किस चीज़ का इन्तज़ार है? और कब तक? दुनिया को तुम्हारी ज़रूरत है!

सम्‍पादक

घुटन और बेचैन सुगबुगाहटों से भरे हुए, नयी शताब्दी के दो उनींदे वर्ष बीत चुके हैं। पूरी पृथ्वी पर, यहाँ-वहाँ पूँजी की विनाशकारी रक्तचूषक जकड़बन्दी के विरुद्ध विद्रोहों, संघर्षों और जनान्दोलनों का सिलसिला गत दो वर्षों के दौरान भी, पहले के वर्षों की तरह निरन्तर जारी रहा है, लेकिन इस निरन्तरता में कोई ऐसी गुणात्मक उछाल नहीं आयी है जिससे इतिहास का गतिरोध टूटने का कोई महत्त्वपूर्ण संकेत मिला हो। विश्व-ऐतिहासिक स्तर पर विपर्यय (रिवर्सल) के बाद का गतिरोध अभी क़ायम है। क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर अभी हावी है।

Marching with Flag-21960 के दशक में अफ़्रीकी देशों के राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्षों का जनज्वार पूरी दुनिया को हिला रहा था। आज वही अफ़्रीका शीतनिद्रा की-सी स्थिति में है। लातिन अमेरिका की यह विशेषता है कि वह कभी निश्चल नहीं होता। यह विशेषता शायद उस इतिहास की देन है जिसने उपनिवेशवादियों के सर्वाधिक बर्बर क़त्लेआम से लेकर नवउपनिवेशवादी दौर के सर्वाधिक ज़ालिम तानाशाहों की हुकूमतें देखी हैं। आर्थिक नवउपनिवेशवाद के दौर में उदारीकरण की नीतियों की पहली प्रयोगशाला लातिन अमेरिका रहा है, और इस महाविनाश के ख़िलाफ़ महाबली अमेरिका के ऐन पिछवाड़े इस पूरे महादेश के मज़दूर, किसान और छात्र-युवा लगातार लड़ रहे हैं। लेकिन ये सभी संघर्ष पुराने दौर के संघर्षों की निरन्तरता में ही हो रहे हैं। दुनिया के हालात में, दुश्मन की राजनीति और अर्थनीति में जो अहम बदलाव विगत लगभग डेढ़-दो दशकों के दौरान आये हैं, उनके कारगर प्रतिरोध की नयी सांगोपांग रणनीति लातिन अमेरिकी जनउभारों, विद्रोहों और प्रतिरोध संघर्षों में अभी विकसित नहीं हो सकी है। अरब विश्व में बारूद की ढेरी एकत्र हो चुकी है। इराक़ और फि़लिस्तीन की जनता के साथ पूरी अरब जनता खड़ी है। यह पूरा क्षेत्र साम्राज्यवादी दुनिया के अन्तरविरोधों की गाँठ बन चुका है। आने वाले दिनों में अमेरिका और पूरे पश्चिम की साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध अरब जनता के आक्रोश का प्रचण्ड विस्फ़ोट साम्राज्यवाद को गम्भीर रूप से संकटग्रस्त और कमज़ोर बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। लेकिन अरब दुनिया में आने वाले वर्षों में जो होने वाला है, वह मुख्यतः राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों के दौर के छूटे हुए कुछ कार्यभारों को पूरा करने की प्रक्रिया ही होगी। साम्राज्यवाद के नये दौर के अन्तरविरोध उसके बाद ही वहाँ तीखे होकर एजेण्डे पर आ सकेंगे। इस सच्चाई की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पूँजी के विरुद्ध संघर्षों की अगुवाई करने वाले मज़दूर वर्ग का हरावल दस्ता फि़लहाल अरब जगत में राजनीतिक-सांगठनिक दृष्टि से, अपेक्षाकृत, काफ़ी पिछड़ा हुआ है।

