिर्बान के जुर्माने पर स्टे लगा है। कुछ ही पल में छात्रों को ऐसा लगा मानों किसी ने आन्दोलन से सारी ऊर्जा निकाल दी हो और वह हवा निकले गुब्बारे की तरह उड़ता हुआ ज़मीन पर आ गिरा हो। उसी समय एक छात्र  विरेन्द्र, बापसा और युनाइटेड ओबीसी फोरम ने यह बात कहनी शुरू की कि ‘एचएलईसी’ का मुद्दा जानबूझ कर उछाला गया जबकि अन्य मुद्दों को योजना के तहत दबाया गया। अन्य मुद्दों में ‘ओबीसी’ रिजर्वेशन’ /’रिलैक्सेशन’, ‘डिप्रवेशन पॉइण्ट’ शामिल थे। यह आरोप सिरे से ग़लत है। अन्य मुद्दों पर भी निश्चित ही बात होती लेकिन जब पूरे जेएनयू परिसर के जनवादी ‘स्पेस’ पर हमले की बात थी और छात्र-छात्राओं के बहाने यहाँ के वैचारिक माहौल पर हमले की बात थी तो प्राथमिकता के लिहाज़ से तो जनवादी ‘स्पेस’ पर हमले के प्रतिरोध का मुद्दा ही छात्रों के लिए सबसे ऊपर होना चाहिए। यह दीगर बात है कि उमर और अनिर्बान ने उन छात्र-छात्राओं को बताये बिना कानून का दरवाज़ा खटखटाया। जब सभी लोग उनके साथ पूरी एकजुटता के साथ खड़े थे तो इतना उतावलापन क्यों था? क्या उन्हें आन्दोलन को जनता के बीच नहीं ले जाना चाहिए था? लेकिन वे गये तो न्यायालय और गैरजनवादी निर्णय प्रक्रिया से व साजिशाना तरीके से, पीछे के दरवाजे से। यह एक निहायत कायराना और मौकापरस्त क़दम था। क़ानूनी लड़ाई की सीमा होती है। स्वयं इस पूरे प्रकरण को देख कर समझा जा सकता है और साथ ही देश में पिछले दो सालों में जिस तरह कानून और न्याय व्यवस्था की खुले तौर पर धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं उसके बावजूद कानून का दरवाज़ा खटखटाना कायरता थी और वह भी तब जब आपके साथ लगभग सारा‍ विश्वविद्यालय खड़ा था, और तो और जेएनयू के पुराने छात्र, अभिभावक, आम जनता सब आपके साथ थे। यह उन लोगों के साथ और इस पूरे संघर्ष के साथ एक धोखा था।

इस आन्दोलन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं के विश्लेषण और सकारात्मक आलोचना की बेहद आवश्ययकता है क्योंकि शैक्षणिक संस्थानों पर किया जाने वाला हमला रुकने वाला नहीं है यह और तीव्र होगा। यह सरकार अपनी आर्थिक नीतियों की विफलता, जनता के साथ किये गये वायदों की उड़ती धज्जियाँ, बिहार, बंगाल, केरल के चुनावों में मिली विफलता और नये-नये भ्रष्टाचारों से घिरती हुई अपनी तिलमिलाहट में बौखला कर ऐसे हमले और बढ़ायेगी। स्थिति की गम्भीरता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि तमाम आन्दोलनों और देशव्यापी प्रति‍रोधों के बावजूद अप्पा राव को हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दोबारा कुलपति नियुक्त कर दिया गया। इसके प्रतिरोध में उतरे छात्रों को भयंकर रूप से पीटा गया‍, एचसीयू को खुले जेल में रूपान्तारित कर दिया गया, बिजली-पानी, भोजन आदि की सुविधाएँ छीन ली गयीं और पुलिस तथा ‘पैरामिलिट्री फोर्स’ की परिसर में तैनाती कर दी गयी।

स्थिति की गम्भीरता और फासीवाद की मजबूत होती पकड़ आदि कारण हमें जेएनयू के आन्दोलन से जुड़े कई सवालों पर सोचने को मजबूर कर रहे हैं। जेएनयू के संघर्ष से भी फासीवाद से लड़ने के लिए कोई कारगर योजना साकार होती नहीं दिखती है। निश्चित ही फासीवाद से लड़ाई अभी भी जारी है और यह लम्बी चलने वाली है इसलिए इस आन्दोलन ने जो रास्ते दिखाये हैं उनकी समीक्षा आवश्यक है। हम नुक्तेवर आन्दोलन के कुछ पहलुओं पर आलोचनात्मक नज़र डालेंगे।

भारतीय संविधान– ‘द होली कॉव’: कन्हैया का संविधान प्रेम!

