कोलकाता के ए.एम.आर.आई. अस्पताल में लगी आग से बेगुनाहों की दर्दनाक मौत
ऐसी त्रासदियों के लिए मूल रूप में मुनाफाकेन्द्रित व्यवस्था जिम्मेदार है

आनंद

पूँजीवाद द्वारा मानवता के खिलाफ किये गये जघन्य अपराधों की लम्बी फेहरिस्त में गत 9 दिसम्बर की भोर एक और त्रासदी जुड़ गयी जब कोलकाता के प्रतिष्ठित ए-एम-आर-आई अस्पताल, जिसको वैसे तो रोगियों का दुख-निवारण केन्द्र होना चाहिए था लेकिन उसके उलट वह भीषण आग लगने से 90 से भी ज्यादा लोगों की कब्रगाह में तब्दील हो गया। यह आग वहाँ लगी थी जिस जगह का इस्तेमाल भण्डार के रूप में होता था। इसकी कोई मंजूरी नहीं ली गई थी। अस्पताल के नक्शे में यह जगह गाड़ियों की पार्किंग के तौर पर दिखायी गयी थी जबकि वास्तव में वहाँ दवाइयों और चिकित्सकीय उपकरणों के अलावा पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस और ऑक्सीजन सिलिण्डर जैसे ज्वलनशील पदार्थ रखे गये थे। तलघर के दूसरे हिस्से में लगी आग का जहरीला धुआं देखते ही देखते लिफ्रट और एयर कंडीशनर की नलिकाओं से होता हुआ ऊपर की मंजिलों तक पहुँच गया जहाँ मरीजों के वार्ड थे और इस प्रकार अधिकतर मरीज जहरीले धुएँ की चेपट में आ गये।

