रिचर्ड लेविंस – विज्ञान और समाज को समर्पित द्वन्द्वात्मक जीववैज्ञानिक
सिमरन
रिर्चड लेविंस, एक मार्क्सवादी वैज्ञानिक थे जिन्होंने इकोलॉजी, समिष्टि आनुवंशिकता (पापुलेशन जेनेटिक्स), उद्विकासवादी जीवविज्ञान और विज्ञान के अन्य क्षेत्रे में काम किया। इसके साथ ही उन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा के मोर्चे पर भी अपनी जगह सम्भालते हुए सही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नज़रिये से वैज्ञानिक समुदाय में फैले न्यूनीकरण के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। रिर्चड लेविंस 19 जनवरी 2016 को हमारे बीच से चले गये। लेविंस ने विज्ञान के क्षेत्र में तो योगदान दिया ही साथ ही राजनितिक व विचारधारात्मक दृष्टि से भी इनका काम अहम है।
विज्ञान को अक्सर एक ऐसे विषय के रूप में देखा और पढ़ा-पढ़ाया जाता है जैसे कि वह समाज, राजनीति और किसी भी प्रकार की विचारधारा से कटा हुआ और स्वतंत्र हो। यही कारण है कि विज्ञान का अध्ययन करने के बावजूद भी अधिकतर वैज्ञानिक या तो यांत्रिकता का शिकार होते हैं या प्रत्यक्षवाद (पोज़िटिविज़्म) का। वस्तुओं को उनके परस्पर सम्बन्धों से काट कर अलग-थलग करके देखने की बात हो चाहे फ़िर उद्विकास की प्रक्रिया में प्रकृति को सक्रिय और प्रजातियों को निष्क्रिय तत्व की तरह देखने का गलत दृष्टिकोण रहा हो हर जगह लेविंस ने सही द्वन्द्वात्मक नज़रिये का परिचय दिया। कारणों और परिणामों को अलग करके और विषय को वस्तु से अलग कर परिघटनाओं को प्रेक्षित करने और उनसे वस्तुगत जगत के यथार्थ को समझने की कवायद के पीछे की संकीर्ण सोच और गैरद्वन्द्वात्मकता का लेविंस ने हमेशा विरोध किया। गैर द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण जहाँ जूते के नाप से पैर को काटने जैसा है। वही दूसरी तरफ यथार्थ को समझने, जानने और बदलने के लिए एक और विचारधारा मौजूद है जिसे द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहते है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक वैज्ञानिक पद्धति है जो हर बदलाव को द्वन्द्वों में अन्तर्निहित संघर्ष के रूप में प्रेक्षित करती है। प्रकृति में हर वस्तु निरन्तर परिवर्तनशील अवस्था में है। द्वन्द्व हर वस्तु के विकास की हर प्रक्रिया में मौजूद होते हैं। हर वस्तु के विकास की प्रक्रिया को; शुरुआत से लेकर अन्त तक दो युग्मों के बीच का द्वन्द्व संचालित करता है। द्वन्द्व हर जगह मौजूद है। परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों वाले युग्म के संघर्ष से ही पदार्थ विकासमान होता है। कई प्रकार के द्वन्द्व एक ही प्रक्रिया में गुथे-बुने रहते हैं मगर विकास की दिशा उन द्वन्द्वों में से प्रधान द्वन्द्व पर निर्भर करती है। यह द्वन्द्व किसी परिघटना या वस्तु के आन्तरिक द्वन्द्वों में से हो सकता है या प्रकृति के साथ उस वस्तु के अन्तरविरोधों में से एक। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के इन्ही सिद्धान्तों को लेविंस ने उद्विकास की प्रक्रिया पर लागू किया। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद किसी नियम की तरह नहीं बल्कि एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में यथार्थ को समझने में हमारी मदद करता है। यह बताता है कि प्रकृति में सभी तत्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। उनके ये आपसी सम्बन्ध उनके बीच परस्पर विरोधी अन्तरविरोधों के रूप में ही प्रतिबिम्बित होते हैं। उदाहरण के लिए मनुष्य प्रकृति पर निर्भर है किन्तु वह इससे प्रभावित ही नहीं होता बल्कि वह इसे प्रभावित भी करता है, असल में वह इसका एक हिस्सा ही है। प्रकृति में होने वाली घटनाएँ चाहे सीधे रूप से समाज में प्रचलित विचारधारा से प्रभावित न होती हों