कैम्पसों का बदलता वर्ग चरित्र और छात्र-युवा आन्दोलन की चुनौतियाँ
सम्पादक
पिछले दो दशकों के दौरान देश के कैम्पसों में एक चुप्पी छायी रही है। कहीं भी वास्तविक मुद्दों को लेकर कोई बड़ा छात्र आन्दोलन नहीं हुआ है और एक सन्नाटा पसरा रहा है। हालाँकि संघर्ष के मुद्दों में कहीं कोई कमी आने की बजाय लगातार बढ़ोत्तरी ही हुई है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में मानव संसाधन मन्त्रालय की आम नीति के तहत लगातार सीटों में कमी की गयी है और फ़ीसों में वृद्धि की गयी है। सीटों में कमी निरपेक्ष रूप में नहीं बल्कि कुल उच्चतर शिक्षा के योग्य नौजवान आबादी की तुलना में हुई है। ऐसे में इस बात की जाँच-पड़ताल प्रासंगिक हो गयी है कि इस चुप्पी के पीछे कौन–से कारण काम कर रहे हैं। हमारा नज़रिया तथ्यों से सत्य के निवारण का होना चाहिए। इसलिए इससे पहले कि कोई परिणाममूलक बात कही जाये, उच्चतर शिक्षा से जुड़े कुछ आँकड़ों पर निगाह डाल लेना उपयोगी होगा।
भारत दुनिया भर में विश्वविद्यालयों की भारी संख्या और स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों की भारी संख्या के लिए जाना जाता है। इस बात का काफ़ी प्रचार पिछले दशक के दौरान किया गया है कि भारत में स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों की आबादी काफ़ी ज़्यादा है। लेकिन इस बात में बहुत दम नहीं है। संख्या के अधिक या कम होने का फैसला कुल उच्चतर शिक्षा योग्य आबादी के साथ उच्चतर शिक्षा तक पहुँच पाने वाली आबादी के अनुपात से होना चाहिए। और ऐसे समय में जब सरकार ख़ुद कहती है कि पारम्परिक उच्चतर शिक्षा का ‘सिग्नलिंग इफ़ेक्ट’ ख़त्म हो गया है, यानी रोज़गार आदि के लिहाज़ से उसका कोई मूल्य नहीं रह गया है और अब पेशेवर पाठ्यक्रमों और वोकेशनल पाठ्यक्रमों का ही रोज़गार आदि की दृष्टि से कोई मतलब रह गया है, तो यह बात सोचने की है उच्चतर शिक्षा योग्य आबादी का कितना प्रतिशत हिस्सा इन पेशेवर पाठ्यक्रमों और वोकेशनल पाठ्यक्रमों में दाख़िला लेने की कूव्वत रखता है। कुछ बड़े और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाये तो पारम्परिक उच्चतर शिक्षा, यानी बी.ए.-एम.ए.-बी.एससी–एम.एससी. जैसे पाठ्यक्रमों का स्तर काफ़ी नीचे गिरा है और वे रोज़गारोन्मुख नहीं रह गये हैं। आई.आई.टी. और मेडिकल तक पहुँच पाने की हैसियत सिर्फ़ उच्च-मध्यवर्ग और उच्च वर्ग की ही है। भारतीय प्रबन्धन संस्थान जैसी जगहों पर तो उच्च-मध्यवर्ग भी बड़ी मुश्किल से ही पहुँच पाता है और वह पूरी तरह अमीरज़ादों की बपौती बना हुआ है। इनमें जाने वाले धनी छात्रों का सपना भारत में रहना होता ही नहीं है और उनकी पूरी शिक्षा ही इस तरह से होती है जो उनके बाहर जाने का रास्ता साफ़ करे। दूसरी तरफ़ विश्वविद्यालय कैम्पसों का भी तेज़ी से कुलीनीकरण हो रहा है। पुरानी पारम्परिक उच्चतर शिक्षा को भी कुछ वर्गों का विशेषाधिकार बनाये जाने की प्रक्रिया 1986 की नयी शिक्षा नीति के बाद, और ख़ास तौर पर भूमण्डलीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से तेज़ी से चलायी जा रही है। यह बात कुछ आँकड़ों से ही साफ़ हो जाती है।
