पूँजीवादी स्वर्ग के तलघर की सच्चाई

शिवार्थ

दिसम्बर, 2011 में प्यू रिसर्च सेण्टर द्वारा अमेरिका में किये गये एक सर्वेक्षण में इस बात की पड़ताल की गयी, कि आज अमेरिकी समाज में कौन से अन्तरविरोध मुख्य तौर पर हावी हैं। परम्परागत तौर पर अमेरिकी समाज में चार प्रमुख अन्तरविरोध रहे हैं – प्रवासी और मूल निवासी के बीच, श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच, जवान और उम्रदराज़ आबादी के बीच और धनी और ग़रीब के बीच का अन्तरविरोध। यह चार श्रेणियाँ ही मुख्य तौर पर इस सर्वेक्षण के आधार बिन्दु थीं। सर्वेक्षण में प्राप्त नतीजे इस प्रकार हैं – आज अमेरिका में दो-तिहाई यानी 66 प्रतिशत लोग धनी और ग़रीब के बीच तीखे़ अन्तरविरोध होने को स्वीकारते हैं। अगर 2009 से तुलना की जाये तो ऐसा मानने वालों में करीब 22 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, बल्कि पिछले 25 सालों में जब से इस तरह के सर्वेक्षण की शुरुआत हुई थी, पहली बार तकरीबन 30 प्रतिशत लोगों ने यह माना है कि आज अमेरिकी समाज में धनी और ग़रीब लोगों के बीच ‘बहुत तीखे’ वर्ग अन्तरविरोध व्याप्त हैं। एक बात और जो ग़ौरतलब है कि, वैसे तो इस सर्वेक्षण के दौरान आबादी के हर संस्तर में लोगों ने इस तथ्य की पुष्टि की है, लेकिन करीब 71 प्रतिशत नौजवानों ने, यानी हर 10 में 7 नौजवानों ने यह स्वीकार किया है कि आज उनके देश में धनी और ग़रीब जनता के बीच बेहद तीखे अन्तरविरोध विराजमान हैं और यह अन्य सभी अन्तरविरोधों में प्रधान है। अब यह आसानी से समझा जा सकता है कि ‘वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो’ आन्दोलन के बीच इतनी भारी संख्या में नौजवानों की उपस्थिति क्यों थी और वहाँ ‘वी आर 99 परसेण्ट’ के नारे क्यों लग रहे थे।