मगर उन परिघटनाओं का विश्लेषण बेशक सामाजिक ढाँचे से प्रभावित होता है, पूँजीवादी व्यवस्था में विज्ञान का उपयोग ऐसी परिघटनाओं को समझने में किया जाता है जिनसे अधिक मात्रा में मुनाफ़ा कमाया जा सके। इस तरह कि यांत्रिकता ने विज्ञान और वैज्ञानिक समुदाय में संक्रमित करने का काम किया है। इस लेख के माध्यम से हम एक ऐसे ही वैज्ञानिक की चर्चा करेंगे जिसने इसी यांत्रिकता तथा न्यूनीकरण (रिडक्शनिज्म) के खतरे के ख़िलाफ़ और विज्ञान की हिफ़ाज़त में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। अपनी किताब ‘डायलेक्टिकल बायोलॉजिस्ट’ में (लेविंस ने यह किताब रिर्चड लेवण्टन जो कि एक उद्विकाशवादी जीवविज्ञानी थे उनके साथ मिलकर 1985 में लिखी थी) लेविंस ने एंगेल्स के प्राकृतिक विज्ञान पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्तों को लागू करने की पद्धति को आगे बढ़ाया।
लेविंस के समय से पहले और उनके समकालीन प्रत्यक्षवाद और पोज़िटिविज्म के शिकार वैज्ञानिक डार्विन के ‘सरवाईवल ऑफ द फिटेस्ट’ सिद्धान्त का हवाला देते हुए प्रकृति को उद्विकास की प्रक्रिया में सक्रिय एजेण्ट मानते थे और प्रजातियों को उनके द्वारा प्रकृति में होने वाले बदलावों के अनुरूप रूपान्तरित (एडॉप्टेशन) होने के आधार पर प्रजातियों को निष्क्रिय एजेण्ट मानने के अवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ग्रस्त थे। डार्विन के इस सिद्धान्त को एक ही प्रजाति के जीवों के बीच अस्तित्व के लिए प्रतिस्पर्धा में सीमित कर दिया गया जबकि यह डार्विन के सिद्धांत का एक बहुत भोंडा विश्लेषण है। पहली बात तो यह है कि डार्विन के ‘सरवाईवल ऑफ द फिटेस्ट’ का सिद्धान्त कभी भी एक ही प्रजाति के जीवों के बीच लागू नहीं होता। यह सिद्धान्त दो भिन्न प्रजातियों के जीवों के बीच लागू किया जा सकता है और इसके अनगिनित जीव वैज्ञानिक प्रमाण आज हमारे सामने है। मगर इस भोंडे दृष्टिकोण के जन्म के लिए सिर्फ यांत्रिकता ज़िम्मेदार नहीं है, डार्विन के सिद्धान्त की इस विवेचना के लिए पूँजीवाद भी ज़िम्मेदार है। इस अवधारणा से पूँजीवाद को अपनी गला काटू प्रतिस्पर्धा को जायज ठहराने के लिए प्रकृति का सहारा मिल जाता है। और इसी को वह सामान्य ज्ञान की तरह प्रचारित-प्रसारित कर अपने शोषण तंत्र के लिए औचित्य ढूँढ लेता है। लेविंस ने डार्विन के सिद्धान्तों के ऐसे निरूपणों को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की ज़मीन से चुनौती दी। ऐसा करते हुए उन्होंने वैज्ञानिकों के बीच एक बेहद अहम बहस शुरू की। लेविंस ने एक इकोलॉजिस्ट होने के नाते अपने समय के वैज्ञानिक समुदाय की सोच में बसी यांत्रिकता को निशाना बनाते हुए न्यूनीकरण (रिडक्शनिज्म) की बौनी पद्धति को नेस्तोनाबूद करने के लिए द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का इस्तेमाल किया। उन्होंने अपनी किताब ‘डायलेक्टिकल बायोलॉजिस्ट’ में इसी प्रवृत्ति को निशाना बनाते हुए लिखा कि ‘एक सामान्य दृष्टिकोण से न्यूनीकरण (रिडक्शनिज्म) के साथ यह त्रुटि है कि यह उच्च आयाम की वस्तुओं को किसी तरह उनके निम्न आयामी प्रक्षेषणों से निर्मित मान लेता है जिन्हें यह समतामूलक रूप से श्रेष्ठ और पृथक्करण में विद्यमान मानता है। ऐसे ‘प्राकृतिक’ भाग जिनसे पूर्ण का निर्माण होता है। एक अलगावग्रस्त दुनिया में चीजें मूल रूप से समरूप होती है, वास्तव में न्यूनीकरण (रिडक्शनिज्म) विज्ञान का उद्देश्य उन सबसे छोटी इकाइयों को ढूँढना है जो आन्तरिक रूप से समरूप होती हैं यानी दुनिया को बनाने वाली प्राकृतिक इकाइयाँ। क्लासिकी रसायनशास्त्र और भौतिकी का इतिहास इस दृष्टिकोण का प्रतीक है। क्लासिकी रसायनशास्त्र में सूक्ष्म वस्तुएँ मॉलिक्यूलों के मिश्रण से बनी मानी जाती थी और ये सभी मॉलिक्यूल अपने स्तर पर समरूप होते थे। पदार्थ के परमाणु सिद्धान्त के विकास के साथ इन मॉलिक्यूलों को विभिन्न प्रकार के अणुओं के मिश्रण के रूप में देखा जाने लगा सो मॉलिक्यूलों को आन्तरिक रूप से विषमरूप समझा जाने लगा। इसके बाद उजागर हुआ कि परमाणु सिद्धान्त जिसने अणुओं के नामकरण को ही झुठला दिया क्योंकि वे भी इलेक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूट्रॉन जैसे प्राथमिक तत्वों से बने होने के कारण आन्तरिक रूप से विषमरूपीय निकले।’’ लेविंस ने साम्यवस्था और स्थिरता को चीजों की प्राकृतिक अवस्था की तरह न देखते हुए द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण से इन दो प्रक्रियाओं के बीच की परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों को खोजने और उनसे बनने वाले युग्मों को समझने की वकालत की। उन्होंने कारण और परिणाम, विषय और वस्तु के बीच अलगाव को बढ़ावा देने के पीछे की राजनीति को उज़ागर करते हुए लिखा कि मनुष्य को प्रकृति से काट कर उसे प्रकृति में हो रहे बदलावों के अधीन और उनके सामने असहाय साबित करके मानवचेतना में यह बात बिठाई जा रही है कि- हमें हो रहे बदलावों के समक्ष बस किसी तरह गुजारा करने के लिए समझौता कर लेना चाहिए। लम्बे समय तक डार्विन के सिद्धान्त का यह आशय निकाला जाता रहा था कि मनुष्य प्रकृति में सक्रीय रूप से हो रहे बदलावों के अनुरूप खुद को ढाल कर जीवित रहता है मगर इस पूरी अवधारणा से यह बात हटा दी जाती है कि मनुष्य भी अपनी गतिविधियों द्वारा प्रकृति में बदलाव ला सकता है और वास्तव में यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
1950 के मैक्कार्थी दौर में लेविंस को कम्युनिस्ट होने की वजह से ब्लैकलिस्ट कर दिया गया था जिसके बाद लेविंस पोर्टो रिको चले गये जहाँ उन्होंने पोर्टो रिको की स्वतंत्रता के साथ-साथ युद्ध विरोधी आन्दोलनों में सक्रीय भागीदारी की। लेविंस को अमरीका कि राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का सदस्य बनाया गया था जो की अमरीका में वैज्ञानिकों का एक बेहद प्रतिष्ठित संगठन था लेकिन वियतनाम युद्ध के दौरान अकादमी द्वारा अमरीकी सेना को दी गयी युद्ध सम्बन्धी सलाहों का विरोध करते हुए उन्होंने संगठन से इस्तीफ़ा दे दिया। एक मार्क्सवादी होने के नाते लेविंस केवल एक क्लर्क वैज्ञानिक बनने में यकीन नहीं रखते थे, उनका मानना था कि विज्ञान एक सामाजिक सम्पत्ति है और इसका अध्ययन बिना उस समाज को बनाने वाली बहुसंख्यक जनता के जीवन को शोषण से मुक्त किये और बिना समृद्ध बनाने के लिए समर्पित किये व्यर्थ है। उनका कहना था कि विज्ञान को समझना समाज और दुनिया को बदलने के लिए ज़रूरी है क्योंकि बिना बदलाव के विज्ञान को समझे बदलाव ला पाना सम्भव नहीं है । लेविंस ने क्यूबा की सरकार के लिए एक वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में भी काम किया। लेविंस का मानना था कि विज्ञान सभी के लिए है और विज्ञान को जनता के बीच लेकर जाने के लिए उन्होंने 1969 में ‘जनता के लिए विज्ञान’ (साइंस फॉर द पीपुल) नाम से एक संगठन बनाया और वह संगठन इसी नाम से लोगों के बीच पत्रिका निकाला करता था जो विश्वविद्यालयों और जनता के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए समर्पित था। लेविंस ने विज्ञान पर कई किताबें लिखी और अन्त तक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्तों को विज्ञान में लागू कर दुनिया के सामने रखते रहे और कई पीढ़ियों के वैज्ञानिकों को समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए प्रेरित करते रहे। आह्वान टीम की ओर से हम रिचर्ड लेविंस के संघर्षशील जीवन को सलाम करते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016
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