2005 के मध्य तक भारत में 342 विश्वविद्यालय थे जिनमें से 18 केन्द्रीय विश्वविद्यालय, 211 राज्य विश्वविद्यालय, 95 मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय, राज्य कानून के तहत स्थापित 5 संस्थान और राष्ट्रीय महत्व के 13 संस्थान हैं। कॉलेजों की संख्या उसी समय तक 17,625 थी जिसमें से 5,386 विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। इन संस्थाओं में 104.81 लाख छात्र पढ़ रहे हैं। यह पिछले वर्ष के छात्रों की संख्या से अधिक है। निरपेक्ष रूप में तो उच्चतर शिक्षा में छात्रों की संख्या बढ़ी है, लेकिन उच्चतर शिक्षा के योग्य आबादी के हिस्से के तौर पर यह संख्या घटी है। भारत में उच्चतर शिक्षा के योग्य आबादी के महज 7 फ़ीसदी हिस्से को ही उच्च शिक्षा प्राप्त है जो विकसित देशों के मानकों के सामने बहुत ही कम है जहाँ यह आँकड़ा 25 फ़ीसदी के ऊपर ही रहता है। उच्चतर शिक्षा पर सरकार के ख़र्च में भी लगातार कमी आयी है। 1970 के दशक में उच्चतर शिक्षा पर सरकार का ख़र्च सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 1 प्रतिशत था जो 1990 के दशक में घटकर 0.35 प्रतिशत रह गया। दूसरी तरफ़ अब उच्चतर शिक्षा पर होने वाले ख़र्च का बड़ा हिस्सा छात्रों की जेब से ही वसूला जा रहा है। 1983 में, यानी नयी शिक्षा नीति के लागू होने से पहले, उच्चतर शिक्षा पर ख़र्च का 80 प्रतिशत हिस्सा सरकार दे रही थी और छात्रों से महज ट्यूशन शुल्क ही ले रही थी। 1999 में यह प्रतिशत घटकर 67 प्रतिशत रह गया। दूसरी तरफ़ छात्रों की जेब से 1988 में जितना वसूला जा रहा था वह 2004 तक 10.8 गुना बढ़ गया। साफ़ है कि सरकार लगातार शिक्षा को स्ववित्तपोषित बना रही है। यानी, सीधे शब्दों में कहा जाये तो शिक्षा को एक बिकाऊ माल बना रही है। जिसकी औक़ात हो वह शिक्षा ख़रीद ले! नतीजा यह हुआ है कि पिछले दो दशकों में उच्चतर शिक्षा तक निम्न और निम्न-मध्यवर्गों की पहुँच लगातार घटती गयी है। विश्वविद्यालय कैम्पसों का पूरा वर्ग चरित्र भारी परिवर्तन से होकर गुज़रा है और यह प्रक्रिया अभी ख़त्म नहीं हुई है।
दूसरी तरफ़ इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे पेशेवर शिक्षा संस्थानों से भी सरकार ने लगातार अपने हाथ खींचे हैं। 1960 में इंजीनियरिंग की शिक्षा में सिर्फ़ 15 प्रतिशत सीटें प्राईवेट इंजीनियरिंग कॉलेजों में थीं। 2004 में यह आँकड़ा बढ़कर 86.4 प्रतिशत हो गया। मेडिकल शिक्षा में 1960 में सिर्फ़ 6.8 प्रतिशत सीटें ही प्राईवेट थीं जबकि यह 2004 में बढ़कर 40.9 प्रतिशत हो गयीं। प्रबन्धन संस्थानों में पहले ही निजी सीटों की संख्या कुल सीटों के 90 प्रतिशत है। इन आँकड़ों से साफ़ है कि सरकार दोनों ही क़िस्म की शिक्षा में, यानी पारम्परिक विश्वविद्यालय आधारित उच्चतर शिक्षा और मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबन्धन जैसी पेशेवर उच्चतर शिक्षा, लगातार निजीकरण कर रही है, लगातार उसे एक बाज़ारू माल बना रही है, और लगातार ऐसी स्थिति पैदा कर रही है कि निम्न-मध्यवर्ग, आम मध्यवर्ग के लड़के-लड़कियाँ उच्चतर शिक्षा तक पहुँच ही न पायें।
