सी.बी.सी.एस. : “च्‍वाइस” के ड्रामे के बहाने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में पधारने का न्यौता

वारुणी

“जिसे हम आजकल ‘शिक्षा’ कहते हैं, वह उपभोक्ता माल है, जिसका उत्पादन ‘स्कूल’ नाम की संस्था द्वारा होता है। जितनी अधिक शिक्षा कोई व्यक्ति उपभोग करता है, उतना ही वह अपने भविष्य को सुरक्षित बनाता है। साथ ही साथ ज्ञान के पूँजीवाद में उसका दर्ज़ा ज़्यादा ऊँचा उठता है। इस तरह शिक्षा समाज के पिरामिड में एक नया वर्ग बनाती है और जो शिक्षा का उपयोग करते हैं, वे यह दलील पेश करते हैं कि उन्हीं से समाज को ज़्यादा फायदा है।”

– इवान इलिच (ऑस्ट्रियन शिक्षाशास्त्री)

ugc-759इस साल के अकादमिक सत्र से दिल्ली विश्वविद्यालय में सीबीसीएस (च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम) लागू हो जायेगा और इसके साथ ही अन्य सभी विश्वविद्यालयों में इसे लागू किया जा रहा है। सारे मुख्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने 2015-16 से इसे लागू करने की रज़ामंदी दे दी है। बिना शिक्षकों व छात्रों से राय-मशविरा किए इसे छात्रों पर थोपा जा रहा है। इसे लागू करने के पीछे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और मानव संसाधन विकास मंत्रलय यह तर्क दे रहे हैं कि इसके तहत सारे विश्वविद्यालयों का ढाँचा व पाठ्यक्रम जब एक समान होंगे तो इससे छात्रों की एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में “मोबिलिटी” (स्थानांतरण) आसानी से हो पायेगी, वहीं दूसरा तर्क यह मिल रहा है कि छात्र अपनी ‘च्वाइस’ से कोई भी विषय अपने मन-मुताबिक चुन सकते हैं जिससे उनकी रचनात्मकता में विकास होगा! इन तमाम दलीलों का हवाला देकर इसे लागू किया जा रहा है, हालाँकि इनमें कितनी सच्चाई है वह हम आगे देखेंगे। एक और दलील यह दी जा रही है की चूँकि अमेरिका व अन्य विदेशी विश्वविद्यालयों में भी यही शिक्षा प्रणाली मौजूद है तो यहाँ भी इसे उतारा जाना चाहिए। इस दलील से बात कुछ समझ आती है कि क्यों देश भर के सारे विश्वविद्यालयों में सीबीसीएस लागू करने की इतनी सनक चढ़ी हुई है सरकार को! बात साफ़ है कि जब तक भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था को अमेरिकी व्यवस्था के अनुसार नहीं ढाला जाता तब तक कोई भी विदेशी विश्वविद्यालय भारत का दरवाजा नहीं खटखटायेगा। इसके पहले भी चार वर्षीय पाठ्यक्रम (एफ.वाई.यू.पी.) को लागू किया गया था जिसका यही मकसद था। मगर छात्रों के भारी विरोध के कारण उसे रद्द करना पड़ा। अब उसी तर्ज़ पर सीबीसीएस को लाया जा रहा है। दोनों के पाठ्यक्रम, कोर्स, ढाँचा सब समान है! बस फ़र्क इतना है कि 4 साल के पाठ्यक्रम को 3 साल में ठूँसकर लागू किया जा रहा है और अब सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय में ही नहीं बल्कि देश भर के सारे विश्वविद्यालयों में इसे लागू किया जायेगा। एफ.वाई.यू.पी., संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार के समय लागू हुआ था। पर चुनाव के बाद जब भाजपा की सरकार सत्ता में आई तो छात्रों व युवाओं के बीच अपना आधार बनाने के लिए उसने इसे वापस ले लिया। लेकिन किताब वही रही इस बार बस आवरण बदल दिया गया! सीबीसीएस के रूप में एफवाईयूपी का नया संस्करण सामने लाया गया है!

