स्वयंसेविता, नोबल पुरस्कार की राजनीति और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर एक विरोध-पक्ष संगठित करने की मुहिम

मीनाक्षी

बाल अधिकारों के संरक्षण, विशेष रूप से बाल श्रम की मुक्ति मुहिम के ज़रिये बच्चों का बचपन बचाने के लिए नोबल शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत कैलाश सत्यार्थी इन दिनों भारत के विभिन्न शहरों में ही नहीं विदेशों तक धावा-धूपी कर रहे हैं। उनका इरादा ‘बाल-अनुकूल भारत के निर्माण’ का है। अभी पिछले दिनों जब वे राजकुमार चार्ल्स के ब्रिटिश एशियन ट्रस्ट द्वारा संचालित मानव तस्करी-विरोधी कोष निर्माण में सहायता देने लन्दन पहुँचे तो वहाँ उन्होंने एक साक्षात्कार में इस आशय की बात कही। इसके लिए उन्होंने बाल श्रम पर रोक लगाने या मुक्त बाल मज़दूरों के पुनर्वास की कोई कार्ययोजना नहीं रखी बल्कि साम्राज्यवादी पूँजी के प्रबल पैरोकार मोदी से बाल शोषण-उत्पीड़न के मुद्दे को अपनी राजनीतिक प्राथमिकता में रखने का आग्रह किया जैसे इतना ही काफ़ी न हो, उन्होंने कारपोरेट घरानों से भी इसके लिए अपने भीतर सामाजिक दायित्व की संस्कृति विकसित करने का आह्वान किया। एक तो करेला उस पर नीम चढ़ा। पूँजीपति का दायित्व केवल अपने मुनाफ़े के प्रति होता है। यह कोई इतनी गुप्त बात नहीं कि कैलाश सत्यार्थी इससे वाकिफ़ न हों। यह भी कोई रहस्य नहीं कि अधिकाधिक सस्ते श्रम की लूट के बूते ही पूँजीपति वर्ग टिका रह सकता है और पूँजी के इस तन्त्र की ‘व्यवस्थापक समिति’ पूँजी हितों के अनुरूप ही राजनीतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण करती है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि व्यवस्था संचालन का यह काम मौजूदा मोदी सरकार के हाथ में है अथवा सरकार बनानेवाली किसी अन्य राजनीतिक दल के हाथ में। देखा भी जा सकता है कि शासन सँभालते ही किस तरह मोदी सरकार ने कारपोरेट घरानों के हित में श्रम क़ानून संशोधन के ज़रिये मज़दूर विरोधी लचर व्यवस्था कायम करने में ज़रा भी देरी नहीं की। स्पष्ट है कि बाल श्रम या किसी प्रकार के श्रम के शोषण या उत्पीड़न के ख़ात्मे की चिन्ता किसी भी पूँजीपरस्त सरकार की राजनीतिक प्राथमिकताओं में होता ही नहीं। और न ही अपीलों और आह्वानों से इसे सम्भव किया जा सकता है। पूँजी की मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था के सम्पूर्ण ख़ात्मे के बग़ैर यह मुमकिन भी नहीं। ठीक इसी सच्चाई पर परदा डालने के लिए इस तरह की पुरस्कार देने वाली अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ या समितियाँ सक्रिय रहती हैं। ये समाज कल्याण की अपनी परिभाषा के अनुरूप जो अन्ततः साम्राज्यवादी पूँजी के हित में जाती है ऐसे व्यक्तियों या स्वयंसेवी संस्थाओं का चयन करती हैं जिन्हें क्रान्तिकारी परिवर्तन की आडम्बरपूर्ण बातें करते हुए भी चीज़़ों को ग़ैरक्रान्तिकारी तरीक़े से व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर ही निपटाने में महारथ हासिल हो।

malala satyarthiयदि यह मान भी लिया जाये कि कैलाश सत्यार्थी और मलाला युसुफज़ई के चयन के कारण बाल अधिकार का मुद्दा वैश्विक एजेण्डे पर आ गया जैसा कि ख़ुद सत्यार्थी जी का मानना है, तो उससे उन मज़दूर बच्चों की जीवन-स्थितियों में अन्तर क्या पड़ा। बीड़ी से लेकर चूड़ी उद्योग और सीमेण्ट से लेकर कालीन उद्योगों तक बालश्रम का निर्मम शोषण निर्बाध जारी ही है।

