टाटा की काली करतूतें और उसकी नैनो

अजीत

आज कल मीडिया में एक खबर लगातार छायी हुई है। खबर है ‘नैनो’। गत 23 मार्च को टाटा ने नैनो को लॉन्च किया। हालाँकि टाटा की यह महत्त्वकांक्षी योजना अपने निर्धारित समय से देरी से परवान चढ़ी। पहले नैनो उत्पादन संयत्र पश्चिम बंगाल के सिंगूर में लगाया गया था। पश्चिम बंगाल की कथित वामपंथी सरकार और उसके नुमाइंदे बुद्धदेव भट्टाचार्य जो वहाँ के मुख्यमंत्री हैं, ने टाटा के तलवे सहलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और संयत्र के लिए किसानों की ज़मीन औने-पौने दामों पर छीनकर अपने खैरख्वाह टाटा को देनी शुरू की। लेकिन जमीन की छीना-झपटी के कारण उसे स्थानीय किसानों के विरोध का भारी सामना करना पड़ा। उसने तथा उसकी सरकार ने इस विरोध को कुचलने के लिये तमाम हथकण्डे अपनाये। किसानों के दमन के तमाम तरीके अपनाये। लेकिन किसान भी अड़े रहे। किसानों के विरोध का समर्थन तृणमूल कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक महत्त्वकांक्षा के लिये बखूबी किया। और अन्त में टाटा को नैनो परियोजना पश्चिम बंगाल से हटानी पड़ी। इसके वहाँ से हटते ही तमाम राज्यों ने अपनी-अपनी पेशकश टाटा के सामने रख दी। लेकिन अन्त में बाजी मार ले गये हिटलर के भारतीय वंशज हिन्दुत्व ध्वजाधारी नरेन्द्र मोदी और यह परियोजना गुजरात के साणंद में स्थानान्तरित हो गयी। पश्चिम बंगाल के किसानों ने अपने विरोध से टाटा को ये कदम पीछे हटाने पर मजबूर तो किया ही साथ ही पश्चिम बंगाल के इन नकली वामपंथियों का फ़ासीवादी चेहरा भी सामने ला कर रख दिया।

tata-nano-singurख़ैर, जो हुआ वो तो हमने देखा ही है। इस प्रकार आते-आते टाटा ने गत 23 मार्च को नैनो को लॉन्च कर दिया। और उसकी यह नैनो तमाम अखबारों के मुख्यपृष्ठ पर और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छाई रही। हालांकि 23 मार्च को ही शहीदे आजम भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत का 78वां साल पूरा हुआ था लेकिन किसी भी अखबार के मुख्य पृष्ठ या न्यूज चैनल ने हमे उनके बारे में कुछ नहीं बताया। टाटा ने अपनी प्रस्तुति के दौरान कहा ‘‘मैंने भारत के ‘आम आदमी’ को कम कीमत पर गाड़ी देने का जो वायदा किया था, उसे पूरा करके मैं बहुत खुश हूँ।’’

अब यहाँ पर हमें यह देखना होगा कि रतन टाटा किस आम आदमी के बारे में बात कर रहे हैं, उन्हें आम आदमी से कितना प्यार और हमदर्दी है और इस परियोजना का उद्देश्य क्या है?

टाटा का आम आदमी:

यहाँ पर टाटा ने किस आम आदमी कि बात की है हमें यह समझना होगा। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 84 करोड़ ऐसे लोग हैं जो रोजाना 20 रुपये पर गुज़ारा करते हैं, उनमें से भी 30 करोड़ के आसपास ऐसे लोग हैं जो महज 7.9 रुपये पर जीवन व्यतीत करते हैं या कहे कि जीवन पूरा होने का इंतज़ार करते हैं। रोज़ाना 9000 बच्चे भूख, कुपोषण और इलाज के अभाव में दम तोड़ते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार काम करने वाली आबादी का 50% बेरोजगार है। ये सब आँकड़े सरकारी रिपोर्ट के हैं, सच्चाई का चेहरा इससे भी स्याह है। ऐसे में, क्या ये लोग जो तिल-तिल मरने को मजबूर हैं, टाटा की नैनो खरीद पायेंगे! करोड़ों की यह बेरोज़गार आबादी क्या नैनो को खरीद पायेगी? यदि नहीं तो फ़िर टाटा किस की बात करते हैं?