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इस पहले कि हम इस सवेक्षण के नतीज़ों पर कुछ टीका-टिप्पणी करें, कुछ और तथ्यों पर नज़र डालते हैं। 2011 के आखि़री महीनों के दौरान प्राप्त आँकड़ों के अनुसार आज अमेरिका में बेरोज़गारी की दर करीब 9 प्रतिशत है और अगर इसमें ‘पार्ट-टाइमर्स’ यानी अर्द्धबेरोज़गारों को जोड़ दिया जाये तो यह आँकड़ा करीब 16.1 प्रतिशत तक पहुँच जाता है यानी हर 6 में 1 अमेरिकी बेरोज़गार या अर्द्धबेरोज़गार हैं। ग़रीबी रेखा सम्बन्धी प्राप्त आकड़ों के अनुसार 34 करोड़ की कुल अमेरिकी जनसंख्या में करीब 5 करोड़ लोग ग़रीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं और अन्य 10 करोड़ इस बस ऊपर ही है, यानी करीब आधी आबादी भयंकर ग़रीबी का शिकार है। खाद्य उपलब्धता सम्बन्धी आँकड़ों के बारे में अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के अनुसार हर चार में एक अमेरिकी नागरिक भोजन सम्बन्धी दैनिक ज़रूरतों के लिए राज्य सरकार एवं विभिन्न दाता एंजेसियों द्वारा चलाये जा रहे खाद्य योजनाओं पर निर्भर है, क्योंकि वह अपनी आय से दो जून की रोटी ख़रीद पाने में अक्षम है। अगर शिक्षा की बात की जाये तो एक उदाहरण के जरिये चीज़ें समझना ज़्यादा आसान होगा। बर्कले विश्वविद्यालय का एक छात्र, आज करीब 11,160 डॉलर प्रति वर्ष शिक्षा शुल्क के तौर पर अदा करता है; आज से दस साल पहले वो 2,716 डॉलर ख़र्च करता था और उम्मीद है कि 2015-16 तक वह 23,000 डॉलर अदा करेगा। अब जैसा कि ऊपर इंगित किया कि बेरोज़गारी, ग़रीबी और खाद्य उपलब्धता की हालत अगर यह है तो जाहिरा तौर पर एक सामान्य अमेरिकी नौजवान शिक्षा का यह भारी ख़र्च स्वयं अपने या अपने परिवार के दम पर नहीं उठा सकता। इसके लिए उसे ऋण लेना होगा, जिसे कि वह भविष्य में प्राप्त होने वाले रोज़गार की आया से चुकाने के बारे में सोचेगा, लेकिन अगर रोज़गार की वर्तमान हालत यह है, जिसके भविष्य में और बिगड़ने के आसार है तो सवाल उठता है कि वह ऋण चुकायेगा कैसे? यानी या तो वह अशिक्षित रहकर अपने वर्तमान को तबाह कर लें या फिर भविष्य को गिरवी रख कर वर्तमान को बचा ले और भविष्य को तबाह करने की तैयारी करे। अमेरिकी समाज की वास्तविक स्थिति को दर्शाने के लिए कुछ और भी आँकड़े दिये जा सकते हैं, मसलन आज अमेरिका की ऊपरी 1 प्रतिशत आबादी की सम्पत्ति नीचे की 90 प्रतिशत की कुछ सम्पत्ति से अधिक है, लेकिन शायद अब तक पाठक के समक्ष वर्तमान समय में अमेरिकी समाज की बहुसंख्यक जनता की जीवन स्थितियों की एक तस्वीर उपस्थित हो गयी होगी। ऐसे में प्यू रिसर्च सेण्टर द्वारा किये गये सर्वेक्षण के हालिया नतीजे या फिर ‘वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो’ आन्दोलन के दौरान उमड़ा जन सैलाब और उनके द्वारा लगाये जा रहे नारों में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है।

यह हालत महज़ अमेरिका की नहीं बल्कि आज यूरोप के तमाम विकसित और अर्द्धविकसित देशों की कमोबेश यही या इससे भी बदतर हालत है। जहाँ तक रही इनके कारणों की पड़ताल तो आज लगभग दुनिया भर में लोग इससे वाकिफ़ हैं कि कहीं न कहीं इस हालात के लिए वह वैश्विक आर्थिक मन्दी जि़म्मेदार है जिसकी अभिव्यक्ति की शुरुआत 2006 में अमेरिका में ‘सबप्राइम ऋण संकट’ के साथ हुई थी। देखते ही देखते इस वित्तीय संकट ने आज 1930 के बाद के सबसे बड़ी महामन्दी का रूप अख्तियार कर लिया है। इस पूरी प्रक्रिया के बारे में आह्नान के पिछले अंकों में विस्तार से लिखा गया है।

