मोदी की जापान यात्रा के निहितार्थ
श्वेता
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठित भाजपा सरकार के तीन महीने पूरे हो चुके हैं। इस दौरान मोदी ने भारतीय पूँजीपतियों के अलग-अलग प्रतिनिधिमण्डलों को साथ लेकर विदेशी बाज़ारों की तलाश और भारत में विदेशी पूँजी के नये अवसरों की खोज करने के मक़सद से दुनिया के अलग-अलग मुल्कों का दौरा किया। भूटान और नेपाल के बाद मोदी की पाँच दिवसीय जापान यात्रा को इसी कड़ी में देखा जा सकता है। इस यात्रा के दौरान अदानी, मित्तल, बिरला, चन्दा कोचर, गोदरेज़, अज़ीम प्रेमजी, किरण मजूमदार शॉ जैसे बड़े पूँजीपतियों (मोदी के शब्दों में ‘हैवीवेट्स’) का दल उनके साथ गया था। यात्रा के अन्तिम चरण में मोदी ने अपने इन ‘हैवीवेट्स’ से अपने प्रदर्शन की प्रतिक्रिया भी माँगी। जैसे एक मुलाज़िम अपने मालिक से अपने प्रदर्शन के बारे में ‘फीडबैक’ लेता है ठीक उसी तरह मोदी ने पूँजीपतियों के प्रतिनिधिमण्डल से ‘फीडबैक’ माँगा कि कहीं उनकी चाकरी बजाने में कोई भूल-चूक तो नहीं हो गयी!
15 अगस्त को लाल किले से दिये गये अपने भाषण में मोदी ने भारत को एक “मैन्युफैक्चरिंग हब” बनाने के सब्ज़बाग दिखाये थे और दुनिया भर के साम्राज्यवादियों को भारत में पूँजी निवेश करने के लिए पलक-पाँवड़े बिछाते हुए कहा था कि ‘कम मेक इन इण्डिया’ (आओ भारत में बनाओ)! मोदी की जापान यात्रा को इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है। जापानी साम्राज्यवादियों को लुभाने के लिए अपनी यात्रा के दौरान मोदी ने अपने चिर-परिचित अन्दाज़़ में सस्ती जुमलेबाज़ियों का जमकर सहारा लिया। उन्होंने जापानियों का स्वागत ‘लाल फीते की जगह लाल कालीन’ से करने की बात की और ‘फे़वीकोल से भी अधिक मजबूत जोड़’ बनाने के जुमले को उछाला। पाँच दिवसीय यात्रा के दौरान भारत और जापान के बीच हुए समझौते के तहत जापान अगले पाँच वर्षों में भारत के निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में 35 अरब डॉलर का निवेश करेगा। जहाँ एक ओर 100 स्मार्ट सिटी बनाने, बुलेट ट्रेन दौड़ाने, गंगा सफ़ाई जैसी परियोजनाओं में भारत को भारी पूँजी निवेश की दरकार है वहीं दूसरी ओर आर्थिक संकट के भँवर में फँसे जापानी साम्राज्यवादी भारत में पूँजी निवेश करके अतिलाभ निचोड़ने के लिए लार टपका रहे हैं। दोनों देशों के पूँजीपति वर्गों के हितों के इसी मेल की वजह से मोदी और जापानी प्रधानमन्त्री शिंज़ो एबे ने एक-दूसरे की तारीफ़ों के पुल बाँधे। एबे ने प्रोटोकॉल तोड़ते हुए मोदी को हवाई अड्डे पर ख़ुद जाकर रिसीव किया और मोदी से हाथ मिलाने की जगह उनको गले लगाया। मोदी ने साक्षात दण्डवत होकर जापानी साम्राज्यवादियों को भरोसा दिलाया कि जापानी पूँजी निवेश के रास्ते में आने वाली सारी बाधाओं को किनारे कर दिया गया है। यही नहीं मोदी ने प्रधानमन्त्री कार्यालय में ‘जापान प्लस’ नामक प्रकोष्ठ खोलने की भी घोषणा कर दी जिसके ज़रिये जापानी सम्राज्यवादियों को पूँजी निवेश में आने वाली दिक्कतों का पलक झपकते ही समाधान हो जायेगा।
ग़ौरतलब है कि जापानी कम्पनियाँ व उनकी प्रबन्धन प्रणाली मज़दूरों की हड्डियों को बेरहमी से निचोड़ने के लिए कुख़्यात हैं। पिछले कुछ वर्षों में होण्डा, मारुति सुज़ुकी जैसी जापानी कम्पनियों के हड़ताली मज़दूरों व उनके संघर्षों का बर्बर दमन करके भारत सरकार ने जापानी साम्राज्यवादियों के हितों की बख़ूबी सेवा की है। आने वाले समय में भारत सरकार और अधिक तत्परता के साथ इस सेवा को जारी रखेगी, इसी का भरोसा मोदी ने अपनी यात्रा के दौरान जापानी साम्राज्यवादियों को दिलाया है। इसकी पूर्वपीठिका श्रम क़ानूनों के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करके मोदी सरकार पहले ही तैयार कर चुकी है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सस्ती दरों पर कच्चा माल व ज़मीनें मुहैया कराने की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से की जा रही हैं। ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि जापानी दिये गये क़र्ज़ो पर बड़ी सख़्ती से ब्याज वसूलते हैं। भविष्य में इस ब्याज की अदायगी करों में बढ़ोतरी व मँहगे होते रोज़़मर्रा के सामानों के रूप में आम मेहनतकश जनता की जेब से ही की जायेगी।