‘जेएनयूएसयू’ अध्यक्ष कन्हैया की जेल से जमानत पर रिहाई के बाद पूरे आन्दोलन को एक नयी ऊर्जा मिली थी। ‘फ्रीडम स्वायर’ से दिये अपने भाषण में उसने मोदी, मँहगाई, संघ और निजीकरण पर तीखी बात रखी लेकिन साथ ही उसने बार-बार यह भी दोहराया कि उसे भारतीय संविधान और कानूनी तथा न्यायिक प्रक्रिया पर पूरा भरोसा है और वह संघियों से कहीं ज्यादा राष्ट्रवादी है। उस भाषण व उसके बाद कन्हैया द्वारा दिये गये साक्षात्कारों में राष्ट्रवाद और भारतीय संविधान की उन्मादी प्रशंसा अपने आप को राष्ट्रवादी और संवैधानिक सिद्ध करने की आक्रामक घोषणा किसी उदारवादी को भी शर्मसार कर दे। स्वयं जो संविधान औपचारिक रूप से ही सही आलोचना का अधिकार देता है उसे पवित्र बना देना दर्शाता है कि भारत का संसदीय वाम फासीवाद के सामने घुटने टेक चुका है। वह संविधान जो मौलिक अधिकारों की बात करते हुए स्वयं राज्य को ऐसे अधिकार देता है जिसके द्वारा इन अधिकारों को छीना जा सके; इंसानी जि़न्दगी जीने के लिये ज़रूरी बुनियादी अधिकारों की ज़रूरतों को पूरा करने की गारण्टी नहीं देता; जो राज्य को ‘प्रिवेंण्टिव डिटेन्सन’ के प्रावधान के तहत ऐसे कानून बनाने के अधिकार देता है, जो जनता पर जुल्म ढाने और जीवन तक के अधिकार छीन लेने का काम करें; ऐसे संविधान की प्रशंसा राजनीतिक तौर पर निहायत शर्मनाक थी। क्या हमें यह पता नहीं कि इसी संविधान के तहत प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए इन्दिरा काल में इमरजेंसी लगायी  गयी थी। यह भला कब से होने लगा कि एक कम्युनिस्ट बुर्जुआ वैधानिकता और न्याय व्यवस्था  का फेटिश अपनाने लगे? यह वही पुराना संशोधनवादी तर्क है जो एज़ाज अहमद को राष्ट्रवाद की अनऐतिहासिक और गैरमार्क्सवादी समझदारी तथा कन्हैया को राष्ट्रवाद और संविधान के उन्मादी गुणगान की ओर ले जाता है।

गैरसंवैधानिक गतिविधियों में संलग्न होना अलग बात होती है लेकिन सैद्धान्तिक ज़मीन से संविधान की आलोचना गैरसंवैधानिक नहीं है। निश्चित ही मात्र 11.5 फीसदी सम्भ्रान्त वयस्कों द्वारा चुने संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान की आलोचना तो की ही जानी चाहिए क्योंकि मात्र 11.5 प्रतिशत सम्भ्रान्त भारत की आम जनता के अधिकारों, महत्वाकांक्षाओं और आशाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते और यह स्पष्ट तौर पर भारतीय संविधान में दिखता है। संविधान सभा के इस चरित्र से नेहरू भी वाकिफ़ थे और आज़ादी से पहले उन्होंने इसकी आलोचना की थी और कहा था कि  आज़ादी के बाद सार्विक वयस्क मताधिकार के आधार पर नये  संविधान सभा का गठन होगा। हालाँकि भारत के बड़े पूँजीपतियों के प्रतिनिधि नेहरू को भारत की आम जनता के अधिकारों की ज़्यादा परवाह भला क्यों होती! भारतीय संविधान के रूप में उन्हें यहाँ की जनता के उत्पीड़न नियंत्रण का बना-बनाया उपकरण मिल गया था।

जिस संविधान की दुहाई बात-बात पर दी जा रही है उसके 395 अनुच्छेदों में से 250 अनुच्छेद कुख्यात ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इंडिया एक्ट 1935’ से हूबहू या थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ अपना लिये गये । यह वही ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इंडिया एक्ट‍ 1935’ है जिसे पण्डित नेहरू ने ‘गुलामी के चार्टर’ की संज्ञा दी थी। इन मायनों में इस गुलामी के चार्टर के प्रावधानों का दायरा इतना विस्तृत है कि नागरिक अधिकारों के हनन यहाँ तक कि ‘जीने के अधिकार’ का अतिक्रमण करने के लिए राज्य को संविधान के उल्लंघन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, ये सारे प्रावधान गर्व से स्वर्ण अक्षरों में इस “पवित्र ग्रन्थ” में मौजूद हैं। राज्य द्वारा लिये गये घोर गैर जनवादी निर्णय, जैसे 1975 का अपातकाल और जम्मू-कश्मीर तथा नार्थ-ईस्ट (पूर्वोत्तर) में वस्तुत: सैन्य तानाशाही जैसी स्थिति, माओवादियों के नाम पर केंद्रीय भारत के आदिवासी बहुल इलाके की जनता के ख़िलाफ़ युद्ध जैसे हालात, पोटा, टाडा और यूएपीए जैसे तमाम काले कानून पूर्ण रूप से संविधानसम्मत हैं। इस मामले में भारतीय संविधान कुख्यात जर्मन राइख़ के विधिशास्त्र के क़रीब है। परन्तु कन्हैया और जेएनयू की उपाध्यक्ष शेहला राशिद घूम-घूम कर पूरे देश में भारतीय संविधान के समर्थन में और अपने राष्ट्रवादी होने का प्रचार कर रहे हैं और बार-बार तिरंगे को बचाने की बात कर रहे हैं। हद तो तब हो गयी जब एक बार तो शेहला ने भगवा तक को अपनाने की बात कर दी!

