संघ परिवार शाखाओं में बूढ़ो के बचे रह जाने पर चिन्तित!

प्रसेन, दिल्ली

rssआजकल, हॉफ़ पैंटिया भगवा गिरोह थका-थका सा नज़र आ रहा है। “हिन्दू गौरव” का राग अलाप-अलाप कर हिन्दू लोगों का “पौरुष” जगाने की मुहिम में इनका खुद का ही “पौरुष” चुकता-सा प्रतीत हो रहा है। और हो भी क्यों न, संघ परिवार में सिर्फ़ बुड्ढे बचे है और फ़टे ढोल पर गाया जानेवाला इनका मरियल कीर्तन सुनकर इनकी विचारधारा पर जुड़ने वाले नौजवानों की संख्या लगातार घटती जा रही है।

अखबार में छपी एक ख़बर के मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में संघ परिवार की शाखाओं की संख्या 60 हज़ार से घटकर 20 हज़ार के करीब रह गयी है। पहले हर जगह संघ की दो शाखाएँ लगा करती थीं-तरुण और प्रौढ़। शाखाओं में युवा वर्ग की अरूचि के चलते दोनों वर्ग की शाखाओं को मिला दिया गया है! इसके बावजूद, एक तिहाई शाखाएँ बंद हो गयी हैं।

आगे की ख़बर यह है कि इस स्थिति से उबरने के लिए आर.एस.एस. के दिग्गजों ने उद्योग जगत से मदद की गुहार लगाई है। राजधानी में झण्डेवालान स्थित संघ कार्यालय में ‘खोये पौरुष को पुनः हासिल करने के लिए’ बैठक की गयी, जिसमें दो प्रमुख उद्योगपति भी शामिल थे। इस बैठक में एक हिन्दू फ़ण्ड बनाने की योजना को अन्तिम रूप दिया गया है। संघ का लक्ष्य पाँच हज़ार करोड़ रुपये तक का है। लेकिन फ़िलहाल फ़ण्ड काफ़ी कम रकम से शुरू किया जा रहा है। फ़ण्ड के सहारे एक तरफ़ दिल्ली और प्रदेश की राजधानियों में उच्च पदों पर बैठे नौकरशाहों और सेना के उच्च अधिकारियों के बीच नेटवर्क बनाकर उन्हें संघ की विचारधारा के नज़दीक लाने की कोशिश होगी। दूसरी तरफ़, उद्योगपतियों की मदद से कारपोरेट जगत के युवा वर्ग को हिन्दू रंग में रंगने की मुहिम चलाई जायेगी।

तो तथ्य बता रहे हैं कि युवाओं में संघ परिवार के प्रति रुझान कम हुआ है और वह उसकी शाखाओं से दूर जा रहा है जबकि नयी भर्तियाँ नहीं हो रही हैं! संघ के संगठनकर्ता इसके कारणों की तलाश में लगे हैं। दरअसल, संघ में युवाओं की घटती दिलचस्पी के कई सम्भावित कारण हो सकते हैं। एक कारण तो यह है कि भूमण्डलीकरण के दौर भारत का बाज़ार अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार से कटकर नहीं रह सकता। बाज़ार में पूँजीपतियों का सबकुछ पैदा होता है-राष्ट्रवाद, संस्कृति, भाषा, आदि। आज जब मीडिया के माध्यम से देश का युवा विश्व पूँजीवाद और देसी पूँजीवाद के नये सास्कृतिक प्रतीकों का अनुकरण कर रहा है, वैसे में पुनरुत्थानवादी साम्प्रदायिक फ़ासीवाद अपने शुद्ध रूप में युवाओं के बीच में मुश्किल से ही लोकप्रिय हो सकता है। लेकिन इस तर्क को एक सीमा से आगे नहीं खींचा जाना चाहिए। आर्थिक संकट और ठहराव के चरम पर पहुँचने की स्थिति में एक बाद फ़िर देश के युवाओं को “गौरवशाली हिन्दू अतीत” के बारे में बताया जाता है और आधुनिक प्रतीकों के ढहने के कारण वे एक बार फ़िर पुनरुत्थानवादी फ़ासीवादी लहर में शामिल हो जाते हैं। ऐसा होगा ही या नहीं होगा, इसके बारे में नजूमी तरह कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। आज इतना कहा जा सकता है कि फ़िलहाल कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार हर वह काम कर रही है जिसकी उम्मीद औश्र अपेक्षा पूँजीपति वर्ग भाजपा नीत राजग गठबन्धन से रखता है। लिहाज़ा, राष्ट्रीय राजनीति में “हिन्दू” फ़ासीवादी कुछ समय के लिए साइडलाइन हो गये हैं। यद्यपि, राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेसी सरकार की आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ जनता का गुस्सा फ़ूटा और उसने भाजपा को वोट डाला और जिताया। हालाँकि, अगर वोटिंग ही 50–55 फ़ीसदी हो तो इससे कोई दूरगामी नतीजा नहीं निकाला जाना चाहिए। मूल मुद्दे पर लौटते हुए कहा जा सकता है, कि आज का मध्यवर्गीय युवा जो रिकी मार्टिन, एनरीके इग्लेसियस, मैडोना, फ़र्गी जैसों की नकल में और साथ ही शाहरुख़ ख़ान, सलमान ख़ान और अमिताभ बच्चन जैसे लोगों को अपना नायक मानने में लगा हुआ है, उसे धोती, खड़ाऊँ, गेरुआ, और कर्कश-फ़टे स्वर में “स्वर्णिम हिन्दू अतीत” का गुणगान बहुत आकर्षित नहीं कर पाता है।