मोदी की जापान यात्रा का एक सामरिक पहलू भी है जो महत्त्वपूर्ण है। दक्षिण एशिया में भारतीय पूँजीपति वर्ग की क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्त्वकांक्षाएँ भी हैं और चीन का इस क्षेत्र में बढ़ता प्रभाव उसके लिए चिन्ता का विषय है। चीन ने श्रीलंका में बन्दरगाहों, एक्सप्रेस-वे व अन्य निर्माण परियोजनाओं में भारी पूँजी निवेश किया है। इसके अलावा चीन ने बंगलादेश में बन्दरगाहों, पाकिस्तान में ग्वादार बन्दरगाह, नेपाल में पनबिजली परियोजनाओं, तिब्बत से नेपाल-भूटान की सीमा तक रेलवे लाइन के निर्माण व म्यांमार में 1200 मील लम्बी तेल-गैस पाइपलाइन बिछाने में पूँजी लगायी है। दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव को प्रतिसन्तुलित करने के मक़सद से ही अभी हाल ही में भारत ने भूटान में 10,000 मेगावाट की पनबिजली परियोजना ओैर नेपाल में जलबिजली परियोजनाओं, परिवहन व संचार के क्षेत्र में पूँजी निवेश की योजनाओं को अमल में लाया है। मोदी की जापान यात्रा चीन के बढ़ते क्षेत्रीय प्रभाव को नियंत्रित करने से भी जुड़ी हुई है। साथ ही जापानी साम्राज्यवादी भी एशिया में चीन के बढ़ते प्रभुत्व से भयाक्रान्त हैं। चीन दक्षिणी चीन सागर के 80 प्रतिशत से भी अधिक क्षेत्र पर अपना दावा ठोंक रहा है जो व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जलमार्ग है। भारत-जापान के बीच सामरिक साझेदारी हिन्द-प्रशान्त क्षेत्र में चीन के दबदबे को चुनौती देगी। एशिया में चीन की व्यापारिक एवं सामरिक शक्ति को प्रतिसन्तुलित करते हुए नये शक्ति सन्तुलन की धुरी निर्मित करना भारत और जापान दोनों देशों के पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत है। लेकिन साथ ही भारत चीनी सामाजिक फासीवादी शासकों के साथ समझौते कर रहा है। सही कहें तो फासीवादी मोदी को भारत को ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ बनाने में चीनी सामाजिक फासीवादियों से सीखने का ज़्यादा मिलेगा। आज वास्तव में दुनिया भर के फासीवादी और साम्राज्यवादी चीनी संशोधनवादियों और सामाजिक फासीवादियों द्वारा मज़दूरों के दमन और उन पर नियन्त्रण क़ायम रखने के मॉडल को ईर्ष्या और प्रशंसा के मिले-जुले भाव के साथ देखते हैं! भारत भी अपनी आर्थिक कुशलता और सफलता के लिए चीन को ही एक पैमाने के रूप में देखता है। लेकिन जापान के साथ भारत के रिश्ते अलग हैं। उसे जापानी पूँजी-निवेश की आवश्यकता है।
भारत और जापान के बीच पारस्परिक सम्बन्धों को “विशेष” सामरिक व वैश्विक साझेदारी के स्तर तक ले जाना दोनों पूँजीवादी देशों की इसी ज़रूरत को दर्शाता है। इसके तहत जापान ने हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड समेत 6 भारतीय प्रतिष्ठानों पर से 1998 के पोखरण नाभिकीय परीक्षण के बाद से लगा प्रतिबन्ध हटा लिया है। साथ ही इस सामरिक साझेदारी के तहत जापान भारतीय नौसेना को पानी व हवा दोनों में काम करने वाले 6 मार्क 2 (यूएस 2) जल-नभ (एंफीबियन) विमान व उससे सम्बन्धित प्रौद्योगिकी देने के लिए राज़ी हुआ है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह जापान द्वारा किसी भी देश के साथ किया गया पहला सामरिक सौदा होगा। जापान ने भारत के लिए रक्षा उपकरणों की बिक्री व प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण के नियमों को काफी लचीला कर दिया है।
क्षेत्रीय पैमाने पर जहाँ एक ओर भारत चीन से होड़ करता दिखायी पड़ता है वहीं दूसरी ओर विश्व के पैमाने पर अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे रहे ‘ब्रिक्स’ के मोर्चे पर वह चीन के साथ भी नज़र आता है। विश्वबैंक व आईएमएफ के समान्तर ‘ब्रिक्स’ द्वारा एक नये विकास बैंक के निर्माण का मक़सद विश्व व्यापार में अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देना है। भारतीय पूँजीपति वर्ग अपने क्षेत्रीय व अन्तरराष्ट्रीय हितों के बीच बेहद चालाकी से सामंजस्य स्थापित कर रहा है। वह अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा व नये वैश्विक ध्रुवीकरणों का लाभ उठाते हुए अपने लिए अधिकाधिक अनुकूल विकल्पों का निर्माण व विस्तार कर रहा है। एशिया के अलग-अलग देशों के दौरे व आस्ट्रेलिया से यूरेनियम सौदे व अन्य व्यापारिक समझौतों के ज़रिये भारत अपने तमाम व्यापारिक साझीदार मुल्कों से आसानी से मोल-तोल करने के रास्ते खोल रहा है।
बहरहाल, इन यात्राओं के दौरान होने वाले व्यापारिक समझौतों का लाभ तो देश के पूँजीपति वर्ग और मुट्ठीभर मध्यवर्गीय तबके तक ही सीमित रहने वाला है। मेहनतकशों और मज़दूर वर्ग के लिए तो इसका एक ही परिणाम निकलने वाला है कि उन्हें और अधिक पाशविक हालातों में अपना जांगर खटाना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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