सही भी है क्योंकि संशोधनवादी सत्ता में पहुँच कर इन कानूनों का इस्तेमाल करने में कभी पीछे नहीं रहे हैं तो शेहला और कन्हैया यहाँ अपनी भाकपा माले व भाकपा माले के संशोधनवाद के उसूलों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। सिंगुर, नन्दीग्राम संशोधनवादियों की असली परिणति है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के गैरजनवादी पहलु पर भी बात कर ली जाय क्योंकि दिन में हज़ारों बार जनवाद रटने वाले संशोधनवादी कन्हैया और शेहला को  संविधान के इस हिस्से के प्रति गान्धारी नहीं बन जाना चाहिए। हालाँकि इस पवित्र ग्रन्थ के इतने और गैरजनवादी पहलू हैं कि उनके लिए अलग से लिखने की आवश्याकता पड़ जायेगी और वह इस लेख का विषय भी नहीं है लेकिन फिर भी अनुच्छेद 22 पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है। यह वही अनुच्छेद है जिसका भारतीय राज्य ने नागरिक अधिकारों के हनन और आम जनता के आन्दोलनों को कुचलने के लिए जम कर उपयोग किया है। अभी हमारे नये-नये बने संविधान की स्याही सूखी भी नहीं थी कि इस अनुच्छेद के तहत पहला कानून पारित हुआ, निरोधक नज़रबंदी क़ानून 1950 (‘प्रिवेंण्टिव डिटेन्सन एक्ट’) जो 1969 तक प्रभावी रहा। यह कानून तेलंगाना में चल रहे किसान आन्दोलन के दमन के लिए बनाया गया था जिसमें 90 प्रतिशत किसान दलित और निचली जातियों के थे। इसके बाद कानून बदलते गये और हर बार पहले से ज़्यादा कठोर, बर्बर, क्रूर और गैर जनवादी होते गये। 1971 में ‘मीसा’ (‘मेण्टिनैन्स ऑफ़ इण्टरनल सिक्योरिटी एक्ट’) लगाया गया जो आपातकाल के दौरान राज्य की नग्न  तानाशाही का प्रतीक बन गया। 1980 में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ नामक काला कानून लाया गया जो अभी तक अस्तित्व में है। 1985 में ‘टाडा’(‘टेररिज़्म  एण्ड डिसरप्टिव एक्टिविटीज़ एक्ट’) लाया गया जिसका आतंकवाद से लड़ने के नाम पर जमकर दुरुपयोग हुआ। 2002 में तत्कालीन राजग सरकार ने आतंकवाद से लड़ने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताने के लिए अभूतपूर्व तरीके से पहले अध्यादेश जारी करके और फिर संसद की संयुक्त बैठक बुलाकर ‘पोटा’ (‘प्रिवेंशन ऑफ़ टेररिज़्म एक्ट’) जो अपने कुख्यात कारनामों के लिए प्रसिद्ध है। 2004 में संप्रग सरकार ने इस कानून को रद्द तो किया लेकिन उससे भी ख़तरनाक कानून लाने के लिए; वह था गै़रकानूनी गतिविधियाँ निरोधक कानून जिसमें (‘अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट’) ‘पोटा’ के भी सारे काले प्रावधान डाल दिये गये। इसके अतिरिक्ति राज्यों के पास अपने काले कानूनों का रिजर्व है, मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में ‘मकोका’ और छत्तीसगढ़ में ‘छत्तीसगढ़ विशेष सुरक्षा अधिनियम’। भारतीय संविधान के अभी ऐसे और भी “गुणों” का बखान किया जा सकता है परन्तु  ‘आफ्सपा’ की बात तो ज़रूरी है। जम्मू कश्मीर में 7 लाख की संख्या में सेना की मौजूदगी के साथ यह विश्व का सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्र है। पूर्वोत्तर के राज्यों में यह क़ानून 1958 से लागू है, इसके तहत वहाँ की जनता के साथ जो घोर अमानवीय व्यवहार हो रहा है वह हमसे छिपा नहीं है।

जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों की जनता जो लगातार इन काले कानूनों के तहत दमन झेल रही है (और जो इसी संविधान के दायरे में सम्भव हुए है), उसके अथाह दुःख तकलीफ़ों से क्या संविधान प्रेमी कम्युनिस्टों का कोई सरोकार रह जाता है? जब वैचारिक दिवालियेपन के शिकार ये “क्रान्तिधर्मी” भारतीय संविधान के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में अपने को पेश करते हैं और संविधान पर उँगली उठाने वालों की उँगली तोड़ने की बात करते हैं तो इनकी असलियत को समझा जा सकता है। दरअसल यहाँ भारत के संशोधनवादी इस व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति को ख़ुद ही बेपर्द कर रहे हैं।

“लाल कटोरी” और “नीली कटोरी”

लम्बे समय से भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अम्बेडकर को अपना लेने की होड़ मची हुई है। इस होड़ में अब भारतीय जनता पार्टी भी शामिल हो गयी है। लेकिन आज क्रान्तिकारी वामपन्थी संगठन भी मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के बीच कुछ घालमेल करने की समझौतापरस्त भावभंगिमा में नज़र आ रहे हैं। संसदीय वाम की तो बात ही क्या करें मौकापरस्ती की मिसाल पेश करने में वे हमेशा आगे रहते हैं। जेएनयू आन्दोलन के दौरान भी लाल (वाम) और नीले (अम्बेडकर) को मिलाने का अथक प्रयास किया गया।

नीले और लाल के समागम का द्रविड़ प्राणायाम एक विचित्र बैंगनी धुन्ध चारों ओर फैलाये हुए है जिसकी वजह से एक आम राजनीतिक कार्यकर्ता या कहा जाय कि नया रंगरूट जो शिद्दत से समाज परिवर्तन की राजनीति में सक्रिय है, बेहद परेशान और हक्का-बक्का है कि आखिर किस लाइन को अपनाया जाये? इस पूरे बैंगनी आवरण का वर्तमान रूप में सबसे प्रचलित सूत्रीकरण है – भारत के आर्थिक शोषण के विरुद्ध लड़ने के लिए मार्क्सवाद और सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ने के लिए अम्बेडकरवाद, नारीवाद आदि। ‘फ्रीडम स्वायर’ (जेएनयू में प्रदर्शन स्थल) से कन्हैया ने अपने भाषण में इसी शब्दाडम्बर को ‘लाल कटोरी और नीली कटोरी’ के रूपक के माध्यम से दुहराया। इस बेहद अवसरवादी और मजाकिया सूत्रीकरण के बारे में यही कहा जा सकता है कि ऐसे सूत्रीकरण देने वाले न तो आर्थिक शोषण को समझते हैं और न ही सामाजिक उत्पीड़न को। मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद दो बिल्कुल भिन्न विचारधारा, विपरीत पहुँच-पद्धति और विरोधी विश्व-दर्शन है जिनका कोई समागम बिन्दु हो ही नहीं सकता। बार-बार किया जाने वाला यह विचित्र प्रयास निपट मासूमियत (जो कि राजनीति में होती नहीं) या (असल में) घोर अवसरवाद का परिचायक है और यह “मासूमियत” हमें जेएनयू कैम्पस और इसके बाहर प्रचुर मात्रा में देखने को मिल रही है। जेएनयू में ‘एचएलईसी’ के विरुद्ध चल रहे अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के दौरान एक ऐसी ही मासूम विचारधारा वाला संगठन “भगतसिंह अम्बेडकर छात्र संगठन (बासो)” भी  अस्तित्व  में आया है जो भगतसिंह और अम्बेडकर के विचारों को मिलाने का अथक प्रयास कर रहा है। आन्दोलन के दौरान ‘जय भीम’, ‘लाल सलाम’ और ‘नीला सलाम’ का नारा सामान्य रूप से सभी वाम संगठनों ने इतने जोश से, बुलन्द आवाज़ में और दृढ़ विश्वास के साथ लगाया मानो अब “अम्बेडकर” के पास कोई विकल्प नहीं है बस उन्हें तो अब इस खेमे में आना ही होगा। वैसे लाल और नीले का मिलान करने का अनवरत प्रयास वाम की ओर से ही नज़र आता है। इस मामले में अम्बेडकरवादी संगठन अपने विचारों के प्रति ज्यादा प्रतिबद्ध और दृढ़ नज़र आते हैं साथ ही मार्क्सवाद सम्बन्धी अम्बेडकर के विचारों का विश्वास के साथ पालन करते हैं कि “मार्क्सवाद सूअरों का दर्शन है!”।