दूसरे संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा जाति-धर्म का ज़हर फ़ैलाकर, साम्प्रदायिक दंगे भड़काकर “हिन्दुत्व” की जिस लहर पर सवार होकर हाशिए से केन्द्र तक पहँची है, चुनाव प्रचार के दौरान तमाम आस्थावानों से “हिन्दू गौरव स्थापना” का जो वायदा किया था, सत्ता में आने के बाद, व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर रहने की राजनीतिक मजबूरी के चलते उनको न पूरा कर पाने की वजह से उनकी आस्था कम हुई है। इन दिनों भाजपा और संघ परिवार के बीच खींच-तान को इसी परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है। इसके अलावा व्यापारी तथा छोटे पूँजीपति वर्ग अपनी वर्गीय मानसिकता से भले ही संघ से नज़दीकी महसूस करे परन्तु दंगे-फ़साद इत्यादि से पैदा होने वाली अनिश्चितता तथा उसके फ़लस्वरूप आर्थिक नुकसान से डरता है। निम्न मध्यम वर्ग के जिन पीले निराश बीमार चेहरे वाले नौजवानों में इन्हें बड़ी संख्या में युवा मिलते थे, उनका एक बड़ा हिस्सा पूँजी की मार के चलते आज सर्वहारा की जमात में जा कर खड़ा हुआ है। मेहनतकश आबादी में भी आज इनकी शाखाएँ हैं परन्तु उनके कामों और दैनिक दिनचर्या में इनका प्रोग्राम फ़िट नहीं हो पाता। नौकरशाहों तथा सेना के उच्च अधिकारियों के बीच नेटवर्क बनाने में इनकों आंशिक सफ़लता मिल सकती है क्योंकि अपने जातीय-धार्मिक पूर्वाग्रह तथा नौकरशाही-सेना के संसदीय राजनीति से अन्तरविरोधों के कारण असंतुष्टो में से कुछ कट्टर निरकुंशता के पक्षपोषक हो जाते हैं। लेकिन यहाँ से ‘मैन पावर’ में आ रही कमी को पूरा करना मुश्किल है। उसके लिए लम्पट सर्वहाराओं को जुटाने के प्रयास भी संघ तेज़ कर रहा है।

 कारपोरेट जगत के युवाओं को संघ यू ही लुभाने की कोशिश नहीं कर रहा है। वह जानता है कि कारपोरेट में जो नौजवान काम करते हैं उनकी स्थिति बहुत बुरी नहीं है और ‘कारपोरेट लैडर’ चढ़ना तो इहलोक में रहते हुए स्वर्ग की सीढ़ी चढ़ने जैसा है…चढ़ते जाओ.चढ़ते जाओ, पर यह कभी ख़त्म नहीं होती। तो कारपोरेट्स में काम करने वालों युवाओं को, उनकी पिछड़ी मानसिकता, असंतुष्टि और कारपोरेट्स की एक खास किस्म की कार्यशैली के चलते इनके भड़काऊ धार्मिक कट्टरपंथ के नारों पर अपने साथ लेने का ख्वाब ‘संघ परिवार’ देख रहा है परन्तु यहाँ उनका यह ख्वाब बहुत साकार होता नज़र नहीं आ रहा है क्योंकि अनिश्चितता की मार यहाँ भी है।

उद्योगपतियों का भी एक छोटा हिस्सा ही इनके साथ आ सकता है जो मुनाफ़े की लूट में किसी तरह का नियत्रंण नहीं चाहता। वे फ़ासीवाद का मेहनतकश आबादी का श्रम अधिकम निचोड़ लेने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। इनकी बैठक में दो उद्योगपतियों के शामिल होने का यही निहितार्थ है। परन्तु शासकवर्ग तथा अधिकांश दूरदर्शी उद्योगपति इसके नियंत्रित इस्तेमाल का पक्षधर है क्योंकि वह अधिक और अनियंत्रित लूट से लूट का साम्राज्य ही उखड़ जाने का खतरा महसूस करता है इसके अलावा संघ की विध्वंसात्मक प्रतिक्रियावादी कार्रवाई को खुली छूट देने से जो अनिश्चितता का माहौल पैदा होता है उससे होने वाले नुकसान का सबक पिछली घटनाओं में वह पा चुका है। कुल मिलाकर संघ परिवार की बुढ़ौती यूँ ही नहीं है। नौजवानों को जुटाने की स्थिति बन नहीं रही है जिनको ये धर्म भीरू गुण्डों में बदल सकें। हाँ! इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पैसे के बल पर भाड़े के गुण्डों का गिरोह बनाने पर ज़ोर बढ़ा दें।

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।