शिक्षा व्यवस्था में यह बदलाव होना कोई नयी बात नहीं है। जहाँ तमाम क्षेत्रों में निजी पूँजी को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं शिक्षा भी इससे अछूती नहीं रही है। चाहे 2008 में लागू हुई सेमेस्टर प्रणाली की बात कर लें या चार वर्षीय पाठ्यक्रम की बात कर लें या अभी सीबीसीएस का मुद्दा हो, उच्चतर शिक्षा में लाये जा रहे इन बदलावों के कुछ ठोस कारण हैं जो मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे के साथ जुड़े हुए हैं। जब तक हम शिक्षा में हो रहे इन बदलावों को इस व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखेंगे तब तक परदे के पीछे की सच्चाई को हम नहीं जान पाएँगे।

इन बदलावों को लाने की सनक के पीछे की सच्चाई क्या है इसके लिए पहले तो यह जान लिया जाय कि सीबीसीएस है क्या? सीबीसीएस यानी ‘च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम’ जो अमेरिका व विदेशों की ज़्यादातर यूनिवर्सिटीज़ में मौजूद है, इसको हमारे देश के सारे विश्वविद्यालयों में लागू किया जा रहा है। शिक्षा मंत्रालय यह तर्क दे रहा है कि सीबीसीएस लागू होने से शिक्षा का स्तर ऊँचा होगा और इसको सारी यूनिवर्सिटीज में लागू करने से सबका समान पाठ्यक्रम व ढाँचा होगा जिससे सभी यूनिवर्सिटी को एक समान स्तर पर लाया जा सकेगा; यह छात्रों को गतिशीलता भी प्रदान करेगा मतलब यह कि अगर किसी छात्र ने किसी वि.वि. में दाखिला लिया है पर उसे अब किसी और जगह से शिक्षा पूरी करनी है तो वह आसानी से किसी भी वि.वि. में तबादला करवा सकेगा और वहाँ से अपनी पढ़ाई जारी रख सकेगा। पर ऐसा करने से होगा यह कि एक बड़ी भीड़ मेट्रोपोलिटन शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेगी क्योंकि रोज़गार के अवसर वहाँ ज़्यादा मिलेंगे। दूसरा, जब यह बात की जा रही है कि सभी यूनिवर्सिटी में सीबीसीएस लागू किया जायेगा तो सोचने की बात यह है कि ऐसा किस प्रकार होगा? जिसके पाठ्यक्रम की सामग्री अभी तक तैयार नहीं हुई है और सिलेबस सरकारी बाबुओं द्वारा तैयार किया जायेगा; जिस विषय में अभी तक कहीं भी शिक्षकों या छात्रों की राय नहीं ली गयी है, तो सिलेबस में क्या डाला जायेगा? यह भी भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। जब यह सरकार कह रही है कि सारे विश्वविद्यालयों में एक समान शिक्षा मिलने से सबका स्तर समान हो जायेगा, तब वह यह नहीं बता रही की जिन विश्वविद्यालयों की हालत एकदम खस्ता है, जहाँ न लाइब्रेरी की सुविधा है न किताबें है, न शिक्षकों की ही नियुक्ति की जा रही है, उनमें क्या होगा? क्या उनमें पैसा निवेश करेगी सरकार? आज के समय में ही यदि कॉलेजों में मौजूद सुविधाओं की बात की जाय तो कई विश्वविद्यालय लाइब्रेरियों की हालत एकदम खस्ता है और प्रयोगशालाओं के भी यही हाल हैं। न ही शिक्षकों की संख्या ही उतनी है जितनी