आज सवाल यह है कि ‘अब क्या होगा?’ क्या एक बार फिर पूँजीवाद अपनी खोयी हुई ज़मीन प्राप्त कर लेगा और पिछले तीन दशकों से जारी नवउदारवादी नीतियों से अपने पैर पीछे खींचकर समावेशी विकास की राह पकड़ लेगा (क्योंकि इतना तो साफ हो गया है कि नवउदारवादी नीतियों के रहते हुए जनता के बहुलांश को तबाही-बर्बादी से बचाया नहीं जा सकता) या फिर पूँजीवाद भी ऐसा ही चलता रहेगा और जनता भी अपने कुछ जनआन्दोलनों से अपना विरोध दर्ज कराते हुए एक ‘स्टेलमेट’ की स्थिति कायम रखेगी या फिर विभिन्न देशों में ‘टी पार्टी गुट’ जैसे कुछ फासीवादी सत्ताएँ अस्तित्वमान होगी जो निरंकुश दमन के दम पर चीज़ों को निर्देशित-नियन्त्रित करने का काम करेंगी या फिर किसी एक या कुछ एक देशों में जहाँ इन वर्ग-अन्तरविरोधों की गाँठ सबसे तीखे रूप में अभिव्यक्त हो और एक रैडिकल क्रान्तिकारी पार्टी अस्तित्वमान हो, जो जनता के व्यापक संघर्षों को नेतश्त्व देते हुए इन स्थितियों को क्रान्ति में तब्दील कर पूँजीवादी व्यवस्था का निषेध करते हुए एक नये सामाजिक-आर्थिक ढाँचे का विकल्प प्रस्तुत करें।

ख़ैर, इन सम्भावनाओं और कुछ एक लोगों के शब्दों में इन ‘अटकलों’ पर और कुछ कहने से पहले आज की रोशनी में ज़रा उन दावों की शिनाख्त कर ली जाये, जो आज से डेढ़-दो दशक पूर्व साम्राज्यवाद के पूरे चरित्र को ही एक धुव्रीय विश्व (जिसका अकेला चौधरी अमेरिका था) के रूप में परिभाषित कर रहे थे ओर यह कह रहे थे कि इस एक धुव्रीय विश्व में साम्राज्यवादी देशों ओर पिछड़े हुए पूँजीवादी देशों के बीच के अन्तरविरोध ही प्रमुखता से कायम रहेंगे और यह कि साम्राज्यवादी देश पिछड़े देशें में जारी लूट के दम पर अपने देश में वर्ग-अन्तरविरोधों को विलुप्त प्राय कर देंगे। अगर अर्थशास्त्रीय पेचीदगियों को छोड़ भी दिया जाये तो 2006 के बाद जी-20 का अस्तित्व में आना; भारत, चीन, ब्राजील जैसे विकासशील देशों का लगातार विकसित देशों द्वारा अपनी बढ़ती हुई शक्तिमत्ता का एहसास कराया जाना और इन साम्राज्यवादी देशों के भीतर लगातार तीखे होते हुए वर्ग-अन्तरविरोधों का अभिव्यक्त होना; क्या यह सब किसी एक साम्राज्यवादी देश की पूरी दुनिया पर एकछत्र चौधराहट पर सवालिया निशान नहीं खड़ा कर रहा है? काऊत्स्की की अति-साम्राज्यवाद की थीसिस पहले भी ग़लत सिद्ध हो चुकी है और एक बार फिर हो रही है। इसके बारे में लेनिन ने पहले ही कहा था कि ‘‘…एक विश्व-ट्रस्ट के अस्तित्व में आने के काफ़ी पहले ही, राष्ट्रीय वित्तीय पूँजियों के ‘‘अतिसाम्राज्यवादी’’, विश्वव्यापी संलयन के घटित होने से काफ़ी पहले ही, साम्राज्यवाद अनिवार्य रूप से फट पड़ेगा और पूँजीवाद अपने विपरीत में रूपान्तरित हो जायेगा।”

लेकिन जाहिर है कि यह अपने आप नहीं होगा। जब तक क्रान्ति के विज्ञान, रणनीति और आम रणकौशलों की सही समझदारी से लैस एक क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद नहीं होगी तब तक यह अपने आप नहीं हो सकता। आज क्रान्ति की सम्भावना रखने वाले देशों में एक ऐसे हिरावल की अनुपस्थिति ही हमारे सामने मौजूद सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या का हल निकाले बग़ैर हम आगे नहीं बढ़ सकते।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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