सत्यार्थी जी को आईएलओ जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्ट से यह जानकारी होगी ही कि पिछले 15 सालों में भारत समेत दुनियाभर में बाल मज़दूरी के आँकड़ों में इज़ाफ़ा हुआ है। 5 से 7 साल जैसी छोटी आयु में भी मज़दूरी के लिए बाध्य बच्चों की संख्या ही इस रिपोर्ट के अनुसार 21 करोड़ 50 लाख तक पहुँच गयी है। इनमें 14 साल तक के बाल मज़दूरों को भी जोड़ दिया जाये तो यह संख्या और भी अधिक हो जायेगी। यह हक़ीक़त है कि सत्यार्थी जी और बाल अधिकारों के लिए ‘संघर्ष’ करनेवाली अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के ‘निजी स्वैच्छिक गतिविधियों’ और ‘जन सहभागिता व जन पहलक़दमी द्वारा विकास’ के बावजूद आज भारत में बाल मज़दूरों की संख्या 10 से 16 करोड़ तक जा पहुँची है और आगे भी यह दर बढ़ती जायेगी। मानवीय भावना के भूमण्लीकरण जैसे आडम्बरपूर्ण नारे या महज़ मुक्ति अभियानों का सिलसिला अव्वलन तो इन बाल मज़दूरों को उनके नारकीय जीवन से मुक्ति नहीं दिला सकता और यदि एकबारगी इन्हें मुक्ति मिल भी जाये तो नवसाम्राज्यवादी नीतियाँ उनकी जगह बाल मज़दूरों की उसी विशाल संख्या को फिर से लाकर खड़ा कर देंगी। मन्दी के संकटग्रस्त समय में आज खुले बाज़ार की व्यवस्था अधिक से अधिक निचोड़े गये सस्ते श्रम की बदौलत ही अपना अस्तित्व बचाये रख सकती है। बालश्रम की बुनियादी वजहों को दरकिनार कर कैलाश सत्यार्थी और उनके बचपन बचाओ आन्दोलन की बचपन बचाने की कार्रवाई वास्तव में नवउदारवाद की नीतियों के अनुरूप है। इससे भी ख़तरनाक बात यह है कि इनकी ये स्वैच्छिक कार्रवाइयाँ नवउदारवाद के विनाशकारी प्रभाव के प्रति जनता को उदासीन बनाने के काम में लगातार सक्रिय हैं।

सत्यार्थी जी ने शोषण के समूचे तन्त्र को प्रश्नों से परे रखते हुए बाल श्रम के ख़ात्मे के लिए ‘रगमार्क’ नामक ट्रेडमार्क कम्पनी (जिसे अब गुडवीब के नाम से जाना जाता है) की स्थापना की और यह व्यवस्था बनायी कि रगमार्क का लेबल उन्हीं कालीनों पर चस्पाँ किये जायें जिसमें बाल श्रम न लगा हो। उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनकी ट्रेडकम्पनी ‘रगमार्क’ के लेबल यदि उत्पादित माल में बाल श्रम न लगने की गारण्टी है तो क्या राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों को केवल ‘रगमार्क’ का ट्रेडनाम देखकर ही उत्पादों को ख़रीदना चाहिए। उन्होंने इस ट्रेडकम्पनी को स्थापित करते वक्त उन तमाम भारतीय कालीनों के अन्तरराष्ट्रीय बहिष्कार की अपील भी की थी जिसमें बालश्रम लगा हुआ हो। क्या उन्हें बालश्रम की भागीदारी वाले अन्य मालों के ख़रीदे जाने पर कोई एतराज़ नहीं या बाल मज़दूरों के प्रति उनका सरोकार महज ‘रगमार्क’ तक सीमित है। भदोही के कालीन उद्योग के बारे में सत्यार्थी जी निश्चय ही जानते होंगे जो बच्चों के सस्ते श्रम की लूट पर ही टिका हुआ है। उन बच्चों की मुक्ति और पुनर्वास के बारे में उनका क्या ख़याल है। यह बात दीगर है कि अन्तरराष्ट्रीय तो क्या वे घरेलू या स्थानीय स्तर पर ही बालश्रम को एजेण्डा नहीं बना पाये हैं।