होनी चाहिए। एक क्लास में 1:30 के अनुपात में संख्या होनी चाहिए पर दिल्ली यूनिवर्सिटी की ही बात कर लें तो एक क्लास में 1 शिक्षक पर 150-200 तक छात्र होते हैं! आधे से ज़्यादा शिक्षकों को तदर्थ या गेस्ट के तौर पर रखा जाता है। यदि सरकार इस सीबीसीएस को लागू करने की बात कर रही है तो उसके अनुसार किताबें जुटाना, लाइब्रेरी खड़ी करना व विषय के ‘च्वाइस’ के नाम का जो ढोल पीटा जा रहा है उसके अनुसार फैकल्टी खड़ी करना, अलग-अलग विषयों के शिक्षकों की नियुक्ति आदि में काफी ख़र्च आयेगा! क्या सरकार इसमें निवेश करेगी? इस सवाल का जवाब हम सभी को पता है! इसी साल के बजट में सरकार ने प्राथमिक शिक्षा में 23 प्रतिशत की कटौती की है व उच्च शिक्षा में 8 प्रतिशत की कटौती की गयी है। और जहाँ खुद शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी का यह कहना है कि जितना अभी शिक्षा में निवेश किया जा रहा है वह ज़रूरत से ज़्यादा है वहाँ कोई क्या उम्मीद कर सकता है! और ऐसे में सीबीसीएस लागू करने का मतलब सारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर ऊँचा करना नहीं बल्कि उसका मतलब होगा प्रतिष्ठित व अच्छे शिक्षा संस्थानों का स्तर नीचे जायेगा या कहें कि ले जाया जायेगा ताकि जब विदेशी विश्वविद्यालय यहाँ आयें तो उनका धंधा चल सके। बेशक बाहर की यूनिवर्सिटीज जब यहाँ आकर कॉलेज खोलेंगी तो उनकी फैकल्टी अच्छी होगी व शिक्षा का स्तर भी ऊँचा होगा यानी अच्छी शिक्षा पानी है तो निजी कॉलेज में दाखिला लो! विश्वविद्यालय का भी वही हाल किया जायेगा जैसा आज सरकारी स्कूलों का है, जहाँ पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर सरकारी स्कूलों के हालात बद से बदतर बनाये गये ताकि निजी स्कूलों का धंधा चल सके। और अगर देखें तो विदेशी विश्वविद्यालय ने जहाँ भी अपनी शाखाएँ खोली हैं वहाँ वे केवल कार्यकारी परिसर बनकर रह गयी हैं और उन्होंने ऐसे पाठ्यक्रम शुरू किये हैं जिनमें खर्च कम और लाभ अधिक है। अमरीकी विश्वविद्यालय 2 वर्षों के पाठ्यक्रम के लिए 35-47 लाख रुपये की फीस वसूलते हैं, जिससे स्पष्ट है कि ऐसे में अच्छी शिक्षा केवल उन्हीं लोगों के लिए होगी जिनकी जेबें भरी होंगी। आम जन की पहुँच से शिक्षा संस्थान बाहर ही रहेंगे। एक और चीज़ यह है कि इसमें  स्ववित्तपोषित कोर्सेज को बढ़ावा दिया जायेगा, जिसमें कि ज़्यादा से ज़्यादा फीस छात्रों की जेबों से निकलवायी जाएगी, सरकार इसमें कोई सब्सिडी नहीं देगी। जहाँ पहले से ही फीसें बढ़ने व सीटें घटने से एक बड़ी आबादी विश्वविद्यालयों से बाहर धकेली जा रही है, (अभी भी बारहवीं पास मात्र 7 प्रतिशत आबादी ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती है) वहाँ इस कदम से तो यूनिवर्सिटी में कुलीनीकरण और तेज़ी से बढे़गा और शिक्षण संस्थान महज़ डिग्री के शॉपिंग मॉल बन कर रह जायेंगे।