शेष एशिया की स्थिति आज काफ़ी मिली-जुली है। सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में भारी किसान आबादी ने संगठित होकर चीन, वियतनाम, कोरिया, कम्पूचिया आदि देशों में साम्राज्यवाद, उसके पुछल्ले देशी पूँजीपतियों और सामन्तों को आधी सदी पहले ज़बरदस्त शिकस्त दी थी और समाजवाद की दिशा में लम्बे डग भरे थे। लेकिन वहाँ पूँजीवाद की बहाली के बाद आज खुले बाज़ार की नीतियों का स्वर्ग-नर्क (मुट्ठीभर के लिए स्वर्ग और शेष के लिए नर्क) रचने का काम अन्धाधुन्ध जारी है। अमेरिकी गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ उत्तर कोरिया का डटे होना एक सकारात्मक बात है, लेकिन यह मानना होगा कि समाजवादी प्रयोगों की प्रगति वहाँ कभी की रुक चुकी है। आगे आशा की जा सकती है कि अतीत में समाजवादी प्रयोग की नयी दिशा उद्घाटित करने वाले चीन देश में भूमण्डलीकरण के नये अन्तरविरोधों के उग्र होने के साथ ही (और यह प्रक्रिया जारी है), आज जारी जनान्दोलनों और विद्रोहों के बीच से एक नयी क्रान्ति की धारा फ़ूटेगी और अतीत की विकास यात्रा को आगे बढ़ाने वाला हरावल दस्ता फ़िर से संगठित होगा। जो जनता समाजवाद के उन्नत प्रयोग देख चुकी है, वह फ़िर से अपनी उस विरासत को पुनर्जीवित करके अवश्य उठ खड़ी होगी, लेकिन स्थितियों के अध्ययन से यह कहा जा सकता है कि वहाँ अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण का निर्माण निकट भविष्य की चीज़ नहीं है। इण्डोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे सापेक्षतः विकसित उत्पादक शक्तियों वाले देशों से लेकर बर्मा, कम्पूचिया, लाओस जैसे पिछड़े, विभिन्न देशों तक में साम्राज्यवाद और देशी पूँजीपतियों की सत्ता के विरुद्ध अन्तरविरोध तीखे हो रहे हैं, लेकिन किसी आमूलचूल राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के लिए, अलग-अलग इतिहासजन्य कारणों से इन देशों में कोई वास्तविक नेतृत्वकारी केन्द्र अभी संगठित होने की प्रारम्भिक अवस्था में भी नहीं है। फि़लिस्तीन में क्रान्तिकारी जनसेना विगत लगभग आधी सदी से सशस्त्र संघर्ष चला रही है, लेकिन समस्या यह है कि हालात में आये बुनियादी बदलावों पर ग़ौर करने के बजाय वहाँ के सर्वहारा क्रान्तिकारी अभी भी अतीत की क्रान्तियों (विशेषकर चीनी क्रान्ति) की रणनीति एवं रास्ते को ही लागू करने की कोशिश कर रहे हैं और यही उनके संघर्ष के ठहराव का बुनियादी कारण है। नेपाल में दुर्द्धर्ष, अप्रतिरोध क्रान्तिकारी जनयुद्ध अपने देश की परिस्थितियों के हिसाब से मौलिक प्रयोग करता हुआ विगत सात वर्षों से लगातार आगे डग भर रहा है और साम्राज्यवादी देशों से लेकर पड़ोसी भारत की सरकार की तमाम मदद के बावजूद नेपाली शासक वर्ग उसे कुचलने में विफल रहा है। आज विश्वव्यापी प्रतिक्रिया के माहौल में, ख़ासकर पेरू के क्रान्तिकारी संघर्ष के पीछे हटने के बाद, नेपाल की मेहनतकश जनता के इस संघर्ष की विशेष अहमियत है। लेकिन नेपाल एक बेहद पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाला छोटा देश है। वह साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी क्रान्ति (राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति) को अंजाम दे रहा है। आज अफ़्रीका और सब-सहारा के कुछ बेहद पिछड़े, छोटे, विभिन्न देशों को छोड़कर, एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के अधिकांश देश इस दौर को पार कर चुके हैं। इन महाद्वीपों के अधिकांश देश आज, पिछड़े हुए ही सही, लेकिन पूँजीवादी देश बन चुके हैं। यहाँ की व्यापक जनता को भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में, साम्राज्यवाद और अपने देश के सत्तारूढ़ पूँजीपतियों के विरुद्ध एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति करनी है। यह नयी क्रान्ति रूस की अक्टूबर क्रान्ति और चीनी क्रान्ति की वारिस होगी, उनकी अगली कड़ी होगी और पूरी दुनिया में पूँजी और श्रम के बीच के महासमर का अगला चक्र इन नयी समाजवादी क्रान्तियों की धारा के गति पकड़ने के बाद ही शुरू हो सकेगा। तब तक का समय इस महासमर के विगत चक्र और भावी चक्र के बीच का संक्रमण-काल ही होगा, जिस दौरान, मुमकिन है कि अतीत के कुछ छूटे हुए कार्यभार निपटाये जाते रहें। इस दृष्टि से नेपाल की क्रान्ति अपने ऐतिहासिक महत्त्व के बावजूद, प्रवृत्तिनिर्धारक ‘ट्रेण्ड सेटर’ और नवपथान्वेषी, ‘पाथब्रेकिंग़’ नहीं हो सकती।

