विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता संकट

अभिनव

‘आह्वान’ के पिछले अंकों में हमने विश्व आर्थिक मन्दी पर विशेष सामग्री दी है। हमने पिछले दो लेखों में बताया था कि पूरा विश्व जिस आर्थिक मन्दी को झेल रहा है वह कोई मामूली मन्दी नहीं है जो एक-दो साल के अन्तराल पर पूँजीवाद को तंग करती रहती है। हमने अपने विश्लेषण से यह नतीजा निकाला था कि यह मन्दी 1930 के दशक के बाद की सबसे बड़ी महामन्दी में तब्दील होगी। आज जब हम 2009 में प्रवेश कर चुके हैं तो यह विश्लेषण एक हकीकत में तब्दील हो चुका है। 2007 में मध्य में मन्दी के लक्षण सामने आने लगे थे। हालाँकि इसके बीज 2005 के हाउसिंग बूम के साथ ही पड़ चुके थे, लेकिन नीलामियों का सिलसिला 2007 के मध्य में शुरू हुआ। 2007 के अन्त तक वित्तीय क्षेत्र पर फ़ोरक्लोज़र्स का असर दिखना शुरू हो गया। 2008 के दौरान पहले तो तमाम विशालकाय दैत्याकार बैंक, वित्तीय संस्थाएँ और बीमा कम्पनियाँ दीवालिया हुईं और उसके बाद वित्तीय क्षेत्र में फ़ैलने वाली मन्दी विकराल मुद्रा तरलता में कमी के रूप में सामने आ गई। इसके बाद इस संकट के अन्य सेक्टरों में फ़ैलते ज़्यादा देर नहीं लगी। अभी तक बैंकों का दीवालिया होना जारी है। नवम्बर तक अमेरिका में हर हफ्ते दो बैंक दीवालियेपन से बचने के लिए सरकारी मदद के लिए आवेदन कर रहे थे। बैंक सेक्टर से औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में भी मन्दी का प्रवेश हो गया। ऋण महँगे होने लगे, उपभोक्ता खरीद को वित्त पोषित करने की सम्भावनाएँ क्षीण होने लगीं, उपभोक्ता ख़रीदारी में कमी आने के साथ ही माँग में गिरावट आने लगी। इसका नतीजा जल्दी ही मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में उत्पादन में कटौती के रूप में सामने आने लगा। मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में उत्पादन में कटौती के साथ ही कम्पनियों ने छँटनी करनी शुरू की और आज अमेरिकी में बेरोज़गारी की दर पिछले कई वर्षों के उच्चतर स्तर पर पहुँच गई है। साथ ही भूमण्डलीकरण के ज़माने में, जब सारे वित्तीय, औद्योगिक और आर्थिक प्रतिष्ठान और संस्थाएँ आपस में अन्तर्गुंथित हो चुके हैं, तो इस संकट के पूरी दुनिया में फ़ैलने में ज़्यादा देर नहीं लगी। आज पूरी दुनिया ही कुल आर्थिक वृद्धि की दर में ही भारी गिरावट का सामना कर रही है। इस पूरी आर्थिक मन्दी के मूल, चरित्र और दायरे के बारे में जानने के लिए आप पिछले दो अंकों में प्रकाशित सामग्री का अध्ययन कर सकते हैं। इस बार हम आपको यह बताने तक अपने आपको सीमित रख रहे हैं कि मन्दी का 2008 में कितना विस्तार हुआ है, इसका असर कहाँ-कहाँ तक पहुँचा है, और आगे क्या भविष्य नज़र आ रहा है।

शुरुआत विश्व बैंक द्वारा वर्ष के अन्त में की गई आर्थिक समीक्षा और भविष्यवाणियों से करते हैं। यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि विश्व बैंक के प्रोजेक्शन काफ़ी आशावादी हैं। अगर सबकुछ ठीक चला और मन्दी और ज़्यादा गहराई नहीं तो ही यह हो सकता है कि ये प्रोजेक्शन सही साबित हों।