सीबीसीएस के अन्तर्गत जो ‘च्वाइस’ का ढोल पीटा जा रहा है उस पर भी एक बार नज़र दौड़ा ली जाये। असल में, इस च्वाइस का फायदा सिर्फ उसी को मिलेगा जो प्राइवेट संस्थानों की ऊँची फीस दे पायेगा क्योंकि विषयों की च्वाइस के मामले में च्वाइस इस बात पर निर्भर करती है कि किसी विश्वविद्यालय में उतनी फैकल्टी व शिक्षक उपलब्ध हैं या नहीं। सीबीसीएस के अन्तर्गत 4 कोर्सेज पढ़ाये जायेंगे, जैसा कि पहले एफवाईयूपी में भी मौजूद था। एक कोर कोर्स होगा जो मुख्य होगा जिसमें छात्र ऑनर्स की डिग्री हासिल करेगा। पहले इसके 16 पेपर होते थे जो अब 14 ही होंगे। दूसरा एलाइड कोर्स होगा जिसमें मुख्य विषय से सम्बंधित कोई विषय चुनना होगा जो आपके मुख्य विषय में सहायककर्ता का काम करे। इसके कुल 6 पेपर होंगे। तीसरा आपका इलेक्टिव कोर्स होगा, जिसमें आप कुछ भी चुन सकते हैं, इसके 4 पेपर होंगे, और ये सामान्य पेपर होंगे जैसा कि एफवाईयूपी के दौरान था जहाँ फाउंडेशन कोर्सेज के नाम पर दसवीं क्लास का इतिहास, हिंदी और विज्ञान पढ़ाया जाता था! वही चीज़ इसमें भी की जाएगी जो समय की बर्बादी के अलावा और कुछ नहीं होगा। इन इलेक्टिव कोर्सेस के नाम पर बस पेपर्स के बोझ बढ़ाये जायेंगे ताकि ज़्यादा से ज़्यादा समय इन्हीं चीज़ों में बर्बाद हो। चौथा कोर्स एबिलिटी एनहांसमेंट कोर्स (क्षमता उन्नयन का कोर्स) होगा जिसके 2 पेपर होंगे। और इन 26 पेपरों में से 20 कंपल्सरी होंगे यानी 77 फीसदी बाध्यताकारी होंगे। और एक खास गुण जो इस सिस्टम में होगा वह यह कि अब अंकों के बदले ग्रेड सिस्टम लागू किया जायेगा। एक तरह से देखें तो यह सही होगा, इससे छात्रों के बीच भौंडी प्रतिस्पर्द्धा नहीं होगी। पर इसके साथ देखें तो यहाँ हर गतिविधि पर क्रेडिट्स दिये जायेंगे जिससे कि ग्रेड निकाला जायेगा। यानी अब तक जहाँ प्राप्तांक का एक बड़ा हिस्सा परीक्षा के ज़रिये मिलता था, वहीं अब सिर्फ परीक्षा नहीं बल्कि प्रोजेक्ट्स, फील्ड वर्क, असाइनमेंट, प्रेजेंटेशन, अटेंडेंस आदि ऐसी कई प्रकार की नौटंकियों पर क्रेडिट्स आवंटित किये जायेंगे। इससे विद्यार्थी पढ़ाई पर और ज़्यादा अच्छी तरह से ‘फोकस’ कर सकेंगे! मतलब यह कि विद्यार्थी राजनीतिक सरगर्मियों से अपना फोकस हटाने को मजबूर हो जायेंगे। इसीलिए छात्रों के सिर पर प्रोजेक्ट, असाइनमेंट, फील्ड वर्क, प्रेजेंटेशन जैसी नौटंकियों का बोझ लाद दो, जितने समय वे संस्थानों में रहें इन्हीं के शोरगुल में इतने उलझे रहें कि और दूसरी बातों के लिए समय ही न हो। चूँकि शिक्षण संस्थान, खासकर विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा संस्थानों ने हमेशा ही समाज में चलने वाले ‘रैडिकल’ आन्दोलनों के लिए नये रंगरूट देने व इन आन्दोलनों में केंद्रीय भूमिका निभाने का काम किया है, इसलिए शिक्षण संस्थानों को “नियंत्रित” व “अनुशासित” करना और इनका हर सम्भव हद तक विराजनीतिकरण करना, सरकार व भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए सरोकार का विषय रहा है। इसीलिए एक ऐसी कसी हुई शिक्षण-समय सारणी की व्यवस्था लायी जा रही है।