तीसरी दुनिया (एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका) के जिन भूतपूर्व औपनिवेशिक देशों में, (1) चार–ؘपाँच दशक पहले सत्ता पूँजीपति वर्ग के हाथ में आयी और साम्राज्यवादी लूट के साथ समझौता करके उसने वहाँ (एक रुग्ण, पिछड़ा और विकलांग किस्म का ही सही, लेकिन) पूँजीवादी रूपान्तरण का काम किया, यानी जो आज पिछड़े हुए पूँजीवादी देश बन चुके हैं; (2) पश्चिम के देशों से काफ़ी पीछे होने और साम्राज्यवादी शोषण के बावजूद जिन देशों में उद्योगों का एक आधारभूत ढाँचा विकसित हुआ है; (3) जिनके पास खाने लायक़ अनाज पैदा करने की ज़मीन और कच्चे माल के पर्याप्त स्रोत हैं यानी जिनकी अर्थव्यवस्था वैविध्यपूर्ण (डायवर्सिफ़ायड) है; (4) जो देश क्षेत्रफ़ल और आबादी की दृष्टि से भी यदि बहुत बड़े नहीं तो बहुत छोटे भी नहीं हैं, उन्हीं देशों में नयी शताब्दी में ‘ट्रेण्ड’ सेट करने वाली नयी क्रान्तियों की सम्भावना वस्तुगत रूप से अधिक हो सकती है।

यह आकलन अपने आप में अलग से एक विस्तृत चर्चा का विषय है, लेकिन ऐसे देशों की अगली पंक्ति में, निश्चय ही, भारत का भी स्थान है। विश्व पूँजीवाद के ख़िलाफ़ असन्तोष तो पूरी दुनिया में, यहाँ तक कि विकसित देशों की जनता में भी सुलग रहा है, लेकिन दबाव सबसे अधिक पिछड़े और ग़रीब देशों पर है। ये ही देश आज भी साम्राज्यवाद की कमज़ोर कड़ी हैं और दुनिया को बदलने वाले भावी विस्फ़ोटों की ज़मीन भी ऐसे देशों में तैयार हो रही है जहाँ लूटने और एकाधिकार जमाने के लिए प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा, श्रम-सम्पदा और बौद्धिक सम्पदा है।

भारत एक ऐसा ही देश है जहाँ उदारीकरण-निजीकरण के दौर ने पूँजीवाद की सारी बुराइयों और आपदाओं को एकदम नग्नतम और वीभत्सतम रूप में उजागर कर दिया है। पूँजीवादी विकास का रास्ता आधी सदी बाद एक अन्धी सुरंग के छोर पर जा पहुँचा है। आम जनता के दुखों और ग़रीबी के सागर में समृद्धि के टापुओं पर विलासिता की मीनारें गगनचुम्बी होती जा रही हैं। कारों, मोटरसाइकिलों, फ्र‍िजों, एयरकण्डीशनरों और तमाम विलासिता के सामानों से बाज़ार पटते जा रहे हैं। दूसरी ओर, भूख और कुपोषण से मौतें हो रही हैं। दवा-इलाज की बुनियादी सुविधाएँ भी आम लोगों को नसीब नहीं। देश की आबादी का पाँचवाँ हिस्सा बेरोज़गारी और अर्द्धर्बेरोज़गारी का शिकार है। हर वर्ष पूँजी की मार से त्रस्त करोड़ों छोटे-मँझोले किसान अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर उजरती ग़ुलामों की क़तार में शामिल हो रहे हैं। मज़दूरों को पाशविक स्थितियों में बारह-बारह घण्टे खटने के बाद भी परिवार का पेट भरने लायक़ दिहाड़ी नहीं मिलती। 95 प्रतिशत से भी अधिक शहरी देहाती मज़दूर दिहाड़ी या ठेके पर या अस्थायी मज़दूर के रूप में खटते हैं। पहले संगठित संघर्षों से जो भी हक़ उन्होंने हासिल किये थे, एक-एक करके उनका अस्सी प्रतिशत हिस्सा छीना जा चुका है। अफ़सरों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और ऊँचे ओहदों वाले कुछ बुद्धिजीवियों को छोड़कर आम मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा भी महँगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त है। उच्च शिक्षा और तकनीकी-व्यावसायिक शिक्षा के दरवाज़े तो आम घरों के नौजवानों के लिए लगभग बन्द हो चुके हैं। फ़ीसें बढ़ाने, सीटें घटाने और शिक्षा संस्थानों को पूँजीपति घरानों को सौंपते जाने का सिलसिला लगातार जारी है। प्राथमिक-माध्यमिक स्तर पर अमीर–ग़रीब के बीच का बँटवारा इतना तीखा पहले कभी नहीं था।