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इतनी भीषण आग लगने के बाद भी अस्पताल के मालिकान और प्रबन्धन आग और धुएँ में फँसे लोगों की जान बचाने के लिए हरक़त में आने की बजाय मामले की लीपापोती में जुट गये ताकि आग लगने के ठोस कारणों का पता न चल पाये और इस भीषण आग के लिए उनकी लापरवाही को जिम्मेदार न ठहराया जाये। देर से सूचना मिलने के कारण आग लगने के एक घण्टे के बाद ही दमकल की गाड़ियाँ वहाँ पहुँच सकी। यही नहीं आग लगने की सूचना मिलते ही जब आस-पास के और विशेष रूप से झुग्गी-झोपड़ियों के नागरिकों ने जब आग और धुएँ में फँसे लोगों को बचाने के लिए अस्पताल में प्रवेश करना चाहा तो मालिकान के आदेश पर उन्हें गेट के अन्दर घुसने ही नहीं दिया गया। इसके बावजूद जब उनसे आग में फँसे लोगों की चीत्कार नहीं सही गयी तो वे अस्पताल की चहारदीवारी पर लगे कंटीले तारों को तोड़कर अस्पताल में घुस गये और अपनी जान पर खेलकर अनेक जानें बचायी। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि यदि उन्हें पहले ही गेट से अन्दर जाने दिया गया होता तो कई और जानें बचाई जा सकती थीं। लेकिन मालिकान और प्रबन्धन को लोगों की मरीज़ों की जान बचाने से ज्यादा परवाह मामले की लीपापोती करने की थी जिससे कि इस त्रासदीपूर्ण घटना की जिम्मेदारी उनके मत्थे न मढ़ा जा सके।
हाल के वर्षों में महानगरों के बड़े बाज़ारों, ऊँची इमारतों, सामुदायिक भवनों आदि में आग लगने की भयावह घटनाओं में जर्बदस्त वृद्धि हुई है। ऐसी हर बड़ी घटना के बाद मंत्री और नेता घटनास्थल और अस्पतालों का दौरा करते हैं और मीडिया की उपस्थिति में पीड़ितों और उनके स्वजनों से सहानुभूति का दिखावा करते हैं, घटना घटने के चन्द घण्टों के अन्तराल में मृतकों और घायलों के परिवारजनों के लिए मुआवजे़ की रकम घोषित कर दी जाती हैं और मीडिया में तमाम बुद्धिजीवी और पत्रकार सरकार को आपदा प्रबन्धन के कुछ नुस्खे सुझाते हैं और कुछ दिनों तक सुर्खियों में रहने के बाद बात आयी-गयी हो जाती है। उसके बाद देश के किसी अन्य हिस्से में जब फिर से ऐसी कोई बड़ी घटना घटती है तो यही चक्र फिर से दुहराया जाता है। इससे बाहर निकल कर यह प्रश्न उठाना लाजिमी है कि क्या ये घटनायें महज कुछ व्यक्तियों की लापरवाही का नतीजा होती हैं या फिर इनका कारण व्यवस्थागत है?
यह सच है कि सार्वजनिक या व्यावसायिक इमारतों में घटित ऐसी त्रासदियों में अमूमन यह देखने में आता है कि सुरक्षा के मानकों के अनुरूप आग पर काबू करने के समुचित उपाय नहीं किये गये होते हैं और न ही ऐसी किसी भयावह स्थिति पर आम नागरिकों की मदद से काबू पाने के लिए कोई योजना या कोई तैयारी होती है। कोलकाता के ए-एम-आर-आई अस्पताल में लगी आग में भी ऐसा ही देखने में आया। लेकिन सवाल तो यह है कि आखिर इतनी त्रासदियों से गुजरने के बावजूद ये उपाय क्यों नहीं किये जाते?
जब हम समस्या की तह तक जाते हैं तो पाते हैं कि पूँजीवादी विकास के साथ समाज में मुनाप़फ़ाखोरी की जो मानवद्रोही संस्कृति विकसित हुई है वह ऐसी त्रासदियों को टालने और उनसे निपटने की राह में आड़े आती है। सुरक्षा के समचित उपाय और आपदाओं से निपटने की तैयारी के लिए आवश्यक पूँजी एक पूँजीपतियों को ग़ैर-ज़रूरी ख़र्च लगता है। भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में जनता के अपने अधिकारों के प्रति उदासीन रवैये और सरकार और नौकरशाही के जनविरोधी औपनिवेशिक ढाँचे का लाभ उठाकर सुरक्षा के उपायों को ताक पर रखने की वजह से जब ऐसी भीषण घटनायें घट जाती हैं तो फौरी तौर पर भले ही कुछ पूँजीपतियों और प्रबंधकों के साथ कुछ नौकरशाह गिरफ्रतार किये जाते हैं लेकिन अब यह किसी से छिपी बात नहीं है कि भारत में न्याय बिकता है और अपनी पूँजी के दम पर कोई शक्तिशाली व्यक्ति न्याय की प्रक्रिया को आसानी से अपने पक्ष में कर लेता है। इस प्रकार आम जनता की जान ख़तरे में डालकर धंधे करना भारत में ‘लो रिस्क हाई रिटर्न’ उपक्रम है जिसमें उद्योगपति अकूत मुनाफा कमाता है और उसके एक हिस्से की नेताओं, नौकरशाही और न्यायधीशों के बीच बन्दरबाँट होती है और इस प्रकार मौत का यह घिनौना खेल निहायत ठण्डे तरीके से जारी रहता है। चाहे वह भोपाल, उपहार या कोंबाकुणम जैसी भीषण त्रासदियाँ हों या फिर सुरक्षा उपायों की खामियों की वजह से आये दिन होने वाली छोटी-छोटी घटनायें हों, इन सबके पीछे मूल रूप से पूँजी की यही मानवद्रोही संस्कृति जिम्मेदार होती है।
वैसे तो ऐसी त्रासदियाँ देश के लगभग सभी हिस्सों में होती रहती हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल में मुनाफाखोरी और प्रशासनिक निकम्मेपन के चलते कई भीषण घटनाएँ घटित हुई हैं। चाहे वह पिछले साल कोलकाता की स्टीफन बिल्डिंग में आग लगने की घटना हो जिसमें 43 लोगों की जानें गयी थीं या हाल ही में वहाँ के अस्पतालों में सैकड़ों लोगों की मौत का मसला हो, ये सभी उस राज्य के प्रशासनिक ढाँचे के चरमारने का सूचक है। छद्म वामपंथियों के तीन दशकों के निरंकुश शासन के दौरान फली-फूली नौकरशाही ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार के नेतृत्व में और भी ज़्यादा जनविरोधी होती दिखाई पड़ रही है। लेकिन यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है। पूँजीवादी जनवाद की चौहद्दी के भीतर चुनावी झुनझुने का इस्तेमाल करके बस इतना ही हो सकता है कि साँपनाथ की निरंकुशता का विकल्प नागनाथ की निरंकुशता के रूप में सामने आये। ऐसे में हम युवाओं का यह दायित्व हो जाता है कि विकल्पों की तलाश में हमारी चेतना पूँजीवाद द्वारा तय की गयी समीओं में न बंधी रहे बल्कि उसका अतिक्रमण कर एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था तक जाये जिसमें जनता की ज़रूरतों की पूर्ति के साथ हर किस्म की आपदाओं को टालने के न सिर्फ चुस्त-दुरूस्त बन्दोबस्त किये जायें बल्कि किसी भी आपदा का सामना जनता की सामूहिक पहलकदमी के सहारे किया जाये।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2011

 

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