विश्व बैंक ने बताया है कि 2009 में पूरे विश्व की आर्थिक वृद्धि की दर मात्र 0.9 प्रतिशत रहेगी। ग़ौरतलब है कि 2006 में यह दर 4 प्रतिशत और 2008 में 2.8 प्रतिशत रही है। 2007 में मन्दी की शुरुआत के बाद से ही इस दर में तेज़ी से गिरावट आई है और ख़ास तौर पर विकसित देशों को इस मन्दी का कोप ज़्यादा झेलना पड़ा है। 2008 के मध्य के पार होते-होते इसका असर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर साफ़ तौर पर नज़र आने लगा था और साल का अन्त होते-होते तो यह असर विकराल रूप धारण कर चुका है। विश्व बैंक की यही रिपोर्ट बताती है कि विश्व व्यापार 2.5 प्रतिशत वृद्धि दर तक सिमट कर रह जाएगा। 2006 में व्यापार की वृद्धि दर 9.8 प्रतिशत थी। 2008 में यह घटकर 6.2 प्रतिशत पर रह गयी। और अब उसके 3 से नीचे जाने की पूरी आशंका है। विश्व व्यापार में कमी आने का सबसे बड़ा नुकसान भारत और चीन जैसी विशाल विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को झेलना पड़ेगा जिनके सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा उपभोक्ता सामग्रियों और कच्चे माल के निर्यात से आता है। सच तो यह है कि चीन और भारत की अर्थव्यवस्थाओं पर मन्दी का प्रभाव 2008 के शुरू होने के साथ ही देखा जाने लगा था, हालाँकि रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर तारापुर को छोड़कर कोई भी सरकारी प्रतिनिधि उस समय यह नहीं कह रहा था कि वैश्विक मन्दी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई विशेष प्रभाव पड़ने वाला है। अब वही प्रतिनिधि अर्थव्यवस्था के लिए बेल-आउट और स्टिम्युलस पैकेज बनाने में व्यस्त हैं। अपनी रिपोर्ट के अन्त में विश्व बैंक कहता है कि इस संकट से उबरने का कोई तैयार रास्ता नज़र नहीं आ रहा है। इतनी बात स्पष्टता के साथ कही जा सकती है कि अगर सरकारें अपने हस्तक्षेप से वित्तीय बाज़ारों को विनियमित करने का पूरा प्रयास करें तो भी 2012 से पहले मन्दी से उबर पाना विश्व अर्थव्यवस्था के बूते की बात नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र ने भी वर्ष के अन्त में विश्व की आर्थिक स्थिति पर एक रिपोर्ट पेश की है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2006 में विश्व का आर्थिक आउटपुट 4 प्रतिशत की वृद्धि दर से बढ़ रहा था, 2007 में यह दर गिरकर 3.8 प्रतिशत रह गई; 2008 में यह और गिरकर 2.5 प्रतिशत हो गई और इस रिपोर्ट की गणना के अनुसार अगर गिरावट की मौजूदा दर बरकरार रही तो 2009 में यह वृद्धि दर नकारात्मक में चली जाएगी और -0.5 प्रतिशत से -1.5 प्रतिशत के बीच में रहेगी। यह तो तब होगा जब गिरावट की मौजूदा दर को माना जाय। सच तो यह है कि यह दर अभी और बढ़ेगी।

ऑर्गनाइज़ेशन फ़ॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एण्ड डेवेलपमेण्ट (ओ.ई.सी.डी.) के देशों ने भी एक रिपोर्ट पेश की-इकोनॉमिक आउटलुक फ़ॉर एंड-2008। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस संगठन से जुड़े सभी देश जिसमें कि दुनिया के उन्नततम देश शामिल हैं मन्दी के कारण सकल घरेलू उत्पाद में भारी गिरावट का सामना कर रहे हैं। 2006 में ओ.ई.सी.डी. देशों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 3.1 प्रतिशत थी। 2007 में यह 2.6 प्रतिशत रह गयी और 2008 में यह घटकर 1.4 प्रतिशत पर पहुँच गयी। इस रिपोर्ट की भविष्यवाणी के अनुसार यह दर 2009 में यह दर नकारात्मक में चली जाएगी और करीब -0.4 पर जाकर रुकेगी।

इन्हीं देशों में बेरोज़गारी के आँकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि 2007 में बेरोज़गारी दर 5.6 प्रतिशत थी जो 2008 में बढ़कर 5.9 प्रतिशत हो गयी। इस रिपोर्ट के अनुसार 2009 में यह दर 6.9 और 2010 में यह बढ़कर 7.2 पर पहुँच जाएगी।