ये हालात जिन आर्थिक नीतियों के परिणाम हैं, उन पर शासक वर्गों की सभी पार्टियों की आम सहमति हैं। विरोध का ज़ुबानी जमाख़र्च करती हुई चुनावी वामपन्थी पार्टियाँ भी, इसी रास्ते की राही बन चुकी हैं। दरअसल, समाजवाद के मुखौटे की अब कोई गुंजाइश ही नहीं है। भारत के पूँजीपति वर्ग ने और अधिक मुनाफ़ा निचोड़ने के वास्ते पूँजी और तकनोलॉजी के लिए साम्राज्यवादियों के आगे घुटने टेक दिये हैं और पूरे देश को साम्राज्यवादी लूट का खुला चरागाह बना दिया है। यही आर्थिक नवउपनिवेशवाद का सारतत्व है। इसी अर्थनीति के अनुरूप पूँजीवादी राजनीति ने भी रूप बदला है। पूँजीवादी जनवाद का सारतत्व – पूँजीपति वर्ग की तानाशाही – एकदम सामने आता जा रहा है। एक के बाद एक काले क़ानून बनाकर जनता के रहे-सहे अधिकारों को हड़पा जा चुका है। राज्यसत्ता एक नग्न आतंकवादी मशीनरी का रूप लेती जा रही है। पूँजीवाद के चतुर्दिक संकट और पूँजीपति वर्ग के ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश दमनकारी होते जाने की ही एक प्रातिनिधिक अभिव्यक्ति भारत में (और पूरी दुनिया में भी) फ़ासीवादी उभार के रूप में सामने आ रही है।

आज एक सुधरे हुए, “शरीफ़” पूँजीवाद की उम्मीद महज़ आकाश-कुसुम की अभिलाषा ही हो सकती है। इतिहास की गति को पीछे नहीं मोड़ा जा सकता। अतीत में समाधान या विकल्प की खोज व्यर्थ है। विकल्प की तलाश, आगे भविष्य की ओर देखते हुए की जानी चाहिए। दुनिया को आज “बेहतर” पूँजीवाद नहीं, बल्कि पूँजीवाद का विकल्प चाहिए। आज की दुनिया की केन्द्रीय समस्या यह है कि पूँजीवाद अपनी विलम्बित आयु जी रहा है। समस्या यह है कि जिसे इतिहास की कूड़ेदानी में होना चाहिए, वह हमारी छाती पर सवार बैठा है। समस्या सिर्फ़ एक है और रास्ता भी एक ही है। मानवता को आज पूँजीवादी राज, समाज और संस्कृति का विकल्प चाहिए।

और हम यह ज़ोर देकर कहना चाहते हैं कि विज्ञान और मानव-चेतना की हज़ारों वर्षों की महती प्रगति के बाद, प्रकृति और मनुष्य को मुनाफ़े की हवस से तबाह करती और युद्ध, विनाश एवं भुखमरी का कहर बरपा करती एक मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था मानव इतिहास की आख़िरी मंज़िल नहीं है। यह इतिहास का अन्त नहीं है। समाजवाद की पराजय के हवाले दे-देकर पूँजीवाद के भाड़े के टट्टू लोगों को यह विश्वास दिलाने की लगातार कोशिश करते हैं कि कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं। लेकिन जो लूट की चक्की में पिस रहे हैं, जिनके सामने कोई रास्ता नहीं, जो देखते हैं कि काम करने वाली भारी आबादी की हडि्डयों से मुट्ठीभर लोगों के लिए स्वर्ग की सीढ़ियाँ तैयार की जाती हैं, जो देखते हैं कि सारी प्राकृतिक सम्पदा और मानवीय क्षमता की मौजूदगी के बावजूद मुनाफ़े के लिए उत्पादन के नियम, और उत्पादन के सभी साधनों पर थोड़े से लोगों की निजी इज़ारेदारी के कारण, बहुसंख्यक लोगों का जीना मुहाल है, वे चुप नहीं बैठेंगे। वे सामूहिक आत्महत्या नहीं करेंगे। वे पशु नहीं बन जायेंगे। वे छिटपुट विद्रोहों के द्वारा यह साबित भी कर रहे हैं। उनका अगला क़दम होगा योजनाबद्ध ढंग से, सुविचारित क्रान्ति की राह निकालना और नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना।