इसके पीछे मक़सद बिल्कुल साफ़ है। सरकार स्वयं ही यह कह रही है कि अब विकास रोज़गारविहीन विकास होगा और रोज़गार पैदा करना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है। ऐसे में अगर आम आबादी के छात्र भारी संख्या में स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्रियाँ लिये सड़क पर चप्पलें फटकायेंगे तो उनके दिलों में व्यवस्था के प्रति ग़ुस्सा कहीं अधिक होगा और उनकी बग़ावती भावना व्यवस्था के लिए ख़तरनाक सिद्ध हो सकती है। इसलिए सबसे बेहतर होगा कि ऐसे छात्रों को विश्वविद्यालय कैम्पसों तक पहुँचने ही न दिया जाय। न वे उस मंज़िल तक पहुँचेंगे और न ही रोज़गार आदि के बारे में वैसे सपने पालेंगे। उन्हें पहले ही कुण्ठित कर दिया जाय तो किसी उथल-पुथल भरी स्थिति को पैदा होने से रोका जा सकता है। उनको भरमाने-फुसलाने-बहलाने के लिए बिड़ला-अम्बानी कमेटी ने एक नया शोशा उछाला। उन्होंने मूल्य-आधारित शिक्षा की बात की। एन.सी.ई.आर.टी. के नेशनल फ्रेमवर्क फ़ॉर करिकुलम नामक अपने दस्तावेज़ में इस कमेटी ने इस बात की सिफ़ारिश की कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही छात्रों को वर्ग और क्षमता के आधार पर वर्गीकृत कर दिया जाना चाहिए और आगे की शिक्षा की दिशा इसी वर्गीकरण के आधार पर तैयार होनी चाहिए। यानी स्कूली शिक्षा के दौरान ही औक़ात के हिसाब से यह तय कर दिया जाना चाहिए कि कौन उच्चतर शिक्षा तक पहुँच सकता है। जो पहुँच सकते हैं, यानी जो बढ़ती फ़ीसों को चुकाने की औक़ात रखते हैं वे कैम्पसों तक पहुँचेंगे और बाक़ी के लिए कमेटी ने तकनीकी शिक्षा की वकालत की। यानी बाक़ियों के लिए आई.टी.आई. और पॉलीटेक्निक। जो उनमें भी न पहुँच सकें वे दसवीं या बारहवीं के बाद देश की कुशल-अर्द्धकुशल मज़दूर आबादी में शामिल हो जायें और जो इतना भी न कर पायें वे देश की बेरोज़गारों की फ़ौज में शामिल हो जायें, क्योंकि अम्बानी और बिड़ला को यह फ़ौज भी चाहिए। अम्बानी-बिड़ला कमेटी ने विश्व बैंक की 2004 की रिपोर्ट के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि सरकार को उच्चतर शिक्षा से विनिवेश करके प्राथमिक शिक्षा में निवेश करना चाहिए क्योंकि यह सामाजिक विषमता को कम करेगा। सबसे अहम सवाल तो यह है कि शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत निवेश करने का वायदा करने वाली सरकार यह निवेश 3 से 4 प्रतिशत के बीच ही करती है। ऐसे में यदि शिक्षा में निवेश 6 प्रतिशत किया जाय तो प्राथमिक शिक्षा में निवेश उच्चतर शिक्षा की क़ीमत पर नहीं करना पड़ेगा। लेकिन यह उम्मीद करना ही बेकार है क्योंकि सरकार को उच्चतर शिक्षा को एक विशेषाधिकार बनाना है। यह तर्क भी सच्चाइयों से कहीं मेल नहीं खाता है कि उच्चतर शिक्षा के कारण प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा हो रही है। सच्चाई यह है कि शिक्षा पर कुल ख़र्च का सिर्फ़ 10 प्रतिशत ही उच्चतर शिक्षा पर ख़र्च होता है। 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध में यह आँकड़ा 15 प्रतिशत था। तो उच्चतर शिक्षा पर तो सरकार वैसे ही कम ख़र्च कर रही है। अब इसे ख़र्च को नगण्य बनाने की तरफ़ क़दम बढ़ाए जा रहे हैं ताकि आम घरों के लड़के-लड़कियों को कैम्पस पहुँचने से रोका जा सके।