एक अहम सवाल यह भी है कि बाल श्रम के प्रति जर्मनी अमेरिका जैसे देश आख़िर क्यों आज अचानक इतने संवेदनशील हो उठे हैं कि बाल मज़दूरी के विरोध में सत्यार्थी के ‘ग्लोबल मार्च’ के आयोजन को उन्होंने 20 लाख डॉलर का खैरात दे डाला जबकि ड्रोन हमलों से लाखों बच्चों का क़त्लेआम करने में इन साम्राज्यवादी देशों ने कभी कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। और क्यों लगभग पूरे पश्चिमी जगत की गहरी रुचि भारत समेत तीसरी दुनिया के देशों के बालश्रम से मुक्त कालीन निर्यात को प्रोत्साहित करने में है। बालश्रम से बने कालीन और अन्य मालों के बहिष्कार की असली वजह उसके राजनीतिक अर्थशास्त्र में है। साम्राज्यवादी पूँजी और विकसित प्रौद्योगिकी के दम पर ये देश विश्व बाज़ार पर नियन्त्रण स्थापित करके अपेक्षाकृत अन्य पिछड़े देशों को बाज़ार में टिकने नहीं देते। परन्तु संकटकालीन और आर्थिक मन्दी के दौर में दुनिया के पैमाने पर अधिशेष विनियोजन में हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर जब विकसित और पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच खींचातानी बढ़ने लगती है तो पहले से ही सस्ते श्रम पर टिके भारतीय कालीन और रेडिमेड वस्त्र उद्योगों को यह मौक़ा मिल जाता है कि वे बच्चों और स्त्रियों के और अधिक सस्ते श्रम का दोहन करके उत्पादन लागत को कम कर सकें। दुनिया के बाज़ार में इस तरह अपनी पैठ बनाने में वे पिछड़े देश भी एक हद तक कामयाब हो जाते हैं। तब उन्हें बेदख़ल करने और अपना दबदबा फिर से बनाने में जनकल्याण का मुखौटा लगाये ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएँ साम्राज्यवादी देशों के मदद के लिए आगे आती हैं। इसके लिए उन्हें अन्तरराष्ट्रीय दाता एजेंसियों से फ़ण्ड भी मिलता है। कैलाश सत्यार्थी और उनकी जैसी स्वयंसेवी संस्थाएँ ‘क्लेशकारी उद्योगों’ के उद्धारक की भूमिका आख़िरकार इन्हीं दाता एंजेसियों के पे-रोल पर तो निभा रही हैं। सत्यार्थी जी को इसके लिए राबर्ट केनेडी सहित कई यूरोपीय और अमेरिकी पुरस्कार भी मिले हैं। अनुदानों और नोबल जैसे अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों का पूरा गणित ही इसलिए है कि नवउदारवादी नीतियों को बिना किसी जनप्रतिरोध के आसानी से लागू करने की अपनी क्षमता को प्रमाणित कर दिखाया जाये।

कैलाश सत्यार्थी बड़े गर्व के साथ बताते भी हैं कि उनकी संस्था ‘बचपन बचाओ’ ने अब तक 83,525 से अधिक बच्चों को मुक्त कराया है। परन्तु मुक्त हुए बच्चों के सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक विकास और पुनर्वास के बारे में इस समय तक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है जब कि उन्होंने इसी उद्देश्य के लिए ‘मुक्ति आश्रम’ की स्थापना की थी। उल्टे उनके ‘मुक्ति प्रतिष्ठान’ न्यास पर उसके न्यासीगण और कर्मचारियों द्वारा ही भ्रष्टाचार और घनघोर वित्तीय अनियमितताओं का आपराधिक मुक़दमा दर्ज कराया गया है। बालश्रम मुक्ति कथा की असलियत जानने के लिए फोर्ब्स पत्रिका की महिला पत्रकार की 2008 की उस रिपोर्ट को देख लेना काफ़ी होगा जिसमें उसने बच्चों के साक्षात्कार के माध्यम से इस झूठ का पर्दाफ़ाश किया था कि किस प्रकार आम घरों के बच्चों को मुक्त हुए बाल श्रमिकों के रूप में प्रस्तुत करने की साजिश बचपन बचाओ आन्दोलन से जुड़े एक स्वयंसेवी ने की थी।

