उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार का “समाजवाद”
लालचन्द्र
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत पाकर, समाजवादी पार्टी, सत्ता की कुर्सी पर आ विराजी है। 15 मार्च को शपथ दिलाकर अखिलेश यादव को मुख्यमन्त्री नियुक्त कर दिया गया। इसे लेकर पार्टी के पुराने नेताओं में असन्तोष बढ़ना लाजिमी था। और यह असन्तोष आगामी लोकसभा चुनाव तक क्या रूप लेगा कहना मुश्किल है! बहरहाल हम मुद्दे की बात करते हैं।
मुद्दे के बात यह है कि समाजवादी पार्टी ने चुनाव के दौरान जनता से कई वायदे किये थे, लोक-लुभावन नारे दिये थे, कि सपा की सरकार बनी तो सभी बेरोज़गारों को 1000 रुपये बेरोज़गारी भत्ता दिया जायेगा; छात्रसंघ बहाल किया जायेगा; हाईस्कूल पास छात्रों को टैबलेट व इण्टर पास सभी छात्रों को लैपटॉप दिया जायेगा; मुस्लिम समुदाय को ओ.बी.सी. के लिए आरक्षित 27 प्रतिशत में से 15 प्रतिशत कोटा दिया जायेगा; हाईस्कूल पास मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को 30 हज़ार रुपये दिये जायेंगे; किसानों को 4 प्रतिशत ब्याज दर पर कर्ज दिया जायेगा; किसानों के ऋण माफ़ किये जायेंगे; 65 साल से ऊपर आयु वाले किसानों को पेंशन दी जायेगी; भूमि अधिग्रहण करने पर सर्किल रेट से 6 गुना अधिक राशि का भुगतान ज़मीन के मालिक को दिया जायेगा; थानों में सी.सी.टी.वी. कैमरा लगाया जायेगा जिससे वहाँ पर दलितों-ग़रीबों के साथ होने वाले ग़लत व्यवहार पर निगरानी रखी जा सके। इन तमाम वायदों में उ-प्र- के करोड़ों मज़दूरों व ग़रीब किसानों के लिए कोई जगह नहीं थी।
इन वायदों में कुछ के अमल में आते ही इन दावों/वायदों के बारे में कहा जा सकता है कि ‘थोथा चना, बाजे घना’। मतलब कि दिखाना कुछ, होना कुछ और। देश की युवा आबादी की सबसे प्रमुख माँग जो बनती है वह है ‘सभी को शिक्षा एवं सभी को रोज़गार’। आज देश के प्रधानमन्त्री, जो कि एक बड़े अर्थशास्त्री भी हैं, यह स्वीकार कर चुके हैं कि विकास तो होगा परन्तु वह रोज़गारविहीन विकास होगा। तो कहा जाना चाहिए ऐसा विकास किसके मतलब का है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री ने बेरोज़गारी भत्ता का लॉलीपाप दिखाया है। जो पिछले 500 रुपये से बढ़कर 1000 रुपये हो चुका है। जबकि हम सभी जानते हैं कि बेरोज़गारी भत्ता रोज़गार का विकल्प कतई नहीं हो सकता। बात केवल इतनी नहीं है। अब तो बेरोज़गार होना भी मुश्किल है। बेरोज़गार उसे माना जायेगा और भत्ता उसे मिलेगा जो बी.पी.एल. कार्ड धारक हो, हाईस्कूल पास हो, जिनकी उम्र 35 साल से ऊपर हो। अधिकतम उम्र 45 या 60 वर्ष हो यह तय नहीं है। जहाँ तक बात बी.पी.एल. कार्ड धारक की है तो तथ्य यह है कि 70 प्रतिशत लोगों के पास या तो कार्ड है ही नहीं या तो ए.पी.एल. कार्ड है। बी.पी.एल. कार्ड ज़्यादातर अपात्रों के पास है। बेरोज़गारी भत्ता पाने के लिए आदर्श परिवार की एक इकाई सात सदस्यों की माने जाने का प्रस्ताव है, जिसमें माता-पिता, पति-पत्नी और तीन बच्चे शामिल हैं। सरकार का लक्ष्य 9.4 लाख लोगों को बेरोज़गारी भत्ता देने का है जबकि सेवायोजन कार्यालय के अनुसार हाईस्कूल पास सभी बेरोज़गारों की संख्या 18,11,760 है। इन तथ्यों की रोशनी में कोई सामान्य व्यक्ति आसानी से समझ सकता है कि यह भत्ता-रूपी झुनझुना भी कितने कम व अपात्र लोगों को मिलेगा। जबकि इस भत्ते से पूरे महीने एक टाइम का अच्छा खाना भी नहीं मिल सकता। सरकार यह भत्ता भी मुफ्त में नहीं देने जा रही है। प्रस्ताव के अनुसार भत्ता पाने वालों को सरकारी कामों मसलन जनगणना सर्वे, मतदाता पुनरीक्षण या ऐसे ही अन्य कामों में लगाया जायेगा। मना करने पर भत्ता बन्द!