ज़्यादातर क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट भी जो अब मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के मिलान की बात कर रहे हैं- अपराधबोध और आत्मभर्त्सना की मुद्रा में यह स्वीकार करते हैं कि कम्युनिस्ट आन्दोलन ने अतीत में जाति प्रश्न की घोर उपेक्षा की और इसके प्रति यांत्रिक अर्थवादी या वर्ग-अपचयनवादी (क्लास-रिडक्शनिस्ट) रवैया अपनाया इसलिए आज अब अम्बेडकर को अपना कर वे अतीत के पाप धो लेंगे। जेएनयू कैम्पस में वाम बिना किसी प्रतिरोध के अम्बेडकरवादी संगठनों की भर्त्सना सुनता है मानों उनके कहे सभी आरोप सही हैं। हालाँकि इनमें से ज़्यादा आरोप सार-संग्रहवादी ढंग से इतिहास की कुछ घटनाओं की गिनती के आधार पर लगाये जाते हैं न कि ठोस तथ्यों के ठोस विश्लेषण से। यह बात सही है कि इतिहास में कम्युनिस्ट पार्टी जनवादी क्रान्ति  की मंजिल में भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के मार्क्सवादी विश्लेषण के आधार पर जाति-वर्ग के सम्बन्धों को समझने में अक्षम रही; जाति आधारित सामाजिक विभाजन और सांस्कृतिक भेद-भाव के ख़िलाफ़  सतत, व्यापक और सुनियोजित कार्यक्रम प्रस्तुत करने में नाकाम रही; साथ ही पार्टी यह बताने में भी अक्षम रही कि सर्वहारा राज्य की स्थापना के बाद जाति व्यवस्था के पूर्ण उन्मूलन की प्रक्रिया या सामान्य दिशा क्या होगी। यह पार्टी की आम कमजोरी थी जो न केवल जाति के प्रश्न पर लागू होती है बल्कि अन्य सभी महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक और सामाजिक प्रश्नों पर लागू होती है, उदाहरण के तौर पर पार्टी के पास स्त्री प्रश्न, राष्ट्रीयताओं के प्रश्न पर भी पार्टी की कोई ठोस समझदारी नहीं थी। इस प्रकार जिस पार्टी के पास अपनी स्थापना के 31 सालों तक क्रान्ति का कोई कार्यक्रम न हो, ऐसी पार्टी से सिर्फ़ जाति के प्रश्न पर समझदारी की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

यह बात सही है कि जाति प्रश्न की एक वैज्ञानिक समझदारी और विश्लेषण का अभाव बना रहा लेकिन यह कह देना कि यह पार्टी का कभी एजेण्डा नहीं था यह इतिहास निषेधी बात होगी। 1930 में ‘कार्रवाई के लिए संयुक्त मंच’ के अपने दस्तावेज़ में पार्टी ने जाति प्रथा और अस्पृश्यता की तफ़सील से चर्चा की है। पुनः 1948 में हुई पार्टी की दूसरी कांग्रेस की राजनीतिक थीसिस के दस्तावेज़ में भी इस प्रश्न को उठाया गया है और पाँच पैराग्राफ अस्पृश्यों की समस्या पर दिया गया है। एटक ने भी अपने चौथे पाँचवें और छठे अधिवेशन में अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव को मुद्दा बनाया था और बाद में भी इसे ‘मज़दूर वर्ग के चार्टर’ में शामिल किया गया था। किसान सभा की केन्द्रीय परिषद ने भी सितम्बर 1945 में अपने माँगपत्रक में अस्पृश्यता विरोधी माँग शामिल की थी। बिहार और उत्तर प्रदेश के सवर्ण भू-स्वामी तो हिक़ारत से कम्युनिस्ट पार्टी को ‘चमारों दुसाधों की पार्टी’ कहा ही करते थे। कम्युनिस्टों का मुख्य सामाजिक आधार ही गाँव के भूमिहीनों में था, जो ज़्यादातर दलित थे। देश के सैकड़ों स्थानों पर कम्युनिस्ट संगठनकर्ताओं ने दलितों के साथ भेदभाव या उनके उत्पीड़न के विरुद्ध आन्दोलन चलाये। 1951-52 तक पेशेवर क्रान्तिकारियों की परम्परा वास्तविक अर्थों में मौजूद थी और सवर्ण जातियों से आने वाले कार्यकर्ता भी दलित बस्तियों में ही रहते थे। यह याद रखना होगा कि तेलंगाना किसान संघर्ष की पूर्वपीठिका बनाते हुए आन्ध्र महासभा में काम करने के दौरान कम्युनिस्टों ने अन्य सामाजिक बुराइयों के अतिरिक्त जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता, धार्मिक रूढ़ियों और स्त्रियों की ग़ुलामी को भी मुद्दा बनाया था और शक्तिशाली सामाजिक आन्दोलन के ज़रिये वर्गीय एकजुटता को मज़बूत बनाया था। तेलंगाना-तेभागा-पुनप्रा-वायलार के किसान संघर्षों में लड़ रहे रैयतों और भूमिहीन किसानों में बहुसंख्या दलित और निचली जातियों की थी और इन संघर्षों में किसानों के साथ कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी नेहरू की सेना और निज़ाम के गुण्डोंं के बर्बर दमन के शिकार हुए थे। ये शहीद कम्युकनिस्ट कार्यकर्ता किसानों का संघर्ष छोड़ कर भाग नहीं गये बल्कि उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलकर लड़े और शहीद हुए थे।