सवाल तो यह भी उठता है कि ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ को अपनी सामाजिक गतिविधियों के लिए किसी वेतनभोगी स्टाफ़ की ज़रूरत क्यों है। यह सामने आ चुका है कि उनकी नियुक्ति बाकायदा औपचारिक ढंग से की जाती है। परियोजना अधिकारी, कार्यकारी अधिकारी, कार्यकारी सहायक जैसी कई रिक्तियों के लिए आमन्त्रित आवेदन सम्बन्धी विज्ञापन देवनेट जाब्स इण्डिया के वेबसाइट पर भी देखा जा सकता है जिसमें बचपन बचाओ आन्दोलन ने अपने आपको समान अवसर प्रदान करनेवाले नियोक्ता के रूप में प्रस्तुत किया था। यानी सामाजिक सेवा कमाई का ज़रिया बन जाती है जहाँ सामाजिक कार्य का मुगालता बना रहता है और सुरक्षित जीवन की बेफ़िक्री भी। कालान्तर में पैसा प्रधान हो जाता है और सामाजिक सक्रियता गौण। वास्तविकता यह है कि कोई भी सामाजिक आन्दोलन किसी भौतिक प्रोत्साहन से नहीं बल्कि पूर्णकालिक समर्पित कार्यकर्ताओं के भरोसे ही खड़ा किया जा सकता है।

मलाला युसुफज़ई भी, जो नोबल पुरस्कार की साझी विजेता रही है, शान्ति कपोत बनकर साम्राज्यवादी ताक़तों द्वारा सहयोजित कर ली गयी। लड़कियों की शिक्षा के लिए लड़नेवाली एक बिचारी लड़की, जिसे उसके देश के बर्बरों से बचाकर ‘मानवीय पूँजीवाद’ ने एक कल्याणकारी संघर्ष के प्रति उसकी निष्ठा के लिए उसे पुरस्कृत किया। वास्तविकता तो यह है कि एक प्रतीक के तौर पर आतंकवाद के ख़िलाफ़ उसका इस्तेमाल किया गया जिससे पश्चिमी जगत को तालीबान और आइएस जैसे आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ माहौल बनाने में सहायता मिली। यह ज़रूरी था, क्योंकि ये संगठन अपनी कार्रवाइयों के चलते ख़ुद उनके लिए भी चुनौती बने हुए हैं। यदि मलाला मार दी गयी होती तो दुनिया के लिए वह वैसी ही अनजान रहती जैसे युद्धों और ड्रोन हमलों में क़ब्रों में दफ़न कर दिये गये पाकिस्तान, लिबिया, यमन और सीरिया के वे बच्चे जो अनाम ही रह गये।

लेकिन मलाला को बचा लिया गया और अब शान्ति के लिए पुरस्कृत मलाला को बर्बर इसरायली आक्रमण में मार दी गयी फ़िलिस्तीनी स्त्रियाँ और बच्चे, बलात्कार की शिकार बनीं स्त्रियाँ और 14 साल की वह इराक़ी लड़की अबीर जिसे अमेरिकी सैनिकों ने उस समय बलात्कार का शिकार बनाया था जब वह स्कूल जा रही थी, ऐसी घटनाएँ अब मथती नहीं। बच्चियों के अधिकारों के बारे में अब वह अधिक से अधिक संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं से हस्तक्षेप की अपील भर कर सकती है जैसाकि उसने आतंकवादी संगठन बोको हरम द्वारा अपहृत नाईजिरियाई लड़कियों की रिहाई के लिए पिछले दिनों किया था। उसके बहादुराना मिजाज को जैसे पाला मार गया हो। उसे यह बात भी अब नहीं अखरती कि उसके देश में शिक्षा पर होनेवाला ख़र्च कुल जीडीपी का 2 प्रतिशत ही क्यों है और क्यों शिक्षा योग्य 2 करोड़ 50 लाख बच्चे तीसरी कक्षा के पहले ही विद्यालयों से बाहर हो जाते हैं। उसके देश के 1 करोड़ बच्चों को ईंट-भट्टे पर क्यों काम करना पड़ता है। वह अब इस्लाम के साँचे-खाँचे में शिक्षा के महत्व पर बात करती है परन्तु स्त्री उत्पीड़न को औचित्य प्रदान करनेवाली इसकी भूमिका को वह नज़रअन्दाज़ कर जाती है। सबके लिए शिक्षा की सुलभता उसकी माँग का एजेण्डा नहीं बन पाता। देखा जा सकता है कि साम्राज्यवादी ताक़तों ने एक प्रतीक चिन्ह के रूप में किस तरह मलाला का इस्तेमाल कर लिया है।