इसके अलावा एक और खतरनाक कदम जो शिक्षा संस्थानों में लिया जा रहा है वह है कम्युनिटी कॉलेज की स्थापना। पिछले साल ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने 98 कम्युनिटी कॉलेजों को मान्यता दे दी थी। कम्युनिटी कॉलेज का आइडिया 2012 में ही शिक्षा मंत्रलय ने पास किया था जिसके तहत 2013-14 से ही करीब 200 कम्युनिटी कॉलेज खोलना तय किया गया था और अब यह सिस्टम दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों में भी लाया जा रहा है। अभी महाराजा अग्रसेन कॉलेज को कम्युनिटी कॉलेज में तब्दील किया जायेगा। अब इन कॉलेजों में परम्परागत कोर्सेज नहीं होंगे बल्कि स्किल डेवलपमेंट कोर्सेज को बढ़ावा दिया जायेगा, मतलब यह कि आपको 3 साल का स्नातक करने की ज़रूरत नहीं, और वैसे भी परम्परागत उच्चतर शिक्षा का रोज़गार के लिहाज से कोई मूल्य नहीं रह गया है! आपको नौकरी चाहिए तो आप कम्युनिटी कॉलेज में दाखिला लें! एक साल का सर्टिफिकेट या डिप्लोमा कोर्स करें और कुशल या अर्धकुशल मजदूर की श्रेणी में शामिल हो जायें! आज कारखानों व फैक्टरियों में एक ऐसी कार्यशक्ति की ज़रूरत है जिसके पास व्यावहारिक ज्ञान हो और ये ‘स्किल डेवलपमेण्ट’ कोर्स यही काम करते हैं! कम्युनिटी कॉलेज की पूरी अवधारणा यही है। कम्युनिटी कॉलेज को इसीलिए लाया जा रहा है कि अब बीए, एमए जैसे परम्परागत कोर्सेज का रोज़गार के लिहाज से कोई मूल्य नहीं है। पेशेवर पाठ्यक्रमों या वोकेशनल पाठ्यक्रम ही रोजगार दे सकते हैं। आईआईटी और मेडिकल कॉलेज की शिक्षा तक पहुँच पाने की हैसियत सिर्फ उच्च वर्ग की है। आम घरों के लड़के-लड़कियाँ इस बारे में सोच भी नहीं सकते। और जब एक बहुत बड़ी आबादी डिग्री लिए अच्छी नौकरी की तलाश में भटकती रहेगी, तो जाहिर है कि उनके दिल में व्यवस्था के प्रति गुस्सा कहीं अधिक होगा, इसीलिए बेहतर होगा कि ज़्यादा से ज़्यादा आबादी को उच्चतर शिक्षा तक पहुचने ही न दिया जाये, या फिर उन्हें आईटीआई, पॉलीटेक्निक या इसी तरह के स्किल-आधारित पाठ्यक्रम में भेजा जाये और कुशल, अर्धकुशल मजदूरों की श्रेणी में डाल दिया जाये! यह भी न हो सके तो पत्रचार शिक्षा से डिग्री हासिल कर लो जहाँ कहीं अस्थायी मज़दूरी करने के साथ-साथ पत्राचार (करेस्‍पोंडेंस) से स्नातक हो जाओ!

इस प्रकार लगातार उच्च शिक्षा को आम आबादी की पहुँच से दूर किया जा रहा है। अभी ही योग्य नौजवान आबादी का महज़ 7 फीसद हिस्सा ही उच्च शिक्षा तक पहुच पा रहा है। घटती सीटों और बढ़ती फीसों ने पहले ही एक बड़ी आबादी को कैंपस से बाहर खदेड़ दिया है। शिक्षा को लगातार एक बाज़ारू माल बनाया जा रहा है। दरअसल मुनाफ़ाकेन्द्रित व्यवस्था में हर चीज़ माल होती है और शिक्षा भी इसका अपवाद नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय में सीबीसीएस को थोपने का प्रयास और बाद में इसे सभी विश्वविद्यालयों पर थोप देने का मंसूबा दरअसल शिक्षा के बाज़ारीकरण की इसी प्रक्रिया में एक अगला कदम मात्र है। इसका दिल्ली विश्वविद्यालय में तो विरोध हो ही रहा है, मगर शिक्षा के बाज़ारीकरण की इस साज़िश का हर जगह विरोध करने की आवश्यकता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्‍टूबर 2015

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