एक और परिघटना जो उच्चतर शिक्षा जगत में घटित हो रही है वह है शिक्षा का अनौपचारिकीकरण। एक ओर तो नियमित छात्रों की संख्या में लगातार कटौती की जा रही है और वहीं दूसरी ओर पत्रचार, बाह्य शिक्षा आदि में सीटों को लगातार बढ़ाया जा रहा है। तमाम विश्वविद्यालयों के पत्राचार विभाग में छात्रों का दाख़िला लगातार बढ़ा है। नौजवानों को बताया जाता है कि बी.ए. और एम.ए. से तो कुछ मिलता नहीं है, लेकिन अगर तुम पढ़ना ही चाहते हो तो पत्राचार में दाख़िला ले लो, और साथ में कम्प्यूटर, हार्डवेयर आदि सीख लो। या सीख चुके हो तो नौकरी कर लो और साथ में पत्राचार से स्नातक या स्नातकोत्तर हो जाओ। यह रास्ता काफ़ी सुगम भी लगता है। देश के सबसे बड़े पत्राचार विश्वविद्यालय इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में छात्रों की बढ़ती संख्या से ही इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है। 1987 में इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में महज 4,000 छात्र थे। 1998 में यह संख्या 1,60,000 पहुँच चुकी थी और फ़िलहाल यह 13,11,145 है। लेकिन साथ ही, 2006 में इग्नू में बी.ए. में सिर्फ़ 5 प्रतिशत छात्र ही पास हो पाये। यानी, इसमें भी व्यवस्था और पाठ्यक्रम कुछ ऐसे बनाया गया है कि बेहद कम छात्र ही पास हो सकें। यानी लोगों को उच्चतर शिक्षा की हवामिठाई! स्नातक छात्रों की संख्या में कोई ख़ास बढ़ोत्तरी भी नहीं और कोई कैम्पस खड़ा करने का झंझट भी नहीं!
लेकिन शिक्षा के इस “पत्राचारीकरण” में इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि छात्रों को एक जगह बड़ी संख्या में एकजुट होने से रोका जा रहा है। पत्राचार के छात्रों का कोई कैम्पस नहीं होता और न ही नियमित तौर पर वे किसी एक स्थान पर मिलते हैं। ऐसे में उनको गोलबन्द और संगठित किये जाने के रास्ते में एक बाधा खड़ी करने में सरकार सफल हो जाती है। जिस तरह उद्योगों के अनौपचारिकीकरण के द्वारा बड़ी कारख़ाना इकाइयों को तोड़कर छोटी-छोटी इकाइयाँ बनाई जा रही हैं उसी तरह छात्रों के भी नियमित कैम्पसों को ख़त्म करके पत्राचार शिक्षा का खेल खेला गया है। मज़दूर अब बड़ी संख्या में कारख़ानों में इकट्ठा नहीं होते और नतीजतन उन्हें यूनियनों में संगठित करके लड़ने की सम्भावना कम होती जा रही है। कारख़ाना-केन्द्रित आर्थिक संघर्षों का स्कोप कम से कम होता जा रहा है। एक दूसरे रूप में कैम्पस आधारित लड़ाइयों की ज़मीन भी तेज़ी से ख़त्म हो रही है। पत्राचार में पढ़ने वाले छात्रों की वर्ग चेतना भी एक जगह एकजुट न होने के कारण कुन्द होती जाती है।