इतिहास के तथ्यों  को बिना जाने आरोप लगा देना आसान होता है। इतिहास का एक तथ्य यह भी है कि जब सारा देश साइमन कमीशन के विरोध में उबल रहा था तो अम्बेडकर कमीशन के सामने अर्जी लिख रहे थे। कुख्यात गर्वनमेंण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट के ख़िलाफ़ होने वाले आन्दोलन से भी अम्बेडकर ने अपने आपको दूर रखा। हालाँकि, बाद में १९३० तक अम्बेडकर ने ब्रिटिश हुकूमत की कुछ नुक्‍तों पर आलोचना की लेकिन जब उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की आलोचना की तब भी उन्होंने उसके विरोध में किसी जन आन्दोलन की हिमायत नहीं की। इतना ही नहीं उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ होने वाले संघर्ष को उच्चजाति हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए बताया। अम्बेडकर कांग्रेस के उच्च जाति नेतृत्व का विरोध करते रहे लेकिन उन्होंने कांग्रेस द्वारा प्रस्तावित पद, संविधान सभा के अध्यक्ष, को सहर्ष  स्वीकार किया और जब पूरे देश में छात्र, मज़दूर, किसान आन्दोलन चला रहे थे, तेलंगाना-तेभागा-पुनप्रा-वायलार में बहुसंख्या में आदिवासी और दलित संघर्ष कर रहे थे, जान की कुर्बानी दे रहे थे तब अम्बेडकर ने इनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर अम्बेडकर का यह मानना था कि सामाजिक परिवर्तन के लिए राज्यसत्ता ही सबसे तार्किक अभिकर्ता होती है और किसी भी राज्यसत्ता के विरुद्ध विरोध अथवा सशस्‍त्र संघर्ष को वह गलत मानते थे। इसलिए जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किसान और नौजवान लड़ रहे थे उस समय अम्बेडकर संविधान सभा के अध्यक्ष थे उस समय इन संघर्षों और उनके दमन पर चुप्पी साधे रहे। यह वही समय था जब नेहरू की सेना निजाम के जमीन्दारों के गुण्डा गैंग के साथ मिल कर तेलंगाना के रैयत और भूमिहीन किसानों का बर्बर दमन कर रही थी जिसमें से अधिकांश शूद्र और दलित जातियों से थे। तब भी अम्बेेडकर अपने विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों के चलते शासक वर्गों और राज्य सत्ता के साथ समझौते और सहयोग की रणनीति को ही अपना रहे थे।

यह तथ्य कि कम्युनिस्ट पार्टी के पास जाति उन्मूलन का कोई कार्यक्रम नहीं था, यदि सही है (और जो कि सही है) तो यही बात अम्बेडकर पर भी लागू होती है। अम्बेडकर ने भी जाति उन्मूलन के लिए कोई व्यवस्थित और कारगर योजना प्रस्तुत नहीं की थी। भावना में बह कर पूरी बात को रद्द करने की जगह वैज्ञानिक और तार्किक धरातल पर अम्बेडकर की विचारधारा को समझने की आवश्यकता है। अम्बेडकर जाति उन्मू‍लन के अपने तमाम गम्भीर और सच्चेे सरोकारों के बावजूद ड्यूईवादी व्यवहारवाद और उदार बुर्जुआ विचारधारा की वजह से जाति उन्मूलन की कोई ऐतिहासक परियोजना पेश नहीं कर पाये। उनकी विचारधारा ड्यूईवादी उपकरणवाद उन्हें बुर्जुआ कल्याणवाद से आगे नहीं लेकर जाती थी। यह दृढ़विश्वासी तौर पर क्रान्तिकारी तौर-तरीकों का विरोधी था और समाज के विकास के क्रमिकतावादी (ग्रेजुएलिस्ट) सिद्धान्त पर यकीन रखता था और राज्यसत्ता को समाज का सबसे तार्किक अभिकर्ता मानता था। ऐसे में, अम्बेडकर की विचारधारात्मक अवस्थिति, यानी ड्यूईवादी व्यवहारवाद ही उन्हें कभी भी राजनीतिक तौर पर सुधारवाद से आगे जाने की इजाज़त नहीं देता था। यही कारण है कि दलितों के उत्थान के लिए सुधारवाद के दायरे से जो चीज़ें हो सकती थीं, वे अम्बेेडकर ने की। साथ ही, जा‍ति के उन्मूलन के प्रश्न को पहली बार राष्ट्रीय राजनीतिक एजेण्डे पर वांछनीय प्रमुखता के साथ रखना और साथ ही दलितों के बीच अपनी गरिमा और आत्मसम्मान का भाव पैदा करने में भी उनकी महती भूमिका थी। लेकिन साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि सुधारवाद के दायरे के भीतर जो कुछ अर्जित हो सकता था, वह अर्जित हो चुका है। अब रियायतों और सुधारों से आगे बढ़कर उस शोषण आधारित व्यवस्था पर सवाल उठाने का समय आ गया है जो जाति और ब्राह्मणवादी विचारधारा को अपने वैधीकरण, शोषित जनता के प्रतिरोध को तोड़ने, उन्हें बाँटने के लिये उपयोग कर रही है जैसा कि पहले की तमाम शोषक, उत्पीड़क व असमानतापूर्ण व्यवस्थाओं ने किया।