मलाला को पुरस्कृत करनेवाले नोबेल पुरस्कार समिति से जुड़े लोगों का बच्चों की शिक्षा और उनके अधिकारों के प्रति स्वयं कितना सरोकार है इसे समिति के वर्तमान नॉर्वियाई अध्यक्ष थॉर्बजार्न जगलैण्ड के इस बयान से समझा जा सकता है जो उन्होंने पाकिस्तानी बच्चों की स्कूली शिक्षा के बारे में दिया था – ‘आतंकवाद में सोख लिये जाने की जगह उन्हें स्कूल जाने दो।’ यानी आतंकवाद की ग़ैरमौजूदगी में स्कूलों और शिक्षा का कोई विशेष महत्व नहीं होता। मानो यह अधिकार नहीं विवशता हो। इंग्लैण्ड के राजनीतिज्ञ गार्डन ब्राउन तो उनकी शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए सद्भावना दूत का काम करने लग पड़े हैं। तीसरी दुनिया में लड़कियों की शिक्षा के लिए काम करनेवाले स्वयंसेवी संगठन मिलेनियम डेवलेपमेण्ट के भी वे सद्भावना दूत बने हुए हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि ये दक्षिणपन्थी धड़े के वही राजनेता हैं जिन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य के निजीकरण की रफ्तार तेज़ करने में ज़रा भी हिचक नहीं दिखायी थी और जब विरोध में छात्र और नौजवान सड़कों पर उतरे तो उनसे निपटने के लिए उन्होंने बड़ी तत्परता से सेना का सहारा लिया। तो ऐसे हैं लड़कियों की शिक्षा के प्रति सद्भावना रखनेवाले लोग जिनकी नवउदारवाद के दौर-दौरा में कलई खुल चुकी है। लेकिन मलाला मौन हैं और उनकी पक्षधरता ‘सेलेक्टिव’ है।

यह प्रत्यक्ष है कि सत्यार्थी और मलाला और इनकी तरह के अन्य समाजसेवी तथा देशी-विदेशी दाता एजेंसियों से अनुदान प्राप्त ऐसी सभी स्वयंसेवी संस्थाएँ वायदे चाहे जितने कर लें उन बुनियादी नाइंसाफ़ियों को रत्ती भर भी दूर नहीं कर सकते जो हमारे संघर्ष के मुद्दे बनते हैं। नवउदारवादी नीतियों के अमल ने आज पिछड़े ग़रीब देशों में जो अभाव, दरिद्रता और दुखदर्द पैदा किया है उसने साम्राज्यवाद को अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव करने की ज़मीन दी। उसने अनुदान की मदद से स्वयंसेवी संस्थाओं का जाल फैलाया और उसके ज़रिये सुधारों के माध्यम से व्यवस्था के सताये हुए लोगों में स्वीकृति निर्मित करने का काम किया। साम्राज्यवादियों के इस ख़तरनाक कुचक्र को समझे बग़ैर हम बचपन बचाओ जैसी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की भूमिका को नहीं समझ सकते। यानी जनता के प्रति सरकार की ज़िम्मेदारी से लोगों का ध्यान हटाना और जनान्दोलनों के बरक्स एक प्रतिसन्तुलकारी शक्ति का निर्माण करना। ज़ाहिर है, पूँजीवाद की सुरक्षापंक्ति के रूप में संसदीय वामपन्थियों के कमजोर पड़ने के चलते यह भूमिका अब इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने अत्यन्त प्रभावी ढंग से अख़्ति‍यार कर ली है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015

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