पाठक मंच

आह्वान विचारोत्तेजक है।

ललित कुमार दक, उदयपुर, राजस्थान

राजस्थान विश्वविद्यालय (जयपुर) के बाहर दो युवा साथियों (भूलवश नाम याद नहीं) के आत्मीय वार्तालाप द्वारा (ताः 20/12) आह्वान से परिचित हुआ। दोनों साथियों को धन्यवाद कि उन्होंने मेरे वैचारिक स्तर को बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण पत्रिका से परिचित कराया।

पत्रिका के मुख पृष्ठ के अन्दर छपा एदुआर्दो खालीआनो का कथन पसन्द आया जो वर्तमान व्यवस्था पर सटीक टिप्पणी है। अमरकान्त की कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ कई दिनों से पढ़ने की इच्छा थी। बेरोज़गार युवा मन और उसके परिवार की दशा पर लिखी बहुत मार्मिक कहानी है, ‘डिप्टी कलक्टरी’। सभी समसामयिक लेख अच्छे लगे जो बहुत से भ्रमों और शंकाओं को तोड़ते हैं।

 

(1)

मैं असभ्य हूं, और

सभ्यता की परिभाषा में

मुझे माना गया, एक पेड़

सख़्त, बेकार, निष्ठुर।

मुझे हमेशा छला गया

इसलिए मैं छँटता रहा

छँटने से मेरा तन बढ़ता रहा

उनकी मज़बूती के दायरे तक।

अचानक एक रोज़

सभ्य समाज के दरवाज़ों एवं

खिड़कियों के लिए

मुझे कटना पड़ा

जो तय था

मेरे पोषण के साथ

(2)

सभ्य और असभ्य के बीच

एक ही कार्य का होना

तय करता है

एक का बड़प्पन और

एक का बौनापन

एक का अधिकार और

दूसरे का भाग्य

उनका गाड़ियों में घूमना और

हमारा बनाना

उनका लज़्ज़तदार खाना और

हमारा उगाना

उनका जूते पहनना और

हमारा चमकाना

साथ ही इस सदी का

सबसे भयावह सच

उनका रेशम पर सोना और

हमारा जगते रहना

ताकि जागकर हम

उनकी रेशमी नींद के शत्रुओं का

मुकाबला कर सकें।

 

 

 

आह्वान

 चन्देश्वर यादव, लखनऊ

सो रहा जहाँ, सो रहा युवक

थम गयी क्रान्ति वीरों की।

सपने ही बस सपने अब तक,

है युवक सो रहा सपनों में।

वीरों की बलि सब भूल गए,

हैं सिमट चुके सब आँगन में।

इच्छा सीमित, कदम थम गये।

क्या रजनी विस्तार कर गयी।

हुआ नहीं यदि ऐसा कुछ,

तो क्यों विप्लव मशाल बुझ रही।

जीने से मरना बेहतर है,

यदि स्वतन्त्रता बस नाम रह गयी।

क्या बची नहीं ताकत हममें,

उनके सपने देदीप्यमान करें।

बेहतर होगा हम मर जाएँ,

या वीरों जैसा कुछ काम करें।

आज़ाद, भगत, बटुकेश्वर,

बिन चिन्ता सब कुछ झेल गए।

उनकी यादें न सँजो सके,

शायद हम इतने भीरु हुए।

पूर्ण स्वतन्त्रता मिली कहाँ,

नवयुवकों नया इंकलाब करो।

नयी दिशा के सृजन हित,

नवयुवकों फ़िर से क्रान्ति करो।

भारत माता आवाज दे रहीं, इंकलाब करो, इंकलाब करो।

 

 

 

हमें तो साथ चलना है

गौरव, दिल्ली

हमें तो साथ चलना है

हमें तो साथ चलना है

इस लूट और शोषण के विरुद्ध

नया युद्ध लड़ना है

मिटा के पूंजी का राज हमें

नया समाज रचना है

हमें तो साथ चलना है

हमें तो साथ चलना है

जात-पात की ज़ंजीरों ने हमें जकड़ रखा है

गले-सड़े रीति-रिवाजों ने हमें पकड़ रखा है

तोड़ के ज़ंजीरे और दीवारें हमें

नया मानव गढ़ना है

हमें तो साथ चलना है

हमें तो साथ चलना है

नौकरी का पड़ा अकाल,

पढ़े-लिखे हुए बेकार

बढ़ रही है मंहगाई और

शिक्षा हो गई व्यवसायी

यही एकमात्र तोड़ है

इस व्यवस्था को पलटना है

हमें तो साथ चलना है

हमें तो साथ चलना है

 

 

 

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2005

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