पाठक मंच
प्रिय सम्पादक,
पत्रिका हमें लम्बे समय से प्रेरित कर रही है, न्याय और संवेदना के मूल्य दे रही है। उन्हीं मूल्यों से प्रेरित अपने कुछ बिखरे विचार कविता की शक्ल में भेज रहा हूँ। उम्मीद है, आप प्रकाशन-योग्य समझेंगे।
यहाँ धरती भी बिकती है,
यहाँ अम्बर भी बिकता है।
हँसी की गूँज से लेकर,
यहाँ आँसू भी बिकता है।
यहाँ सपने भी बिकते हैं,
यहाँ अपने भी बिकते हैं।
यहाँ शिक्षा भी बिकती है,
यहाँ कामयाबी भी बिकती है।
दूल्हे-दूल्हन से लेकर,
यहाँ जोड़ी भी बिकती है।
खुला है पूँजी का बाज़ार,
यहाँ सब पैसे से मिलता है।
…मगर न जाने फिर भी क्यों,
यहाँ ख़ुशी नहीं बिकती।
यहाँ न शान्ति मिलती है,
न सुकून मिलता है।
यहाँ पर माँएँ रोती हैं,
बच्चे भूखे बिलखते हैं।
खुले इस पूँजी के बाज़ार में,
ये सबकुछ नहीं मिलता है।
न जाने जानकर सबकुछ,
हम क्यूँ अनजान बनते हैं?
ये दुनिया न बदलेगी,
इन आमिर या शाहरुख़ से।
ये दुनिया बदलेगी,
बस इंकलाब की आवाज़ से।
– सनी गुप्ता, गुड़गाँव
प्रिय साथी,
‘आह्वान’ लगातार मिल रही है। पत्रिका के अंक अक्सर कुछ देर से आते हैं। कृपया इसे नियमित करने का प्रयास करें। पिछले अंक में माकपा की बीसवीं कांग्रेस की आलोचनात्मक समीक्षा ने बहुत से सवालों का जवाब दिया, और बहुत लम्बे समय से मौजूद जिज्ञासाओं का सटीक समाधान किया। कृपया संसदीय वामपन्थ और वामपन्थी दुस्साहसवाद पर आलोचनात्मक लेख छापते रहें। सूचना प्रौद्योगिकी के शासक वर्ग द्वारा इस्तेमाल और धार्मिक बाबाओं की काली करतूतों पर आये लेख भी प्रशंसनीय थे। मार्क ट्वेन की कहानियाँ भी पसन्द आयीं।
– सत्यनारायण, मुम्बई
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012
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