इन आँकड़ों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक भयंकर मन्दी के भँवर में फ़ँसी हुई है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस मन्दी से 2012 तक विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था उबर चुकी होगी। लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था को उबारने के जो प्रयास दुनिया भर की सरकारें कर रही हैं वे प्रयास अपने आप में ऐसे प्रयास हैं जो मन्दी के अगले चक्र के आने पर एक ऐसा संकट पैदा करेंगे जो पहले से भी भयंकर होगी। उस समय भी विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अपने आप भराभराकर गिर जाएगी ऐसा सोचना बचकानापन होगा। निश्चित रूप से ग़रीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी झेल रही जनता स्वतःस्फ़ूत ढंग से सड़कों पर उतरेगी, खाद्यान्न दंगे होंगे, सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होंगे, हड़तालें होंगी…लेकिन यह सब किसी व्यवस्था को परिवर्तित नहीं कर सकते। अगर जनअसन्तोष को परिवर्तनकारी दिशा देने के लिए क्रान्ति के विज्ञान की सही समझ से लैस कोई क्रान्तिकारी नेतृत्व, यानी की कोई क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद नहीं होगी, यदि ऐसी पार्टी एक निर्विवाद नेतृत्व के रूप में मेहनतकश जनसमुदायों में स्वीकार्य नहीं होगी, तो पूँजीवाद इस अराजकता से फ़िर से उबरकर अपने आपको किसी नये रूप में संगठित कर लेगा। व्यवस्था परिवर्तन बिना एक वैज्ञानिक ‘यूटोपिया’, बिना एक वैकल्पिक सत्ता, सामाजिक-आर्थिक ढाँचे और संस्कृति के मॉडल के और एक अनुभवी, विवेकवान और तपी–तपायी क्रान्तिकारी पार्टी के बग़ैर नहीं हो सकता। यही वह चीज़ है जिसकी आज सारे देशों के मज़दूर आन्दोलन को कमी है। यह एक अलग चर्चा का विषय है कि ऐसी ताक़त कब और कैसे खड़ी होगी? इसे खड़ा करने के लिए छात्र और नौजवान क्या कर सकते हैं? इन पर विस्तृत चर्चा हम पहले के अंकों में कर चुके हैं। आगे फ़िर कभी करेंगे। फ़िलहाल कुछ और बातों को समझ लेना हमारे लिए आवश्यक है।

आज पूँजीवाद किसी संगठित सचेतन सक्रिय प्रयास के अभाव में नहीं गिर रहा है और इस अभाव के बने रहते वह कभी अपने आप गिरेगा भी नहीं। लेकिन एक बात साफ़ हो चुकी है। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से खोखली हो चुकी है। इसमें कोई प्रगतिशील सम्भावना शेष नहीं रह गयी है। आज वह दुनिया को मन्दी, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण, भ्रष्टाचार ही दे सकती है। यह वयोवृद्ध मुर्गी अब ऐसे सड़े अण्डे ही दे सकती है। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आज पूरा विश्व पूँजीवादी तन्त्र अपनी आन्तरिक शक्ति से टिका नहीं हुआ है। आंतरिक तौर पर तो वह असाध्य अन्तरविरोधों और रोगों से ग्रस्त है। वह अपनी जड़ता की ताकत के टिका हुआ है। यह कोई अपराजेय व्यवस्था और मानव इतिहास का अंतिम सीमान्त नहीं है, जैसा कि रैण्ड कारपोरेशन के वित्तीय परामर्शदाता फ्रांसिस फ़ुकोयामा ने 90 के दशक की शुरुआत में कहा था। अब तो कोई पूँजीवादी दार्शनिक या अर्थशास्त्री भी यह कहने की बेशरमी नहीं कर सकता है पूँजीवाद इतिहास का अन्त है। उल्टे 2007 में भारत आए फ्रांसिस फ़ुकोयामा ने कहा था कि आज दुनिया को जो ख़तरा सबसे ज़्यादा सता रहा है वह इस्लामी आतंकवाद नहीं है बल्कि दुनिया भर में वामपंथी आन्दोलनों का उभार है! पश्चिमी अकादमिक जगत में मार्क्स की वापसी की बातें हो रही हैं। बी.बी.सी. ने मार्क्स को 21वीं सदी के दार्शनिक की संज्ञा दी है और एक सर्वेक्षण ने बताया है कि दुनिया भर में मार्क्सवादी साहित्य की बिक्री में पिछले दशक में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई है। ज़ाहिर है कि पूँजीवाद के हालिया इतिहास ने विश्व भर में सोचने-समझने वाले मज़दूर कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्रों-नौजवानों को विकल्प के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है और एक बार फ़िर लोग परिवर्तन के प्रोजेक्ट की ओर मुड़ रहे हैं।

इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, आइये एक संक्षिप्त निगाह उस देश के हालात पर डाल लें जहाँ से यह भयंकर मन्दी पूरे विश्व में फ़ैली-विश्व पूँजीवाद का चौधरी अमेरिका। 2009 में इस मन्दी के महामन्दी में तब्दील होने की बातें होने लगी हैं। 2007 ने मन्दी की शुरुआत को अमेरिकी सबप्राइम संकट से शुरू होते देखा; 2008 ने इस मन्दी को अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टरों में फ़ैलते देखा और 2009 में इसके महामन्दी में तब्दील होने की हद तक गहराने की सम्भावनाएँ स्पष्ट रूप से देखी जा रही हैं। अमेरिका में 2002 के बाद पहली बार 2007 वृद्धि दर ठहराव का शिकार हुई। हालाँकि अमेरिकी सरकार शुरुआत में इस बात का खण्डन करती रही कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था मन्दी की ओर बढ़ रही है। लेकिन अमेरिकी सरकार के नेशनल ब्यूरो और इकोनॉमिक रिसर्च ने उसी समय मन्दी के आसन्न होने की बातें करनी शुरू कर दी थीं। इस ब्यूरो के बिज़नेस साइकिल डेटिंग कमिटी ने हाल ही में स्वीकार किया है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था 2007 से ही मन्दी में है। मन्दी की शुरुआत होने के बाद 22 लाख घर नीलाम हो चुके हैं जिन्हें हाउसिंग बूम के दौरान लोगों ने बैंकों से ऋण लेकर ख़रीदा था। घरों की नीलामी के साथ उपभोक्ता ख़र्चों में भारी कटौती आई है और जॉर्ज बुश जूनियर के उस आह्वान का कोई नतीजा नहीं निकला जिसमें उन्होंने अमेरिकी जनता को पाठ पढ़ाया था कि “अधिक से अधिक ख़रीदारी करना ही नयी देशभक्ति है!” उपभोक्ता ख़रीदारी में हुई गिरावट के कारण माँग में भारी कमी आई। नतीजतन, मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर व सेवा क्षेत्र में उत्पादन में कटौती करने की शुरुआत हुई। इसके बाद छँटनी और तालाबन्दी का ऐसा भयंकर दौर शुरू हुआ जो अभी तक जारी है।

अमेरिकी श्रम ब्यूरो ने जो ताज़ा रिपोर्ट जारी की है उसके अनुसार सिर्फ़ दिसम्बर में 5,33,000 नौकरियों की कटौती हुई है। इस महीने अमेरिका में बेरोज़गारी दर 6.7 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। यह पिछले 34 वर्षों में उच्चतम बेरोज़गारी दर है। अक्टूबर में 3,20,000 नौकरियाँ कम हुई थीं और सितम्बर में 4,03,000 नौकरियाँ ख़त्म हुईं। मन्दी के शुरू होने के बाद से 2008 में अमेरिका में 20 लाख से भी ज़्यादा नौकरियाँ कम हो चुकी हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मन्दी की यह प्रक्रिया वास्तव में 1997 के डॉट कॉम बुलबुले के पैदा होने के साथ शुरू हुई थी जब एक संकट को दूर करने के लिए ई.बिज़ और ई.कॉमर्स के जरिये मुनाफ़ा कमाने का काम शुरू किया गया था। 1997 के इस डॉट कॉम बुलबुले ने शेयर मार्केट में ज़बर्दस्त उछाल को पैदा किया था। यह डॉट कॉम बुलबुला इण्टरनेट के जरिये आइडिया के व्यापार का खेल था, यानी मुनाफ़ा कमाने की युक्तियों को बेचना। यह पूरी तरह शेयर मार्केट में सट्टेबाज़ी पर निर्भर था। कोई भी एक सूचना प्रौद्योगिकी या इण्टरनेट कम्पनी शुरू करता और उसे शेयर मार्केट में लांच कर देता। उसके बाद विशेष सेवाओं और उत्पादों के लिए उपभोक्ता के बीच अभियान चलाए जाते और फ़िर मुनाफ़े की फ़सल काटी जाती। इसका फ़ण्डा यह था कि शुरुआत में हानि में रहो और फ़िर ज़बर्दस्त मुनाफ़े में। ये कम्पनियाँ अपने शेयरों को अच्छे से अच्छे दाम पर बेचने के लिए ज़बर्दस्त सट्टेबाज़ी करती थीं। ये नये किस्म के शेयर थे जिनका वास्तविक सम्पत्ति से कोई लेना-देना नहीं था। पहले भी कम्पनियों के शेयर उनकी वास्तविक सम्पत्ति से मेल नहीं खाते थे और कभी बेहद ज़्यादा तो कभी बेहद कम होते थे। लेकिन डॉट कॉम कम्पनियों की तो कोई वास्तविक सम्पत्ति थी ही नहीं! ऐसे बुलबुले को देर-सबेर फ़ूटना ही था। 1997 में चूँकि पूर्वी एशियाई शेरों के गिरने के साथ शुरू हुए संकट से निपटने के लिए अमेरिका में ब्याज़ दरें बेहद कम हो गयी थीं इसलिए डॉट कॉम कम्पनी शुरू करने के लिए शुरुआती निवेश करना बेहद आसान हो गया था। 2000 इस डॉट कॉम बुलबुले का चरमोत्कर्ष था जिस समय शेयर मार्केट नयी ऊँचाइयों तक चला गया था। इसके बाद डॉट कॉम बुलबुले के फ़ूटने की शुरुआत हुई जिसके तात्कालिक कारण के रूप में माइक्रोसॉफ्ट और अमेरिकी सरकार के बीच के विवाद और वाई2के समस्या को गिनाया जाता है। लेकिन इसका दूरगामी कारण था डॉट कॉम क्षेत्र में भी निवेश की सम्भावनाओं का ख़त्म होना और वहाँ कम्पनियों की भीड़ लग जाना। हर कम्पनी मुनाफ़ा नहीं कमा सकती थी। कुछ कम्पनियों ने शुरुआत में मुनाफ़ा कमाया लेकिन 2001 आते-आते जिस भावी मुनाफ़े की उम्मीद में तमाम डॉट कॉम कम्पनियाँ काम कर रही थीं, वे उजड़ने लगीं और यहीं से शुरु हुआ डॉट कॉम बुलबुले का फ़ूटना।