चुनाव के समय समाजवादी पार्टी ने छात्रसंघ बहाली का वादा किया था जिसकी घोषणा मुख्यमन्त्री ने शपथ लेने के बाद ही कर दी थी। यदि यह बहाली न भी हुई होती तो भी छात्रसंघ का अधिकार छात्रों को देना पड़ता। क्योंकि इलाहाबाद, अलीगढ़ के साथ लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र, छात्रसंघ की बहाली को लेकर आन्दोलनात्मक व कानूनी दोनों स्तर पर लड़ाई लड़ रहे थे। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार सरकार को इसे लागू करना पड़ता। मार्च 2012 में छात्रों के पक्ष में कोर्ट का निर्णय भी आ चुका है। बसपा सरकार ने छात्रसंघ को बहाल नहीं किया तो इसके पीछे कारण यह था कि बसपा की राजनीति में छात्रसंघ की कोई भूमिका नहीं बनती थी। इसलिए बसपा का कोई छात्र विंग भी नहीं है। समाजवादी पार्टी के लिए छात्रसंघ हमेशा अपनी पार्टी के लिए नेताओं की पैदावार के लिए उचित जगह रही है। सपा में कई विधायक, सांसद छात्रसंघ की ही देन हैं। हर चुनाव में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका बनती है। सपा सरकार ने इसी को ध्यान में रखते हुए छात्रसंघ की बहाली की है। यदि कोई सोचता है कि सपा सरकार ने कैम्पस के जनवादीकरण व शिक्षा के लिए उचित माहौल बनाने के लिए ऐसा किया है तो वह भ्रम का शिकार है। छात्र विरोधी नीतियों मसलन फीसों की बढ़ोत्तरी, सीटों की कटौती, शिक्षा के व्यवसायीकरण के खि़लाप़फ़ लड़ने में इस मंच का इस्तेमाल हो इस सोच के साथ छात्रसंघ की बहाली नहीं हुई है। इस मंच का इस्तेमाल सभी चुनावी पार्टियों के छात्र संगठन एम.पी., एम.एल.ए. बनने के प्रशिक्षण केन्द्र के तौर पर, मनीपॉवर-मसलपॉवर के बेहतर इस्तेमाल और इसमें प्रवीणता हासिल करने के लिए करते रहे हैं। अब यह बात अलग है कि छात्रसंघ की बहाली होने पर कोई छात्र संगठन छात्र हितों के लिए संघर्ष के मंच के रूप में छात्रसंघ का इस्तेमाल कर ले! यह उनकी इच्छा से स्वतन्त्र बात होगी। यह बात सही है कि अब कुछ हद तक तो जनवादी माहौल मिलेगा, परन्तु कई चुनौतियों के साथ।
बेसिक शिक्षा एवं बाल पोषाहार मन्त्री ने सरकारी स्कूलों में शिक्षा की बदहाली को सुधारने के लिए एक नायाब प्रस्ताव रखा है। वे कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में कान्वेण्ट की तर्ज पर अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाई होगी। लगता है इसी कमी के चलते सरकारी स्कूलों की शिक्षण व्यवस्था ख़राब है! यह है मन्त्री जी की सोच! सपा मुखिया अंग्रेजी का विरोध करते हैं और मन्त्री महोदय उसकी वकालत! है न ग़ज़ब की ट्यूनिंग! बहरहाल, सरकारी स्कूलों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। एक