यहाँ पर बात करें तो टाटा ने नैनो को बनाया है मुट्ठीभर मध्यवर्ग के लिये और वह भी इस पूँजीवादी व्यवस्था के जीवन की घड़ियों को थोड़ा और बढ़ाने के लिये। मध्यवर्ग की अगर बात करें, तो यह वर्ग हमेशा अपने से ऊँचे वर्ग में पहुँचने के सपनों में जीता है। लेकिन जब उसके सपने इस पूँजीवादी व्यवस्था में परवान नहीं चढ़ पाते तो वह इस व्यवस्था में अपने लिये अवसर न पाकर बेचैन हो उठता है। ऐसे में इस वर्ग में से कुछ रैडिकल तत्व इस व्यवस्था में बदलाव की चाहत पालते हैं लेकिन ये तत्व अपने वर्ग दृष्टिकोण से केवल व्यवस्था सुधार पर ध्यान देते हैं। लेकिन पूँजीपति वर्ग को सुधार की मांग से भी डर लगता है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस पूँजीवादी लूट और पूँजीवादी जनतन्त्र के भ्रम को बरकरार करने के लिये कुछ किया जाये, और वही किया रतन टाटा ने। उसने मध्यवर्ग के लिये कम कीमत में गाड़ी लाकर इस वर्ग के अन्दर उपभोक्तावादी संस्कृति को नये सिरे से बढ़ावा देने का काम किया है ताकि ये लोग नैनोमय हो जायें और इनकी चेतना को नैनो के पहिये कुचलते रहें।

रतन टाटा की काली करतूतें:

रतन टाटा आम जनता के कितने बड़े ख़ैरख़्वाह हैं यह तो इस तथ्य से ही पता चल जाता है कि भोपाल गैस काण्ड की जिम्मेदार हत्यारी कम्पनी यूनियन कार्बाइड का अधिग्रहण करने वाली कम्पनी डोव केमीकल्स ने जब भारत में निवेश करना चाहा तो टाटा इसके लिये जी-जान से जुट गये। दिसम्बर 1984 में 20 हजार लोगों की हत्या और न जाने कितने ही लोगों को अपंग बनाने वाली यूनियन कार्बाइड ने इस हादसे के लिये अब तक न तो कोई समुचित रूप से हर्जाना दिया है न पीड़ित और प्रभावित लोगों को ठीक से मुआवजा ही दिया है। इसके द्वारा बनाये गये विषैले कीटनाशक अभी ज्यों के त्यों पड़े हैं जो वहाँ की जमीन को और भूजल को लगातार प्रदूषित कर रहें हैं।

अन्तराष्ट्रीय कानूनों और मानको के अनुसार जिस कम्पनी ने प्रदूषण फ़ैलाया है उसी के लिये इसकी सफ़ाई का प्रावधान है। इसी सबके तहत 1995 में यूरोपीय समुदाय को रवाण्डा से करीब 230 टन फ़फ़ूंदीनाशी रसायन मंगवाने पड़े थे और करीब 300 टन बेकार हो चुके कीटनाशक को यमन से ब्रिटेन वापस भेज दिया गया था।

लेकिन हमारे देश में पूँजीपतियों की पैरोकार इस नपुंसक सरकार में क्या इतनी हिम्मत हो सकती थी? इस सरकार ने उसी वक्त यूनियन कार्बाइड के हत्यारे चेयरमैन वारेन एण्डरसन को गिरफ्तार करने की बजाय उसे विशेष विमान से अमे‍रिका पहुँचा दिया था और सरकार उस कम्पनी की नयी मालिक डोव केमिकल्स को भारत में निवेश की इजाज़त देने को लालायित है। लेकिन जब कुछ पर्यावरणविदों और भोपाल गैस पीड़ितों ने इसका विरोध किया तो सरकार को मजबूरन कुछ करना पड़ा। तब भारी दबाव के कारण जून 2005 में सफ़ाई का काम शुरू हुआ इसके खर्च के लिये जब इस सरकार ने डोव केमिकल्स से 100 करोड़ रुपये माँगे तो उसने साफ़ मना कर दिया और कहा कि जब तक वह इस देनदारी से मुक्त नहीं होगी तब तक वह भारत में कोई निवेश नहीं करेगी। अब कम्पनी के साथ गठजोड़ से भारतीय जनता को लूटने की योजना परवान कैसे चढ़ती? इसको लेकर सबसे ज्यादा बैचेनी हुई रतन टाटा को। जिस सरकार को इस अपराध के लिये हर्जाना ना देने वाली कम्पनी की पूँजी जब्त कर लेनी चाहिये थी और जिस पूँजीपति वर्ग को इस काम में सरकार का सहयोग देना चाहिये था वे ही इस अपराधिक षड़यन्त्र में सहयोगी बने हुए थे। ख़ैर, इसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। इस सरकार और पूँजीपति वर्ग से आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं?