जैसाकि हम पहले भी कह चुके हैं, कैम्पसों तक अब आम घरों के युवाओं को पहुँचने से रोका जा रहा है। पिछले दो दशकों में बढ़ती फ़ीसों और घटती सीटों के कारण उच्चतर शिक्षा तक आम मध्यवर्ग की पहुँच भी काफ़ी कम हुई है। दूसरी ओर, अगर कोई आम मध्यवर्ग का आदमी उतने पैसे ख़र्च करना भी चाहता है तो वह तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अपने बच्चे को कोचिग दिलाने पर, या किसी पेशेवर या वोकेशनल कोर्स में दाख़िला दिलाने पर ख़र्च करता है। ऐसे में कैम्पस नवधनाढ्यों और नवकुलीनों का अड्डा बनता जा रहा है। पूरे कैम्पस का वर्ग चरित्र तेज़ी से बदल रहा है। ऐसा नहीं है कि आम मध्यवर्ग बिल्कुल ही कैम्पस नहीं पहुँच पा रहा है। शिक्षण आदि जैसे कुछ पेशे हैं जिनके लिए अभी भी पारम्परिक उच्चतर शिक्षा की ही आवश्यकता पड़ती है और ऐसे पेशों के लिए आम घरों के युवा अभी भी कैम्पस में दाख़िले के लिए संघर्ष करते रहते हैं और उनमें से कुछ पहुँच भी जाते हैं। साथ ही प्रशासनिक सेवाओं के लिए भी स्नातक होना ज़रूरी होता है। लेकिन अब उसके लिए भी आम मध्यवर्ग के लिए विश्वविद्यालयों के दरवाज़े बन्द किये जा रहे हैं। उसके पूरी तरह बन्द होने से पहले जो कैम्पस में प्रवेश कर गया वो कर गया। लेकिन बहुत जल्दी ही एक ऐसी स्थिति पैदा होने जा रही है कि जब कैम्पसों में और ख़ास तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, आदि जैसे कैम्पस में आम जनता अल्पसंख्यक की स्थिति में पहुँच जायेगी। अभी भी आम घरों से जाने वाले युवाओं की संख्या कोई बहुत ज़्यादा नहीं है। इस तरह से कैम्पस में आने वाले समय में वही आबादी पहुँच पायेगी जो उच्चतर शिक्षा की क़ीमत चुकाने की औक़ात रखेगी।
यही कारण है कैम्पस राजनीति के एम.एल.ए.-एम.पी. बनने के प्रशिक्षण केन्द्र बनने की ज़मीन और अच्छी तरह से तैयार हो गयी है। कैम्पस में जो वर्ग पहुँच रहा है उसकी राजनीति यही है। जो वर्ग क्रान्तिकारी राजनीति का एक मॉडल कैम्पस में खड़ा कर सकता था उसे कैम्पस में पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा है। कैम्पस में लम्पट क़िस्म की छात्र राजनीति और गुण्डागर्दी बढ़ने का सबसे बड़ा कारण यही है – कैम्पसों को बदलता वर्ग चरित्र। नवधनाढ्यों और नवकुलीनों की जो आबादी कैम्पस में आ रही है उसका एक प्रमुख हिस्सा इस या उस चुनावी पार्टी के लग्गू-भग्गू के साथ जुड़कर संसद-विधानसभाओं में पहुँचने की तैयारी में लगेगा। इन छात्रों में तथाकथित वामपन्थी और सामाजिक जनवादी शिक्षकों के प्रभाव में आकर बौद्धिक विलास करने वाला एक हिस्सा भी होगा जो कैम्पस को एन.जी.ओ. की राजनीति का केन्द्र बनायेगा क्योंकि वर्ग चरित्र में आये भारी परिवर्तन के बावजूद कैम्पस में आम जनता के कुछ बेटे-बेटी पहुँचते रहेंगे और साथ ही धनिक वर्गों से आने वाले कुछ नौजवान भी अपने वर्ग को त्यागकर देश की आम जनता की लड़ाई में उनके साथ खड़े होंगे। ऐसे नौजवानों को आमूल-चूल परिवर्तन वाली क्रान्तिकारी राजनीति से जुड़ने से रोकने के लिए कुछ गरम-गरम और जनपक्षधर प्रतीत होने वाली दुकानें भी खोलनी ही पड़ेंगी। साथ ही ऐसे नौजवानों की वर्ग कमज़ोरियों को बढ़ावा देने वाली बातें कहते रहने के लिए एन.