वहीं यदि मार्क्सवादी नज़रिये से पूरी परिस्थिति का विश्लेषण करें तो यह सूत्रीकरण कि सामाजिक उत्पीड़न के लिए अम्बेेडकरवाद, नारीवाद आदि की ज़रूरत है और आर्थिक शोषण के लिए मार्क्सवाद समाधान है – हम पायेंगे  कि सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण चाहे वह भारत के सन्दर्भ  में हो या पूरे विश्व स्तर पर, ये दो परिघटनाएँ हर हमेशा अन्तर्गुन्थित होती हैं और एक दूसरे को बढ़ावा देती हैं। इन दोनों को अलग-अलग देखना और दोनों के समाधान के लिए विभिन्न विचारधारा की आवश्यकता की बात करना गम्भीर भूल होगी और इससे भयंकर सैद्धान्तिक विभ्रम पैदा होगा और जो कि बैंगनी कुहासे के रूप में फैल भी रहा है।

विश्वविद्यालयों में ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले दलित छात्र-छात्राएँ और कारखानों में दलित और निचली जाति से आने वाले मज़दूरों को खासतौर से जातिगत उत्पीड़न के नग्नतम रूपों का सामना करना पड़ता है। वहीं एक अच्छी आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले दलित और निचली जाति के छात्र/छात्राओं और ऊँचे पद पर आसीन दलित पदाधिकारी के साथ जो जातिगत भेदभाव होता है उसकी तुलना हम पहली श्रेणी के उत्पीड़न से नहीं कर सकते। दलित और निचली जाति से आने वाले मज़दूर अपनी अरक्षित सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठ़भूमि की वजह से आर्थिक शोषण के साथ-साथ आर्थिकेतर शोषण के भी शिकार (‘एक्स्ट्रा इकनोमिक कोएर्सिएन’ coercion) होते हैं जो पूँजीवादी मुनाफ़े  को अतिमुनाफ़े  में तब्दील करता है। इसके अलावा, संसाधनों के बँटवारे में पूँजीवाद स्वभावतः जो असमानता पैदा करता है, जातिगत विभेद इस असमानता को और भी ज़्यादा बढ़ाने का काम करता है और वितरण के तमाम विनियामकों में से एक विनियामक का काम करता है। ऐसे में, जातिगत विभाजन और उत्पीड़न को आर्थिक शोषण से स्वायत्त समझ लेना एक भयंकर भूल है।

सामाजिक शोषण और आर्थिक उत्पीड़न जिस तरह नाभिनालबद्ध हैं उसका समाधान पूँजीवाद के दायरे में सम्भव नहीं है क्योंकि जिस व्यवस्था को वैधीकरण, अतिमुनाफ़े, शोषितों को बाँटने, वर्ग एकजुटता तोड़ने के लिए जाति व्यवस्था के रूप में बेहद प्रभावी उपकरण मिला हुआ हो वह खुद इसे समाप्त करने का काम क्यों  ही करेगी। इसलिए जाति उन्मूलन का दीर्घकालिक कार्यक्रम तो समाजवाद का ही कार्यक्रम हो सकता है। लेकिन जुझारू सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोेलन के बग़ैर क्रान्ति भी सम्भव नहीं है और क्रान्ति के बिना जाति का निर्णायक तौर पर उन्मूलन भी सम्भव नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि क्रान्ति के साथ ही जाति का उन्मूलन हो जायेगा। लेकिन इतना अवश्य है कि क्रान्ति के साथ इस समूची सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को इतिहास की कचरा पेटी में पहुँचाया जा सकेगा जो जाति व्यवस्था को खाद-पानी देती रही है। इसलिए आज ज़रूरत है वर्ग-आधारित जाति विरोधी जुझारू और क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा करने की। इस रूप में आज जो लोग “जय भीम” और “लाल सलाम” को एक करते हुए अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद को मिला रहे हैं वे ‘सब कुछ चलता है’ और लोकरंजकतावाद की अवसरवादी राजनीति कर रहे हैं।

कानूनी लड़ाई और राजनीतिक संघर्ष

जेएनयू पर संघ के आक्रमण के विरुद्ध चले इस आन्दोलन का सबसे प्रभावी पहलू था छात्र-छात्राओं और शिक्षकों की शक्तिशाली एकता। आन्दोलन के हर मोड़ और हर पड़ाव पर यह एकता और एकजुटता बनी रही। जेएनयू को राष्ट्रविरोधी घोषित किये जाने और इस पर लगे तमाम आरोपों के अलावा यह संघर्ष कन्हैया, उमर और अनिर्बान को रिहा करने के लिए भी था। इस आन्दोलन को व्यापक स्तर पर ‍मात्र जेएनयू के अन्दर से नहीं बल्कि जेएनयू के बाहर, देश के अलग-अलग हिस्सों और विश्व‍भर से समर्थन मिल रहा था। यह तथ्य कि ‘कन्हैया, उमर और अनिर्बान के ऊपर राष्ट्रद्रोह का अपराध साबित कर पाना मुश्किल था इसलिए उन्हें जमानत मिल गयी’  बात सिर्फ इतनी नहीं थी। सरकार के ऊपर जनान्दोलनों का जबर्दस्त दबाव था, देश स्तर पर और विश्वभर से बुद्धि‍जीवी, संस्कृतिकर्मी, राजनीतिक कार्यकर्ता और छात्र जेएनयू के समर्थन में सड़कों पर उतरे। सरकार को अपने कद़म पीछे खींचने पड़े। लेकिन जिस प्रकार यह आन्दोलन समाप्त हुआ वह बेहद असंतोषजनक रहा।