डॉट कॉम बुलबुले के फ़ूटने के कारण शेयर मार्केट ढह गया और बाज़ार में नकदी की बेहद कमी हो गयी। एक बार फ़िर अमेरिकी केन्द्रीय बैंक ने इस कमी से निपटने के लिए ऋण के लिए ब्याज़ दरें बेहद घटा दीं। यहीं से हाउसिंग बूम की शुरुआत हुई। रियल एस्टेट क्षेत्र ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हमेशा से ही एक विशेष स्थान रखा। इसके बारे में माना जाता था कि यह कभी मन्दी का शिकार नहीं होता। नये सिरे से घर खरीदने और घर का मालिक होने का उन्माद पूरे मीडिया द्वारा पैदा किया गया और सट्टेबाज़ों ने घरों की कीमत को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया। बैंकों ने घर ख़रीदने के लिए ऋणों की दर को काफ़ी नीचे तक गिरा दिया। उसके बाद भी मन्दी का असर कम नहीं हुआ तो फ़िर गैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से ऋणों की बन्दरबाँट शुरू हुई। अच्छी क्रेडिट हिस्टरी न रखने वाले लोगों को परिवर्तनीय दरों वाले ऋण बड़े पैमाने पर दिये गये। बाद में तो हालत यह हो गयी कि सारे ऋणों का एक तिहाई हिस्सा इसी किस्म के दोयम दर्ज़े के ख़तरनाक ऋण थे। इसके बाद 2002 में शुरू हुआ यह हाउसिंग बूम 2006 आते-आते ठहरने लगा। सबप्राइम ऋण लेने वाले कज़र्दारों ने पैसा चुकाने में अपनी असमर्थता जतानी शुरू कर दी। उनके घरों की नीलामी शुरू हुई लेकिन अब तक आवास बाज़ार संतृप्त हो चुका था और घरों के ख़रीदार ही नहीं थे। नतीजतन, बैंकों का पैसा अब घरों में फ़ँस कर ईंट और सरिये का ढेर बनकर रह गया। यहीं से शुरू हुआ सबप्राइम संकट जो 2007 आते-आते भयंकर रूप धारण कर चुका था। बैंकों के पास पैसे ख़त्म हो गये और शुरू हुआ विशालकाय दैत्याकार बैंक का ज़मींदोज़ होना। अमेरिका में इस संकट की शुरुआत के बाद दज़र्नों विशालकाय बैंक दीवालिया हो चुके हैं और सैंकड़ों छोटे बैंक तबाह हो चुके हैं। बैंकों के तबाह होने के कारण ही यह मन्दी पूरी दुनिया में फ़ैलनी शुरू हो गयी। कारण यह था कि बैंकों ने उस पैसे से ये ऋण दिये थे जिसे वे पहले ही कोलेटरल डेट ऑब्लिगेशन पैकेज नामक एक वित्तीय उत्पाद के रूप में दुनिया भर के बैंकों को बेच चुके थे। जब इन बैंकों को केन्द्रीय बैंक फ़ेड को भुगतान करने की बारी आई तो पहले देनदारों ने हाथ खड़े कर दिये और फ़िर चूँकि लेनदार सिर्फ़ वह अमेरिकी बैंक नहीं रह गये थे जिन्होंने ऋण दिया, बल्कि उस ऋण के पैकेज को खरीदने वाले वे सभी बैंक बन गये जो दुनिया भर में फ़ैले हुए थे। और यहीं से पूरे विश्व वित्तीय तंत्र के ढहने की प्रक्रिया शुरू हो गयी।

हमने संक्षेप में इस संकट के इतिहास को जानने का प्रयास किया। इसके बारे में विगत अंकों में विस्तार से बताया गया है।