रतन टाटा परेशान हो उठे और उन्होंने प्रस्ताव रख दिया, कि वह समान विचारों वाले औद्योगिक घरानों से सहयोग लेकर यह रकम जुटाने का प्रयास करेंगे। विदेशी पूँजी के साथ गठजोड़ कर देश की जनता के शोषण में लगे साम्राज्यवाद के इन जूनियर पार्टनरों से यही उम्मीद की जा सकती थी। क्या रतन टाटा को यह नहीं पता था कि वह यह प्रस्ताव एक ऐसी कम्पनी के लिये कर रहे हैं जो नापाम, एजेण्ट ऑरेंज और डाई आक्सिन जैसे जहरीले रसायनों का उत्पादन करके पूरी दुनिया में न जाने कितने लोगों की जान ले चुकी है और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचा चुकी है? निश्चित रूप से श्री रतन टाटा एक पढ़े-लिखे जागरूक नागरिक हैं और उन्हें अच्छी तरह से पता है कि वे किस कम्पनी की हिमायत में लगे हुए हैं। उनका मकसद साफ़ है: डोव केमिकल्स के साथ गठजोड़ करके मेहनतकश और आम जनता को लूटना।

इन्हीं रतन टाटा ने अमरीकी कम्पनी लॉकहीड मार्टिन और बोईंग को वायुसेना को लड़ाकू विमान सप्लाई का ठेका दिलाने के लिये लगातार दो दिन एफ़-16 और एफ़-18 लड़ाकू सुपरसोनिक विमानों पर दुस्साहसिक उड़ान भरी। भारत जैसे देश में जहाँ करोड़ों लोगों की जीने की पहली शर्त रोटी ही नहीं पूरी हो पाती वहाँ रक्षा के नाम पर अरबों-खरबों रुपये सैन्य ताकत पर खर्च कर दिये जाते हैं क्योंकि इन सौदों के बल पर ही इन कम्पनियों और टाटा जैसे इनके एजेण्टों को अपनी तिजोरियाँ भरने का मौका मिलता है। ऐसे में टाटा का आम आदमी जपना क्या है? सच यह है कि ‘‘इन पूँजीपतियों की देशभक्ति, राष्ट्रवाद, मानवतावाद, जनवाद मण्डी में पैदा होता है। इनके लिये मुनाफ़ा ही सबकुछ होता है।’’ अगर इनके मुनाफ़े पर आम-मेहनतकश जनता के खून के छींटे ना हो तो वह इनके लिये अधूरा मुनाफ़ा होता है।

कैसे देगा टाटा इतनी सस्ती नैनो?

टाटा की नैनो के दाम की हर तरफ़ चर्चा हो रही है। और लोग (मीडिया, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, खाये-पीये अघाये लोग) उसकी पीठ थपथपा रहे हैं कि टाटा ने इतनी सस्ती कार पेश कर इतिहास रच दिया। लेकिन असल बात यह है कि जब पश्चिम बंगाल से नैनो का मुख्य कारखाना हटा कर गुजरात लाया गया जिसमें कि नरेन्द्र मोदी की अहम भूमिका रही है, तो जनता के करोड़ों रूपये को पानी की तरह बहा दिया गया। मेहनतकश आवाम का टैक्स के रूप में जमा धान द्वारा इसे बनाया गया है। एक अनुमान के मुताबिक एक लाख की कीमत वाली हरेक नैना कार पर जनता की गाढ़ी कमाई का 60 हजार रुपया लगा है। नैनो सयन्त्र के लिए गुजरात सरकार ने टाटा को 0.1 प्रतिशत साधारण ब्याज की दर से पहले चरण के लिए 2,900 करोड़ रूपये का कर्ज दिया है। इसकी अदायगी 20 वर्षों में करनी है। कम्पनी को कौड़ियों के भाव 1,100 एकड़ जमीन दी गई है। इसके लिए स्टाम्प ड्यूटी और अन्य कर भी नहीं लिये गये। कम्पनी को 14,000 घनमीटर पानी मुफ्त में उपलब्ध करवाया जा रहा है। साथ ही सयंत्र में बिजली पहुचाने का सारा खर्च सरकार वहन करेगी। यही नहीं गुजरात सरकार और टाटा के बीच हुए समझौते को गुप्त रखा गया था। मोदी ने विशेष आदेश देकर नैनो से संबंधित सारी प्रक्रिया तीन दिन में खत्म करवा दी थी। यह थी मोदी सरकार की स्पष्ट पक्षधारता अपने आकाओं के प्रति।