बीसवीं शताब्दी की समाजवादी क्रान्तियों ने पूँजीवाद का विकल्प प्रस्तुत भी किया था। वे प्रारम्भिक प्रयोग थीं। उनकी पराजय कोई अप्रत्याशित नहीं थी। उन्हें प्रारम्भिक प्रयोगों की विफलता मात्र ही माना जा सकता है। अतीत में भी ऐसा हुआ है कि क्रान्तियों के प्रथम चक्र विफल हुए हैं। जड़ता की शक्तियों पर प्रगति की शक्तियाँ पहले ही चक्र में विजयी नहीं होतीं। बीसवीं शताब्दी की महान क्रान्तियों के प्रयोगों से सबक़ लेकर और पूँजीवाद के नये तौर–तरीक़ों-तरक़ीबों-तिकड़मों का अध्ययन करके इस सदी में नयी क्रान्तियों की राह निकाली जायेगी। और जैसा कि हमने ऊपर कहा है, भारत इस सदी की नयी क्रान्ति की एक सम्भावनासम्पन्न प्रयोग-भूमि है। अब ज़रूरत है उन साहसी प्रयोगकर्ताओं की, जो समाज को बदलने के विज्ञान को जनता को जागृत और संगठित करने का उपकरण बनायेंगे, जो जीवन को बदलने का हथियार जीवन की जानकारी से गढ़ेंगे।

ज़रूरत है ऐसे बहादुर, विचारसम्पन्न नौजवानों की, जो इस काम को अंजाम देने के लिए आगे आयें। यह तो सभी महसूस करते हैं कि उनके माँ-बाप को उनकी ज़रूरत है। जो लोग यह महसूस करते हैं कि समाज को उनकी ज़रूरत है, वे ही इतिहास बदलने के औज़ार गढ़ते हैं और परिवर्तनकामी जनता के हिरावल बनते हैं। आज एक बार फ़िर सब कुछ नये सिरे से शुरू करना है और इसके लिए कोई मसीहा धरती पर नहीं आयेगा। बदलाव की तैयारी आम जनता के कुछ बहादुर युवा सपूत ही शुरू करेंगे। ऐसे ही लोग सच्चे युवा हैं। उनकी संख्या ही बहुसंख्या है। पर अभी वे निराशा या ‘क्या करें क्या न करें’ की दुविधाग्रस्त मानसिकता से ग्रस्त हैं। सही है, कि हार के समय थोड़ी निराशा आ जाती है। लेकिन कब तक मेरे भाई? अब तो उबरने का समय आ चुका है? इसके संकेतों को पहचानने की कोशिश तो करो! क्या हज़ार ऐसे कारण नहीं है कि हम विद्रोह करें और क्या इनमें से चन्द एक ही काफ़ी नहीं हैं कि हम अपनी तैयारी अभी से शुरू कर दें? क्या एकमात्र रास्ता यही नहीं बचा है कि हम अन्याय के विरुद्ध लड़ें और छिटपुट न लड़ें बल्कि अपनी लड़ाई को सामाजिक क्रान्ति की सीढ़ियाँ बना दें।

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता से कुछ पंक्तियाँ उधार लेकर हम इस देश की आम जनता के सभी बहादुर, इन्साफ़पसन्द, स्वाभिमानी, संवेदनशील स्वप्नद्रष्टा नौजवान बेटे-बेटियों से पूछना चाहते हैं:

किस चीज़ का इन्तज़ार है?

और कब तक?

दुनिया को तुम्हारी ज़रूरत है।

‘आह्वान कैंपस टाइम्‍स’, जनवरी-मार्च 2003

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