वर्तमान की चर्चा पर वापस लौटते हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था पिछले चार दशकों में 7 मन्दियों का शिकार हो चुकी है। लेकिन मौजूदा मन्दी कई अर्थों में एकदम नयी है। पहली बात यह है कि पिछली मन्दियाँ अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टरों तक इस हद तक नहीं फ़ैल पाईं थीं। यह मन्दी आवास के क्षेत्र से शुरू होकर शेयर बाज़ार, इक्विटी, बैंक, बीमा, पूरे वित्तीय तंत्र और अब मैन्युफ़ैक्चरिंग तक फ़ैल चुकी है। दूसरी बात जो इस मन्दी को अलग करती है और इसके महामन्दी में तब्दील होने की ओर इशारा करती है वह है बेरोज़गारी की दरों में अभूतपूर्व वृद्धि। इससे ज़्यादा बेरोज़गारी की दर सिर्फ़ 1930 के दशक की महामन्दी में पहुँची थी। अब अगर 25 फ़ीसदी तक बेरोज़गारी की दर नहीं भी पहुँचती तो भी वह उससे ज़्यादा नुकसान पूँजीवाद को पहुँचा सकती है। इस मन्दी के चरम पर पहुँचने पर बेरोज़गारी की दर 13 से 14 प्रतिशत तक पहुँचने की आशंका व्यक्त की जा रही है। आज की जनसंख्या के लिहाज़ से अब प्रभावित लोगों की संख्या पहले से कहीं ज़्यादा होगी। दूसरी बात यह है कि अब जनता की राजनीतिक चेतना का जो स्तर है उसमें इतनी बेरोज़गारी भी विस्फ़ोटक साबित हो सकती है। यही कारण है कि पूँजीवादी विश्व के पहरेदारों की नींद उड़ी हुई है। उन्होंने एक ऐसा जंजाल पैदा कर दिया है जिसे वे स्वयं नहीं समझते-वैश्विक वित्तीय बाज़ार! निजी खिलाड़ियों के लोभ-लालच को पूरी तरह अविनियमित छोड़ दिया गया जो कि मन्दी से निपटने के लिए विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की मजबूरी था। अब जो कूड़ा-करकट का अम्बार पैदा हुआ है उसे साफ़ करने का कोई रास्ता विश्व पूँजीवाद के चौधरियों को भी नहीं समझ में आ रहा है। दरअसल, इस कूड़े कचरे का सफ़ाया हो ही नहीं सकता। इसके ऊपर नयी मिट्टी डालकर फ़िर से उससे भी भयंकर कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने की शुरुआत करके ही पूँजीवाद संकट से निपटने की कोशिश कर रहा है, जैसा कि फ़ेड द्वारा फ़िर से ब्याज़ दरें घटा देने और 700 अरब डॉलर की तरलता अमेरिकी वित्तीय बाज़ारों में इंजेक्ट करने से साफ़ नज़र आता है। लेकिन हमेशा जैसा होता है वह यह है कि पुराना कचरा और ज़्यादा सड़कर ज़मीन फ़ाड़-फ़ाड़कर बाहर आता रहता है और नये कचरे की महिमा को बढ़ाता रहता है। अमेरिकी सरकार ने मन्दी से निपटने के लिए वही पुराना कदम अपनाया है जो वह पहले भी अपनाती रही है। इस उपाय से मन्दी दूर नहीं होती बल्कि और ज़्यादा विकराल रूप धारण करके दुबारा आने के लिए टल जाती है। और अब वह दो या तीन दशक के अन्तराल पर नहीं बल्कि दो या तीन साल के अन्तराल पर आती रहती है। और तेज़ी नाम की परिघटना घटित हुए तो इतना ज़माना हो गया है कि पूँजीवादी विश्व उसको देखता है तो उसे डेजावू होता है! एक मन्द मन्दी हमेशा पूँजीवाद की छाती पर सवार रहती है। आज के विश्व पूँजीवाद की तुलना अन्तकारी रोग से ग्रस्त किसी ऐसे मरीज़ से की जा सकती है जो हर वक्त बिस्तर पकड़े रहता है और बेहोशी की हालत में रहता है। बीच-बीच में उठकर विक्षिप्तावस्था में कुछ बकता है और फ़िर धराशायी हो जाता है।