दो बातें और। क्या टाटा को या नैनो के स्पेयर पार्ट्स बनाने वाली सहयोगी कम्पनियों को, मैन्युफ़ैक्चरिंग के लिये कच्चा माल  उनके द्वारा बनायी जा रही अन्य गाड़ियों की अपेक्षा सस्ता मिला होगा? नहीं ऐसा तो हो नहीं सकता क्योंकि कच्चे माल के उत्पादन पर टाटा जैसे लोगों का ही कब्जा है और वे अपने मुनाफ़े में कमी करने से रहे। क्या टाटा ने नैनो परियोजना में लगे प्रबन्धन अधिकारियों और इन्जीनियरों को कम वेतन दिया होगा? ऐसा तो कदापि हो ही नहीं सकता। उनको तो और अधिक ही दिया गया होगा। तो फ़िर टाटा गाड़ी की लागत कहाँ से पूरा करेगा? यह एक अहम सवाल है। और इसका जवाब एकदम साफ़ है। वह लागत पूरी करेगा और मुनाफ़ा भी कमायेगा; मज़दूरों, मेहनतकशों के खून को निचोड़कर। उसके लिये कम से कम कीमत पर खेती की जमीन खरीदेगा और किसानों पर विरोध करने पर गोलियाँ बरसायेगा। निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों से कम से कम कीमत पर ज्यादा से ज्यादा घण्टे काम करवायेगा तब कहीं जाकर उसकी गाड़ी तैयार होगी। टाटा ये सब करेगा तभी जाकर इतनी कम कीमत पर वह गाड़ी बना पायेगा, वरना इसके अलावा कोई रास्ता नहीं। और सरकार जो इसकी सस्ती भूमि कर में छूट आदि सुविधायें दी हैं वो भी जनता की कमाई है। लेकिन यहाँ के खाये-पीये अघाये लोगों, उनकी चाटुकार सरकार, मीडिया को नैनो की चमक ही दिखती है। उन्हें यह नहीं दिखता कि इस नैनो के पहिये ने सिंगुर से साणंद तक कितने मेहनतकशों के सिरों को कुचला है। ये अनायास ही नहीं है कि सस्ती या जनता की कार में सबसे ज्यादा दिलचस्पी पूँजीवाद के संकटमोचक फ़ासीवाद के अवतारों ने दिखलायी है। जर्मनी में भी हिटलर ने बदहाल जनता को सस्ती फ़ोक्सवैगन कार का सपना दिखाकर अपना समर्थक बनाने की कोशिश की थी। लेकिन अंततः हिटलर का क्या हुआ उससे आप सभी वाकिफ़ होंगे। इतिहास गवाह है कि दमन ने प्रतिरोध को हमेशा जन्म दिया है। हमारे समाज में जो नग्न किस्म का शोषण जारी है उसके ख़िलाफ़ मेहनतकश अवाम जागेगा। दुनिया भर में हमेशा ऐसा हुआ है और आगे भी ऐसा ही होगा क्योंकि

ये जो धूल बैठी है चीजों पर,

इसे बैठना ही है, क्योंकि यह उड़ चुकी है

यह झाड़ी जायेगी, सभी महाद्वीपों की चादरों से

और ये दुनिया बड़ी तरतीब के साथ

नई सदी में जा गिरेगी।

– शशि प्रकाश

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009

 

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