तो पढ़ाने वाले अध्यापकों की भारी कमी है और जो हैं भी उन्हें कभी जनगणना तो कभी मतदाता पुनरीक्षण या पल्स पोलियो कार्यक्रम में लगाया जाता है या मिड-डे-मील को बनवाने-बाँटने में। ऐसे में, अध्यापक का मन बच्चों को पढ़ाने में कम लगता है। वे अध्यापक की बजाय बिल्डर बनना पसन्द करते हैं ताकि ज़्यादा पैसा कमाया जा सके। और विडम्बना यह है कि जो बी.एड. कर चुके है, टी.ई.टी. में पास हो चुके हैं उन्हें नौकरी देने के बजाय लाठियों से पीटकर ठीक किया जा रहा है। शिक्षा मित्रों को दो साल के भीतर प्रशिक्षण देकर समायोजित करने की बात सरकार कर रही है। ऐसे में बच्चे हिन्दी तो ठीक से सीख नहीं पाते ऊपर से अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाई। ‘एक तो कोढ़, दूजे खाज’ यही कहावत चरितार्थ होती दिखती है। सपा सरकार में शिक्षा माफिया काफ़ी सक्रिय हैं। उनकी सक्रियता का आलम यह है कि एटा के एक स्कूल में हर छात्र को 5 हज़ार रुपये देने पड़े चाहे वह नकल करे या नहीं और जिसने नहीं दिया उसकी लाठी-डण्डों से पिटाई की गयी। कई गम्भीर रूप से घायल हुए, कई के कान से ख़ून आने लगा। छात्रों की शिकायत की सुनवाई कहीं नहीं की गयी। स्कूलों में होने वाली इन घटनाओं के खि़लाफ़ परीक्षा निरीक्षक प्रतिकूल रिपोर्ट भी नहीं लगा सकता क्योंकि अंजाम उन्हें पता है। ज़्यादातर विद्यालय किसी सांसद, विधायक या किसी मन्त्री के होते हैं।
मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश को आई.टी. पावर हाउस बनाने की बात की है। उनका मानना है कि इससे ज़मीनी स्तर की समस्याओं को हल करने में आसानी होगी। इसलिए उन्होंने घोषणा कर दी है कि हाईस्कूल पास होने पर हर छात्र को टैबलेट व इण्टर पास सभी छात्रों को लैपटॉप दिया जायेगा। मुख्यमन्त्री जी अपनी ज़मीन से कितने कटे व कितने दूर हैं, यह कुछ तथ्य और आँकड़े ही बता देंगे। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश के 63 प्रतिशत घरों में ढिबरी से रोशनी होती है। मात्र 37 प्रतिशत लोगों के पास बिजली है। ऐसे में वे लैपटॉप या टैबलेट को शो पीस की तरह ही इस्तेमाल कर सकते हैं। 67.8 प्रतिशत लोग आवागमन के लिए साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। 70.8 प्रतिशत घरों में खाना पकाने के लिए लकड़ी या कण्डे का इस्तेमाल होता है। 3.29 करोड़ घरों में से मात्र 62 लाख घरों में एल.पी.जी. का इस्तेमाल होता है। 64.4 प्रतिशत घरों में शौचालय तक नहीं है। ऐसे में उत्तर प्रदेश को आई.टी. पावर हाउस बनाने से ज़मीनी स्तर की समस्याएँ कैसे दूर होंगी, यह तो मुख्यमन्त्री महोदय ही बता सकते हैं!