अन्त में विकासशील देशों पर मन्दी के प्रभाव के बारे में एक चर्चा ज़रूरी है।

2009 में विकासशील देशों में विकास दर के 6.3 प्रतिशत से गिरकर 4.5 प्रतिशत पर आने की आशंका है। यह बात सच है कि विकासशील देशों में वृद्धि की दर विकसित देशों से ज़्यादा बनी रहेगी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मन्दी का असर इन पर कम है। उल्टे मन्दी का असर इन पर ज़्यादा होगा। कारण यह है कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में ऐसे आर्थिक झटके झेल पाने की क्षमता विकसित देशों से कहीं कम है। इस बात को तमाम अखबारी आर्थिक विश्लेषक और अकादमिक नहीं समझ पाते हैं और दावा करते हैं कि भारत और चीन नयी आर्थिक शक्ति और विश्व की आर्थिक प्रगति का नया इंजन बनकर उभरेंगे। यह जंगल को छोड़कर पेड़ को देखने जैसा है। भारत और चीन जैसे देशों में बेरोज़गारों की फ़ौज सड़कों पर उतरने की सूरत में उन्हें सम्भालने लायक संसाधन ही नहीं हैं। उनका दमन एकमात्र रास्ता बचता है जो ख़तरनाक साबित हो सकता है। ज्ञात हो कि रोज़गार में चीन और भारत में जो कमी आई है वह अमेरिका की कमी से ज़्यादा कम नहीं है। दूसरी बात यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ को मिला दिया जाए तो दुनिया के उत्पादन का 70 फ़ीसदी वही डकार जाते हैं। ऐसे में इन अर्थव्यवस्थाओं के डगमगाने और उपभोग में कमी आने का नतीजा उन सभी देशों की अर्थव्यवस्था को झेलना पड़ेगा जो उत्पादित मालों और कच्चे मालों का इन देशों में निर्यात करती हैं। मिसाल के तौर पर चीन और भारत, जिनकी अर्थव्यवस्था निर्यात पर काफ़ी बुरी तरह निर्भर करती है। इसमें भी चीन की अर्थव्यवस्था ख़ास तौर पर उल्लेखनीय है। विश्व बैंक के हांस टिम्मर ने कहा है चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि दर ज़्यादा होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे मन्दी का शिकार नहीं है या मन्दी का कम शिकार हैं। सच बात तो यह हैं कि यहाँ पर सापेक्ष विश्लेषण बताता है कि इस मन्दी को झेल पाना तीसरी दुनिया की तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक टेढ़ी खीर होगा।

आँकड़ों पर निगाह डालें तो पता चलता है कि चीन निर्यात की कमी के कारण मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में माँग में ज़बर्दस्त कमी आई है और इसके कारण बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ रही है। चीन ने भी एक स्टिम्युलस पैकेज दिया है जिसका इस्तेमाल उसने वास्तविक अर्थव्यवस्था में करने की बात की है। ज़ाहिर है भूतपूर्व और नकली मार्क्सवादियों को संकट की सापेक्षतया बेहतर समझ है! लेकिन यह काफ़ी नहीं होगा क्योंकि घरेलू बाज़ार में इतनी ताक़त नहीं है कि वह इतना निवेश और उत्पादन सोख सके। कारण यह है कि क्रय क्षमता से वंचित ग़रीबों की एक विशालकाय फ़ौज चीन के तीन दशक के पूँजीवादीकरण ने सामने खड़ी कर दी है।

भारत पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि हाल ही में निर्यात क्षेत्र को 1000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा है। माँग में भयंकर कमी के कारण लगातार उत्पादन में कटौती हो रही है और छँटनी और तालाबन्दी का सिलसिला शुरू हो चुका है। नतीजतन, भारत का मैन्युफ़ैक्चरिंग उत्पादन 15 वर्ष के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गया है।

दक्षिण कोरिया एशिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। 2008 के अन्त तक यह 1.6 प्रतिशत सिंकुड़ जाएगी। यानी उसके कुल सकल घरेलू उत्पाद में 1.6 प्रतिशत की कमी आ जाएगी। इसलिए यह भी एक गफ़लत है कि एशिया आने वाले समय में पूँजीवादी विश्व को रास्ता दिखाएगा और विकास का केन्द्र अब तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्थाएँ बनेंगी। ख़ैर, फ़िलहाल उभरता हुआ तो दुनिया में कहीं कुछ दिख नहीं रहा है; जो दिख रहा है डूबता हुआ ही दिख रहा है!

अन्त में, यह सवाल आता है कि यह संकट कब तक चलेगा? इसका जवाब तो पूँजीवाद के मुखियाओं के पास भी नहीं है। ओ.ई.सी.डी. का मानना है कि यह संकट 2011 तक जारी रहेगा। लेकिन तब तक बेरोज़गारी की दर अभूतपूर्व हो चुकी होगी। कुछ लोगों ने यह आशावाद जताया है कि इस संकट के वास्तविक अर्थव्यवस्था में फ़ैलने के पहले ही सरकारी हस्तक्षेप इसका समाधान कर देगा। लेकिन अफ़सोस कि उनका आर्थिक-राजनीतिक मोतियाबिन्द उन्हें यह देखने नहीं दे रहा है कि यह संकट पहले ही वास्तविक अर्थव्यवस्था में फ़ैल चुका है। कीन्स के शब्दों का इस्तेमाल करें तो “देर हो चुकी है!” इसके आँकड़े हम इस लेख की शुरुआत में ही दे चुके हैं।