‘एचएलईसी’ पर निर्णय के बाद एक बार फिर सभी छात्र-छात्राओं पर लगे जुर्माने, हॉस्टल से निकाले जाने और अकादमिक प्रतिबन्ध के ख़िलाफ़ एक सुदृढ़ आन्दोेलन खड़ा हुआ जिसकी शुरुआत अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल से हुई और कई रचनात्मक रूप अपनाये गये। कलाकर्मी, संस्कृतिकर्मी, ‘म्युजिकल बैंड’ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने आये। लेकिन जब इन सभी विभिन्न रूपों में आन्दोलन आगे बढ़ रहा था उसी दौरान उमर और अनिर्बान  बिना किसी सूचना के ‘एचएलईसी’ के लिए न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने चले गये। इसके अलावा इतने जुझारू रूप से चल रहे संघर्ष को एकबारगी न्यायालय के चौखटे पर पटक देना बहुत बड़ी गलती थी। इस आन्दोलन में शामिल सभी छात्र-छात्राओं, शिक्षक और अन्य  सभी इस बात के लिए तैयार थे कि ‘एचएलईसी’ के एक भी दण्ड को स्वीकार नहीं किया जायेगा। फिर उमर और अनिर्बान  ने यह कदम क्यों उठाया? यह सवाल तो संघर्षरत हर छात्र-छात्रा उनसे पूछेंगे। ‘एचएलईसी’ के विरुद्ध संघर्ष के माध्यम से संघ की कठपुतली जेएनयू के कुलपति और स्वयंसेवक संघ को एक करारा जवाब दिया जा सकता था। दरअसल यह अराजकता, नायकवाद, गैरजनवादी प्रवृत्ति, ‘लाइम लाइट’ मानसिकता की वह अवसरवादी छूत की बीमारी है जो उत्तरआधुनिकतावाद और ‘इण्डिजिनियस’ पूजा वृत्ति के साथ जड़ जमाती हुई आंदोलन में मौजूद है और लोकरंजकता की लहर की सवारी करती मार्क्सवादी नज़रिये को तिलांजली देती रही है। ‘एचएलईसी’ का मामला पूरी तरह न्यायालय को सुपुर्द कर दिया गया और न्यायालय ने किसी भी तरह की राजनीतिक कार्यवाही पर रोक लगा दी है। खुद से न्यायालय का दरवाजा खटखटाना भगवा दबाव के आगे घुटने टेकने के बराबर हुआ या फिर यह कि उनको जनान्दोलनों से ज़्यादा इस व्यवस्था पर विश्वास हो आया।

भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में जब गुनाह साबित करने के सारे सबूत मौजूद होने के बावजूद साध्वी प्रज्ञा को बाइज्ज़त बरी कर दिया जाता है, इशरत जहाँ केस में लम्बे समय से तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ चल रही है, हाशिमपुरा हत्याकाण्ड के मामले में न्या‍य का जो मजाक बनाया गया उसके बाद भी जनान्दोलनों की शक्ति की जगह न्यायालय पर भरोसा इनकी राजनीति का दिवालियापन ही दिखता है।

आन्दोलन की सीमा : जेएनयू परिसर और देश के कुछ अन्य विश्वविद्यालयों तक सीमित

शहर से घेरते हुए विश्वविद्यालय परिसर पर हमला संघ की चाल है जिसे हमने ‘एफटीआईआई’ के आन्दोेलन के समय भी देखा और यही जेएनयू पर भी लागू होता है। राष्ट्रवादी-राष्ट्रद्रोही, अनैतिक, नशाखोर, आतंकवादी आदि के नाम पर आम जनता को विश्वविद्यालय के ख़िलाफ़ खड़ा करने की चाल को गम्भीरता से न समझ पाने की भूल इस आन्दोलन  की कमजोरी रही। आन्दोलन के दौरान बार-बार यह बात दुहरायी गयी  कि इस आन्दोलन को विश्वविद्यालय परिसर से बाहर ले जाने की आवश्यकता है। फासीवाद का सामाजिक आधार टुटपुँजिया वर्गों में होता है जिसमें निम्न मध्यवर्ग से लेकर खाते-पीते मध्यवर्ग आते हैं, और अगर पेशे की बात करें तो छोटे व्यापारी, दुकानदार, ठेकेदार, दलाल, ‘प्रापर्टी डीलर’, शेयर व्यवसायी, छोटे दुकानदार से लेकर खाते-पीते कर्मचारी आते हैं, साथ ही निम्न  मध्यवर्ग के पीले बीमार चेहरे वाले नौजवानों की एक भीड़ भी शामिल होती है जो बेरोजगारी, अभाव और अनिश्चितता में लगातार जीते रहने के कारण भयंकर प्रतिक्रिया के शिकार होते हैं। अपने इस सामाजिक आधार के बल पर फासीवादी तत्त्व विश्वविद्यालयों को घेरने का प्रयास कर रहे हैं। जेएनयू के गेट पर 9 फरवरी के बाद जुटी भीड़ में हम इस आबादी को देख सकते थे। यह वही टुटपुँजिया वर्गों की जमात थी जो पंचम स्वर में  ‘भारत माता की जय’ का नारा लगा रही थी और जेएनयू को बन्द करने की माँग कर रही थी।