जी.ओ. राजनीति सबसे उपयुक्त होती है। यह कहती है कि समाज बदलना है तो एन.जी.ओ. में आओ, समाज परिवर्तन का समाज परिवर्तन भी हो जायेगा, जनता के आदमी भी कहाओगे और ठीक-ठाक वेतन भी पाओगे। इन्क़लाबों का युग बीत गया; वह महाख्यानों का युग था। अब पैबन्दसाज़ी का युग है। वर्ग की बात करने का आजकल फ़ैशन नहीं है; जेण्डर की बात करो, जाति की बात करो, एथ्नीसिटी की बात करो, राष्ट्रीयता की बात करो, भाषाई अस्मिता की बात करो, वगैरह। इनकी अस्मिताओं को अखण्डित रखो और इन खण्डों का जश्न मनाओ! वैसे तो एन.जी.ओ. राजनीति एक अलग चर्चा का विषय है, लेकिन यहाँ इतना कह देना ही काफ़ी है कि इसका असल मक़सद जनता के संघर्षों को सुधारवादी और अस्मितावादी राजनीति के गड्ढे में गिरा देना और वर्ग आधारित एकता क़ायम होने से रोकना है।
कैम्पसों में जनवादी स्पेस के सिकुड़ते जाने की वजहें भी कैम्पस के वर्ग चरित्र में आने वाले परिवर्तन से जुड़ी हुई हैं। कैम्पसों में जनवाद उसमें मौजूद आंतरिक वर्ग अन्तरविरोधों के कारण पैदा होता है। कैम्पस में आने वाले विभिन्न वर्गों की नुमाइन्दगी करने वाली राजनीतियों के बीच वर्चस्व के लिए संघर्ष ही इस जनवाद को पैदा करता है। लेकिन अगर कैम्पस में आम जनता के बीच से नौजवान पहुँचेंगे ही नहीं तो ज़ाहिर है कि कैम्पस में पहुँचने वाले धनिक वर्गों के लोगों की राजनीति को चुनौती देने वाली कोई ताक़त संगठित नहीं हो पायेगी और चुनावी राजनीति का ही एकछत्र राज्य होगा। नतीजतन, जनवादी स्पेस क़ायम रखने की कोई मजबूरी नहीं होगी। यही कारण है कि पिछले दो दशकों के दौरान कैम्पसों में जनवादी स्पेस तेज़ी से कम हुआ है।
तो सरकार एक ही तीर से कई शिकार कर रही है। नियमित कैम्पसों से छात्रों की छँटाई की जा रही है। आम घरों के युवाओं को अब कैम्पस में पहुँचने नहीं दिया जा रहा है। और साथ ही लोगों का ग़ुस्सा फूट न पड़े उसके लिए उनके हाथ में पत्राचार शिक्षा का लॉलीपॉप थमाया जा रहा है। इन दोनों के ज़रिये दरअसल कैम्पस को फिर से नये आन्दोलनों की ज़मीन बनने से रोका जा रहा है, ठीक उसी तरह जैसे कारख़ानों को संघर्षों की ज़मीन बनने से रोका जा रहा है। जो दो ताक़तें नये परिवर्तन के ज्वार को लाने में नेतृत्वकारी भूमिकाएँ निभाने वाली हैं उनको गोलबन्द और संगठित करने में व्यवस्था ने बेहद सोचे-समझे तरीक़े से नयी चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।
लेकिन यह समय इन चुनौतियों के सामने घुटने टेक देने और नाउम्मीद हो जाने का नहीं है। हमें अपनी सचेतनता का इस्तेमाल करके नकारात्मक को सकारात्मक में बदलना सीखना होगा। यह सच है कि कैम्पस में अलग से किसी छात्र आन्दोलन की ज़मीन ख़त्म होती जा रही है। यह सच है कि कैम्पस का वर्ग चरित्र गुणात्मक रूप से बदला है। यह सच है कि अब आम मध्यवर्ग के युवा भी कैम्पस मुश्किल से ही पहुँच पा रहे हैं। यह भी सच है कि शिक्षा के अनौपचारिकीकरण के कारण छात्रों को एक जगह बड़ी संख्या में एकजुट होने से रोककर सरकार छात्रों के बीच एक वर्ग एकजुटता की भावना पैदा होने से रोकने में तात्कालिक रूप से सफल हो गयी है। लेकिन इन सब से निराश होने की बजाय इन नकारात्मकों को सकारात्मकों में तब्दील करने के बारे में सोचा जाना चाहिए।