कीन्स के ज़िक्र से याद आया कि आज सारी दुनिया भर के अर्थशास्त्री फ़िर से कीन्सीयाई हो गये हैं। नवीनतम नोबेल विजेता पॉल क्रूगमैन से लेकर अतीत के नोबेल विजेता जोसफ़े स्टिगलिट्ज़, अमर्त्य सेन से लेकर जिन्हें अभी तक नोबेल नहीं मिला है (उम्मीद है मिल जाएगा!) जैसे कि प्रभात पटनायक, सी.पी. चन्द्रशेखर, जयति घोष, आदि-आदि सभी कीन्सीयाई नुस्खे नये रूप में दुनिया भर की पूँजीवादी सरकारों को अपने सुझाव बता रहे हैं-“विनियमन करो!”, “बाज़ार को खुल्ला मत छोड़ो!”, “बरबाद हो जाओगे, अगर सार्वजनिक व्यय नहीं बढ़ाओगे!”, “वित्तीय जगत और शेयर मार्केट पर रोक लगाओ!”, वगैरह-वगैरह। इसमें भी सबसे काम का सुझाव प्रभात पटनायक, सी.पी.चन्द्रशेखर और जयति घोष जैसे अर्थशास्त्री दे रहे हैं जो नकली वामपंथियों के साथ चिपके हुए हैं और संशोधनवाद की खिचड़ी पका रहे हैं। यह सच है कि अन्ततः दुनिया भर की सरकारें आखिरी विकल्प के तौर पर कीन्स के प्रेत का ही आवाहन करेंगी। लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं हो सकता। पूँजीवादी व्यवस्था रहते हुए फ़िर से स्थिति उसी तरफ़ जाएगी। विनियमन अविनियमन में, संयम असंयम में, नियोजन अनियोजन में और संरक्षण उदारीकरण में तब्दील हो जाएगा। पूँजी की स्वाभाविक गति ऐसी होती है कि वह ऐसी बाधाओं को तोड़ देती है। कुछ समय के लिए संकट और झटके को सोखने के लिए कोई पूँजीवादी राज्य कीन्सीयाई नुस्खे अपना सकता है। यह किसी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की स्थायी स्थिति नहीं हो सकती। यह पूँजीवाद के बूते की बात नहीं है। अगर ऐसी कोई काल्पनिक स्थिति हुई तो पूँजीपति बग़ावत कर देंगे! राजकीय पूँजीवाद फ़िर से नहीं आ सकता। वह अतीत के एक विशेष दौर की परिघटना था जो कुछ देशों में उस समय की ज़रूरत था। पूँजीवाद के उत्तरोत्तर विकास के साथ उसके अस्तित्व की सम्भावनाएँ निश्शेष हो चुकी हैं।

अब रास्ता एक ही है। पूरी दुनिया को ऐसे आर्थिक संकट जड़ से हिलाते रहेंगे। पूँजी के इस खेल में लाखों लोग अपनी जान से हाथ धोते रहेंगे, गरीबी, दरिद्रता, बेरोज़गारी के गर्त में धकेले जाते रहेंगे। वह सड़कों पर अपने हक़ों के लिए स्वतःस्फ़ूर्त ढंग से उतरना भी जारी रखेंगे। लेकिन किसी क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व के बिना जनता इतिहास नहीं बना सकती। जनता हिरावल के बग़ैर लड़ तो सकती है क्योंकि उसके सामने और कोई रास्ता ही नहीं होता लेकिन वह हिरावल के बग़ैर जीत नहीं सकती। ऐसे हिरावल संगठन को खड़ा करना ही आज छात्रों-युवाओं के सामने सबसे बड़ा कार्यभार है। पूँजीवाद का अन्तकारी रोग बता रहा है कि वह इस शताब्दी के आगे नहीं जा सकता। अगर जाएगा तो जनता की तबाही, किसी विनाशकारी युद्ध, आणविक युद्ध या फ़िर प्रकृति के अपूरणीय विध्वंस के साथ जो मानवता को ही ख़ात्मे की तरफ़ ले सकता है। यह एक आत्मघाती व्यवस्था है जो मुनाफ़े के उन्माद में कुछ भी कर सकती है। इसका एक-एक दिन हमारे लिए भारी है। विश्व के ताज़ा हालात और इतिहास इशारा कर रहे हैं कि हमें अपनी तैयारियाँ शुरू कर देनी होंगी!

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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