ऐसे में हमें अपनी बात आम जनता तक पहुँचानी ज़रूरी है जहाँ संघ के कार्यकर्ता अपनी पकड़ बना रहे हैं। बात सिर्फ़ अतार्किकता, अनऐतिहासिकता या अवैज्ञानिकता की नहीं है। बेशक, फासीवादी राजनीति बुर्जुआ वर्ग की वह नंगी प्रतिक्रिया होती है, जो टुटपुँजिया वर्गों के रूमानी, अज्ञानी, अन्धे उभार पर सवार होकर आती है और प्रतिक्रियावादी विचारों का भयंकर घटाटोप तैयार करती है। इस घटाटोप के विरुद्ध हमें अपने तर्क के साथ आम जनता में जाना चाहिए और बताना चाहिए कि यह निजीकरण, उदारीकरण और खुले बाज़ार की  नीतियाँ ही हैं जिससे गरीब और मेहनतकश आबादी की थाली से रोटी और दाल छीनी जा रही है, मज़दूरी घटायी  जा रही है, छात्रों से छात्रवृत्ति छीनी जा रही है, फीसें बढ़ रही हैं और सुविधाएँ घटायी जा रही हैं। उन्हें यह बताना आवश्यक है कि आर्थिक मन्दी के इस दौर में फासीवाद व्यवस्था का सबसे निष्ठावान, आज्ञाकारी और भरोसेमन्द संरक्षक है। यह बात आम जनता तक उनके शब्दों में ले जाना बेहद ज़रूरी है कि भोजन, आवास, रोजगार, शिक्षा, ‍स्वास्थ्य जैसे मूल सवालों से भटकाने के लिए फासीवाद अपने तमाम ‘फेटिश’ गढ़ते हुए हमें आपस में बाँटने का काम कर रहा है और यह कि फासीवाद तत्काल जिस ‘फेटिश’ का जम कर उपयोग कर रहा है वह है ‘राष्ट्रवाद’। पूरे राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान न केवल नदारद रहने वाले बल्कि अंग्रेजी सत्ता का गुणगान करने वाले, उनके तलवे चाटने वाले आज सबसे बड़े राष्ट्रवादी बने बैठे हैं और राष्ट्रवादी या राष्ट्र्द्रोही होने का ‘सर्टिफिकेट’ बाँट रहे हैं। खैर, देश भर में छात्रों के बीच भी इस बात के प्रचार की आवश्यकता थी चूँकि संघ के लम्पट कार्यकर्ता दो-दो रुपये के गीता प्रेस के घोर प्रतिक्रियावादी विचारों के साथ जनता तक अपनी पहुँच बना रहे हैं। जेएनयू के आन्दोलन को कैम्पसों की चारदीवारी से निकलकर इन मेहनतकश अवाम तक जाना चाहिए था। लेकिन अफ़सोस यह आन्दोलन ऐसा कर पाने में असफल रहा।

आन्दोलन के दौरान यह बात उठी थी कि सत्र की समाप्ति पर छात्र-छात्राओं के वॉलण्टियर देश के कोने-कोने में जेएनयू के पर्चों और पुस्तिकाओं के साथ दौरा करेगें और आन्दोलन को व्यापक पहुँच वाला बनायेंगे। लेकिन एक बार फिर आन्दोलन घोर ‘सेक्टेरियन’ राजनीति का शिकार हो गया। दौरे तो किये गये लेकिन मात्र ‘जेएनयूएसयू’ के प्रतिनिधियों के और वह भी अपने-अपने सांगठनिक हितों को साधने के लिए। आवश्यकता थी कि विभिन्न संगठनों के प्रतिनि‍धियों और उत्सुक छात्र-छात्राओं की कई-कई टोलियाँ बनायी जातीं जो देश के विभिन्न विश्‍वविद्यालयों और अलग-अलग राज्यों का दौरा करते हुए लोगों को इस आन्दोलन के ज़रिये फासीवाद के बढ़ते आक्रमण के विरुद्ध लामबन्द करते। जगह-जगह बैठकें की जाती, सभाएँ आयोजित होतीं और पर्चों, पुस्तिकाओं के माध्यम से एक बड़े आन्दोलन को खड़ा किये जाने की ओर बढ़ा जाता। लेकिन निजी सांगठनिक और व्यक्तिगत लाभों के आगे बड़ी लड़ाई और आन्दोलन की सोच होम हो गयी। दौरे तो बेशक हुए लेकिन कन्हैेया, शेहला और अन्य कुछ गिने-चुने लोगों के और उनकी राजनीति की सीमा फिलहाल कैम्पसों के चुनाव को पार करती नज़र नहीं आती। बेशक कन्हैेया लम्बी “राजनीति” की तैयारी में हैं, शायद इसलिये उसे मोदी के ख़िलाफ़ आम जनता की ताकत से ज़्यादा भ्रष्ट नेताओं के चरणों में उम्मीद नज़र आ रही है।
कोई भी आन्दोलन जब व्यक्ति केन्द्रित होता है या ‘से‍क्टेरियन’ राजनीति का शिकार होता है तो अपनी तमाम उर्वर सम्भावनाओं के बावजूद वह सत्ता के विरुद्ध राजनीतिक प्रतिरोध के तौर पर प्रभावी होने की क्षमता खो बैठता है। वह आन्दोलन किसी धूमके‍तु की तरह आकाश में बस चमक कर रह जाता है। कुछ लोगों या संगठनों के नाम अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियाँ बनते हैं और फ़िर वे इन्हें अपने-अपने फायदे के अनुसार भुनाते हैं। व्यापक राजनीति‍ के साथ यह धोखाधड़ी और मौकापरस्ती इतिहास के इस कठिन दौर में जब फासीवाद इस कदर समाज पर छा रहा है और पूरी दुनिया में प्रतिक्रियावाद और कट्टरपन्थ का दौर है, बेहद महँगा साबित होने जा रहा है।
आज यदि एक पल को फासीवाद कुछ कदम पीछे हट भी जाये (वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देख कर ऐसा नज़र तो नहीं आता) तो भी आर्थिक संकट की जो स्थिति विश्व स्तर पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ग़हरे पैठी है उसके मद्देनज़र फासीवाद के विरुद्ध एक कारगर प्रतिरोध के लिए किसी भी आन्दोलन के सन्दर्भ में ऊपर गिनाये गये तमाम पहलुओं पर गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत समय की माँग है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016

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