मज़दूरों के बीच भी संगठन का काम मुश्किल हो गया है। क्योंकि उन्हें भी अब एक जगह बड़ी संख्या में एकजुट नहीं होने दिया जा रहा है। लेकिन इसका सीधा जवाब यह है कि मज़दूरों को संगठित करने के लिए अब कारख़ानों से बस्तियों की ओर चला जाये। और फिर बस्तियों से कारख़ानों की ओर आना होगा। कारख़ाना केन्द्रित आर्थिक संघर्षों का एक नकारात्मक यह होता था कि यह मज़दूरों की निगाह में सिर्फ़ एक मालिक को दुश्मन बनाता था और मज़दूरों की बस्तियों में राजनीतिक माँगों को लेकर होने वाला संघर्ष किसी एक मालिक नहीं बल्कि पूरे मालिक वर्ग और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर देता है। तो मज़दूरों के बीच कामों की मुश्किलों के नकारात्मक को ठोस परिस्थितियों के विश्लेषण के आधार पर नयी योजनाएँ बनाकर सकारात्मक में तब्दील किया जा सकता है। ठीक उसी तरह छात्रों-युवाओं को संगठित करने के कामों की मुश्किलों को भी सकारात्मक में बदला जा सकता है। यह सच है कि आज अलग से कोई छात्र आन्दोलन सम्भव नहीं है। तो आज हमें करना क्या होगा?
आज हमें सिर्फ़ छात्र आन्दोलन के बारे में नहीं बल्कि छात्र-युवा आन्दोलन के बारे में सोचना होगा। हमें कैम्पसों के बाहर पड़ी उस विशाल युवा आबादी को जोड़ना होगा जो बेरोज़गार घूम रही है, छोटे-मोटे काम कर रही है, छोटी-मोटी प्रतियोगी परीक्षाएँ दे रही है, या ज़िन्दगी की कोई राह तलाश रही है। ऐसी नौजवान आबादी को संगठित करने के लिए हमें निम्न-मध्यवर्गीय कालोनियों, बस्तियों में जाना होगा और उनके बीच सांस्कृतिक कार्य करते हुए, वहाँ के नागरिक अधिकारों को लेकर लड़ते हुए, सुधार कार्य करते हुए, दमन-उत्पीड़न के तमाम रूपों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए उन्हें गोलबन्द और संगठित करने का काम करना होगा। हमें उनके बीच रहते हुए उनमें अन्धविश्वासों, रूढ़ियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना होगा और उनके बीच तार्किकता का प्रचार करना होगा। साथ ही हमें उनके रोज़मर्रा के संघर्षों में उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ना होगा। इसके अतिरिक्त, हमें लगातार उनके बीच राजनीतिक प्रचार करना होगा और विकल्प की बात करनी होगी। हमें उनके बीच संगठन बनाने होंगे और उनके बीच एक वर्ग एकजुटता क़ायम करनी होगी।
लेकिन हमें कैम्पस को छोड़ नहीं देना होगा। वहाँ हमें आम मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग के उन तमाम युवाओं को संगठित करना होगा जो किसी तरह कैम्पस में पहुँच पा रहे हैं। इसके साथ ही हमें उच्च और खाते-पीते मध्यवर्ग के उन नौजवानों को भी खोजना होगा जो इस हद तक संवेदनशील और न्यायप्रिय हैं कि अपने वर्ग हितों का त्याग करके अपने सपनों और आकांक्षाओं को इस देश की उस बहुसंख्यक आम मेहनतकश आबादी के सपनों और आकांक्षाओं के