समाजवादी पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं ने अपनी लाल टोपी व लोहियावादी लबादा अब खूँटी पर टाँग दिया है। वे अपने असली रूप में आ गये हैं (या शायद सत्ता में आने पर लोहियावादी लबादे वाले लोग यही करते हैं!)। इसकी झलक अखिलेश यादव की ताज़पोशी के समय ही सामने आ गयी जब शपथग्रहण के बाद सपा कार्यकर्ताओं ने मंच को तहस-नहस कर दिया था। अखिलेश यादव को चेतावनी देनी पड़ी कि कार्यकर्ता संयम बरते, वरना उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया जायेगा। अरे अखिलेश जी! उन्हीं की बदौलत आप सरकार में आये और उन्हीं को नसीहत! उन्हें तो यही लगता है कि ‘सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का’। समाजवादी पार्टी ने अपनी दबंगई वाली छवि से निकलने के लिए कुछ प्रयास भी किये जैसे डी.पी. यादव को पार्टी में नहीं लिया परन्तु वे इस छवि के मोह को छोड़ नहीं पाये। अखिलेश यादव ने रघुराज प्रताप उर्फ राजा भैया को राज्य जेल मन्त्री बना दिया, जो एक समय मुलायम के लिए ‘कुण्डा का गुण्डा’ था। इनके कारनामों का सिलसिला अपनी जीत के बाद ही शुरू हो चुका था। मुलायम सिंह जहाँ से सांसद हैं उसी मैनपुरी की सदर सीट पर उनके ही नवनिर्वाचित विधायक राजू यादव ने निर्दलीय उम्मीदवार व जिला पंचायत सदस्य विनीता शाक्य को पीटा और उनके पति को इतना पीटा कि बेहोशी की हालत में उन्हें आई.सी.यू. में भर्ती कराना पड़ा। परन्तु आज तक राजू यादव की गिरफ्ऱतारी नहीं हुई और न ही पार्टी ने उनके खि़लाफ़ एक महिला के साथ मारपीट करने पर कार्यवाही की। सपा कार्यकर्ता अपनी विजय पताका फहरा रहे हैं! वे दलितों, निर्धन वर्गों, महिलाओं, पिछड़े वर्गों को धमकाने, डराने निकल पड़े हैं। उन्होंने दलित प्रधान मुन्नालाल की हत्या कर दी। सीतापुर में दलितों की झोपड़ियों में आग लगा दी। इस तरह की घटनाओं की बड़ी लम्बी फेहरिस्त है। यह तो बस कुछ झलकियाँ हैं। यह है समाजवादी पार्टी की सरकार का “समाजवादी” चेहरा!
मुस्लिम समुदाय के वोटों के ध्रुवीकरण से मुलायम मुस्लिम समुदाय के नेता बनकर उभरे हैं। अब उनकी माँगों ने साइकिल का पहिया थाम-सा दिया है। एक तरफ़ आज़म खान तो दूसरी तरप़फ़ इमाम बुख़ारी। ख़ैर यह तो सत्ता की मलाई के बँटवारे की कहानी है, इससे हमारा क्या सरोकार। इस गलाकाटू लड़ाई में जनता को क्या मिलने वाला?
उत्तर प्रदेश में उद्योगों की हालत काफ़ी बुरी है। श्रम कानूनों की हालत तो और भी बुरी है। आये दिन आगजनी, ब्वायलर फटने, गैस रिसाव में मज़दूरों के मरने की घटनाएँ देखने को मिलती रहती हैं। इन्हें ताक पर रखकर उद्योगपति अपना मुनाफ़ा बटोरने में लगे हैं और शासन-प्रशासन उनकी सेवा में। सपा सरकार की घोषणाओं में मज़दूरों की बातें कहीं नहीं है।
आज साँपनाथ की जगह नागनाथ को चुनने या कम बुरे-ज़्यादा बुरे के बीच चुनाव करने का कर्तव्य, जनता का बुनियादी कर्तव्य बताया जा रहा है। 2014 को लोकसभा के चुनाव में हमसे फिर इन्हीं में से किसी को चुनने की अपील की जायेगी। पाँच साल तक मायावती की निरंकुशता, तानाशाही, गुलामी झेली अब पाँच साल के लिए सपा की झेलनी है। ऐसे में सभी सचेत व इंसाफपसन्द लोगों का कर्तव्य है कि वे अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालें। रास्ता ज़रूर निकलेगा, परन्तु एक बात साफ है इस वर्तमान चुनावी नौटंकी से कोई रास्ता नहीं निकलने वाला।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012
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