साथ जोड़ सकते हैं, जो उनके अस्तित्व की भी हर शर्त को पूरा कर रही है लेकिन जो उनकी तरह अपने बच्चों को कॉलेजों-कैम्पसों में नहीं भेज सकती। हमारा मानना है कि हमारे देश ने ऐसे नौजवानों को पैदा करना अभी बन्द नहीं किया है। और भारत में इन्क़लाब के किसी भी प्रोजेक्ट की तैयारी में आज शुरुआती दौर में ऐसे नौजवानों की बेहद ज़रूरत है जो सक्षम संगठनकर्ता की भूमिका को निभा सकें; जिनके पास इतिहास, समाज और विज्ञान का ज्ञान हो। ऐसे में कैम्पस से आने वाले, अपने वर्ग से अलग होकर मेहनतक़श वर्गों के पक्ष में आकर खड़े होने वाले इन युवाओं की एक ख़ास भूमिका बन जाती है। ऐसे छात्रों को हमें लगातार कैम्पस में जोड़ना होगा और उन्हें लेकर मज़दूर बस्तियों, निम्न-मध्यवर्गीय कालोनियों, कारख़ाना गेटों आदि पर जाना होगा और शहीदे-आज़म भगतसिह के उसी सन्देश पर अमल करना होगा कि आज देश के छात्रों-युवाओं को क्रान्ति के सन्देश को लेकर इस देश की मज़दूर बस्तियों, गाँव की जर्जर झोंपड़ियों, कारख़ानों आदि में जाना होगा। कैम्पस में और उसके बाहर भी, छात्र-युवा आन्दोलन की केन्द्रीय माँग आज एक ही हो सकती है – ‘सबको समान एवं निःशुल्क शिक्षा और सबको रोज़गार।’ इससे कम हम किसी माँग को भी सुधारवादी और उदारवादी मानते हैं। इस मुद्दे पर होने वाला संघर्ष ही हमें आगे की राह दिखायेगा। इस माँग पर छात्र-युवा आन्दोलन ही हमें और बुनियादी मुद्दों तक लेकर जायेगा। आज के समय का सही संघर्ष इसी माँग को लेकर हो सकता है।
यह सच है कि यह माँग इस व्यवस्था के भीतर रहते पूरी नहीं हो सकती है। लेकिन इस बात को व्यापक छात्र-युवा आबादी व्यवहार से ही समझ सकेगी। छात्रों-युवाओं के बीच के उन्नत तत्व तो शुरू से ही उस व्यापक संघर्ष की तैयारी में लग जायेंगे जो इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ है, लेकिन आम छात्र-युवा आबादी शिक्षा और रोज़गार के मुद्दे को लेकर संघर्ष करते हुए ही इस सच्चाई को समझ सकती है कि इस व्यवस्था की चौहद्दियों के भीतर रहते हुए इस सबको शिक्षा और सबको रोज़गार की माँग पूरी नहीं हो सकती।
इसलिए हमें कुछ बातों को नुक़्तेवार समझ लेना होगा। एक, आज सिर्फ़ छात्र आन्दोलन की सम्भावनाएँ कैम्पस का वर्ग चरित्र बदलने के कारण नगण्य हो गयी हैं। दो, आज हमें कैम्पस के बाहर मौजूद व्यापक आम युवा आबादी को गोलबन्द और संगठित करना होगा और एक युवा आन्दोलन को खड़ा करके उसे छात्र आन्दोलन से जोड़ना होगा। तीन, आज छात्र-युवा आन्दोलन की केन्द्रीय माँग सबको समान एवं निःशुल्क शिक्षा व सबको रोज़गार ही हो सकता है। चार, इस पूरी प्रक्रिया में हमें बुर्जुआ चुनावी राजनीति और एन.जी.ओ. राजनीति को बेनक़ाब करना होगा और उससे दूर रहना होगा। इन नुक़्तों पर अमल करके ही हम कैम्पसों के बदलते वर्ग चरित्र के कारण उपस्थित चुनौतियों का मुक़ाबला कर सकते हैं और सामाजिक बदलाव के नये झंझावाती संस्करण रच सकते हैं।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जनवरी-मार्च 2007
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